नए सांस्कृतिक नवजागरण की ज़रुरत
गिरीश पंकज की क़लम से
समकालीन हिंदी मीडिया पर दृष्टिपात करें तो एक बात छन कर सामने आ रही है, कि तथाकथित पश्चिम से आयातित उत्तर आधुनिकता के काल में समकालीन मीडिया की भाषा और उसके व्यवहार को देखें तो समझ में आ जाता है, कि वह मूल्यों से कितना विलग हो चुका है। भाषा गिरी है। संवेदना मरी है। जीवन-मूल्य गिरते जा रहे हैं। अब मूल्यों की जगह मोल-भाव वाले मूल्यों की पत्रकारिता फल-फूल रही है। कभी बाजार को ध्यान में रख कर थोड़ा-बहुत समझौता करने वाला वाला मीडिया अब खुद एक बाजार बन चुका है। इसीलिए अब उसे सनसनी चाहिए, साहित्य नहीं। कुछ ऐसा चाहिए जिसके सहारे वह बाजार में खप सके। जब तमाम तरह की नकारात्मकताएँ ही परोसनी है, तो साहित्य की जरूरत क्या? इसे निकाल बाहर करो। अब तो जो सीरियल आ रहे हैं, उनकी भाषा ने शालीनता या शीलता के बंध ही तोड़ डाले हैं। सच्चाई का मतलब अश्लीलतम व्यवहार की सार्वजनिक स्वीकृति को समझ लिया गया है। अश्लीलता परोस कर इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़ा जाने लगा है। साहित्यविहीन होते जाने के कारण मीडिया में संवेनहीनता भी बढ़ी है। वह सेक्स से जुड़े किसी विषय पर पूरा का पूरा पृष्ठ दे सकता है, कंडोम-कंडोम तक बिंदास बोल सकता है लेकिन साहित्य के लिए, पुस्तक की समीक्षाओं के लिए या साहित्य के गंभीर विमर्श के लिए उसके पास कोई जगह नहीं। ऐसा केवल हिंदी प्रदेश के मीडिया में ही देखा जा रहा है। अहिंदी भाषी समाचार पत्रों में अभी भी साहित्य की दुनिया बची हुई है। अँगरेजी एवं अन्य भाषाई पत्र-पत्रिकाओं में आज भी साहित्य बचा हुआ है जहाँ पुस्तक समीक्षा के लिए तीन-चार पृष्ठ दिए जाते हैं। हिंदी समाचार पत्रों में अब यह सब इतिहास है। वैसे तो पहले भी कभी उतना स्पेस नहीं रहता था, जितना मिलना चाहिए। फिर भी साहित्य-प्रेमी संतुष्ट थे। लेकिन अब तो वैसे भी हालात नहीं रहे।
जिस तथाकथित उत्तर आधुनिक होते हिंदी समाज में अपनी ही राष्ट्रभाषा हिंदी के लिए धीरे-धीरे जगह कम होती जा रही है, उस समाज के सांस्कृतिक संकट को आसानी से महसूस किया जा सकता है। बासठ वर्ष पूर्व अँगरेज़ो से मुक्त हुए इस महादेश में अँगरेजी भाषा फिरंगियों की याद दिलाने के लिए अब तक विद्यामन है। आश्चर्य होता है, कि यह कैसे हुआ? एक पराई और दो सौ सालों तक भारतीय मानस को अपना उपनिवेश बना कर रखने वाली सामंती-भाषा के आगे हमारे भाग्यविधाओं ने हथियार क्यों डाल दिए? उन्होंने जन-गण-मन को समझने की कोशिश क्यों नहीं की? कुपरिणाम सामने है, कि आज हिंदी हाशिये पर है और उसकी जगह हिंग्लिश या हिंग्रेजी नामक एक नई बाजारू भाषा को स्थापित करने की क्रमिक साजिश की जा रही है। हम