बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

रविवार, 7 सितंबर 2014

अतातुर्क और नाज़िम हिकमत के देश में

तक़सीम चौक, इस्तांबुल में एक महिला मित्र के साथ लेखक        .























निशांत कौशिक तुर्की से  लौट कर



यूरोपीय मध्यकाल से सतत चली आ रही पूर्व-पश्चिम की बहस, तानपीनार और ओरहन पामुक के उपन्यासों में गूंजती है।  "मेरा नाम सुर्ख है" (My name is red) के प्रथम पृष्ठ में कुएं के अंदर फेंकी गयी एक ओटोमन साम्राज्य कालीन नक़्क़ाश की लाश इस पुराने झगड़े  को हमारी शताब्दी में फिर ताज़ा कर देती है. तुर्की धार्मिक की अपेक्षा जातीय पहचान के आधार पर बना मुल्क़ था, जिसने राष्ट्र राज्य नामक राजनीतिक युक्ति को अतातुर्क के ज़माने में अपना लिया था।  बहुधा ये माना जाता है कि अतातुर्क "पश्चिम समर्थक" एवं "इस्लाम विरोधी" था।  ऐसी कपोल कल्पना में कई भ्रम है, उदाहरणार्थ अतातुर्क के पहले ही ओटोमन शासकों ने अपने प्रशासनिक भवनों और संस्कृति में पश्चिमीकरण की ज़रूरत महसूस की थी, तंज़ीमात कालीन राजनीतिक गतिविधियाँ और रचित साहित्य में इसकी स्पष्ट झलक है. दूसरा यह कि तुर्की को साम्राज्यीय स्मृतियों से मुक्त करने के लिए कमाल अतातुर्क ने तुर्की भाषा की लिपि में बदलाव किया और इस्तांबुल की जगह एकदम भिन्न प्रकृति के नगर "अंकारा" को तुर्की की राजधानी घोषित किया. तुर्की की आज़ादी का युद्ध काल बेहद भीषण था, जिसमे अरब मुल्क़ों ने भी बंदरबांट मचा रखी थी और दीगर मग़रिबी मुल्क़ों ने भी।  झगड़ा इस्लाम और ईसाइयत की जगह अरब, तुर्क, कुर्दिश और आर्मेनियन प्रभुता का था. कुछेक को छोड़ दीन सबका इस्लाम था. एक घनघोर तूरानीवाद का भी जन्म  हुआ, जिसके पैरोकार ज़िया गोकाल्प और निहाल आतसिज़ जैसे अव्वल दर्जे  के साहित्यकार थे, जिन्होंने साहित्य में अरबी बह्र (फाइलुन, मफाईलुन) की जगह हैजे के इस्तेमाल पर आंदोलन किया. साहित्य में कुछ नए सौन्दर्यशास्त्रीय प्रयोगों में हम सबके प्रिय कवि "नाज़िम हिकमत" हैं.

 45 दिन की यायावरी 

मेरे तुर्की प्रवास की अवधि कुछ 45 दिन की थी.  दो मुल्क़ों के पारस्परिक प्रयासों का यह एक महत्वपूर्ण अंग है. 2007 में स्थापित युनुस एमरे संस्थान को तुर्की भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के प्रसार हेतु स्थापित किया गया. संस्थान का नाम "युनुस एमरे" रखने की वजह एक ऐतिहासिक परम्परा से जुड़ाव का प्रयास है, युनुस एमरे तुर्की के शास्त्रीय कवियों में अहम हैं.  वे ओटोमन काल से भी पूर्व के कवि हैं, जो महान इस्लामिक सूफी परम्परा के प्रतिनिधि हैं. अफ़ग़ानिस्तान और ईरान में जो मान्यता रूमी को है, वही तुर्की में "युनुस एमरे" की  है. युनुस एमरे संस्थान की स्थापना रजब तय्यब एर्दोआन (अर्थात नवोदित) के प्रधानमंत्रित्व में "नव-ऑटोमानवाद" रणनीति के तहत हुयी, तय्यब साहब तुर्की के पूर्व प्रधानमन्त्री रहे हैं और नज़दीक ही राष्ट्रपति चयनित हुए हैं. उनकी विदेश नीतियों की विश्व भर में बुद्धिजीवियों एवं धर्म निरपेक्षता के समर्थकों के द्वारा निंदा एवं आलोचना की जाती रही है. इन आलोचकों में प्रसिद्ध भाषाविद नोम चोम्स्की एवं तुर्की मूल के लेखक ओरहन पामुक भी हैं. इस नव ऑटोमानवाद का एक अन्य महत्वपूर्ण उद्देश्य बाल्कन क्षेत्रों से रिश्तों को सुधारना और स्थापित करना भी है.

एस्कीशेहिर यानी मुल्ला नसरुद्दीन का शहर

हिंदुस्तान मुख्यतः जामिया मिल्लिया इस्लामिया नयी दिल्ली से चयनित मैं और दीगर ३ मित्रों को तुर्की के भिन्न-भिन्न शहरों में तुर्किश साहित्य एवं संस्कृति से परिचित होने के लिए आमंत्रित किया गया. मेरा रहवास मध्य अनातोलिया क्षेत्र में स्थित एस्कीशेहिर (क़दीम शहर) में रहा. यह शहर (प्रांत) युनुस एमरे और मुल्ला नसरुद्दीन की जन्मभूमि रही है. नाम से क़दीम लेकिन लगभग नूतन इस शहर को छात्रों का शहर कहा जाता है, यहाँ बेहद महत्वपूर्ण २ विश्वविद्यालय ओसमानगाज़ी विश्वविद्यालय एवं अनादोलू विश्वविद्यालय स्थित हैं. नगर योजना रोम के किसी नगर की तरह स्थिर एवं खूबसूरत है. तुर्कमेन पहाड़ों से घिरा नरम-गरम मौसम में पला यह शहर फ्रीजियन, गोकतुर्क, रोमन, बायज़ेंटियन एवं ओटोमन साम्राज्य की स्मृति को सहेजे हुए है. शहर के मध्य पोरसुक नदी का प्रवाह इसे ख़ास बनाने में मदद करता है. शहरी आवागमन के साधन में सबसे महत्वपूर्ण है ट्राम, दिन रात शहर के दिल में धड़कन की तरह हौले-हौले धड़कती, मुसाफिरों को देर रात बिना शोर गलियों में छोड़ देती है.

पूरब -पश्चिम का अनमोल रंग 

सामजिक सुरक्षा और ज़मीनी विकास तुर्की के लगभग हर क्षेत्र में मौजूद है.  दो वर्ष सेना में भर्ती एवं माध्यमिक शिक्षा पूरी तरह सरकारी खर्चे से संचालित है। निजी विश्वास एवं धर्म निरपेक्षता की अच्छी झलक देखने मिली, फिर भी नास्तिकता और ईशनिंदा एक प्रतिबंधित स्वरुप में मालूम होती है . शहर के लगभग हर हिस्से में मस्जिदें मौजूद हैं, जिनकी वास्तुकला देखते बनती है। तुर्की में पूर्व एवं पश्चिम की संस्कृति का अद्भुत सम्मिश्रण है. युवा वर्ग राजनीतिक बहसों में अच्छे से सक्रिय है. यहां सिर्फ फिलिस्तीन और गाज़ा ही नहीं. इराक़ के चल रहे संकट पर भी बहसें हैं. शहर के एक अखबार (सोज़जू) के मुख्य पृष्ठ में मुझे राष्ट्रपति तय्यब एर्दोआन की इस्राइल सम्बन्धी नीतियों की आक्रामक आलोचना मिली, जिसमे उनसे कुछ प्रश्न पूछे गए हैं. अंग्रेजी का इस्तेमाल लगभग नहीं के बराबर है. एक औपचारिक शिक्षा के उपरान्त अंग्रेजी के प्रयोग हेतु कोई दवाब नहीं है, ना ही एक इस्लामिक मुल्क ( ?) होते हुए अरबी के प्रयोग का ठेठ आग्रह है.

