बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

दंतेवाड़ा के दौर में














अदनान कफ़ील की क़लम से


 दूर क्षितिज के पार

उदित हुआ है अंतर्मन में सहसा एक विचार
सोच रहा हूँ कुछ तो होगा, दूर क्षितिज के पार
निर्मम धागों से अब तक है, गुथी हुई यह काया
भाग रहा हूँ कब से जाने, फिर भी हूँ भरमाया
समय पाश से बच न पाया, घोर अँधेरा छाया
चिंतन करता,मंथन करता,क्या खोया क्या पाया
अनुत्तरित प्रश्नों को तुझसे अब भी है दरकार
सोच रहा हूँ कुछ तो होगा दूर क्षितिज के पार.
छवि तो तेरी अब भी है, अंतर्मन की गहराई में
मसल गयीं हैं खिलने से पहले कलियाँ अमराई में
दुनिया से बेग़ाने बच्चे खेल रहे मैदानों में
ख़ुद भी यूँ ही दिख जाता हूँ चेहरे से अनजानों में
जीवन मदिरा जिसने पी ली, क्यूँ जाता मैख़ानों में
टीस मारती अब भी बातें, मन के विस्तृत वीरानों में
नहीं कोई है सच्चा प्रेमी, नहीं कोई है यार
सोच रहा हूँ कुछ तो होगा, दूर क्षितिज के पार.
 स्मृतियाँ

इक भींनी ख़ुश्बू यादों की, अंतर में घुसती जाती है
उषा की मोहक लाली-सी, मन-नभ पे छिटती जाती है.
इक शून्य व्याप्त हो जाता है, मन मानों पर पा जाता है
गुज़रे लम्हों के जंगल में, मानो खोता-सा जाता है.
मन विकल-विकल हो जाता है, वह क्षण ज्वलंत हो जाता है
स्मृतियाँ कोमल स्वप्नों-सी, नयनों में बंधती जाती हैं.
अम्मा! अम्मा! चिल्लाता है, लय टूट-टूट भर्राता है
वह स्वर अनंत तक जाता है,' औ फिर थक के गिर जाता है.


 मेरी उदासी

तुम फुर्सत के क्षणों में मेरे आस-पास हो
मैं जब भी यादों के फूल चुनता हूँ
तुम ख़ुश्बू बन कर घुल जाती हो.
जब भी कोहरे से ढकी राहों पर
अकेला चलता हूँ
तुम्हें अपनी लड़खड़ाहटों में
महसूस करता हूँ.
जब भी किसी पत्थर पर बैठ कर
अपनी धड़कनों को सुनता हूँ
तुम कानों में कोई
निराशा का गीत
गुनगुना जाती हो.
मैं हमेशा तुमसे दूर भागता हूँ
पर तुम सामने प्रकट हो
मानो
मेरी खिल्ली उड़ाती हो.
आखिर तुम मुझसे
इतनी आसक्त क्यूँ हो ?
जो तुम मेरी
कलम की स्याही तक में घुल गयी ?
ऐ मेरी उदासी-
जवाब दो !

बर्बरता और ईसा

प्रिये !
आज ये हृदय
अति व्याकुल है
'औ सदियों से खड़ी
ये हांड-मांस की प्रतिमा
जर्जर हो चुकी है
संसृति की इस
बर्बरता से.
प्रिय ! मेरा रक्त
जो शायद अब भी लाल है
रिस रहा है
संभवतः
मुक्ति की अभिलाषा में .
पैबंद लगे मेरे वस्त्रों से
सड़े मांस की
बू आती है
और नीच भेड़िये
मेरा रक्त पी रहे हैं.
क्या इस दंतेवाड़ा के दौर में
मेरा अस्तित्व संभव है?
और कितनी सदियों तक
मैं आहार बनता रहूँगा
इन वहशी दरिंदों का ?
और आख़िर कब तक
मरियम जनती रहेगी
एक नए ईसा को ?
कब तब
कील ठोंके जायेंगे
मेरे इस वजूद में ?
कब तक ?
आखिर कब तक ?
लेकिन शायद
ये इस बात से अनभिज्ञ हैं
कि मेरी
उत्कट जिजीविषा
और मेरे
बाग़ी तेवर
कभी ठन्डे नहीं पड़ सकते.
यूँ ही ईसा
पैदा होता रहेगा
चाहे हर बार उसे
सूली ही क्यूँ न चढ़ना पड़े.