देख रहे हैं, कि यही भाषा हिंदी को धीरे-धीरे बहिष्कृत कर रही है। हमारा नया मीडिया इस हिंग्रेजी के प्रति अतिशय प्रेम प्रदर्शित कर रहा है। इसी के कारण हिंदी साहित्य भी जीवन के केंद्र से और पत्रकारिता से दूर होता जा रहा है। पूरे परिदृश्य का विहंगावलोकन करते हुए लगता है, कि हिंदी और हिंदी साहित्य के उत्थान हेतु अब एक नये सांस्कृतिक नवजागरण का आंदोलन चलाया जाना चाहिए वरना आने वाले समय में हम हिंदी को खो देंगे, एक रागात्मक संस्कृति कोखो देंगे और प्रकारांतर से साहित्य को भी हाशिये पर डाल देंगे। अँगरेजी के प्रति हमारा प्रेम गुलामी के दौर से ही शुरू हो गया था, तभी तो मुंशी प्रेमचंद ने कहा था, कि अँगरेजी धनी भाषा है पर जितना तथा जिस दृष्टि से हम इसे आदर देते हैं, वह हमारे लिए गर्व की बात नहीं है। सत्तर साल बाद इस कथन को देखें तो लगता है, कि अरे,यह तो आज-कल में ही दिया गया बयान है। बिल्कुल ताजा.
बाजारीकरण के नये साम्राज्यवाद के कारण मीडिया हिंदी और हिंदी साहित्य से दूर होता जा रहा है। और यह सब उसने जानबूझ कर किया है इसीलिए हिंदी पत्रकारिता की शीर्ष पाठशालाओं के रूप में पहचाने जाने वाले राष्ट्रीय समाचार पत्र अब राष्ट्रीय नहीं रहे। प्रसार की दृष्टि से और आचार-व्यवहार की दृष्टि से भी। उनकी तथाकथित राष्ट्रीय-छवि को हिंदी की ग्रामीण पत्रकारिता की ओजस्विता एवं नई तकनालॉजी ने ध्वस्त कर दिया है। दिल्ली से निकलने वाले समाचार पत्र कभी सचमुच राष्ट्रीय हुआ करते थे, अब वे देश के अनेक हिस्सों में कहीं नजर नहीं आते। खुद दिल्ली में उनकी प्रसार संख्या बहुत अधिक सम्मानजनक नहीं कही जा सकती। ऐसे कुछ और समाचार पत्र हैं, जिनकी प्रसार संख्या कम होती गई। इसका कारण यह नहीं, कि समाचार पत्रों को पढऩे वाले कम हुए, वरना इसका वास्तविक कारण यह है, कि ये समाचार पत्र अपने मूल्यों से नीचे गिरे है और उन्होंने साहित्य, संस्कृति, कला आदि जीवन के अनिवार्य उपादनों को गैर जरूरी मान कर अश्लील, भोग-विलास एवं मनोरंजक तड़के को ही अपनी जिजीविषा का हिस्सा बना लिया। मीडिया ने अपनी ओर से ही यह मान लिया कि अब समाज में साहित्य एवं कलानुरागियों की कमी हो गई है। लोग चाक्षुस-माध्यम की ओर ज्यादा उन्मुख हैं, लोग पढऩा नहीं, देखना चाहते हैं। यह उतना ही बड़ा भ्रम है, जितना बड़ा भ्रम यह है कि समाज में अनैतिकता को मान्यता मिल गई है या भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन गया है।
