गुन्जेश की कवितायें
(1)
ज्ञान, शांति, मैत्री
हमारे दौर के
सबसे प्रतिष्ठित शब्द हैं........
इतने प्रतिष्ठित शब्द कि
ये हमें प्रतिष्ठित कर सकते थे!!
थे?
हाँ, थे!!!!!!!
ज्ञान अब --तथ्य है,
शांति --प्रतिबन्ध
मैत्री --चाटुकारिता
और हम अपने समय के सबसे बड़े
शोर.........
(2)
ज्ञान, शांति, मैत्री
हमारे दौर के
सबसे प्रतिष्ठित शब्द हैं........
इतने प्रतिष्ठित शब्द कि
ये हमें प्रतिष्ठित कर सकते थे!!
थे?
हाँ, थे!!!!!!!
ज्ञान अब --तथ्य है,
शांति --प्रतिबन्ध
मैत्री --चाटुकारिता
और हम अपने समय के सबसे बड़े
शोर.........
(2)
उसके आवाज़ में
भारीपन था,
स्वर में गहराई,
विचारों में स्पष्टता ,
समय ने
आवाज़, स्वर, और विचार को
अगवा कर लिया
बचा रह गया
भारीपन ----व्यक्तित्व का
गहराई ----संबंधों में
स्पष्टता ---अधिकारों की..........
(3)
आज लिखी जाएँगी
जम कर कुछ पंक्तियाँ,
पंक्तियाँ प्रेम पगी
बहुत रस भरी पंक्तियाँ,
नहीं.....
कोई इन्कलाब नहीं हुआ......
सिंहासन भी ज्यूँ का त्यूं है ...
भाई, जंग तो अभी शुरू ही नहीं हुई, तुम जीतने की बात करते हो???
फिर भी चूंकि बहुत-बहुत नकारात्मक नहीं होना चाहिए
इसलिए लिखी जा रही हैं पंक्तियाँ,
दो शब्द आस-पास रखे गए हैं --
जैसे कैमरे के सामने दो जिस्म ......
जिसे देख कर रत है पूरा समय हस्तमैथुन में
लिखी जाएँगी पंक्तियाँ इसलिए कि
स्खलित हो जाये पूरा समाज -- अपने ही हाथों में
कि रजा को अब और प्रजा की ज़रूरत नहीं.....
एक होती है कविता की भाषा
और एक भाषा
की कविता
ठीक वैसे ही
जैसे
होती है
राजनीति की 'शिक्षा'
और
'शिक्षा'
की राजनीति ......
***********************************************
परिचय:
बिहार-झारखंड के किसी अनाम से गाँव में -09/07/1989 को जन्मे इस टटके कवि-कथाकार [
--> गुन्जेश कुमार मिश्रा ] ने जमशेदपुर से वाणिज्य में स्नातक किया.सम्प्रति महात्मा गाँधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में एम. ए. जनसंचार के छात्र हैं.परिकथा में इनकी पहली कहानी प्रकाशित हुई जिसे हमने भी साभार हमज़बान में प्रस्तुत किया था.खबर है कि उसी पत्रिका के ताज़े अंक में उनकी दूसरी कहानी भी शाया हुई है.उन्हें मुबारक बाद!!कविता के बारे कोई राय देना नहीं चाहता..वो खुद मुखर हैं.यूँ गुन्जेश स्वीकार करते हैं कि जितना समय वह पाठ्य-पुस्तकों को देते हैं,उस से कम साहित्यिक पुस्तकों को नहीं देते!उनका विश्वास है : संसार में जो भी बड़ा से बड़ा बदलाव हुआ है, उसके पीछे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गंभीर लेखन की भूमिका अवश्य रही है. ..माडरेटर
1 comments: on "स्खलित होता समाज -- अपने ही हाथों में"
गजब की कवितायें, एक से एक दमदार।
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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी