हस्तरेखाएं देख अब दूसरे का भविष्य बांच रहे हैं मनातू मौआर
सतर के दशक में बोलती थी तूती
आदमखोर के नाम से कुख्यात इस सामंत पर लगे थे बंधुआ मजदूरी कराने के आरोप
गांववालों पर लगाए कर और जुर्माने
जमीन हड़प कर खड़ा किया था साम्राज्य
सैयद शहरोज कमर, मनातू से लौटकर
कलाइयों पर रुद्राक्ष का कलेवा, गले में दमकती अनगिनत मालाएं। लेकिन कल के आदमखोर सामंत कहे जाने वाले मनातू मौआर जगदीश्वर जीत सिंह की पहचान अब शिवशिष्य संप्रदाय के एक कट्टर भक्त की ही नहीं है, उन्होंने समय के अनुकूल खुद को पूरी तरह ढाल लिया है। उनसे मिलकर दहशत नहीं, सहानुभूति हो सकती है। शालीनता और विनयशीलता के उनके नए लबादे ने इतिहास में उनके नाम दर्ज तमाम कू्ररताओं को ढंकने की सफलतम कोशिशें की हैं। जब हम पहुंचे तो मौआर अपने ढहते साम्राज्य की देहरी पर किसी शहरी व्यक्ति की रेखाओं को देखकर उसका भविष्य बता रहे थे। सवाल मौजूं हो सकता है कि क्या उन्होंने अपनी रेखाओं की पहचान भी कर ली थी।
मेन इटर ऑफ मनातू । आप को कहा गया। इस नाम की फिल्म भी बन गई। हम सीधे सवाल पर आते हैं। सारी फितूर में राजनीति है। और मैं तब भी इसे गंदी चीज मानता था। हुआ यूं कि सत्येंद्रनारायण सिंह उर्फ छोटे साहब मुझसे बहुत स्नेह रखते थे। वहीं उनके और भीष्मनारायण सिंह के बीच छत्तीस के रिश्ते थे। छोट साहब से पारिवारिक संबंध रहे हैं। भीष्मनारायण सिंह ने मुझे बुलाकर कहा, पलामू में रहे का तो हमरे साथ आप को रहना चाहिए। छोटे साब का साथ छोड़ दीजिए। हमने कहा, हम उनका साथ नहीं छोड़ सकते, तो उन्होंने कहा कि फिर भोगिया। उनका कहा न मानने की सजा हम आज तक भोग रहे हैं।
मतलब? मौआर कहते हैं, भीष्मनारायण सिंह ने तभी से मेरे विरुद्ध दुष्प्रचार कराना शुरू कर दिया। सन 72 के किसी महीने सबसे पहले मुजफ्फरपुर के एक अखबार शानदार ने मुझे आदमखोर कहा। बताइये भला क्या अगर ऐसा होता तो मेरे घर के लोग जिंदा बच जाते ! इस शानदार करतूत के बाद तो मीडिया में सबसे अधिक बिकाउ चीज मैं हो गया। अनगिनत पत्र और पत्रकारों ने मुझ पर रोज नए इलजाम लगाए। और गालियां देनी आरंभ कर दी। लेिकन मुझसे मिलने कोई नहीं आया। पी साइंनाथ, फिर एक दिल्ली के बाद आप तीसरे पत्रकार हैं जो मुझसे मिलने आया।
मानहानि का दावा क्यों नहीं किया। इसलिए मुकदमा नहीं किया िक उन्हें बेवजह शोहरत मिलती। लिखते लिखते एक दिन लोग खुद थक जाएंगे।
आप पर कई मुकदमे थे। हां सही है। लेकिन मैंने सभी जीते। (कहा जाता है कि उनके आतंक के कारण उनके खिलाफ कोई गवाह ही नहीं मिला)।
उर्दू की नफासत और अंगे्रजी के एटिकेट पर कहा, मैं कभी स्कूल नहीं गया। पहली बार डाल्टेनगंज के ग्रेवर स्कूल में दाखिला हुआ। वहां के टीचर सफदर अली की पिटाई के बाद दोबारा स्कूल गया ही नहीं। यहां से 14 15 किलोमीटर पर खानों की बस्ती है कोठी। वहां के लोगों का घर पर अक्सर आना जाना रहता। घर पर पचास फीसदी स्टाफ मुस्लिम ही थे। उनकी सोहबत में उर्दू आ गई। वहीं अंग्रेजों के कारण अंग्रेजी के साथ उनका अनुशासन सीख गया।
ढहती दीवारों के बीच कैसा लगता है। अच्छा तो नहीं लगता। देख ही रहे हैं। नौ सौ साल पहले अकबर ने हमारे पूर्वजों को यहां की जमींदारी दी थी। सात आँगन वाला यह घर एक माघ 1127 ई को बना। (वह अपने लकड़ी के बुलंद दरवाजे पर कैथी में लिखी इबारत दिखाते हैं)। आगे का हिस्सा दादा प्रयागजीत सिंह रायबहादुर ने 1946 में बनवाया। आंगन तो रहा ही नहीं, दीवारें और छतें भी ढह रही है। लेिकन इसकी मरम्मत कराना बूते में नहीं। दरवाजे पर रहते थे 2 चीते, 2 हाथी और 14 घोड़े । चीता 82 में मर गया। धीरे धीरे हाथी घोड़े भी गए। पहले की दो विदेशी कार अब बदरंग और बेकार हो गई है । अब जमींदारी भी नहीं रही। महज 350 एकड़ जमीन बची है। उसमें भी अकाल सूखे की मार।
आपका तो इलाका था। कल की बात है। जंगल भी था। लेकिन 82 के आसपास नक्सलियों ने तंग किया। लोगों ने खेतों पर कब्जा कर लिया। सरकार ने जंगल ले लिया। (कहा जाता है कि इस परिवार ने जबरन जवार की जमीनों पर कब्जा कर लिया था। विरोधियों को अपने पालतू बाघ के आगे भी फेंक दिया करते थे मौआर ।)
लेकिन अब बहुत पहले धार्मिक किताबें ढूंढते हुए शिवपुराण पर नजर पड़ी। पढ़ डाला। तभी से शिवभक्त हो गया। शिव ही गुरु हैं, भगवान भी मेरे। उन्होंने ही मुझे संकटों से उबारा। सात बेटे जब एक के बाद एक बड़े होने लगे तो उन्होंने व्यवसाय करना शुरू किया तो घर की स्थिति सुधरी। वरना अकाल के इस इलाके में हम जिंदा नहीं बचते।
अस्सी की उम्र में चाक चौबंदी की वजह यह है कि मैंने कभी शराब नहीं पी। न ही बीड़ी तंबाकू। हां मांसाहारी हूं। हार्ट, शुगर और ब्लडप्रेशर का मरीज हूं। लकवा भी मार चुका है। लेकिन जड़ी बूटी और शिव की कृपा काम आती है।
गंगा जमुनी तहजीब खानदानी रही है। इस इलाके में बोउराशरीफ में लेटे हुए दाता अमीर अली शाह और मंगतूशाह, जिनकी मजार मनातू में है, हमारे घर पर ही जिंदगी भर रहे। वफात से पहले उन्होंने वसीयत की थी कि उनकी मजार पर पहली चादर मेरे घर से ही जाए। यह परंपरा आज तक निभाई जा रही है। अमीर शाह की तलवार भी हमारे पास आज तक सुरक्षित है।
नक्सलियों से घिरे रहने के बावजूद कल के इस खूंख्वार सामंत की ठसक में बल तो पड़े हैं, पर उसके आभामंडल में कमी नहीं आई है। आज भी लोग उनके चरणस्पर्श करते हैं। उनके खिलाफ खुलक र बोलने से कतराते हैं। है न चकित करने वाली बात!
भास्कर के लिए
मई की अंतिम किसी तारीख को लिखा गया था
11 comments: on "मैन ऑफ इटर अब बन गया शिवभक्त"
kyaa baat hai...duniya mey aise log bhi hain.sundar,marmikrapat k liye badhai.
bhae ji aap kahan chalay gay tay .aaoko bhut mo' kiya. bat nahi ho pae.
अच्छी चर्चा है।
आभार !
हिंदी ब्लॉगर्स को ‘अमन का पैग़ाम‘ दे रहे हैं जनाब एस. एम. मासूम साहब
Aapka interview padhkar bahut achcha laga.. naye logon aur jagah ke bare mein jaanaa..
behtar article badhaee swikaar karen !
... saarthak charchaa !!
बहु अच्छा लगा यह साक्षत्कार. शहरोज भाई इसके लिए बधाई.
Maza aa gaya padhke!
रोचक व्यक्तित्व....
बढ़िया साक्षात्कार...
खानों के बजाये पठानों की बस्ती कहते तो ज्यादा उपयुक्त होता! लेखक होने की हैसियत से नहीं पठान होने की हैसियत से कह रहा हूँ! कोठी युसुफजई पठानों का इलाका है, मुझे ताज्जुब लगता है की जब नक्सालियों ने कोठी और आसपास के इलाको में पठानों को काटने का सिलसिला शुरू किया था तब ये कैसे बचे रहे!
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