दिलीप तेतरवे की कविताएँ
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो रात का खिलौना
और दिन का
होता है चाकर
जिसका कोई पता नहीं होता
पर जो लापता भी नहीं होता
जिसका कोई परिचय नहीं होता
पर जिसका परिचय
बड़े बड़े लोग
बनाते और बिगाड़ते रहते हैं
और जो
हर नए परिचय में
ढल जाता है
और मरने से पहले जो
अपने सारे
परिचयों से
मुक्त हो जाता है
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
2.
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जिसकी जांघों पर
असमय
जबरन
अनेक लाल फूल
खिला दिए जाते हैं
और जो आदमी
समझ भी नहीं पाता
अचानक उग आये फूलों को
और जब वह
उन्हें समझ पाता है
उससे समझने का अधिकार ही
छीन लिया जाता है
और जिसकी आत्मा पर
महात्मागण
करते हैं योग
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
3.
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जिसके सपनों के ऊपर
लोग अपने सपने जड़ देते हैं
और जिसके रोते हांफते ह्रदय पर
लोग घाव बना देते हैं
और उस पर नमक
छिड़क देते हैं
और जिसकी दुखती रगों पर
लोग छेड़-छाड़ करने से
कभी बाज नहीं आते हैं
और जिसे लोग
अपना काम पूरा होते ही
एक झटके में
बाहर का रास्ता दिखा देते हैं
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
निराशा के पद
1.
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो यह हिसाब नहीं रख पाता कि
कितनी बार उसकी साँसें फूलीं
कितनी बार उसकी आत्मा चीखी
कितनी बार उसका दिल दरका
कितनी बार उसके प्राण
कंठ में अंटके
और जिसे लोग परदे में
बेपर्दा करते हैं
और खुले में
कानी आँख से भी नहीं देखते
और जो
अपनी छोटी सी जिन्दगी में
अनेक बार मौत से सामना करते हुए
मिट्टी में मिल जाता है
और जिसकी मिट्टी पर
किसी के आंसू नहीं गिरते
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
2.
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो माँगता रहा है
जन्म के बाद से ही
रोटी या मौत
और जो
इन दोनों के लिए
धारण करता रहा है
असीम/आश्चर्यजनक सहनशीलता
किन्तु
अब जो चल पड़ा है
आकाश को पृथ्वी पर लाने
उसके अहंकार को/धोने/सुखाने/मिटाने
और जो बनाने जा रहा है
अब रोटी को
सब का अधिकार
और मौत को प्राकृतिक
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
3.
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो निर्दोष
हमेशा ढोता रहा है
आरोपों का पहाड़
घाघ अपराधियों के द्वारा
बनाया गया/आरोपों का पहाड़
और जो अब
आरोपों के पहाड़ को ख़ारिज कर
जा रहा है बनाने
आरोप-प्रत्यारोप से मुक्त संसार
और जो तोड़ रहा है/वह परम्परा
जिसमें/एक चोर
दूसरे चोर को
बताता रहा है डाकू
और जो सारे चोरों के लिए
बना रहा है सुधार-गृह
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
आशा के पद
1.
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो दूसरों की कथित दया पर
कथित दानवीरता पर
रहता रहा है निर्भर
किन्तु जो अब
स्व-रचित शब्द-कोश में
दया और दान के
उचित और सात्विक अर्थ को
जा रहा है अंकित करने
और जो
समस्त छलने वाले शब्दों के
अर्थ और उद्देश्य को
तर्क और कर्म का
देने जा रहा है आधार
और जो/सम्पूर्ण भ्रष्ट-शब्द-कोश का
करने जा रहा है संपादन
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
2.
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो बुनता है
सब के लिए कपड़े
और किया जाता रहा है मजबूर
निवस्त्र रहने के लिए
लेकिन
जिसने अब
बुनकरों के लिए
उनके तन ढंकने लिए
कपड़ा बुनना
सिलना
कर दिया है प्रारंभ
और जो
पुरानी वस्त्र-परंपरा को
अपनी वस्त्र-क्रांति से
कर रहा है समाप्त
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
3.
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जिसे अब तक/कंगाल/असंस्कृत/अछूत
उचक्का/चोर आदि शब्दों से
किया जाता रहा है संबोधित
किन्तु अब जो
मंगल-दीप बन कर
है जल रहा
और कर रहा है
चिंतन-संशोधन
ऐसे शब्द-संबोधन करने वालों का.....
