मुमताज़ नाज़ां की आठ ग़ज़ल
1.
हवा ए सर्द से चिंगारियां अक्सर निकाली हैं
मेरे महबूब की यारो अदाएं भी निराली हैं
चलो देखें हक़ीक़त रंग इन में कैसे भरती है
तसव्वर में हज़ारों हम ने तस्वीरें बना ली हैं
मोहब्बत का दफीना जाने किस जानिब है पोशीदा
हज़ारों बार हम ने दिल की जागीरें खंगाली हैं
कहाँ रक्खें इन्हें इस चोर क़िस्मत से बचा कर अब
गुज़रते वक़्त से दो चार जो ख़ुशियाँ चुरा ली हैं
परस्तिश आँधियों की अब हर इक सूरत ज़रूरी है
तमन्नाओं की फिर इक बार जो शम'एं जला ली हैं
हवा भी आ न पाए अब कभी इस ओर माज़ी की
कि अपने दिल के चारों सिम्त दीवारें उठा ली हैं
बड़ा चर्चा है रहमत का तो देखें अब अता क्या हो
मुक़द्दर साज़ के दर पर तमन्नाएं सवाली हैं
ज़रा सा चूक जाते हम तो ये हस्ती बिखर जाती
बड़े मोहतात हो कर हम ने ये किरचें संभाली हैं
उम्मीदें हम को बहलाती रहीं लेकिन यही सच है
अभी तक तार है दामन अभी तक हाथ खाली हैं
गिला 'मुमताज़ ' अब क्यूँ है कि फ़ितने सर उठाते हैं
जहाँ में हम ने ही नफरत की बुनियादें भी डाली हैं
2.
हवस हर लम्हा बढती जाती है अब ग़म फनाओं की
बहारों के लहू से प्यास बुझती है खिज़ाओं की
मेरी गुफ़्तार की क़ीमत चुकानी तो पड़ी मुझ को
खमोशी भी तो तेरी मुस्तहक़ ठहरी सज़ाओं की
कोई आवाज़ अब कानों में दाख़िल ही नहीं होती
समा 'अत अब तलक तालिब है तेरी ही सदाओं की
मुक़द्दर की ये तारीकी सफ़र ये तेरी यादों का
चमक उठती हैं राहें रौशनी से ज़ख़्मी पाओं की
मरज़ ये लादवा है, अब क़ज़ा के साथ जाएगा
मरीज़~ए~जिंदगी को अब ज़रुरत है दुआओं की
मैं हूँ मायूस राहों से तो राहें सर~ब~सजदा हैं
के मंजिल चूमती है धूल बढ़ के मेरे पाओं की
कड़कती धूप को हम ने किया है सायबाँ अपना
किसे होगी ज़रुरत ऐ शजर अब तेरी छाओं की
हमें 'मुमताज़ ' अब रास आ गई आखिर ये महरूमी
नज़र अब हम उतारा करते हैं अपनी बलाओं की
3.
मैं जीने का बहाना चाहती हूँ
तुम्हें तुम से चुराना चाहती हूँ
ज़रा यादो मुझे तनहा भी छोडो
मैं दो पल मुस्कराना चाहती हूँ
ये गर्दिश ही निभा पाई न मुझ से
मैं इस से भी निभाना चाहती हूँ
ये दौलत ज़िन्दगी की रायगाँ है
मैं अब इस को लुटाना चाहती हूँ
तराशी जाती है क़िस्मत मुझे
और मैं वो पैकर पुराना चाहती हूँ
बसा है काबा-ए-दिल में जो अब भी
वो बुत मैं अब गिराना चाहती हूँ
ज़रा कुछ ख्वाब तो तामीर कर लूं
मैं इक बस्ती बसाना चाहती हूँ
घडी भर की भी राहत के लिए मैं
हर इक क़ीमत चुकाना चाहती हूँ
हूँ वाकिफ तो सभी चालों से लेकिन
मैं तुम से मात खाना चाहती हूँ
मिटाती है मुझे क़िस्मत की रेखा
और इस को मैं मिटाना चाहती हूँ
जो बिखरी है अभी 'मुमताज़ ' हर सू
उसे महवर पे लाना चाहती हूँ
4.
मेरे महबूब, मेरे दोस्त, मेरी जान-ए-ग़ज़ल
दो क़दम राह-ए-मोहब्बत में मेरे साथ भी चल
दो घड़ी बैठ मेरे पास, कि मैं पढ़ लूँ ज़रा
तेरी पेशानी प् लिक्खा है मेरी ज़ीस्त का हल
एक उम्मीद प् उलझे हैं हर इक पेच से हम
हौसला खोल ही देगा कभी तक़दीर के बल
वक़्त की गर्द छुपा देती है हर एक निशाँ
संग पर खींची लकीरें रहें कितनी भी अटल
टूटे ख़्वाबों की ख़लिश जान भी ले लेती है
ख़्वाब दिखला के मुझे ऐ दिल-ए-बेताब न छल
जी नहीं पाता है इंसान कभी बरसों में
ज़िन्दगी करने को काफ़ी है कभी एक ही पल
नूर और नार का मैं रोज़ तमाशा देखूं
खूँ चकां शम्स को तारीक फ़िज़ा जाए निगल
मार डाले न कहीं तुझ को ये तन्हाई का ज़हर
दिल के वीरान अंधेरों से कभी यार निकल
नौहा ख्वाँ क्यूँ हुए "मुमताज़" सभी मुर्दा ख़याल
मदफन-ए-दिल में अजब कैसा ये हंगाम था कल
5.