ईद के दूसरे दिन गाँव में चॉकलेट व  हामूर का ज़ायक़ा 

रमज़ान के महीने में मित्रों के साथ कुछ रोज़े भी रखे. मिस्र और कज़ाकिस्तान के सहपाठियों के साथ रहने के कारण उनकी सांस्कृतिक परम्पराओं से भी खूब परिचय हुआ. मेरे मिस्र के सहपाठी की राजनीतिक शून्यता एवं निष्क्रियता ने कुछ हैरान भी किया, यही नहीं सीरिया और इराक़  के मित्रों की राजनीतिक असक्रियता ने "काबुल में सिर्फ घोड़े नहीं होते" जैसी कहावत को सच कर दिया। ईद के पहले दिन प्रशासनिक अधिकारियों के साथ मुलाक़ात तुर्की में एक रिवाज़ है, तथा दूसरे दिन किसी गाँव में जाकर चॉकलेट एवं हामूर (दाल और गूंथा हुआ आटा, शब्द का उद्भव खमीर से) का भोग तथा वितरण एक पुरानी परंपरा है. अधिकतम मस्जिदों में वुजूख़ाने भीतर मौजूद हैं. खाना खाने के पहले एवं बाद एक तरह के सुगन्धित द्रव से हस्त प्रक्षालन किया जाता है, मेरी एक ईरानी मित्र राहील ख़तीबी ने इस संस्कृति के ईरान में भी होने की पुष्टि की.

फ़ारसी-अरबी मुक्त तुर्की और लोक संगीत

तुर्की भाषा में अरबी-फ़ारसी शब्दों की बहुलता है, व्याकरण में भी फ़ारसी का प्रभाव है. भाषिक प्रकृति ये है कि एक वाक्य में अनंत प्रत्यय जोड़े जा सकते हैं. शिक्षा संस्थानों द्वारा भाषा को और अधिक फ़ारसी -अरबी मुक्त करने के प्रयास किये जा रहे हैं.  हमारी कक्षाओं में भाषा के अलावा संगीत का दर्स भी दिया गया. तुर्की की संगीत परंपरा को ३ हिस्सों में बांटा जा सकता है. शास्त्रीय संगीत (तुर्कचे सनात म्युज़ियि), लोक संगीत (तुर्कचे हल्क़ म्युज़ियि) और समकालीन (चादाश तुर्कचे म्युज़ियि) . शास्त्रीय संगीत अपनी जटिलता के साथ फ़ारसी-अरबी स्वर ध्वनियां एवं इस्लामिक काव्य परंपरा (मुख्यतः क़सीदाः) के आसपास बुना हुआ  है. कालांतर में ओटोमन कालीन लेखकों मसलन फुज़ूली, नेफी, नबी एवं नदीम आदि की अमर रचनाओं को स्वरबद्ध किया गया और गाया गया.  तुर्की को जिस संगीत की परंपरा पर गर्व है वो है लोक संगीत। जो भिन्न भिन्न जातीय बाशिंदों की रचनाओं एवं कबीलाई परंपरा का घोतक है. कबीलाई वाद्य यंत्र एवं मुर्कियों के अरूज़ ओ ज़वाल इस संगीत परंपरा को अमर घोषित कर देते हैं. गाये जाने वाली रचनाओं की संख्या लगभग अनंत है और ये ध्वनिया सैंकड़ों सालों से यूँ ही गायी जाती रही हैं. एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचने में इनका स्वरुप बहुत कुछ श्रुति परंपरा की तरह रहा है, ज़ेकी मुरेन आदि इस परंपरा के अमर गायक हैं. दारबुका, तेफ (डफ), साज़, नै आदि खालिस मध्य पूर्वीय वाद्य यंत्र हैं.

