बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

मंगलवार, 27 अगस्त 2013

हे कृष्ण कन्हैया, नन्द लला! अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी !!



फ़ोटो वरिष्ठ पत्रकार क़मर वहीद नक़वी की फेसबुक वाल से उड़ाया








































हिंदुस्तान। ऐसा मुल्क जो तमाम विपरीत झंझावतों के अपने विविध रंगों में आज भी मुस्कुरा रहा है। बक़ौल इक़बाल, यूनान, मिस्र, रोमां सब मिट गए जहां से/ बकाई मगर है अब तक हिन्दुस्तां हमारा ! दरअसल इसकी आबोहवा ही ऐसी है कि हर कोई यहीं का होकर रह जाता है। बनारस की सुबह और लखनऊ की शाम किसे प्यारी न लगे! सबब यही है कि संत-कवि बुल्ले शाह कहता है, होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह! बात होली की हो तो मथुरा और बृन्दावन का ज़िक्र सहज ही आ जाता है। कृष्ण और राधा की प्रेम-कथा को एतिहासिक लोकप्रियता हासिल है। उनके दीवानों में ढेरों मुस्लिम कवि हुए हैं। युवा लेखक कश्यप किशोर मिश्र लिखते हैं,  'सूफीवाद में अमूर्त रूप से प्रेम के प्रतीक के रूप में कृष्ण खूब चित्रित हुए, चाहे वो मंझन रहे हो, या कुतुबन या फिर उस्मान, अगर उनकी कृतिया रसीली है, तो उसके मीठे का स्रोत कृष्ण रहे है |'
         

सैयद इब्राहीम उपनाम रसखान  कृष्ण भक्ति में सरे-फेहरिस्त हैं। उन्हें  रस की ख़ान ही कहा जाता है। इनके काव्य में भक्ति, श्रृगांर रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं।  मध्यकालीन कृष्ण-भक्त कवियों में रसखान की कृष्ण-भक्ति निश्चय ही सराहनीय, लोकप्रिय और निर्विवाद है। कृष्ण-भक्ति और काव्य-सौंदर्य की दृष्टि से उनके काव्य-ग्रन्थ  'सुजान रसखान' और 'प्रेमवाटिका' को देखा जा सकता है। कृष्ण भक्तों में रसलीन रीति काल के प्रसिद्ध कवियों में से एक हैं। उनका मूल नाम 'सैयद ग़ुलाम नबी' था। उनके अलावा मालिक मोहम्मद जायसी, नवाब वाजिद अली शाह, नजीर अकबराबादी आदि अनगिनत रचनाकार उर्दू और हिंदी में हुए हैं, जिन्हें कृष्ण ने आकर्षित किया है।

 नजीर अकबराबादी  अपनी लंबी नज़्म में कृष्ण भक्ति में किस तरह लीन  हैं :

हे कृष्ण कन्हैया, नन्द लला !
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

मुट्ठी भर चावल के बदले ।
दुख दर्द सुदामा के दूर किए ।
पल भर में बना क़तरा दरिया ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।
मन मोहिनी सूरत वाला था ।
न गोरा था न काला था ।
जिस रंग में चाहा देख लिया ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

मुग़ल बादशाह  औरंगजेब  बदनाम -ज़माना है। लेकिन इधर उनकी  भतीजी ताज बेगम कृष्ण की मीरा बन बैठी।जिनका काल 1644 ई. माना जाता है,  उन का एक प्रसिद्ध पद है:

बड़ा चित्त का अड़ीला, कहूं देवतों से न्यारा है।
माल गले सोहै, नाक-मोती सेत जो है कान,
कुण्डल मन मोहै, लाल मुकुट सिर धारा है।
दुष्टजन मारे, सब संत जो उबारे ताज,
चित्त में निहारे प्रन, प्रीति करन वारा है।
नन्दजू का प्यारा, जिन कंस को पछारा,
वह वृन्दावन वारा, कृष्ण साहेब हमारा है।।
सुनो दिल जानी, मेरे दिल की कहानी तुम,
दस्त ही बिकानी, बदनामी भी सहूंगी मैं।
देवपूजा ठानी मैं, नमाज हूं भुलानी,
तजे कलमा-कुरान साड़े गुननि गहूंगी मैं।।
नन्द के कुमार, कुरबान तेरी सुरत पै,
हूं तो मुगलानी, हिंदुआनी बन रहूंगी मैं।।

1694 ई  के दौर की  एक कवियत्री थी शेख, उनका पूरा नाम अज्ञात है। इनकी अधिकांश रचना एँ शृंगाररस की हैं, जिनमे से कुछ में कृष्ण से लौकिक प्रेम प्रदर्शन भी है:

मधुबन भयो मधु दानव विषम सौं
शेख कहै सारिका सिखंड खंजरीठ सुक
कमल कलेस कीन्हीं कालिंदी कदम सौं

रसखान का लहजा देखिये:
गावैं गुनि गनिका गंधरव औ नारद सेस सबै गुन गावत।
नाम अनंत गनंत ज्यौं ब्रह्मा त्रिलोचन पार न पावत।
जोगी जती तपसी अरु सिध्द निरन्तर जाहि समाधि लगावत।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावत।

हिन्दुस्तानी ज़बान के पहले कवि माने जाने वाले अमीर खुसरो। आप संत हज़रत निज़ाम उद्दीन के भक्त थे।  लेकिन जब उनके प्रेम में लिखते हैं, तो कान्हा उनके ज़ेहन में नृत्य कर रहे होते हैं:  

बहुत कठिन है डगर पनघट की।
कैसे मैं भर लाऊं मधवा से मटकी
मेरे अच्छे निजाम पिया।
पनिया भरन को मैं जो गई थी
छीन-झपट मोरी मटकी पटकी
बहुत कठिन है डगर पनघट की।
खुसरो निजाम के बल-बल जाइए
लाज राखी मेरे घूंघट पट की
कैसे मैं भर लाऊं मधवा से मटकी
बहुत कठिन है डगर पनघट की।




भास्कर के  28 अगस्त 2013 के अंक में (झारखंड के संस्करणों में प्रकाशित )       
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सोमवार, 26 अगस्त 2013

दादाजी ने मना किया है


 

















सारंग उपाध्याय  की क़लम से




वह पहली बार आई थी, वह भी सुबह-सुबह, लेकिन इतनी जोर से दरवाजा खटखटा रही थी, मानों उसकी जान पर आ बनी हो। मुझे बेहद गुस्सा आ रहा था, एक तो अकेला था, ऊपर से बाथरूम में था, वहीं से चिल्लाया "आया यार, रूको तो सही”।
जब आधा-अधूरा नहाकर टॉवेल पर ही दरवाजा खोलने आया, तो वह सीढियों पर खडी थी! मेरे मकान मालिक की लडकी थी, तकरीबन चार से पॉंच साल की, छोटे नाइट सूट में सुबह की सुस्ती और अधखुली ऑंखों में बहुत खूबसूरत लग रही थी। दरवाजा खोलने पर देखते ही बोली- "दादाजी ने पीछे वाले कंपाऊंड की चाबी बुलाई है" उसकी आवाज में भी नींद थी जो एक खराश के साथ झलक रही थी, उसे देखते ही सारी झल्लाहट काफूर हो गई और चेहरे पर एक मुस्कान फैल गई।
वैसे वह पहले भी कई बार दिखाई पडी थी, कभी छोटी साइकल चलाते हुए, तो कभी खेलते हुए।

"दो मिनिट रूकोगी गुडिया, अंदर आ जाओ, मै कपडे पहन लूँ " मैने मुस्कुराते हुए कहा।
नहीं, मेरा नाम गुडिया नहीं है, सोना है,  मुझे स्कूल जाना है, वह तमक कर बोली।
मैं हँस पडा, बोला- ठीक है, पर अंदर तो आ जाओ।
नहीं दादाजी ने मना किया है, वह झट से चिढते हुए बोली।  
मुझे फिर हँसी आ गई,  उसके भोले और नटखटपन को देखकर।
मैं सामने अलमारी में चाबी ढूँढने लगा, लेकिन मिल नहीं रही थी।
उसे बाहर खडा देखकर मैंने फिर कहा- अंदर आ जाओ सोना।
दादाजी ने मना किया है न...! इस दफे वह अपने स्वर को कुछ लंबा खींचकर दरवाजे की कुंडी हिलाते हुए बोली।   
मैंने इस बार आश्चर्य व्यक्त किया, फिर हँसते हुए बोला क्यों, क्यों मना किया है दादाजी ने?
मेको क्या मालूम..? उसने इतना कहकर मेरे आगे फिर एक प्रश्न रख दिया।
मैंने कहा क्यों टाइम से किराया नहीं देते इसलिए न? मैं हंस पडा, पर शायद वह बात समझी नहीं थी।
चाबी मिल गई, तो मैंने पास जाकर उसके हाथ में थमा दी, फिर उसका हाथ पकडकर बोला- सोना टॉफी खाओगी।
"नहीं मैंने ब्रश नहीं किया", इतना कहकर नटखट सोना चल पडी, जब जाते-जाते बाय किया तो जीभ चिढाकर दौड गई।
मैं दरवाजा बंद कर अंदर आ गया, लेकिन उसकी बातों पर अब भी हँसी आ रही थी।
फिर यकायक उसकी आवाज मन में जस की तस गूंज गई। "दादाजी ने अंदर आने को मना किया है,"
कुछ समझ नहीं पाया था, अपने आप से ही बोल पडा " वाह यार ! दादाजी", तभी कुर्सी पर पडा न्यूज पेपर फर्श पर गिर पडा, जिसके पहले पेज पर लिखी काली लाइनें भीतर तक कुरेद गईं, "मासूम बच्ची के साथ बलात्कार"...!  देखते ही आँखें डबडबा गईं और मैं देर तक खामोश खडा रहा।
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( लेखक -परिचय:

अब तक सोनू उपाध्याय के नाम से रचनाएँ प्रकाशित
जन्म: 9 जनवरी  1984  को मध्याप्रदेश के हरदा जिले में
शिक्षा- देवीअहिल्या  विश्वसविद्यालय इंदौर से बी. कॉम और पत्रकारिता में एम. ए.।

इंदौर के दैनिक समाचार पत्र चौथा-संसार से उपसंपादक के रूप में पत्रकारिता की शुरूआत। उसके बाद बीबीसी हिन्दी  डॉट कॉम में प्रकाशित अपने लेख से वेबदुनिया डॉट कॉम द्वारा बुलावा, वहाँ एक साल तक उपसंपादक के पद पर कार्यरत। साल भर बाद दैनिक भास्किर के लिए मुंबई रवाना, वहाँ एक साल कार्य करने के बाद, एक चैनल में एसोसिएट प्रोड्यूसर और एंकर के पद पर कार्य किया। औरंगाबाद में लोकमत समाचार पत्र में उपसंपादक और रिपोर्टर के रूप में स्था न परिवर्तन। वहॉं से दोबारा मुंबई में रेडिफ मनी डॉट कॉम के लिए प्रस्थान, साल भर कार्य करने के बाद
संप्रति: विगत् 5 सालों से मुंबई में स्वतंत्र लेखन

