संध्या नवोदिता की क़लम से चार कविताएँ
जिस्म ही नहीं हूँ मैं
जिस्म ही नहीं हूँ मैं
कि पिघल जाऊँ
तुम्हारी वासना की आग में
क्षणिक उत्तेजना के लाल डोरे
नहीं तैरते मेरी आँखों में
काव्यात्मक दग्धता ही नहीं मचलती
हर वक़्त मेरे होंठों पर
बल्कि मेरे समय की सबसे मज़बूत माँग रहती है
मैं भी वाहक हूँ
उसी संघर्षमयी परम्परा की
जो रचती है इंसानियत की बुनियाद
मुझमें तलाश मत करो
एक आदर्श पत्नी
एक शरीर- बिस्तर के लिए
एक मशीन-वंशवृद्धि के लिए
एक गुलाम- परिवार के लिए
मैं तुम्हारी साथी हूँ
हर मोर्चे पर तुम्हारी संगिनी
शरीर के स्तर से उठकर
वैचारिक भूमि पर एक हों हम
हमारे बीच का मुद्दा हमारा स्पर्श ही नहीं
समाज पर बहस भी होगी
मैं कद्र करती हूँ संघर्ष में
तुम्हारी भागीदारी की
दुनिया के चंद ठेकेदारों को
बनाने वाली व्यवस्था की विद्रोही हूँ मैं
नारीत्व की बंदिशों का
क़ैदी नहीं व्यक्तित्व मेरा
इसीलिए मेरे दोस्त
खरी नहीं उतरती मैं
इन सामाजिक परिभाषाओं में
मैं आवाज़ हूँ- पीड़कों के ख़िलाफ़
मैंने पकड़ा है तुम्हारा हाथ
कि और अधिक मज़बूत हों हम
आँखें भावुक प्रेम ही नहीं दर्शातीं
शोषण के विरुद्ध जंग की चिंगारियाँ
भी बरसाती हैं
होंठ प्रेमिका को चूमते ही नहीं
क्रान्ति गीत भी गाते हैं
युद्ध का बिगुल भी बजाते हैं
बाँहों में आलिंगन ही नहीं होता
दुश्मनों की हड्डियाँ भी चरमराती हैं
सीने में प्रेम का उफ़ान ही नहीं
विद्रोह का तूफ़ान भी उठता है
आओ हम लड़ें एक साथ
अपने दुश्मनों से
कि आगे से कभी लड़ाई न हो
एक साथ बढ़ें अपनी मंज़िल की ओर
जिस्म की शक्ल में नहीं
विचारधारा बनकर !
औरतें -1
कहाँ हैं औरतें ?
ज़िन्दगी को रेशा-रेशा उधेड़ती
वक्त की चमकीली सलाइयों में
अपने ख्वाबों के फंदे डालती
घायल उंगलियों को तेज़ी से चला रही हैं औरतें
एक रात में समूचा युग पार करतीं
हाँफती हैं वे
लाल तारे से लेती हैं थोड़ी-सी ऊर्जा
फिर एक युग की यात्रा के लिए
तैयार हो रही हैं औरतें
अपने दुखों की मोटी नकाब को
तीखी निगाहों से भेदती
वे हैं कुलांचे मारने की फिराक में
ओह, सूर्य किरनों को पकड़ रही हैं औरतें
औरतें – 2
औरतों ने अपने तन का
सारा नमक और रक्त
इकट्ठा किया अपनी आँखों में
और हर दुख को दिया
उसमें हिस्सा
हज़ारों सालों में बनाया एक मृत सागर
आँसुओं ने कतरा-कतरा जुड़कर
कुछ नहीं डूबा जिसमें
औरत के सपनों और उम्मीदों
के सिवाय
लड़कियाँ
लड़कियाँ
बिलकुल एक-सी होती हैं
एक-से होते हैं उनके आँसू
एक-सी होती हैं उनकी हिचकियाँ
और
एक-से होते हैं उनके दुखों के पहाड़
एक-सी इच्छाएँ
एक-सी चाहतें
एक-सी उमंगें
और एक-सी वीरानियाँ ज़िन्दगी की
सपनों में वे तैरती हैं अंतरिक्ष में
गोते लगाती हैं समुद्र में
लहरों सी उछलती-मचलती
हँसी से झाग-झाग भर जाती हैं वे
सपनों का राजकुमार
आता है घोड़े पर सवार
और पटक देता है उन्हें संवेदना रहित
बीहड़ इलाके में
सकते में आ जाती हैं लड़कियाँ
अवाक् रह जाती हैं
अविश्वास में धार-धार फूटती हैं
बिलखती हैं
सँभलती हैं,
फिर लड़ती हैं लड़कियाँ
और यों थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ती हैं
ज़िन्दगी की डोर
अपने हाथ में थामने की कोशिश करती हैं
(जन्म: 12 सितंबर 1976, बरेली, उत्तरप्रदेश में
सृजन :सहारा समय, हंस, इतिहास बोध, विज्ञान प्रगति, सांस्कृतिक समुच्चय, दस्तक, दैनिक जागरण, अमर उजाला और आज आदि में कवितायें, लेख, समीक्षा, फ़ीचर एवं रिपोर्ट प्रकाशित
कृति: जिसे तुम देह से नहीं सुन सकते (कविता-संग्रह)
फिलहाल: स्वतंत्र पत्रकार एवं एक्टिविस्ट संपर्क: इलाहाबाद , navodita @gmail .com
ब्लॉग : SECOND OPINION )
19 comments: on "बिलकुल एक-सी होती हैं लड़कियाँ"
khoob surat aur purasar nazmein!