पहाड़ों के बीच शीतल-सौंदर्य  

एस्कीशेहिर से नज़दीक बसे कुछ महत्वपूर्ण क़स्बों का ज़िक्र भी ज़रूरी है, जिसमे महत्वपूर्ण है "सोउत" और "बिलेजिक" . सोउत ओटोमन साम्राज्य की पहली राजधानी रहा है, पहाड़ों के बीच बसे इस खूबसूरत ठन्डे इलाक़े को देखकर बरबस ही महसूस होता है कि किसी उभरते हुए साम्राज्य की राजधानी होना सिर्फ इसी के नसीब में हो सकता है, दीगर राजधानियों में बुर्सा, एदिर्ने और अंत में कुंस्तुंतुनिया यानी आज का इस्तांबुल है. सोउत में आज भी पहली राजधानी होने की बहुत सारी निशानियाँ और स्मृतियाँ मौजूद हैं. नगर का मुख्य व्यवसाय "संगमरमर पत्थर की कलाकृतियां" हैं. इन क़स्बों के अलावा बुर्सा भी महत्वपूर्ण शहर है जो तुर्की के बनारस की तरह मालूम होता है, मरमरा समंदर के किनारे लगे इस शहर में ओटोमन साम्राज्य के काल में बने बड़े-बड़े बाजार और हमाम मौजूद हैं. मुख्य भोजन इस्कंदर कबाब है. इनसे रवानगी के बाद राजधानी अंकारा की ओर प्रस्थान हुआ. दुनिया की हर राजधानी की तरह मशगूल और भीड़ से भरा हुआ शहर. प्रशासनिक कार्यालयों, संस्थानों एवं कुछेक ऐतिहासिक जगह से युक्त अंकारा अपनी पूरी बोरियत के साथ थमता चलता है, खूबसूरत राजधानी होने के सिवा अंकारा बहुत पसंद नहीं आया सिवाय विशाल "अनितकबीर" के जो मुस्तफा कमाल अतातुर्क और तुर्की के दूसरे प्रधानमन्त्री इस्मेत इनोनु का स्मृति स्थल है.

नाश्ता लज़ीज़ चाय बिना दूध की 

तुर्की में खानपान की स्वस्थ परंपरा है. पौष्टिकता एवं लज़्ज़त का अच्छा समन्वय है. जिसमे से कुछ चीज़ें एकदम नियत हैं, मसलन नाश्ता सिर्फ आम नाश्ता नहीं है,.लोग दोपहर में भी नाश्ते के लिए मिलते हैं और शाम को भी नाश्ते के लिए आमंत्रित कर सकते हैं. नाश्ते से मुराद उस ख़ास खाद्य समन्वय की है जो रात्रि भोज से भिन्न है. इससे जुड़ा एक और महत्वपूर्ण नुक़्ता चाय है, चाय के गिलास (चाय बार्दाक) चाय की अन्य पेय पदार्थों से भिन्नता और विशेषता बताते हैं, चाय में दूध का इस्तेमाल कभी नहीं होता. कभी मौलाना रूमी ने भी कहा था, "आओ जानें एक दूसरे को, ये चाय पीने के मानिंद है, आओ चाय साझा करें, आओ जीवन साझा करें"  


तुम्हे शिखर से निहारा अज़ीज़ इस्तांबुल

 45 दिन की इस रोचक यात्रा ने अनुभवों का एक ज़खीरा दिया है, जिसे व्यवस्थित करने के लिए ही एक लम्बा समय चाहिए. हिन्दुस्तान का प्रतिनिधि होने के नाते अजीब लेकिन वाजिब सवालों से कई दफ़ा साबक़ा हुआ. जिसमें मुख्य थे : हिन्दुस्तान की जनसँख्या, हिन्दुस्तान में बलात्कार और हिंदुस्तान में गौपूजा। इन तीनों सवालो का किसी भी भाषा में उत्तर सहज नहीं था . न तुर्की न फ़ारसी न अंग्रेजी और न उर्दू.  कुताहिया, इज़्नीक और अन्य कुछ क़स्बों के बाद अंत के 5 दिन इस्तांबुल में ठहरना हुआ. इस्तांबुल प्रस्थान का बयान बेहद जटिल मालूम होता है. एक पड़ाव पर पहुंच कर ऐसा लगा मानो शायर याह्या कमाल (Yahya Kamal) मेरे अंदर जीवित हो. इस शहर के किनारे थमे एक शिखर पे बैठ अमर वाक्य कह रहे हो " कल मैंने तुम्हे एक शिखर से निहारा अज़ीज़ इस्तांबुल" (Sana dün bir tepeden baktım aziz İstanbul!). रोचक है किन्तु सत्य कि पैगम्बर मुहम्मद साहब की एक हदीस (बुखारी शरीफ) में 1453 में ओटोमन शासक "फतीह" द्वारा इस्तांबुल (तत्कालीन कुंस्तुंतुनिया) फतह की पूर्व बयानी है. जिसमे पैगम्बर साहब फरमाते हैं कि "महान शासक की महान सेना द्वारा एक दिन इस्तांबुल को पूरी तरह फतह कर लिया जाएगा".इस्तांबुल यूरोप एवं एशिया को जोड़ने की ऐतिहासिक भौगोलिक कड़ी है. बॉस्फोरस संधि के एक तरफ एशिया और दूसरी तरफ यूरोप को देखना रोचक अहसास है.