इधर प्रिंट मीडिया से साहित्य के बहिष्कार का एक बड़ा कारण यह भी है कि इधर जो नए-नए अखबार-मालिक-पुत्र आए हैं, उनकी दृष्टि भी भारतीयता के पारम्परिक बोध से वंचित रही। वे पाश्चात्य शिक्षा ग्रहण करके लौटे और समझ लिया कि इस देश की पत्रकारिता को अब केवल बाजार की ही जरूरत है, आचार या संस्कार की नहीं। इसीलिए उन्होंने अपने-अपने समाचार पत्रों से पहले हिंदी पर ही प्रहार किया। आदेश भी जारी कर दिए गए कि अब वही हिंग्लिश परोसी जाए, जो इलेक्ट्रनिक मीडिया में परोसी जा रही है। इस तरह न्यूज चैनलों की भाँति समाचार पत्रों को भी विशुद्ध रूप से न्यूज चैनल की तर्ज पर प्रकाशित करने की मनोवृत्ति ने समाचार पत्रों से साहित्य का एक तरह का देशनिकाला ही दे दिया। इसलिए अब हिंदी के समाचार पत्रों में न तो साहित्य की विभिन्न विधाओं के लिए न कोई खास जगह बची है, और न ही उसकी गंभीर समालोचना की। साहित्यिक आयोजनों की खबरें छापने का मतलब है जगह की बर्बादी। साहित्यिक आयोजनों की बजाय अब महिलाओं की तरह-तरह की पार्टियाँ, उनके स्थानीय एवं घरेलू स्तर के फैशन शो तथा इसी तरह की बचकानी या ऊलजलूल गतिविधियों के लिए पृष्ठ के पृष्ठ समर्पित कर दिए जाते हैं। व्यापार के लिए पृष्ठों की कमी नहीं है, खेल समाचार भी खूब होते हैं। इनमें भी केवल क्रिकेट केंद्र में रहता है। भारतीय खेल यहाँ भी गायब हैं। अग्रलेख वाले पृष्ठों पर साज-सज्जा तो सुधरी है, लेकिन छपने वाली सामग्री घटिया राजनीति के विमर्श पर ही ज्यादा केंद्रित रहती है। साहित्य में घटित होने वाले नए प्रसंगों पर कोई विमर्श नहीं होता। देस की राजधानी दिल्ली से प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं में अब सेक्स-विषयक लेख एवं परिचर्चाएँ ज्यादा छपती हैं। साहित्य उनके लिए गैरजरूरी हो गया है। इसे देखते हुए यह एक ट्रेंड-सा बन गया है जो धीरे-धीरे छोटे-छोटे कसबों तक में पसर गया है।
कभी दिल्ली की हिंदी पत्रकारिता एक दिशा प्रदान किया करती थी। न जाने कितने युवकों ने दिल्ली के कुछ समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं को पढ़-पढ़ कर अपनी साहित्यिक समझ विकसित की। लेकिन अब परिदृश्य बदल चुका है। अब दिल्ली से कोई आशा शेष नहीं रही क्योंकि अब वह खुद दिशाहीन है। उसकी देखा-देखी हिंदी का समकालीन मीडिया भी दिशाहीनता का शिकार हो गया है। अब क्या दिल्ली और क्या रायपुर, हर कहीं लगभग एक जैसी प्रवृत्तियाँ काम करती नजर आती हैं। हत्या, बलात्कार, सेक्स अथवा इसी तरह की समाज विरोधी हिंसक गतिविधियों के लिए काफी जगह निकाल ली जाती है, लेकिन साहित्य की बारी आने पर दो टूक कह दिया जाता है, कि इसे बाद में देखेंगे। दरअसल अब हिंदी का संपादक भी वैसा संपादक नहीं रहा जैसा दो दशक पहले तक हुआ करता था। अब तो संपादक वही है जो संपादकीय ही नहीं लिखता। वह मालिकों की तरह-तरह की बेगारियाँ करता फिरता है। जैसे किसी को पद्मश्री दिलवाने की कोशिश, तो किसी को कोई तथाकथित बड़ा