बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 27 जुलाई 2011

२५ वर्षों से निकाल रहा धोबी हस्तलिखित अख़बार















मुक्तिबोध का मेहतर गौरी शंकर रजक 



गुंजेश दुमका से 






सब जानते हैं कि झारखंड भारत गणराज्य का एक राज्य है। उनमें कुछ जानते होंगे कि दुमका इस राज्य की उपराजधानी है। लेकिन ज़्यादातर लोगों को यह पता नहीं होगा कि दुमका बस स्टेंड से पोखरा चौंक जाने वाली सड़क पर कुछ दूर चलने पर बाईं जानिब एक दुर्गा स्थान है और वहाँ से कुछ फ़र्लांग और आगे बढ़ने पर दाईं तरफ एक सड़क जाती है जिला कारागार के ठीक बगल-बगल से। उस सड़क पर आगे जा कर एक बाईं तरफ डायोग्नोस्टिक भवन है और थोड़ा और आगे जाने पर पोर्स्ट्मार्टम घर।

खैर, शहर के बारे में यह सब जानकारी तो आपको गूगल मैप से भी मिल सकती है। जो जानकारी आपको गूगल मैप से नहीं मिलनी है वह है झारखंड के एक अनोखे खबरची गौरी शंकर रजक के बारे में। ज़रा सोचिए, आपको बताया जाय कि एक ऐसा आदमी है जो हाथों से हर हफ्ते एक अख़बार निकालता है और ऐसा वह पिछले 25 वर्षों से कर रहा है। कि वह मुक्तिबोध का मेहतर है और पेशे से धोबी है। फिर आप निकल पढ़ते हैं उससे मिलने ऊपर वाले रास्ते पर। नीली छतरी टांगें, बनियान पैजमा पहने, कुर्ते को कंधे पर रखे, कई और लोगों कि तरह एक शख्स भी सामने से गुज़र जाता है। आप बताए गए पते बी. आर. लांड्री. पर पहुँचते हैं, पुछते हैं कि क्या यहीं वो रहते हैं जो हाथ से लिख कर हर हफ्ते अखबार निकालते हैं, “ऊ अभिये कोटा निकला है ऊ देखिये तो छाता लेकर जा रहा है न, वही लिखता है” आप पीछे मूढ कर देखते है वही है। वही है !! आप उसके पीछे भागते हैं, चाचा आप ही हैं जो हाथ से लिखकर अख़बार निकालते हैं, चमकदार आँखें आपको देखती हैं, गौरी शंकर रजक की चमकदार आँखें। जेम्स आगस्टस हिक्की की आँखें भी क्या ऐसे ही चमकदार रही होंगी? पहली बात जो गौरी शंकर जी आजकल आपसे कहेंगे वह यह कि 15 अगस्त से वह साप्ताहिक अख़बार का प्रिंटेड एडिशन निकालने वाले हैं।

आप अगर गौरी शंकर जी के साथ किरोसिन तेल लेने के लिए कोटा (जन वितरण प्रणाली, के तहत ज़रूरत के सामान देने वाली दुकान) गए होते तो आपको पता होता कि कोटा बंद रहने के कारण उन्हें तेल नहीं मिला और फिर बाद में यह भी पता चतला कि उन्हें यह पता नहीं कि कोटा कब खुलता है कब बंद हो जाता है।



हमको तो जो कोई नहीं छापता है, आदमी लोग का दुख, समस्या वही हमको दिखता है हम उसी को लिखते हैं।“

कैसे मन हुआ की लिखा जाय?

-       “एक बार एक आदमी के साथ डीसी के पास गए उसको वृद्धा पेंशन दिलाना था, सब के पास जा कर थक गया था बुड़ा आदमी, 86 का बात है, डीसी भी उल्टा जबाब दे दिया। फिर हम पुछे की ऐसा काहे तो डीसी हमसे बोला की तुम कौन है, जाओ कुछ नहीं मिलेगा तभिये लगा की अपना कुछ ताकत होना चाहिए। तब से लिख रहे हैं.....”


  अख़बार आंदोलन हो गया दीन दलित



1986 में आंदोलन नाम से अख़बार शुरू कर वृद्धा पेंशन योग्य उम्मीदवारों के लिए जो आंदोलन शुरू किया वह आज भी जारी है। 1996 गौरी शंकर के लिए खास रहा दिल्ली तक उनके आंदोलन की गूंज पहुंची, और उन्हें राष्ट्रपति के. आर. नारायनन ने सम्मानित किया। तब ही उनके आखबर को पंजीकृत करने की बात भी हुई और आंदोलन का नाम बादल कर दीन दलित हो गया।     

अख़बार का नाम ज़रूर बदला हो पर सरोकार नहीं बदले हैं। दलितों वंचितों के लिए आज भी गौरी शंकर रजक ही एक पत्रकार हैं जो उनकी बात ऊपर तक पहुंचा पाते हैं। “आजकल बीपीएल कार्ड में बड़ी धांधली हो रहा है उसके बारे में लिखना है... उपरे इतना भ्रष्टाचार है की नीचे कर्मचारी लोग को कोई डर ही नहीं है.... ऊपर ठीक करना होगा पैसा गरीब के लिए आता है और अफसर लोग टीवी फ्रिज खरीदता है मेला देखता है” यह है गौरी शकर रजक की मूल चिंता।