सृजन:  कृति-ओर,  काव्यउम् और अक्षर पर्व में कविताऍं,  कहानियॉं साक्षात्कापर, वसुधा और परिकथा में प्रकाशित। वसुधा में प्रकाशित रोजाना और परिकथा में प्रकाशित मंडी चर्चा में. मंडी कहानी का इंदौर और भोपाल में पाठ। समसामायिक विषयों पर निरंतर लेख प्रकाशित. फिल्मों  में गहरी रूचि और विभिन्न  वेबसाइट्स, वेबदुनिया, हस्त क्षेप और मोहल्लालाइव डॉट कॉम सहित कई अन्य् पोर्टल्सर और वेबसाइट्स पर फिल्मोंस पर लगातार लेखन.
ब्लॉग: चौपाल चर्चा
संपर्क:sonu.upadhyay@gmail.com)



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गुरुवार, 22 अगस्त 2013

आदि वाद्य यंत्र का अंतिम वादक कालीशंकर!

लौह युगीन सभ्यता से भी पहले का का वाद्य यंत्र
धरती आबा का था पसंदीदा टूहिला


टूहिला वादक के साथ लेखक



पतला सा बांस। उसके एक छोर पर कद्दू या लौकी का आधा खोखला हिस्सा (तुंबा), दूसरे छोर पर लकड़ी का एक हुक। इसी हुक से निकले रेशम के बारीक धागे, जो तुंबा के बाद बंधे हैं। यह टूहिला है। इसे कुछ लोग केंद्रा भी बोलते हैं। जब संसार में फूलों ने चटखना शुरू किया, तो शाम को शबनमी बनाने की ज़रूरत पड़ी। तब कई राग और साजों का ईजाद किया गया। यह टूहिला भी इतना ही पुराना वाद्य यंत्र है। कहते हैं कि लौह युगीन सभ्यता से भी पहले का। भगवान बिरसा का यह प्रिय रहा। वो अपने दु:ख को इसके सुर में विराग देते। लेकिन उनकी अन्य विरासत की तरह टूहिला जैसा सुमधुर साज़ भी अंतिम सांस ले रहा है। जिसे रोक कर खड़े हैं रांची के कालीशंकर महली। अगर संस्कृर्ति कर्मियों की मानें तो रांची में टूहिला के वे आखिरी कलाकार बचे हैं।

कालीशंकर टूहिला को सीने से लगा कर नंगे जिस्म बजाते हैं। साथ ही अपनी आवाज़ में उस गीत को स्वर देते हैं, जिसकी धुन टूहिला बाद में सुनाता है। इस बीच उनके चेहरे की रेखाएं कभी सिकुड़ती, कंठ के साथ फूलती रुदन में बदल जाती हैं, पता ही नहीं चलता। फिजा में एक अलौकिक शांति। उसका रंग गीत के दर्द सा ही गहरा कत्थई।

हाय रे दईया भाऽ ई
पापी प्राण छूटे नाही झटिके
कहां हंसा ऽअटिके
माता-पिता तिरया आर
बंधु सुता परिवार
हाय रे दईया भाऽई
रोवत पंकज सेजा धरिके
कहां हंसा ऽअटिके।

रेशम के धागे पर नाचती कालीशंकर की उंगलियां। फिर टूहिला से यह गीत जब पहाड़ी सुरंग को भेदकर निकलता तो खेत की फसल उसके दर्द में डोल उठती है। लय, छंद और ताल की मार्मिक बंदिश। वेदना और विरह की गुंजलक। वह कोलकाता, दिल्ली, चेन्नई जैसे महानगरों और अमेरिका में सारंगी और बांसुरी का जलवा भले बिखेर चुके हैं। पर उनका मन तो बस टूहिला में ही बसता है। खेत से लौट कर उनकी थकन को सुकून यह टूहिला ही तो देता है।



सीखने की ललक हो चहक-चहक

चाहत बचाने की: कालीशंकर कहते हैं, 'मैं चाहता हूं यह बचा रहे, सदा बजता रहे। कोई तो आए. मैं सिखाने को तैयार हूं। हर उस संगीतपे्रमी का स्वागत है। मैं नि:शुल्क सिखाने को तैयार हूं।