सम्मान: कहीं जमीन हथियानी है, तो कहीं कोई उद्योग लगाना है। यह पत्रकारिता की ऐसी नई दुनिया है जिसका नीर-झीर विवेचन करें तो सारा सच सामने आ जाता है। मालिक की सेवा करते-करते कुछ खुरचन तो संपादकों को भी मिल ही जाती है। जब संपादक अपना मूल काम छोड़ कर दूसरे खटराग कर रहा हो तो उसे साहित्य से क्या मतलब। चला जाए साहित्य रसातल में, लेकिन उसकी दलाली या कहें कि ईनाम पक्के हैं। उसकी नौकरी तो पक्की है ही। नया संपादक मालिक के सामने ऐसा सीन जमाता है कि अब समाज को साहित्य की जरूरत ही नहीं है। बिना उसके ही अखबार दौड़ेगा। इस नई प्रवृत्ति के कारण संपादक नामक सत्ता भ्रष्ट हुई है और जब संपादक भ्रष्ट हो गया तब स्वाभाविक है, कि वे मूल्य भी नष्ट-भ्रष्ट होंगे, जो मूल्य पत्रकारिता के मानक हुआ करते थे। नया संपादक पाठकों के सामने आदर्शवादी मुखौटे के साथ उपस्थित होता है और परदे के पीछे सत्ता के साथ अठखेलिया करता है। सामने उसका साहित्य-संस्कृति वाला चेहरा नजर आता है, लेकिन पाश्र्व में वह साहित्य विरोधी फरमान जारी करता रहता है। मीडिया अगर साहित्य से विमुख हुआ है तो इसके लिए बहुत हद तक मीडिया के ऐसे लोग ही गुनहगार हैं। इन्हें महान पत्रकार साबित करने की प्रायोजित कोशिशें होती हैं। काश, मीडिया के प्रबंधक और संपादक अपनी रुचियों का परिष्कार करके समाज की परम्पराओं को समझने की कोशिश करते। मीडिया में मुट्ठी भर लोग जरूर हैं, जो समकालीन मीडिया में साहित्य की गंभीर उपस्थिति को लेकर चिंतित हैं। ऐसे लोगों की संख्या बढऩी चाहिए।
आखिर इस दर्द की दवा क्या है?
पूरे परिदृश्य का विहंगावलोकन करते हुए लगता है, कि हिंदी और हिंदी साहित्य के उत्थान हेतु अब एक नये सांस्कृतिक नवजागरण का आंदोलन चलाया जाना चाहिए जो समाज में साहित्य-काल-संस्कृति जैसे अनिवार्यत: वरेण्य विषयों के प्रति रुझान विकसित करने के लिए एक बौद्धिक वातावरण बनाने का काम करे। सत्साहित्य का प्रकाशन और उसे पढऩे की एक राष्ट्रव्यापी संस्कृति को बढ़ावा देने की दिशा में अब साहित्यकारों को भी सामने आना होगा। मीडिया में आने वाली नई पीढी की पुनश्चर्या भी जरूरी है। उसके बौद्धिक नवाचार के लिए साहित्य ही एक कारगर प्रकल्प सिद्ध हो सकता है। लेकिन यह तभी संभव है, जब एक साझा अभियान चले। मीडिया के पाठकों एवं दर्शकों तक साहित्यकार पहुँचे। मीडिया जिल धनपतियों के हाथों में है। वे तो जागरण के हिस्से बनने से रहे, उनको जगाने के लिए पहले भारतीय मनीषा को ही जगाना होगा। समाज में वह चेतना विकसित करनी होगा, वैसा रचनात्मक वातावरण बनाना होगा, जैसा वातावरण स्वातंत्र्य-संघर्ष-काल में बनाया गया था। तब अनेक स्वतंत्रता सेनानी बौद्धिक जागरण के गुलामी के विरुद्ध