65 वर्षीय गौरी 25 वर्षों के इस सफर में अख़बार पर 5लाख 12 हज़ार चार सौ रुपये खर्च कर चुके हैं। इस मई उन्होने जिला अधिकारी के पास अर्जी दी है की खर्चे का कुछ हिस्सा अगर सरकार की तरफ से मिल जाय तो अख़बार की प्रिंटेड एडिशन निकालने में सहायता मिल जाय। शुबू सोरेन के दिवंगत पुत्र दुर्गा सोरेन ने वादा किया था एक प्रेस ही खोलेंगे उनके लिए, पर अब वही नहीं रहे। एक छोटी मोटी लांड्री से अपनी जीविका चलाने वाले गौरी हर माह बारह सौ रुपये अखबार में खर्च करते हैं। उन्होने दलित समाज में चेतना जागृत करने और उन्हें संगठित करने के लिए एक संघ भी बनाया है- निर्धन दलित समाज संघ। 


सामाजिक न्याय पर आधारित और कानून से संबधित किताबों को पढ़ने वाले इस खबरची ने अख़बार के आलवे भी आतंकवाद और परिवार नियोजन जैसे विषयों पर लंबे लेख लिख रखे हैं और उन्हें प्रकाशक की तलाश है। गौरी शंकर जब अखबारों को दिखाते हैं तो भले ही वर्तनी की बेशुमार गलतियाँ आपको खटके पर ज़रा सोचिए जिस आदमी ने पूरे सामाजिक व्याकरण को पलटने का जिम्मा उठाया लिया हो, वह वर्तनी की फिक्र क्यों करेगा भला।

चलते-चलते उनसे पूछ बैठा शुबू सोरेन के बारे में क्या सोचते हैं आप? “बीजेपी के भरोसे है अब तो, पहले अपना दिमाग से काम करता था तो ठीक था, अब जो, जो बोलता है वही करता, इसलिए तो मोल कम हो गया है उसका, दिल्ली से पैसा मांगता है तो उसको मिलता नहीं है, पहले ऐसा नहीं था”।

गौरी शंकर रजक से मुलाक़ात किसी इतिहास से मुलाक़ात नहीं है, वह वर्तमान है, खालिस वर्तमान। गौरी शंकर से मुलाक़ात उस समझ से मुलाक़ात है जिसके तहत पत्रकारिता एक जज़्बा है।






















इस पोस्ट की चर्चा तेताला, कुछ ख़ास  और ब्लाग ख़बरें पर भी







लेखक-परिचय: बिहार-झारखंड के किसी अनाम से गाँव में -09/07/1989 को जन्मे इस टटके पत्रकार [ गुन्जेश कुमार मिश्रा ] ने जमशेदपुर से वाणिज्य में स्नातक कर महात्मा गाँधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से एम. ए. जनसंचार अभी किया हैं. उनसे gunjeshkcc@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

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13 comments: on "२५ वर्षों से निकाल रहा धोबी हस्तलिखित अख़बार"

अफ़लातून ने कहा…

अख़बारनवीस गौरी शंकर से बहुत प्रभावित हूं । उनके करतब से परिचित कराने के लिए आपका धन्यवाद।

Rahul Singh ने कहा…

अखबार की खबर अ्प्रत्‍याशित, अविश्‍वसनीय. ''मुक्तिबोध का मेहतर'' का आशय स्‍पष्‍ट नहीं हो पाया.

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

कहते हैं कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता लेकिन ऐसा नहीं है - अगर इंसान के अन्दर किसी भी चीज का जूनून है तो वह अपने रास्ते अकेले ही तय करके अपनी पहचान बना लेता है. ऐसे लेखन और संपादक को मेरा प्रणाम.

Khare A ने कहा…

bahut hi jordar shakhshiyat se ru-baru karbaya! aap ko aur aapke dwara di gayi in hastlikhit akhbaar ke sampadak ko mera shat shat naman! bas itna hi kahunga....kisi shayar ki..

"kaun kehta hai ki assmaan me suraakh nhi ho sakta,
ek paththar to jara tabiyat se uchhalo yaron"

kshama ने कहा…

Bahut dilchasp aalekh hai! Kamaal hai us wyakti kee jo aisa akhbaar nikalta hai!

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

ऐसे लोगों के जज्बे को सलाम ..अच्छी जानकारी

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

आम आदमी का दुख छापने वाला भी कोई चाहिये।

श्रद्धा जैन ने कहा…

Waah aisa bhi hota hai.. aap ki nazar jahan na pahunche wo kam hai shukriya is jaankaarri ko ham sabse baantne ke liye..

vidhya ने कहा…

bahut kub, aap ka naman

vandana gupta ने कहा…

इस जीवट और जज़्बे को नमन्।

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

ये है क़लम की असली ताक़त. इस सिपाही को सलाम.

गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने कहा…

इस अनौखे पत्रकार को और मुक्तिबोध के 'मेहतर' को मेरा शत्..शत्.वन्दन ।

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