बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

रविवार, 16 अगस्त 2015

साइकिल पर कोयला लादकर बेचते हैं शहीद के वंशज


 
फोटो: माणिक बोस









आजादी की 68 वीं वर्षगांठ 


तीन शहीदों के गांव बदहाल




सैयद शहरोज़ क़मर की क़लम से


रांची के ओरमांझी प्रखंड से हुंड्रु फॉल जाने वाली सड़क भले चमचम हो, लेकिन कुटे बाजार से जब दायीं ओर सर्पीला रास्ता मुड़ता है, तो आदर्श गांव की कलई खुल जाती है। इसका भी पता चलता है कि हम अपनी विरासत को संजोए रख पाने में कितने असमर्थ साबित हुए हैं। यह गांव है खुदिया लोटवा, 8 जनवरी 1858 को देश की मुक्ति के लिए कुरबान हुए शहीद शेख भिखारी का गांव। उनकी मजार और उनके परिजन इस गांव की तरह ही बदरंग हैं। बदहाली की दूसरी और तीसरी कहानी शहीद टिकैत उमराव सिंह के गांव खटंगा और शहीद ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव के बड़कागढ़ की है। इन तीनों को जबकि कुछ साल पहले आदर्श गांव का तमगा मिला। लेकिन इनके खाते में आया है, बदहाल सड़कें, बजबजाती नालियां, टूटे चापाकल, बिजली की आंखमिचोनी व बेराजेगारी। शहीदों के परिवारों के लिए आर्थिक मदद के उद्देश्य से सन 1999 में रांची अलबर्ट एक्का चौक पर एक हंगामी बैठक हुई थी, उसी के बाद झारखंड सेनानी कोष बना, जिसके तेहत पांच करोड़ की राशिा जमा की तो गई है, पर इसका उपयोग आज तक नहीं हो सका है। शहीद विश्वनाथदेव के वंशजों में सबसे बुजुर्ग सदस्य हैं, राधेश्यामनाथ शाहदेव। उनके पिता लाल त्रिलोचननाथ शाहदेव भी स्वतंत्रता सेनानी थे। वे 1930 में जेल में भी रहे। उनकी राय में स्वतंत्रता सेनानी के नाम पर अधिकतर उन्हें ही सुविध व पेंशन मिली, जिन्होंने कभी समर में हिस्सा ही नहीं लिया।


साल भर पहले बनी खुदिया लोटवा की सड़क जगह-जगह उखड़ गई है। 2008 से एक कमरे में चल रहे प्राइमरी स्कूल को पिछले साल बड़ा भवन हालांकि मिल गया है। लेकिन कभी-कभार आने वाले हेड मास्टर और दो पारा शिक्षक ही इसे नसीब हो सके हैं। इसके बावजूद शेख साबिर जैसे शहीद के करीब दो सौ युवा वंशज अपने-अपने परिवार की उखड़ती जिंदगी को वापस खीचने के यत्न में लगे हैं। वे चितरपुर से साइकिल पर कोयला ढोकर लौटे हैं। एक दिन पहले गए थे। सुबह इसे उसी तरह साइकिल पर लादकर रांची में बेचने जाएंगे।


पेंशन की बाट जोहते थक चुकी हैं बूढ़ी आंखें

पांच सौ की आबादीवाले खुदिया लोटवा में शहीद शेख भिखारी के कुनबे में छोटे-बड़े सत्तर लोग हैं। यूं तो इनकी कई एकड़ जमीन है, लेकिन बंजर। रोजी रोटी के लिए मजदूरी के सिवा कोई चारा नहीं। कुछ खेतिहर जमीन है, जो बादल की मेहरबानी पर निर्भर है। मिट्‌टी के पैतृक घर के छोटे से दरवाजे पर शेख भिखारी की तलवार दिखाते शहीद परिवार के सबसे बुजुर्ग सदस्य पचासी वर्षीय शेख सुब्हान की आंखें पेंशन की बाट जोहते थक चुकी हैं। गांव में किसी के पास न लाल कार्ड है, न ही वृद्धा पेंशन का आसरा। कभी अंग्रेजों के विरुद्ध कड़ी जंग लड़ चुकी इस तलवार में गांव के समान ही ज़ंग लग चुकी है। इसे विकास की धार से छुड़ाने के प्रयास सरकारी दावे के सिवा कुछ नहीं।


मासिक तीन हजार से जलता है शहीद टिकैत के परिजनों के घर चूल्हा

शहीद शेख भिखारी ने शहीद टिकैत उमराव सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजों की नाकाबंदी की थी। रांची को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद करा लिया गया। इसमें उमराव के छोटे भाई घासी सिंह ने भी अहम रोल अदा किया था। लेकिन हरी-भरी वादियों में बसे जब शहीद के गांव खटंगा में उनके वंशजों से मिलना होता है, तो आजादी के दीवानों के प्रति सरकारी कर्तव्य की भूमिका उतना ही बंजर दिखाई देती है। इन रणबांकुरे का घर गिर चुका है। उसके सामने की भूमि को समतल कर शहीद के प्रपौत्र भरत भूषण और राजेंद्र सिंह सब्जी उगाने में लगे हैं। बड़े भाई के आय का साधन भी मजदूरी ही है। बीए करने के बाद तीन हजार मासिक की बड़े बेटे की प्रायवेट नौकरी रसोई की सहायक है।


आदर्श गांव की बदहाली का मजाक उड़ाता खुशनुमा संसद भवन

इन तीनों भाइयों के रहने के लिए सरकार ने इंदिरा आवास तो दिए, लेकिन परिवार के बच्चों की शिक्षा और रोजगार के कोई उपाय नहीं किए गए। शहीदों के वंशजों की आर्थिक काया शहीद शेख भिखारी के कुनबे की तरह ही जर्जर है। गांव में 1954 में बना प्राथमिक स्कूल मीडिल तो हो गया है। पर शिक्षकों की तादाद नहीं बढ़ाई गई है। स्कूल के पास शहीद टिकैत उमराव स्मारक के नाम पर महज एक चबूतरा है। खुदिया लोटवा व खटंगा में संसद भवन के नाम पर बनी खुशनुमा इमारत दोनों गांव की बदहाली का मजाक उड़ाती है। खटंगा में शहीद के परिजनों ने ही इसके लिए अपनी जमीन तक दी। लेकिन 2014 में बनकर तैयार भवन को उद्घाटन का इंतजार है।


शहीद ठाकुर विश्वनाथ के पैतृक घर पर बन गया कारखाना

97 गांव के ठाकुर रहे शहीद ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव का कुनबा अब बड़कागढ़ और कुटे में लशटमपश्टम जीवन को घसीट रहा है। इस रियासत की राजधानी रहे गांव सतरंजी को एचईसीएल के आने पर विस्थापन का दंश झेलना पड़ा। शहीद विश्वनाथ शाहदेव का पैतृक घर भी न बचा। उसके पास ही गोलचक्कर पर परिजनों के प्रयास से स्मारक 1991 में बन सका। वहीं भारममाता को फिरंगियों के चंगुल से आजाद कराने की लालसा में रांची में जिस कंदब के पेड़ पर उन्हें 16 अप्रैल, 1858 को फांसी दे दी गई थी, वो पेड़ भी बहुत पहले नष्ट हो गया। उस स्थान पर हाथ में क्रांति की मशाल थामे दो मजबूत हाथों की आकृति उनके बलिदान का स्मरण कराती है। परिवार के प्रवीरनाथ शाहदेव अमर शहीद ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव अध्ययन केंद्र के माध्यम से उस स्वर्णिम समय को संरक्षित करने की कोशिश में लगे हैं।

आदर्श ग्राम के मॉडल स्कूल में जमीन पर पढ़ते हैं बच्चे

एचईसीएल, विधानसभा और अंतरराष्ट्रीय किक्रेट स्टेडियम की चकाचौंध के बीच स्वतंत्रता समर में जां लुटा चुके शहीद के परिजनों के घर जानेवाली सड़कें उतनी ही धुसर हैं। जगह-जगह टूटी। बीच-बीच में बहता नालियों का गंदा पानी। सन 57 के इतिहास के साक्षी रहे डेढ़ सौ वर्ष पुराने बड़ वृक्ष के पास मिले शहीद कुनबे के ठाकुर चितरंजन शाहदेव कहते हैं कि आदर्श गांव घोषित करने की जरूरत ही क्या थी। न गांव में वाटर सप्लाई पर्याप्त है, न ही बिजली। समूचे गांव में महज तीन ही वैपर लाइट लगी है। मुख्य सड़क के किनारे जगन्नाथपुर का राजकीयकृत मध्यविद्यालय है। इसे राज्य का मॉडल स्कूल का दर्जा हासिल है। यहां सबकुछ आदर्श है, लेकिन सबसे बड़ी कमी है। पर्याप्त बेंच-डेस्क का न होना। दस सेक्शन में बच्चे जमीन पर बैठकर पढ़ाई करने को विवश हैं।







फोटो: माणिक बोस
 भास्कर, रांची के 15 अगस्त 2015 के अंक में प्रकाशित





















Digg Google Bookmarks reddit Mixx StumbleUpon Technorati Yahoo! Buzz DesignFloat Delicious BlinkList Furl

1 comments: on "साइकिल पर कोयला लादकर बेचते हैं शहीद के वंशज"

Manish Kumar ने कहा…

कुछ योजनाएँ तो ग्रामीणों तक पहुँचती हैं पर टुकड़ों में जिसका वो कोउ फ़ायदा नहीं उठा पाता।

एक टिप्पणी भेजें

रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.

न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)