लड़ाई भी लड़ रहे थे तो समाज की अनेकानेक कुरीतियों के विरुद्ध जागरण का कार्य भी कर रहे थे। और यह काम साहित्य के जरिए ही संभव हो रहा था। अब वैसा ही संक्रमण काल नजर आ रहा है। देश की आजा़दी के बासठ साल बाद अब लगता है कि एक बार फिर उत्तर-हिंदीनवजागरण की शुरुआत होनी चाहिए। लेखक-प्रकाशक मिल कर चलें तभी यह संभव हो सकेगा। पुस्तकों, के माध्यम से, लेखों के माध्यम से समाज को अतीत की मधुर स्मृतियों से जोडऩा होगा और उन्हें बताना होगा, कि हम कौन थे क्या हो गए और क्या होंगे अभी। पूरे देश में ऐसा वातावरण बने कि मीडिया को अपनी गलती का अहसास हो। साहित्य से कट कर समाज जी नहीं सकता। अगर मीडिया में साहित्य जगह सँकरी हुई है तो वह जगह फिर से चौड़ी हो सकती है लेकिन इसके लिए एक नवांदोलन चले। पाठक -दर्शक उस मीडिया का बहिष्कार करे जिसमें साहित्य, संस्कृति और जीवन मूल्यों के लिए स्पेस ही नहीं बचा हो। ये सब चीजें अभी प्रिंट में ऊँट के मुँह मे जीरा की तरह नजर आती हैं। पाठकों को जागरुक करना होगा। वह अखबार क्यों पढ़े? क्या कंडोम के आधे-आधे पृष्ठ वाले विज्ञापनों के लिए? यौन संबंधी विज्ञापनों के लिए? क्या सेक्स जैसी दबी रहने देने वाली प्रवृत्तियों को चर्चित करने के लिए? नकारात्मक मूल्यों पर ही विमर्श माडिया का नया चरित्र, नया दर्शन या (लोकप्रिय जुमले में कहूँ तो) फंडा बनता जा रहा है। इससे उसे उबारने के लिए पाठक-समाज को और अधिक आक्रामक बनाना होगा। जिन समाचार पत्रों में साहित्य के लिए जगह नहीं है, उनका बहिष्कार हो, उनके विज्ञापन भी कम दिए जाएँ। यह शर्त रखी जाए कि उन्हीं समाचार पत्रों को विज्ञापन दिए जाएँगे, जिनमें साहित्यिक समाचार, पुस्तक-समीक्षाएँ एवं साहित्यिक रचनाएँ प्रमुखता से स्थान पाएँगी। अगर कोई ऐसी व्यवस्था हो जाए, तो मुझे लगता है, कि मजबूरी में ही सही रचना-विरोधी प्रिंट माडिया को झुकना पड़ेगा और धीरे-धीरे वे साहित्य को पत्रकारिता के केंद्र में रखने पर विवश होंगे। घर-घर में वैसे भाषाई संस्कार विकसित करने होंगे, जैसे चार-पाँच दशक पहले दिखाई देते थे।
पहले साहित्य एवं कला की पत्रिकाएँ घरों की शोभा बढ़ाया करती थीं। अब तो कैरियर, फैशन, वास्तु, सेक्स, साज-सज्जा जैसी चीजों वाली पत्रिकाएँ तो घरों में नजर आ जाती है। श्रेष्ठ साहित्यिक पुस्तकों के लिए अब कोई खास जगह नहीं बची है। ऐसा इसलिए हुआ है कि समाज में तेजी के साथ धनी बनने की प्रवृत्ति ने जोर मारा। नए किस्म का साम्राज्यवाद या उपनिवेशवाद अपने मकसद में सफल होता दीख रहा है। यह उपनिवेशवाद बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा लाया गया है। यह दबे पाँव चला आ रहा है। अपने उत्पादों को बेचने