और जो कर रहा है दूर
समाज का मानसिक रोग
उसकी जड़ता/निष्ठुरता/कामुकता
बना कर हृदय-हृदय को संवेदनशील
और जो है जगा रहा
सुप्त-मन को
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
4.
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जिसे बचपन में ही
चल गया था पता कि
उसे बचपन में ही हो जाना है बड़ा
ताकि वह/चुका सके
अपनी जिंदगी की कीमत
रोज पिस कर/रोज लुट कर
रोज मर कर
किन्तु जो अब/निकल पड़ा है
हर झुग्गी में
दीप जलाने/लक्ष्मी बुलाने
रंगोली रचने
अन्न का थाल सजाने
सूखे होठों पर/लालिमा बिखेरने
और जो पहचान से वंचित हैं
उनको पहचान दिलाने
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
5.
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जिससे लोग
बदलते रहते हैं रिश्ते
दिन में कुछ और
रात में कुछ और
लेकिन जो/अब अपना रिश्ता
पूरी दुनिया से
बना रहा है
बराबरी पर
और जिसके रिश्ते की बुनियाद का
सदियों बाद
आयी है मानवता
करने स्वागत
और जो हर लावारिस के जनक को
जा रहा है करने खड़ा
समाज में
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
6.
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो तपते-तपते
वाष्पिभूत हो गया
बादल बन गया
और उस बादल में अमृत भर गया
और अब वही अमृतमय बादल
निकल पड़ा है
दलितों, शोषितों और पीड़ितों पर
अमृत बरसाने
और जो
गरज-गरज कर
गा रहा है जागरण का गीत
और जिसका साथ दे रहे हैं/हजारों कंठ
और जिसके साथ
अलमस्त है/झूम रहा है
आबादी का अस्सी प्रतिशत
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
7.
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जिस पर रहा है समय
सदा प्रभावी/सदा शासक
घड़ी की हर टिक-टिक
जिसकी धड़कनों को
करती रही है और तेज और तेज
लेकिन/जिसने अब
पकड़ ली है वह गति
जो बहुत अधिक है/समय की गति से
और जो पाट रहा है हजारों साल का अंतराल
जिन हजारों साल में/हाशिए के आदमी
जकड़ दिए गए थे
अधार्मिक बंधनों में
निबंधित गरीबी और जिल्लत में
और जो अब
समाज को मुक्त करने जा रहा है
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
8.
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
जो है
बिल्लियों के उस समाज का
एक चूहा
जिस समाज में/चूहे की मौत होती है
तो बिल्लियों का खेल होता है
लेकिन वही चूहा
अब लोहे के जाल को काट कर
अधिकार युक्त आदमी बन कर
चल पड़ा है
बिल्लियों को आदमी बनाने
उनकी उग्रता मिटाने
उनकी हिंसा मिटाने
उनकी नीचता मिटाने
और जो बिल्लियों को बताने चला है
कि चूहा भी क्रांति कर सकता है
यह हाशिए के उसी आदमी की कविता है
(कवि-परिचय-
जन्म: 5 फ़रवरी 1951
शिक्षा :
सृजन: रचनाएं: कहानी, नाटक, धारावाहिक नाटक, व्यंग्य आलेख, कविता, बाल कहानियां, बाल नाटक आदि विभिन्न पत्र प्रत्रिकाओं में प्रकाशित/आकाशवाणी, दूरदर्शन और गीत और नाटक विभाग द्वारा प्रसारित. एक काल खंड की यात्रा(व्यंग्य उपन्यास), हाशिए का आदमी और तुम बादल हो (काव्य), बिरसा की महागाथा(नाटक), सिंगिदई की गाथा(गीत नाटिका), बिरसा की अमर कहानी (काव्य), हमारे पुरखे (ऐतिहासिक कहानी), धारावाहिक नाटक: मैडम शा के अफ़साने, मन की खिड़की और किलकारी, 1857 के शहीद नीलाम्बर और पीताम्बर पुस्तके प्रकाशित
अन्य : आईआईएम, रांची के शैक्षणिक फिल्म, ‘बेयर फुट मैनेजर’ के लिए स्क्रिप्ट लेखन,
पुरस्कार: झारखण्ड रत्न-2008(साहित्य)
संप्रति: रांची में रहकर अनवरत मासिक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन ।
संपर्क: diliptetarbe2009@gmail.com)