सामने आए दस युवा: आरयू के जनजातीय भाषा विभाग में वह सप्ताह में दो दिन इसकी क्लास लेते हैं। मदद टाटा का ट्राइबल कल्चरल सेंटर कर रहा है। दस युवा इसे सीख रहे हैं। ये सभी छात्र जमशेदपुर और रांची के आसापास क्षेत्रों के हैं।

क्या है सीखने में दिक्कत:

समय के साथ सारी चीज़ें बदल रही हैं, लेकिन टूहिला अपने ठाठ में है। कहीं इसके न सीखने की यह वजह तो नहीं? कालीशंकर कहते हैं, 'एक कारण इसकी बनावट भी है। वही इसे सीखने और बजाने के लिए बहुत लगन व मेहनत की जरूरत है। यह चीनी का घोल नहीं है कि तुरंत ही पिला दिया जाए। बावजूद इसके वादकों को यथोचित पारिश्रमिक नहीं मिलता। पारिश्रमिक शब्द उच्चारते हुए उनकी आंखें हल्की पनीली हो जाती हैं।

18 वर्ष की आयु में कालीशंकर ने इसे उस्ताद की तरह बजाना सीख लिया।

1984 में पहली बार इसका सार्वजनिक प्रर्दशन किया।

1986 में आकाशवाणी रांची में उनका पहला वादन हुआ।

टूहिला के संरक्षण के लिए क्या हो
प्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी व आदिवासी मामलों के मर्मज्ञ डॉ. रामदयाल मुंडा ने टूहिला के लिए कहा था कि इसकी वादन शैली अत्यंत पेचीदा है। इसे बचाने के लिए इसमें बदलाव जरूरी है। लौकी और रेशम का विकल्प ढूंढना होगा। आवाज इतनी मृदु है कि अन्य वाद्य यंत्रों में खो जाती है।
लेकिन कालीशंकर का टूहिला सुर इससे सहमत नहीं। कहते हैं, 'ऐसा करने से उसकी मौलिकता नष्ट हो जाएगी। पिता द्रीपनाथ ने कहा था कि रेशम के धागे की जगह किसी तार के इस्तेमाल से इसकी मीठास खत्म हो जाएगी।
टूहिला पर कुछ वर्ष पहले कंबोडिया निवासी युवक जेस डायस अमेरीका से शोध करने आया था। फिलहाल रांची विवि के जनजातीय भाषा विभाग का छात्र स्वर्ण मुंडा कालीशंकर महली के साज और राग पर कर रहा है शोध।

राहत भरे गीत-संगीत
 काली टूहिला पर करमा झूमर, प्रथम प्रहर, द्वितीय प्रहर, भिनसरिया, अगनई, डोमकच समेत हर राग-रागिनी को स्वर देते हैं।
 राष्ट्रीय गीत जण गण मण जब उनकी टूहिला पर बजता है, तो रोम-रोम सिहर उठता है।
उनके प्रिय गीत हैं:

जेठ बैसाख मासे-2 ए मन तोयें उदासे-2
ए भाई, जने देखूं तने दिसे
लहलह पात कहूं, केके कहूं बात
कहूं केके कहूं बात..
 
रैन घोर अति अंधार सूझत नाही एको पैसार
चट चपल चमकावल गोई साऽजे..
 
ऐ माया पति बिनु बिरहनी
कान्दे झर-झर लेहुं खबर हमर.....