आवाज़
  
मैं तो आवाज़ था,
गूंजता ही रहा,
तुम दबाते रहे ,
हर घड़ी टेटुआ,
तुम सताते रहे ,
पर मिटा न सके,
मैं निकलता रहा ,
इक अमिट स्रोत से,
तेरी हर चोट पे.
तुम कुचलते रहे ,
मैं उभरता रहा,
तुम सितम पे सितम ,
मुझपे ढाते रहे,
लब को सिलते रहे,
अश्क ढलते रहे.
मैं बदलता रहा ,
हर घड़ी रूप को,
तुम तो अनपढ़ रहे ,
मुझको पढ़ न सके,
मेरी चुप्पी में भी ,
एक हुंकार थी ,
मुझमें वो आग थी ,
जो जला देती है,
नींव ऊँचे महल की ,
हिला देती है,
मुझमें वो राग है ,
मुझमें वो साज़ है,
जो जगा देती है ,
इक नया हौसला,
और बना देती है,
इक बड़ा क़ाफ़िला,
एक स्वर ही तो हूँ ,
देखने में मगर,
पर अजब चीज़ हूँ ,
तुम समझ न सके.

माफ़ करना
  
ऐ उर्वशी !!
आज तुम मेरी आँखों में
न देखो
और न मुझसे अपनी मासूम
स्वप्नों की दुनिया में
प्रविष्ट होने का आग्रह
करो.
और न मुझसे
किसी गीत की आशा रखो.

तुम सोच रही होगी
आज मुझे ये क्या हो गया ?
हाँ, मुझे कुछ हो-सा गया है
आज मेरे सुर खो गए हैं
मेरे साज़ भग्न हैं
जहाँ मेरे स्वप्नों की बस्ती थी
वहां अब बस राख
और धुआं है.
मेरी आँखों में विभीषिका के
मंज़र हैं
मत देखो मेरी तरफ
शायद डर जाओगी
इन स्थिर नयनों में
डरावने दृश्य अंकित हैं-
कोई स्त्री चीत्कार और
रोदन कर रही है
तो कोई बच्चा भूख से व्याकुल
स्थिर तर नयनों से
न जाने क्या सोच रहा है ?
जहाँ कोई तथाकथित रक्षक
भक्षक का नंगा भेस लिए
अपने शिकार की टोह में
घूम  रहा है.
तुम इन आँखों में
निरीह बेचारों को भी
देख सकती हो
जो एक मकड़-जाल में
उलझे
सहायता की गुहार
लगा रहे हैं.
यहाँ तुम उन मासूमों को भी
पाओगी जिन्हें
हक के बदले गोली देकर
हमेशा के लिए
सुला दिया गया
या कारे की तारीकियों में
फेंक दिया गया
असभ्य और जंगली कह कर.
तुम यहाँ उन बेबस माओं
को भी देख सकती हो
जिनके बेक़सूर चिरागों को
दहशतगर्द कह कर
हमेशा के लिए बुझा दिया गया.
तुम कुछ ऐसे भी दृश्य
देख सकती हो जो
अत्यंत धुधले हो चुके हैं
शायद उनपर समय की
गर्द बैठ गयी है.
क्या गीता,कुरान और
गुरु-ग्रन्थ की आयतें
नष्ट हो गयीं ?
क्या बुद्ध की शिक्षाएं
अपने अर्थ खो चुकीं ?
मालूम होता है उन्हें
दीमकों ने चाट लिया है
फिर बचा ही क्या है
यहाँ ?
मैं नहीं जानता
कहो प्रिये !
मैं कैसे इस कड़वे यथार्थ को
भूल कर
स्वप्नों में विचरण करूँ ?
कैसे प्रणय के गीत रचूं ?

अंतिम फैसला

हमारी मेहनत हमारे गहने हैं,
हम अपना श्रम बेचते हैं,
अपनी आत्मा नहीं,
और तुम क्या लगा पाओगे हमारी कीमत?
तुम हमें अपना हक़ नहीं देते,
क्योंकि तुम डरते हो,
तुम डरते हो हम निहत्थों से,
तुम मुफ्त खाने वाले हो,
तुम हमें लाठी और,
बन्दूक की नोक पे,
रखते हो-
लेकिन याद रक्खो,
हम अगर असलहे उठायें,
तो हम दमन नहीं,
फैसला करेंगे.
  