के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने पहले हिंदी का सहारा लिया फिर हिंदी को हिंग्लिश में रूपांतरित करना शुरू कर दिया। अब हालत यह है कि हमारा मध्यमवर्गीय समाज तेजी के साथ उत्तरआधुनिकता की ओर उन्मुख होता जा रहा है और पश्चिम की जीवन-शैली को आत्मसात करके खुद को नए जमाने का नागरिक महसूस करके खुशफहमी का शिकार भी हो रहा है। हिंदी जाति की इस नई प्रवृत्ति के कारण साहित्य का बहुत नुकसान हुआ है। समाज का भी। हिंदी जाति को अपनी अस्मिता, अपने अतीत से परिचित कराने या कहें कि याद दिलाने के लिए जरूरी है, कि वैसी कृतियाँ सामने आएँ, वैसे लेखक, वैसी आर्य-प्रवृत्ति के प्रकाशक सामने आएँ जो समाज के नवनिर्माण के लिए साहित्य रचते थे और उसका प्रचार-प्रसार करते थे। अब जो साहित्य रचा जा रहा है, और प्रचारित किया जा रहा है, वह नैतिक मूल्यों को और अधिक ध्वस्त करने वाला है। हिंदी जैसी जीवंत भाषा के अनेक लेखक लोकप्रियता अर्जित करने के फेर में अपनी ही भाषा और संस्कार का चीरहरण करने पर तुले हैं। इनको पहचानने की जरूरत है। हिंदी आलोचना भी बेहद दिशाहीन है। ऐसे समय में हिंदी के नए सौंदर्यशास्त्र और आलोचनाशास्त्र का गढऩे की जरूरत है। यह तभी संभव है जब इस संक्रमण को लेकर चिंतातुर कुछ लेखक-प्रकाशक बाजारवाद से हट कर सोचने की कोशिश करें। बेशक हम बाजार का ध्यान तो रखें लेकिन खुद बाजार में समरस न हो जाएँ : उसी के हिस्से न बन जाएँ। आज मीडिया बाजार में बुरी तरह समरस हो चुका है। उसको बाजार से निकाले बगैर साहित्य का भला नहीं हो सकता। यह तभी संभव है जब समाज में उत्तर नवजागरण के नए चिंतन की पृष्ठभूमि बने। मीडिया के संक्रमण काल को महसूसने वाले बचे-खुचे लोग एक वातावरण बनाएँ। पूरे देश में एक अ-सरकारी अभियान चले। एक साझा दबाव बने तभी मीडिया को सुधारा जा सकता है। यह दबाव उसी वक्त बन सकता है जब गलत बातों का निरंतर प्रतिकार हो। इतिहास साक्षी है, कि हिंदी जाति को समय-समय पर जगाना पड़ा है। अब उसे एक बार फिर जगाने का समय आ चुका है। महाप्राण निराला का एक गीत-पंक्ति है-जागो फिर एक बार। अब जागरण का वक्त है। वरना जिस तेजी के साथ मीडिया से साहित्य बहिष्कृत होता जा रहा है, उसे देख कर तो यही लगता है, कि आने वाले समय में मीडिया और साहित्य का कोई अंतर्संबंध ही नहीं रह जाएगा। साहित्य की तलाश के लिए भविष्य के लोगों को पुस्तकालयों या चंद साहित्यिक पत्रिकाओं की तलाश ही करनी पड़ेगी। ऐसा परिदृश्य हमें नहीं चाहिए, इसके लिए अभी से रचनात्मक नवांदोलन शुरू करने की मुहिम तेज करनी होगी।
[लेखक-परिचय: जन्म: छत्तीसगढ़ में , शिक्षा :एम.ए (हिंदी), पत्रकारिता (बी.जे.) में प्रावीण्य सूची में प्रथम,लोककला संगीत में डिप्लोमा.