एक गुनह बस छोटा सा, इक लगज़िश नीम गुलाबी
दिल पर दस्तक देती है इक ख़्वाहिश नीम गुलाबी
लम्हा-लम्हा पिघली जाती है हसरत आवारा
दहके दो अंगारों की वो ताबिश नीम गुलाबी
पल भर में पैवस्त हुई है दिल के निहाँ ख़ानों में
बोझल-बोझल पलकों की इक जुम्बिश नीम गुलाबी
लूट लिया बहका कर मेरी राहत का सरमाया
दिल ने नज़रों से मि कर की साज़िश नीम गुलाबी
सुलगा जाए जिस्म का संदल, महके फ़ज़ा बातिन की
जलती है अब रूह तलक इक आतिश नीम गुलाबी
भीग गया जज़्बात का जंगल, फूट पड़ी हरियाली
बरसों बाद गिरी दिल पर ये बारिश नीम गुलाबी
रोग है या आसेब है ये, कोई तो बताए मुझ को
रह-रह के होती है क्यूँ इक लर्ज़िश नीम गुलाबी
हम भी दौलतमंद हुए, दिल ने भी ख़ज़ाना पाया
वो दे कर "मुमताज़" गया इक बख़शिश नीम गुलाबी
6.
गुनाहों से मुकरता जा रहा है
ज़मीर इंसाँ का मरता जा रहा है
ये मुझ में कौन है जो चुपके-चुपके
जुनूँ के पर कतरता जा रहा है
ये अच्छा है, जिसे देखो, हमीं पर
हर इक इल्ज़ाम धरता जा रहा है
जुनूँ की हद ये कैसी है कि अब ये
हर इक हद से गुज़रता जा रहा है
उतरता शम्स भी फ़नकार है क्या
उफ़क़ पर रंग भरता जा रहा है
तो अब "मुमताज़" भी है मसलेहतख़्वाँ
ये दरिया अब उतरता जा रहा है
7.
फ़र्श से अफ़लाक तक पहुंची है रुसवाई मेरी
जाने क्यूँ बेचैन रक्खे सब को दानाई मेरी
कोई साया भी पड़े मुझ पर तो दम घुटता है
अब मुझ को तन्हा एक पल छोड़े न तनहाई मेरी
जिस जगह मैं हूँ, वहाँ कोई नज़र आता नहीं
क़ैद मुझ को रात दिन रखती है यकताई मेरी
कोई क्या समझे मेरे दिल की तहों के ज़ाविए
ख़ुद मुझे कब नापनी आई है गहराई मेरी
वक़्त आया तो किसी दीवार का साया न था
हाँ, यही दुनिया रही बरसों, तमाशाई मेरी
उस का वादा था दुआ मक़बूल करने का मगर
मांगती हूँ, तो नहीं होती है सुनवाई मेरी
रास्ता लंबा है, मंज़िल का निशां कोई नहीं
चलने दे लेकिन न मुझ को आबलापाई मेरी
आज भी "मुमताज़" मुझ को वो ज़माना याद है
जब हुआ करती थी अंजुम से शनासाई मेरी
8.
है एक सा सब का लहू फिर क्या है ये मेरा-तेरा
हिन्दू तेरे, मुस्लिम तेरे, काशी तेरी, काबा तेरा
बैठे हुए हैं आज तक, तू ने जहाँ छोड़ा हमें
हम पर रहे इल्ज़ाम क्यूँ, रस्ता नहीं देखा तेरा
जीने का फ़न, मरने की ख़ू, सौ हसरतें टूटी हुईं
क्या-क्या हमें तू ने दिया, एहसान है क्या-क्या तेरा
फिर इम्तेहाँ का वक़्त है, साइल है तू दर पर मेरे
उलफ़त का फिर रख लूँ भरम, ला तोड़ दूँ कासा तेरा
ये रब्त भी अक्सर रहा तेरे-मेरे जज़्बात में
आँखें नहीं भीगीं मेरी, दामन नहीं सूखा तेरा
जलती हुई बाद-ए-सबा, भीगी हुईं परछाइयाँ
ऐ सुबह-ए-ग़म, कुछ तो बता, क्यूँ रंग है काला तेरा
शोला-सा इक लपका था कल शब की सियाही में कहीं
"कुछ ने कहा ये चाँद है, कुछ ने कहा चेहरा तेरा "
तन्हा रही 'मुमताज़' कब मैं ज़िन्दगी की राह में
अब तक मेरे हमराह है, तेरी महक, साया तेरा
(रचनाकार -परिचय :
जन्म: 11 अप्रेल सन 1964 को कानपुर के एक ब्राह्मण खानदान में हुई
शिक्षा: बीएससी, अदीब कामिल और मोअल्लिम का तरबियती कोर्स
सृजन: उर्दू -हिंदी के कई पत्र-पत्रिकाओं में ग़ज़लें । एक संकलन भी प्रकाशित। ग़ज़लों का एक एल्बम भी आ चुका है। दो फिल्मों में भी गीत लिखे, जिस में एक कुवैत में बनी और रिलीज़ हुई, और एक रिलीज़ न हो सकी।
ब्लॉग: परवाज़
संप्रति: कुछ अरसा तक लखनऊ दूरदर्शन में एनाउंसर और मुंबई में अमरीकन फ़र्म में प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर रहीं। फिलवक्त स्वतंत्र लेखन
संपर्क: naza.mumtaz@yahoo.com)
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- अल्लामा जमील मज़हरी