साथी शहरोज़ ,
आपने बेहतरीन कविताओं का चयन किया है विशेषकर ;जिस्म ही नहीं हूँ मैं ; कविता आज के समाज में एक चुनौती है. उन लोगों के लिए जो सामंती विचारों से भरे हुए हैं अगर यह कविता आसानी से लोग पचा ले गये तो यकीनन काफी समझदारी के साथ यह समाज प्रगतिशील दिशा में बढ़ रहा है इसे मान लेना चाहिए. मैंने कई बार यह रचना पढी और देर तक सोचा फिर लगा अब हमें हर चुनौती रूढ़ियों के खिलाफ स्वीकार करनी होगी. आपने यह रचना पाठकों के सामने लाकर सभी को उनके मुखौटों से निकलकर असली चेहरे देखने के लिए मजबूर किया है. आपका बेहद शुक्रगुजार हूँ. एक अच्छी रचना हम तक पहुचाने के लिए.
सशक्त लेखन, भावों का, सामाजिक परिवेश का, सत्य का।
एक सी होती है सभी लड़कियां ...
संध्या की कविताओं से मिलना अच्छा लगा ...
बेहतरीन कविताएँ! सशक्त अभिव्यक्ति और अंतर की आवाज।
अभिव्यक्ति काफी शशक्त है ...... अच्छा लगा संध्या जी के कविताओं से मिलना .
इन रचनाओं ने रोमांचित कर दिया ....
शहरोज भाई,नए कवि से परिचय कराने के लिए आभार।
भावों को सशक्तता से अभिव्यक्त करती रचनाये.
संध्या हमारे समय की कविता लिख रहीं हैं और उन्हीं कविताओं में अतीत को दर्ज़ करते हुए भविष्य की रूपरेखा भी खींच रहीं हैं। पाठ के शुरुआत के साथ सामान्य लगती हुई कविता, धीरे-धीरे मुक्कमल हुई है और ठीक जगह पर अपना असर भी छोड़ रही है। पहली कविता सही मायनों में प्रगतिशील कविता है क्योंकि वहाँ स्वयं की पहचान के साथ भी साथी को लेकर एक सम्मान है। घोषणा है तो आग्रह भी है। प्रेम का उफान और विद्रोह का तूफान दोनों संध्या की पहली कविता है और खास बात यह है कि दोनों ही बहुत सहज हैं बिना किसी आडंबर के।
(हालांकि मुझे लगता है कि 'होठ प्रेमिका को चूमते ही नहीं' पंक्ति पर शायद दुबारा ध्यान देने की ज़रूरत है। )
यहाँ अगर पहली कविता को संध्या की कविताई का मेनिफेस्टो माना जाय तो आगे की कवितायें स्त्री मुक्ति के मार्ग स्त्रियॉं के द्वारा दिये गये छोटे छोटे अवदानों का बयान है। उनका किस्सा है।
... prasanshaneey rachanaayen ... behatreen post !!
सारी कविताएँ विचारोत्तेजक .. औरतों के बारे में सटीक लिखा है ..उस मृत समुन्द्र में उनकी उम्मीदें और सपने ही तो डूबते हैं ...
एक एक शब्द लाजवाब!!!शब्द का अहेसास लाजवाब!!! शहरोज़भाई बहोत दिनों बाद पढा पर आपने ऐसी नायाब रचनाओं का ज़खीरा हमारे आगे रख दिया कि हम अवाक़ ही रह गये। एक नारी की रचना को नारी बहोत ही बहेतर अनुभुति से महसूस कर सकती है। फ़िर कहुंगी ...लाजवाब!!!
बहुत सुन्दर व सशक्त अभिव्यक्ति।
गज़ब की रचनाएँ...इस युवा कवयेत्री का भविष्य बहुत उज्जवल है...
नीरज
नारी की स्थिति और गरिमा को परिभाषित व प्रतिस्थापित करती अतिसार्थक रचना...
बहुत बहुत आभार इस सुन्दर कृति के लिए...
एक से बढ़कर एक,
आभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
Shabdon or anubhution ka itna khubsoorat istemaal bhi kiya ja sakta hai. yakeen nahin hota!
padh kar laga jaise alfazon ne aik khoobsoorat dream girl ka roop le liya hai. shahroz bhai ka shukriy jinhone hamen itni shandaar nazmon se ru-b-ru kraya
शहरोज़ भाई....बस इसी तरह की स्त्री रचनात्मकता का कायल हूँ मैं....गज़ब लिखा है संध्या जी ने.....उन्हें....याँ उनकी वीरता को सलाम....!!
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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
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- अल्लामा जमील मज़हरी