पैतीस सालों से साहित्य एवं पत्रकारिता में समान रूप से सक्रिय. -सदस्य-साहित्य अकादेमी, दिल्ली/प्रांतीय अध्यक्ष-छत्तीसगढ़ राष्ट्र्भाषा प्रचार समिति
सृजन :
बत्तीस पुस्तकें प्रकाशित: तीन व्यंग्य- उपन्यास- मिठलबरा की आत्मकथा, माफिया, और पालीवुड की अप्सरा. आठ व्यंग्य संग्रह- ईमानदारों की तलाश, भ्रष्टाचार विकास प्राधिकरण, ट्यूशन शरणम गच्छामि, मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएँ, मूर्ति की एडवांस बुकिंग, हिट होने के फार्मूले, नेता जी बाथरूम में, एवं ''मंत्री को जुकाम''., नवसाक्षरों के लिये चौदह पुस्तकें बच्चो के लिये चार किताबें, एक हास्य चालीसा, दो ग़ज़ल संग्रह. संपर्क : girishpankaj1@gmail.com ]
14 comments: on "बाज़ार में हिन्दी पत्रकारिता"
अच्छी पोस्ट
स्थिति सचमुच चिंताजनक है...जिस तरह की भाषा का प्रयोग मीडिया करती है...वह कभी स्वीकार्य नहीं हो सकता..
गिरीश जी का कहना बिलकुल ठीक है कि पूरे देश में एक अभियान चले और एक साझा दबाव बने मीडिया पर
मीडिया की भाषा और उसके व्यवहार को देखें तो समझ में आ जाता है, कि वह मूल्यों से कितना विलग हो चुका है। भाषा गिरी है। संवेदना मरी है। जीवन-मूल्य गिरते जा रहे हैं। अब मूल्यों की जगह मोल-भाव वाले मूल्यों की पत्रकारिता फल-फूल रही है। कभी बाजार को ध्यान में रख कर थोड़ा-बहुत समझौता करने वाला वाला मीडिया अब खुद एक बाजार बन चुका है।
स्थिति सचमुच चिंताजनक है..
हिंदी समाज में अपनी ही राष्ट्रभाषा हिंदी के लिए धीरे-धीरे जगह कम होती जा रही है, उस समाज के सांस्कृतिक संकट को आसानी से महसूस किया जा सकता है। बासठ वर्ष पूर्व अँगरेज़ो से मुक्त हुए इस महादेश में अँगरेजी भाषा फिरंगियों की याद दिलाने के लिए अब तक विद्यामन है। आश्चर्य होता है, कि यह कैसे हुआ? एक पराई और दो सौ सालों तक भारतीय मानस को अपना उपनिवेश बना कर रखने वाली सामंती-भाषा के आगे हमारे भाग्यविधाओं ने हथियार क्यों डाल दिए? उन्होंने जन-गण-मन को समझने की कोशिश क्यों नहीं की? कुपरिणाम सामने है, कि आज हिंदी हाशिये पर है और उसकी जगह हिंग्लिश या हिंग्रेजी नामक एक नई बाजारू भाषा को स्थापित करने की क्रमिक साजिश की जा रही है।
हम देख रहे हैं, कि यही भाषा हिंदी को धीरे-धीरे बहिष्कृत कर रही है। हमारा नया मीडिया इस हिंग्रेजी के प्रति अतिशय प्रेम प्रदर्शित कर रहा है। इसी के कारण हिंदी साहित्य भी जीवन के केंद्र से और पत्रकारिता से दूर होता जा रहा है। पूरे परिदृश्य का विहंगावलोकन करते हुए लगता है, कि हिंदी और हिंदी साहित्य के उत्थान हेतु अब एक नये सांस्कृतिक नवजागरण का आंदोलन चलाया जाना चाहिए वरना आने वाले समय में हम हिंदी को खो देंगे, एक रागात्मक संस्कृति कोखो देंगे और प्रकारांतर से साहित्य को भी हाशिये पर डाल देंगे। अँगरेजी के प्रति हमारा प्रेम गुलामी के दौर से ही शुरू हो गया था, तभी तो मुंशी प्रेमचंद ने कहा था, कि अँगरेजी धनी भाषा है पर जितना तथा जिस दृष्टि से हम इसे आदर देते हैं, वह हमारे लिए गर्व की बात नहीं है।
sahmat jee sahmat !!