अँधेरा और चिंगारी

मैं कुछ भी नहीं था
हाँ,शायद कुछ भी नहीं
मेरी बातें साफ़ और
सपाट थीं
बिलकुल बारिश से धुले
आकाश की तरह
जिन्हें तुम अतिबौद्धिक
दार्शनिक,उन्मादी,सनकी
न जाने क्या क्या नाम देते थे.
मेरा आक्रोश कोई
क्षणिक उत्तेजना,कत्तई नहीं थी
मैं तो उन वर्षों तक की
दबी,कुचली भावनाओं की
एक प्रतिध्वनि मात्र था
मैं तो भोर की ठंडी हवा
के एक झोंके की तरह था
एक नई सुबह की
एक हलकी-सी लकीर भर था
हाँ,मैं कोई रौशनी का चिराग
नहीं था
मैं तो एक चिंगारी मात्र था
जिसे अँधेरा हर वक़्त
खा जाने की जुगत में
लगा रहता है
लेकिन मुझे अपने तुच्छ
होने का
ज़रा भी दुःख नहीं था
क्योंकि मैं फिर भी
अँधेरे से लाख गुना
बेहतर था.
  

मौत के सौदागर
 

ऐ मौत के सौदागरों !
मैं तुम्हें खूब पहचानता हूँ
वो जो तुम्हारे तोपों,बमों और मिसाइलों
को देख कर
तालियाँ पीटते हैं उन्हें भी
खूब जानता हूँ
तुम्हारा ये घिनौना प्रदर्शन
मुझे अखरता है
क्योंकि मैं तुम्हारी खेंची लकीरों को
नहीं मानता
तुम्हारे बटवारे को नहीं मानता
तुम्हारे ओछे और निकृष्ट
राष्ट्रवाद को नहीं मानता
क्योंकि वो इंसानियत के खिलाफ है
सारी खराबियों की जड़ है
वो विध्वंसकारी है
हमें उनकी कोई दरकार नहीं
तुम रक्षक की खाल में
छिपे भेड़िये हो
वक़्त आने दो जनरल !
हम अपने परचम
तुम्हारे सीनों में गाड़ेंगे
और
तुम्हारे ये हथियार,गोले, बारूद
तुम्हारी कब्र में......



(कवि-परिचय:
 जन्म: ज़िला-बलिया, उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव में जुलाई  30, 1994
संप्रति: अभी दिल्ली विश्वविद्यालय से कंप्यूटर साइंस आनर्स में स्नातक की पढाई कर रहे
सृजन: बचपन से ही शायरी और कविता का शौक़, छिटपुट प्रकाशन 
संपर्क: thisadnan@gmail.com)


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3 comments: on " दंतेवाड़ा के दौर में"

Unknown ने कहा…

.... सोच रहा हूँ कुछ तो होगा, दूर क्षितिज के पार...मुझे अदनान नामक इस नौजवान में अनंत संभावनाओं का क्षितिज दिखाई दे रहा हे ... "सितारों से आगे जहाँ और भी हे .. ! मेरी दुआए !

Digamber ने कहा…

इतनी सारी कविताओं पर एक साथ राय देना ज़ल्दबाजी होगो. इतना ज़रूर है कि अदनान जैसा नया कवि जब कविता में तुक और लय साधता है तथा कथ्य की विविधता और गंभीरता को भी कायम रखता है तो काफी उम्मीद जगा देता है. रसहीन,सतही और गद्यात्मक कविता लिखनेवाले नवलेखन की भीड़ में इन कविताओं की अच्छी बात है इनकी रोचकता.

Unknown ने कहा…

अदनान मियाँ, बहुत खूब..! क्या कहने आपकी विचार-प्रक्रिया.. और आपका विषय-वस्तु चयन... निस्संदेह एक नया उम्दा उदीयमान विचारक दिखता है मुझे आपमे... ईश्वर आपको बढ़त दे..., और मौके दे..-- ---> चरस्तु

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हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

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