बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 2 अक्टूबर 2013

बेबस समय की शहतीर सी चुभन

नौ वर्षीय बड़े साहबजादे आएश लबीब की कंप्यूटर पेंटिंग्स, जब वो 6 साल के थे 



यह बहुत बाद का समय था। पोखरण में महात्मा बुद्ध के मुस्कुराने और अयोध्या से राम के दूसरे बनवास के भी बहुत बाद। विश्व महा पंचायत के कथित मुखिया की दबंगई के स्थानीय क्लोनों को बाज़ार ने नायक बनाने के लिए अपनी सारी ताक़त झोंक दी थी। उसके खल को बूझते हुए हम थे और नहीं भी थे। खून की होली के रास में मूर्छित हमारा वजूद उसके होने और न होने के द्वन्द में विचलित था। लेकिन रूह की यह बेचैनी दिमाग के सम्मुख घुटने टेक चुकी थी। दिमाग था कि जो मित्र की नौ साल की बिटिया को भी स्त्री समझ उसके मासूम उरोजों की गोलाईयों से तुष्ट होता था। वहीं हम थे कि कानून की शिथिलता का स्यापा कर रहे थे। मंदिरों और मस्जिदों की प्रार्थनाएं और इबादतें उत्पाद में ढलकर पैकेज हो चुकी थीं। धर्म पुरातत्व का विषय था। जिसकी क़ब्रों से निकला भूत हमारी नृशंसता से कांपता वापस चला जाता। धर्मांधता का आतंक उस नायक का पेशा था। दलाली को कमीशन कहने के इस दौर में झूठों की विवशता थी। यह रंगा सियार थे। जंगल से शहर की ओर भागे शेर को मुखिया बनाने की क़वायद में तल्लीन थे। यहां धर्म की नहीं जातीय सर्वनाश की गुर्राहट थी। रंगा सियार सच की बारिश से अनजान थे। दरअसल वो धीरे-धीरे रँगे गए थे। इतना कि अपने होने का भ्रम कभी-कभार शौचालय में पल भर को लोप होता। लेकिन चातुर्य की क्रूरता से पंगु थे। जातीय हिंसा उन्हें ऊर्जा देने लगी थी। ऐसा वे खुलेआम आम कहते। विरोधी समुदाय के होश ठिकाने लगाने के लिए नरसंहार से सहमत थे। सहमत उनकी ज़ुबान तेंदुए सा लपलपा रही थी। हिटलर का नया इतिहास हिमालय की गोद में अकार पा रहा था। उसके गुणगान में कवि-लेखक-पत्रकार की टोलियाँ इसे क्रांति कहने में छाती फुलाए भोंपू थीं। मनुष्य किसी अंध कूप मे धेकेल दिए गए थे। पर उनका तेज था कि जब कभी इन भोंपुओं को निर्वस्त्र कर देता। यह थे कि अंधकार को आवरण समझ बैठे थे। वो इतिहास को भूल चुके थे कि कोई भी नस्ल तमाम रक्तिम उबाल के बाद भी पूरी तरह ख़त्म नहीं हो गयी। ( रात कुछ सहयोगियों से हुए संवाद के बाद‡ परसों ही महात्मा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री की जयंती है )

पेड़ों को काटने की प्रतियोगिता दर असल धरा के गर्भ में छुपे अकूत भंडार को लूटने की थी। जबकि उसका प्रायश्चित गमलों में उगा बोनसाई कर पाने में असमर्थ था। जंगलों से सिर्फ परिंदे ही नहीं इंसान को भी शहरी शेरों ने निवाला बनाना शुरू कर दिया था। ज़बान क्रांतिकारियों की भी बंद थी या वे मूक बधिर होने का ढोंग कर रहे थे!Î

तब विश्व का एक धुर्व ख़त्म हो चुका था। उसके शिराज़े बिखेरने में दूसरे धुर्व की सशक्त दख़ल थी। उसकी यही कुटिलता अन्य क़द्दावर मुल्कों के लिए घातक बनती जा रही थी। उसने दुन्या को अमीर-ग़रीब की बजाय सभ्यताओं के संघर्ष में बदलने की कोशिश की। वो किंचित सफल रहा था। उसके झूठ और अन्याय के विरुद्ध बोलने वाले का अंत उसका लक्ष्य था। अपनी हिंसक फ़ितरत को वैध ठहराने के लिए वो लोकतंत्र और विश्व शांति का ढकोसला करता। सब अपनी बारी के इंतज़ार में थे। अनजान होने का दंभ उनकी कायर सहमति में था। दूध पिलाने के बाद दहशत का सांप जब डसने लगा तो सभ्यता संघर्ष का तर्क उसके हर दुष्कर्म को ढांपने में सक्षम रहा। इधर एक शहंशाही मुल्क तेल से छनती पकोड़ियों को खाने की अय्याशी में मस्त। सच तो यह था कि विश्वव्यापी डॉन हथियारों के साथ तेल का एकक्षत्र कारोबार चाहता था। उसे शाही मुल्क में लोकतंत्र की याद कभी न आती। और वो शाही मुल्क था कि अय्याशी को छुपाने के लिए धर्म के नाम पर हिंसा करने वालों को अर्थ देकर अपना आवरण तलाशता था।
विचारों के अंत की महज़ घोषणा नहीं, उसके खात्मे के साम, दाम, दंड व् भेद सारी तिकड़में थीं। खाओ पियो, मस्त रहो @ ईमानदारी पुस्तकों में अच्छी लगती हैं! खाने-पीने, सजने-संवरने और घूमने-टहलने के लिए तरह-तरह के साहित्य मौजूद थे। पत्र-पत्रिकाओं और दृश्य-भोपुओं में दरबारी गवैय्ये कवि बनकर इसका प्रचार करते। हर दिन किसी के नाम निश्चित था। संबंधों की शुचिता और उसकी आंतरिक तारतम्यता का ग्राफ बाज़ार तय करते। हर वर्ग और समाज के लिए नए-नए भगवान भी अवतरित हो चुके थे। यह साधु-संत अब कंदराओं में नहीं, रंगीन आलीशान पर्दों पर विराजमान रहते। इनमें से कुछ का कारोबार अरबों-खरबों का था। ज़माना वही है, जब ग़रीब मुल्कों की बेटियाँ अचानक विश्व सुन्दरी होने लगी थीं।
अब हर ओर सुंदरता का बोलबाला था। हॉट और सेक्सी होना सौन्दर्य का पर्याय हो चुका था। स्त्रियों की आज़ादी सिर्फ़ मनपसंद वाशिंग मशीन खरीदने में थी। आक़ा को हमारे गाँव-जवार की सड़कें जर्जर कर रही थीं। वो तुरंत दयालु हो गए! चौडी-लंबी सड़कों का जाल बिछ चुका था। इस जाल में हम समा चुके थे। अब हर पंचायत-अखड़ा में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद सहज उपलब्ध थे। अब पंचायतें आधुनिक हो चुकी थीं। वहीं पुरा कालीन भी उतना ही। प्रेमियों का धड़ सर से अलग करना उनका गर्व था। उनके फ़तवे किसी मदरसे से अधिक मारक थे। किसी के सामाजिक बहिष्कार करने के फ़ैसले आउट आफ़ फ़ैशन थे। सामुदायिक हिंसा से उनका तेज बढ़ता था। इधर, विश्व का कथित मुखिया व सबसे विकसित देश में लाखों सरकारी कर्मी नौकरी से हटा दिए गए थे।

दरअसल वो सशंकित था। पहले से ही। तमाम संधियों को दरकिनार कर उसे दूर देशों के नागरिकों की चिंता दुबला किये जा रही थी। सो उसने इंसानी धर्म का पालन करते हुए कई मुल्कों में जंग को प्रेरित करना शुरू किया। उससे पहले मिटटी के किलों को गिराकर पहाड़ी मुल्क में उसके बम वर्षक विमान रोटियाँ गिरा चुके थे। यह वो ठिकाना था जहां कभी उसके गुर्रिला ट्रेनिंग दिया करते थे। ऐसा इसलिए कि उसके पडोसी की लाल नाक उसे चिढ़ाती थी। आखिर उसकी नाक तोड़ दी गयी। लेकिन जिससे तुडवाई वो मित्र से अचानक शत्रु हो गया। इस कथित शत्रु को इल्हाम हो गया कि वो तो जन्नत से भेजा गया है। वो भेज गया तो था नहीं सो वहाँ के सहिफ़े लाना भूल गया था। उधर उस शाही मुल्क को भी जन्नत लुभाने लगा था। ( इल्हाम= आकाशवाणी, सहिफ़े =ईश्वरीय सन्देश)
और हम थे कि एक भ्रम पर जान लुटाये थे। हर संकट के लिए अतीत के पन्नों पर जाकर  रुक जाते। ज़र्द वर्क़ था कि हमें ज़र्दे के नशे में क़ैद कर लेता। इसका जूनून भी अपने अतिरेक में एक तरह की हिंसा को ही जन्म देता था।

(फ़ेसबुक उवाच 30 सितंबर से एक अक्टूबर के बीच)






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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

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