कभी बाजार को ध्यान में रख कर थोड़ा-बहुत समझौता करने वाला वाला मीडिया अब खुद एक बाजार बन चुका है।
मीडिया ने अपनी ओर से ही यह मान लिया कि अब समाज में साहित्य एवं कलानुरागियों की कमी हो गई है। लोग चाक्षुस-माध्यम की ओर ज्यादा उन्मुख हैं, लोग पढऩा नहीं, देखना चाहते हैं। यह उतना ही बड़ा भ्रम है, जितना बड़ा भ्रम यह है कि समाज में अनैतिकता को मान्यता मिल गई है या भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन गया है।
भईया, गंभीर विमर्श के लिए बधाई. मिडिया का भाषाई पतन चिंता का विषय है. और हिंदी... भारत में हिंदी की स्थिति उस छात्र जैसी हो गई है जिसे शिक्षक ने कक्षा से बाहर घुटने पर खड़ा कर दिया है. सचमुच हिंदी को कक्षा में वापस भेजने के लिए रचनात्मक नवान्दोलन की आवश्यकता है.
girish ji baat bdhi ajib he lekin hindi ptrkaritaa vaale jb ptrkaaritaa chod kr mele lgate hen kursi teblen skim ke naam pr bechte hen prtibndhit behyaai beshrmi vaale vigyaapn chaapte hen to fir bechaari hindi ptrkaarita ko grhn to lgna hi he. akhtar khan akela kota rajsthan
जिस तथाकथित उत्तर आधुनिक होते हिंदी समाज में अपनी ही राष्ट्रभाषा हिंदी के लिए धीरे-धीरे जगह कम होती जा रही है, उस समाज के सांस्कृतिक संकट को आसानी से महसूस किया जा सकता है। बासठ वर्ष पूर्व अँगरेज़ो से मुक्त हुए इस महादेश में अँगरेजी भाषा फिरंगियों की याद दिलाने के लिए अब तक विद्यामन है। आश्चर्य होता है, कि यह कैसे हुआ? एक पराई और दो सौ सालों तक भारतीय मानस को अपना उपनिवेश बना कर रखने वाली सामंती-भाषा के आगे हमारे भाग्यविधाओं ने हथियार क्यों डाल दिए? उन्होंने जन-गण-मन को समझने की कोशिश क्यों नहीं की? कुपरिणाम सामने है, कि आज हिंदी हाशिये पर है और उसकी जगह हिंग्लिश या हिंग्रेजी नामक एक नई बाजारू भाषा को स्थापित करने की क्रमिक साजिश की जा रही है। हम देख रहे हैं, कि यही भाषा हिंदी को धीरे-धीरे बहिष्कृत कर रही है। हमारा नया मीडिया इस हिंग्रेजी के प्रति अतिशय प्रेम प्रदर्शित कर रहा है। इसी के कारण हिंदी साहित्य भी जीवन के केंद्र से और पत्रकारिता से दूर होता जा रहा है।
पूरे परिदृश्य का विहंगावलोकन करते हुए लगता है, कि हिंदी और हिंदी साहित्य के उत्थान हेतु अब एक नये सांस्कृतिक नवजागरण का आंदोलन चलाया जाना चाहिए वरना आने वाले समय में हम हिंदी को खो देंगे, एक रागात्मक संस्कृति कोखो देंगे और प्रकारांतर से साहित्य को भी हाशिये पर डाल देंगे। अँगरेजी के प्रति हमारा प्रेम गुलामी के दौर से ही शुरू हो गया था, तभी तो मुंशी प्रेमचंद ने कहा था, कि अँगरेजी धनी भाषा है पर जितना तथा जिस दृष्टि से हम इसे आदर देते हैं, वह हमारे लिए गर्व की बात नहीं है।
... पहले पत्रकारिता में वे लोग आते थे जो साहित्य में गहन रूचि रखते थे पर आज पत्रकारिता में लोग मोटी कमाई और ग्लैमर के चलते ही आ रहे हैं, साहित्य में रूचि रखने वाले अब विरले ही आ रहे हैं
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- अल्लामा जमील मज़हरी