स्थिति

पहले: कालीशंकर के दादा बालगोविंद महली टूहिला के अच्छे वादक थे। उन्होंने अपने पुत्र द्रीपनाथ महली को यह सिखाया।

अब: कालीशंकर ने अपने पिता द्रीपनाथ महली से यह सीखा। वह आकाशवाणी रांची में सारंगी वादक थे। लेकिन उनका ड्राइवर बेटा इसे सीखना नहीं चाहता।

चुनौतियां

इसे खुले बदन ही बजाया जा सकता है।
इसे समूह में नहीं बजाया जा सकता।
सीखने के लिए काफी रियाज की जरूरत।
राज्य में कला अकादमी नहीं। संरक्षण का अभाव।

पुनर्जीवित करने की जरूरत

: मुकंद नायक, मशहूर लोक गायक व संगीतकार

झारखंड को विशिष्टता प्रदान करने वाला यह अकेला वाद्य यंत्र है और इसे पुनर्जीवित करने की जरूरत है। हालांकि लोक वाद्य यंत्रों को प्रोत्साहित करने के लिए टाटा स्टील के जमशेदपुर स्थित ट्राइबल कल्चरल सेंटर ने प्रयास किया है। पर सरकारी स्तर पर टूहिला उपेक्षित है। स्कूल व कॉलेजों के कोर्स में लोक गान-वादन को शामिल करने से संस्कृति के विकास के साथ लोगों को रोजगार भी मिलेगा। आदिवासी संस्कृति हमेशा सामूहिकता का बोध कराती है। घड़ी सुख की हो या दुख की, हर क्षण समूह बोध सामने होता है। ऐसे में टूहिला के एकांत वादन की कल्पना निसंदेह नई बात थी। दरअसल यह प्रकृति और मानव मन से जुड़ा हुआ विरह का स्वर है। उसी मन को शांत करने के लिए आदिपुरुषों ने शायद सबसे पहले टूहिला को लौकी, बांस और धागे से बनाया होगा।

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कला-संस्कृति का सच्चा साधक डॉ. रामदयाल मुंडा
 (23 अगस्त 1 939 -30 सितंबर 2011)       

दिउड़ी से अमरीका तक गूंजी मांदर की थाप



जंगल व पहाड़ों से घिरा गांव दिउड़ी। लेकिन ब्रिटीश सता के विरुद्ध आक्रोश की लहर से लहलहाता। यहीं डॉ. रामदयाल मुंडा का जन्म एक छोटे किसान के घर हुआ। जब आजादी मिली, तो रामदयाल की उम्र बमुश्किल 6-7 साल रही होगी।  वे जानवरों को चराने जाते, तो पेड़-पौधों व नदी--पहाड़ो के संग बातें करते। कभी मुंडा गीत गाते, तो कभी बजाते बांसुरी। उनकी बांसुरी की धुन को सुनकर आसापास के चरवाहे भी जमा हो जाते। बचपन का उल्लास उनका मांदर व बांसुरी के संग बीता। लोग कहते हैं कि उन्हें गायन व वादन का वरदान मानो ईश्वर से मिला हो। जभी वे अंतिम समय तक संगीत व कला के प्रति समर्पित रहे। शुरुआती पढ़ाई लूथर मिशन स्कूल, अमलेसा के बाद खूंटी व रांची से हासिल की। उसके बाद शिकागो विवि से उच्च डिग्री ली। लेकिन कहीं भी रहे उनके साथ बांसुरी व मांदर साथ रहे।

तब रांची विवि के वीसी कुमार सुरेश सिंह थे। उनके आग्रह पर रामदयाल ने विवि में जनजातीय भाषा विभाग का दायित्व संभाला। मुंडा जी से मनोयोग से अपनी भूमिका सार्थक की। वे यही चाहते भी थे। झारखंड व आदिवासियों की कला, संस्कृति का प्रचार व प्रसार। विभाग ने कई सांस्कृतिक व साहित्यिक आयोजन किए। रांची में करमा व सरहुल तो उनके बिना अधूरा माना जाता था। इस मौके पर उनकी रंगत देखते ही बनती थी। जब गीत को उनकी आवाज़ मिलती और मांदर को उनकी थाप, तो प्रकृति भी मनोहारी हो जाती। पेड़ झूमने लगते तो, पक्षी का कलरव वातावरण को गुंजयमान कर देता। उनकी प्रतिबद्धता व विद्वता को देखते उन्हें 1985 में आरयू का वीसी बनाया गया।  वहीं विदेशों में भी आदिवासी कला-संस्कृति पढ़ाने गए।

