बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

रविवार, 7 सितंबर 2014

अतातुर्क और नाज़िम हिकमत के देश में

तक़सीम चौक, इस्तांबुल में एक महिला मित्र के साथ लेखक        . निशांत कौशिक तुर्की से  लौट कर यूरोपीय मध्यकाल से सतत चली आ रही पूर्व-पश्चिम की बहस, तानपीनार और ओरहन पामुक के उपन्यासों...
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गुरुवार, 4 सितंबर 2014

मैं था शायर, मुझको क्या था

 चार नज़्म      फ़ैज़ी रेहरवी  की क़लम से 1. मैं गया कहाँ, बस यहीं रहा, न रुका कभी, बस चला किया मेरी ज़िन्दगी थी तेरे लिए, मेरी लाश तो मुझको सौंप दो वो सफ़र के जो कोई, कभी न था वो डगर जो अब तक चली नहींवो रुका...
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सोमवार, 1 सितंबर 2014

आदिवासियों ने बनाई पहली फ़िल्म निर्माण कंपनी

पहली फिल्म सोनचांद की शूटिंग जल्द   शहरोज़ की क़लम से भारतीय सिनेमा में आदिवासी पहचान और अभिव्यक्ति को मुखर करने के लिए वंदना टेटे और ग्लैडसन डुंगडुंग ने मिलकर बिर बुरू ओम्पाय मीडिया एंड इंटरटेनमेंट एलएलपी नामक फिल्म  निर्माण...
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(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)