बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

16 मई के बाद


दो कविता अगस्त की 

फोटो: स्व. विजय गुप्ता













शहरोज़ की क़लम से

आफ़त कभी आती थी
हमने इतना विकास कर लिया कि
आफ़त जब चाहा, जहाँ चाहा उंडेल दी जाती है
बवंडर बवा भी कर ली जाती है निमंत्रित।

आपके और  आपके परिवार की रातों रात
बनाई जा सकती है वंशावली
बदल दी जा सकती  पहचान।

दुःख और पीड़ा ने भी
बदल लिया है अपना धर्म।
जाति और संप्रदाय भी
सुविधानुसार कर सकता है तब्दील।

मेरी त्रासदी जैसे आपकी ख़ुशी का बायस हो सकती है
आपका दर्द मेरे हर्ष का कारण।

नर्क और जहन्नुम से मुक्ति के अपने-अपने हैं यत्न
जन्नत की ख़रीद क़त्ल और ग़ारत के बाज़ारों में होती है।

2.

तुम हँसते-हँसते चुप हो जाते हो
तुम कहते-कहते गुम हो जाते हो
तुम खेलते-खेलते लड़ पड़ते हो

दरअसल यह तुम भी नहीं जानते
ऐसा अचानक क्यों करते हो
क्या हो जाता है तुम्हें
कि एक थाली में कौर निगलते हुए
तुम्हें खाने से मांस की गंध आने लगती है
कि अच्छा सा शेर सुनाते हुए
मेरी प्रेमिका का तुम्हें धर्म याद आ जाता है
कि कभी मध्य प्रांत की राजधानी रहा शहर
तुम्हें देश की राजधानी लगने लगता है.

कि अचानक तुम्हें ध्यान आता है
पंद्रह अगस्त पर किसी मदरसे पर फहराते तिरंगे की
फेसबुक पर शेयर तस्वीर के नीचे मैंने वंदे मातरम् लिखा या नहीं
जबकि तुम अपनी उस राजधानी के मुख्यालय पर तिरंगे का फोटो
कभी लगा नहीं पाये।
लगा भी नहीं सकोगे(क्योंकि मुख्यालय एक रंगा है )।
पर यह तुम्हारी पीड़ा नहीं बन सका.

हालांकि इससे कोई अब फ़र्क़ नहीं पड़ता
पर भरे दफ़्तर में मुख्यालय का सदस्य
होने की सगर्व घोषणा करते
तुम मेरे चेहरे के भय को अनदेखा कर जाते हो.
दरअसल हम सभी शोक मुद्रा में हैं
लेकिन तुम क्षणिक आवेश में उत्साह समझने की भूल कर जाते हो.
हर्ष और विषाद की लहर में डूबते-उतरते हुए

अब सभी रास्ते एक ओर जाते हैं
कहने का ढोंग हमें तुरंत बंद कर देना चाहिए।
वरना हर्ष और विषाद की परिभाषा बदलनी होगी
अब हमें पहनावे भी बदल देने चाहिए
और बढ़ा लेने चाहिए अपने-अपने केश
परंपरागत धार्मिक बुर्जों पर चढ़ने का यही अंतिम उपाय है

आओ लौट चलें आदिम कंदराओं में
तेज़ कर अपनी-अपनी धार

रूहें गर हों, तो लौटेंगी फीनिक्स की तरह
प्रेम और स्नेह बनकर





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4 comments: on "16 मई के बाद "

Unknown ने कहा…

ये तो पहले पोस्ट की हुई कविता है? समय के माकूल नहीं है। अभी समय भी रूक रूक के चल रहा है।

Unknown ने कहा…

क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जिसे जाना हो आदिम कंदराओं में, उसे हम जाने दें? खुद वहीं रहें जहाँ हैं।

شہروز ने कहा…

ऋषभ भाई! पहले फ़ेसबुक पर पोस्ट की थी ज़रूर। लेकिन यहाँ संग्रह ख्याल से ले आया . यूँ हर आप की राय का अभिनन्दन है

शाहनाज़ इमरानी ने कहा…

बहुत लाजवाब कविताएँ है। दूसरी कविता फेस बुक पर पढ़ी थी। नर्क और जहन्नुम से मुक्ति के अपने-अपने यंत्र। ……अब सभी रास्ते एक और जाते है। ...

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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
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- अल्लामा जमील मज़हरी

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