रूस, चीन, मलयशिया, इंडोनेशिया, नीदरलैंड, यूके, अमरीका और फीलिपिंस समेत कई देशों में उन्होंने अपने फन का इज्हार किया। जब फीलिपिंस गए तो 75 मांदर साथ ले गए। मांदर को अनोखी थाप देने वाले ऐसे ही साधक थे मुंडा जी। बांसुरी की धुन में झारखंड के दर्द या वीरता को राग देने वाले इस वादक को संगीत नाटक अकादमी ने 2007 में सम्मानित किया। जबकि 2010 में वे पद्मश्री से नवाजे गए। उनके मन में कई योजनाएं थीं। अपने लिए नहीं, झारखंड के लिए, झारखंडियों के लिए। हर गांव में हो अखड़ा, यह उनका सपना था। जहां मांदर, बांसुरी और टूहिला समेत तमाम सुर और साज़ का संगम हो। जिससे हर स्त्री-पुरुष और बच्चे-बुज़ुर्ग सराबोर हों। वहीं वे अपने राग-विराग, हर्ष-विषाद और दु:ख-सुख को साझा करें।
उनके निधन से पहले की बात है। जब अखबार में करमा के दूसरे दिन उनकी मार्मिक तस्वीर छपी, तो उन्होंने कहा, 'इस फोटो को मढ़वा कर झारखंड के नेताओं के कमरे में टंगवा देना, ताकि जब वे देखें, उन्हें मेरी याद आती रहे। मेरे सपने याद आते रहे।

जिंदगी के अंतिम दिनों बेहद अशक्त हो गए थे। आंखों की रौशनी धुंधली थी, पर कला-संस्कृति और साहित्य की योजनाओं पर दृष्टि उतना ही तेज़। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर झारखंड की समृद्ध संस्कृति को पहुंचाने वाले डॉ. मुंडा के बुज़ुर्ग हाथ आखिरी समय में भले कांप रहे थे, लेकिन कला को संरक्षित करने के लिए कागजों पर उनकी उंगलियां उतना ही तीव्र वेग से चलती रहीं। चाहते थे कि झारखंड के गीतों के संग्रह का एक संकलन प्रकाशित हो। उन्होंने स्वरचित गीतों-वाद्य यंत्रों के जरिये झारखंड को विश्व में पहुंचाने का अदभुत काम किया। डॉ मुंडा. ने एक ऐसे गीत की रचना की थी, जिसमें झारखंड की हर भाषा के श?द थे। उनकी चाहत थी कि 'हर बोल गीत और हर चाल नृत्य फिर जीवित हो उठे। .


झारखंड में  भास्कर ने तीन वर्ष पूरे होने के  अवसर पर विशेष अंक में 22 अगस्त 2013 को प्रकाशित    



 
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बुधवार, 14 अगस्त 2013

ये दाग़-दाग़ उजाला, ये शब-गजीदा सहर


 
गूगल से साभार












फैज़ अहमद फैज़ की क़लम से


ये दाग़-दाग़  उजाला, ये शब-गजीदा सहर,
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं

ये वो सहर तो नहीं जिस की आरजू लेकर
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं

फ़लक के दश्त में तारों कि आखरी मंजिल
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल

कहीं तो जा के रुकेगा सफीना-ए-गम-ऐ-दिल
जवां लहू की पुर-असरार शाहराहों से

चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
दयार-ए-हुस्न की बे-सब्र ख्‍वाब-गाहों से

पुकारती रहीं बाहें,  बदन बुलाते रहे


बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख-ए-सहर की लगन
बहुत करीं था हसीना-ए-नूर का का दामन
सुबुक सुबुक थी तमन्ना , दबी दबी थी थकन


सुना है हो भी चुका है फिराक-ए-जुल्मत-ए-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाल-ए-मंजिल-ओ-गाम


बदल चुका है बहुत अहल-ए-दर्द का दस्तूर

निशात-ए-वस्ल हलाल-ओ-अजाब-ए-हिज़र-ऐ-हराम
जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन


किसी पे चारा-ए-हिज्राँ का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आई निगार-ए-सबा , किधर को गई
अभी चिराग-ए-सर-ए-राह को कुछ ख़बर ही नहीं

अभी गरानी-ए-शब में कमी नहीं आई
नजात-ए-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि  वो मंजिल अभी नहीं आई


 फैज़ अहमद फैज़ किसी परिचय के मोहताज नहीं बावजूद यह लिंक 













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शनिवार, 3 अगस्त 2013

वासवी की किताब प्रकाशक वापस लेगा


ख़बर का असर



झारखंड के बौद्धिक व सामाजिक जगत का बेहद चर्चित नाम है  वासवी किडो का। उन्हें पत्रकार अविनाश दास सरकारी आन्दोलन कारी कहते हैं।  कई संगठनों से जुडी रहीं वासवी सम्प्रति  झारखंड महिला आयोग  की  सदस्य हैं। मुंडा लोक गीत नाम से उनका दो संकलन इंस्टीट्यूट फ़ॉर  सोशल डेमोक्रेसी, दिल्ली  से  सन 2008 में प्रकाशित हुआ था। इन संग्रहों  की  सारी सामग्री हूबहू अनुवाद समेत जगदीश त्रिगुणायत द्वारा संकलित पुस्तक  ‘बांसरी बज रही’ से लिए जाने का उन पर आरोप था। हमज़बान पर खबर आने के बाद  इंस्टीट्यूट फ़ॉर  सोशल डेमोक्रेसी, दिल्ली ने पुस्तक वापस लेने का निर्णय लिया है। हालांकि संस्थान के निदेशक खुर्शीद अनवर ने पहले भी कहा था कि यह साबित हो जाने पर कि सामग्री जगदीश त्रिगुणायत की पुस्तक से ली गयी है तो उनका संस्थान कार्रवाई करेगा। हमज़बान की पोस्ट में पेजों की संख्या बताकर उनके फैसले को आसान बनाया।  उन्होंने अपनी फेस बुक वाल पर लिखा है, 
'Institute for Social Democracy के निदेशक के तौर पर मैं सार्वजानिक रूप  से घोषणा करता हूँ कि उक्त किताब हम वापस लेते हैं. माफ़ी नामा हमारी दोमाही पत्रिका "समरथ" और अंग्रेजी पत्रिका South Asian Composite Heritage में प्रकाशित किया जा रहा है. वासवी के साथ आगे किसी काम हमारा कोई जुड़ाव नहीं होगा..'
फेस बुक पर इस खबर को कई लोगों ने साझा किया। अविनाश दास व खुर्शीद अनवर की वाल पर खूब बहस हुई। इस प्रकरण में खुर्शीद साहब ज़बान के पक्के निकले। वरना अब डर लगता है। यूं इस प्रकरण ने कई कलई खोली। पुनः मैं भाई अविनाश के ही क़ौल को दुहराऊंगा कि हमारा मक़सद हरगिज़ किसी के मान को ठेस पहुँचाना नहीं था। लेकिन छोटी मुंह बड़ी बात होगी कि इसे अपनी सदाशयता कहूं, लेकिन यदि कोई भूल चूक हुई हो तो खाकसार तलबगार मुआफी है। वहीं प्रकाशक के इस वाजिब स्टैंड के लिए कोटिश: आभार!

खुर्शीद साहब ने पुस्तक वापसी की घोषणा के साथ लिखा कि और क्या सजा है मेरी . इस पर मैं यही कहूँगा :

तेरी दुआओं का तलबगार रहूँ

यही सजा हम तेरी चाहते हैं!
 


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(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)