मस्जिदें विशाल क़नात  की तरह 

कई साम्राज्यों एवं सभ्यताओं की राजधानी रहा यह शहर भौगोलिक दृष्टि में बहुत अधिक विस्तृत है. इस्तांबुल में मेरा रहवास 1773 में स्थापित इस्तांबुल टेक्नीकल यूनिवर्सिटी में था, जो यूरोपियन हिस्से में थी. किन्तु वहाँ से एशिया महाद्वीप की दूरी मात्र आधा घंटे की थी. पानी के जहाज से उसकूदार (एक लोकगीत भी है, उसकूदारा जाते वक़्त भीग गए हम सावन में, üsküdara gider iken aldıda bir yağmur ) और बुयुकअदा (विशाल घाट) की यात्रा लगभग २ घंटे की थी, जिसके रास्ते में एशिया यूरोप को जोड़ने वाले २ सेतु भी देखे. एशिया में समंदर किनारे स्थित ऐतिहासिक हैदरपाशा रेलवे स्टेशन भी, जहां से कभी इराक़, ईरान और जर्मनी तक के लिए ट्रेनें चला करती थीं। इस्तांबुल से इतना दूर भी पीछे मुड़कर हदे-निगाह तक इस्तांबुल शहर ही नज़र आता रहा. बायज़ेन्टियम एवं ओटोमन वास्तुकला पर आधारित मस्जिदें विशाल क़नात  की तरह पूरे शहर में मौजूद हैं. एक महत्वपूर्ण मस्जिद (अब म्यूज़ियम) अयासोफ्या ( हगिअसोफ़िया) है, जो रोमन राजा कोंस्तान्तीन ने बनाई थी, रोमन काल में ये चर्च था, कालांतर में मस्जिद और अब म्यूज़ियम है. अंदर दोनों साम्राज्यों के अवशेष मौजूद हैं जो ऐतिहासिक विरासत के प्रति एक सहिष्णु दृष्टि का बोध कराते हैं.

विश्व मुल्क़ होता तो राजधानी इस्तांबुल

इस्तांबुल कई बड़े लेखकों की जन्मभूमि कर्मभूमि रही है. बहुत कम शहरों में यह हैसियत होती है कि वे अपने समूचे इतिहास को ज़िंदा रखें, ऐसे शहरों में पेरिस आदि भी शामिल हैं. इस्तांबुल में घूमने के लिए बहुत स्थान हैं. 5 दिनों में उन महत्वपूर्ण स्थानों से वाक़िफ़ भी हुआ गया जिसकी तफ़्सीर बड़ी लम्बी है. हिस्टोरिकल फिक्शन लेखक अहमत उम्मीत अपनी कई पुस्तकें इस्तांबुल को समर्पित कर चुके हैं, तानपीनार अपनी क्लासिक किताब "बेश शेहिर" (पांच शहर) में तुर्की के पांच महत्वपूर्ण शहरों का ज़िक्र करते हैं. जिसमे अंकारा, एर्ज़ुरुम, बुर्सा, कोन्या और इस्तांबुल शामिल हैं. ओरहन पामुक ने इस्तांबुल पर "इस्तांबुल शहर और स्मृतियाँ" नामक किताब लिखी है. 2013-14 में इस्तांबुल के गेज़ी पार्क (तकसीम चौक के नज़दीक) घटे आंदोलन ने इस्तांबुल के रहवासियों की राजनीतिक चेतना का भी परिचय दिया कि आंदोलन सिर्फ राजधानियों (अंकारा) में नहीं होते। इस आंदोलन में युगोस्लावियन दार्शनिक स्लावोज ज़िज़ेक ने भी हिस्सा लिया. पता नहीं किसका शायद नेपोलियन का लेकिन बड़ा प्रासंगिक मालूम पड़ता है ये कथन कभी कभी कि " यह विश्व यदि एक मुल्क़ होता तो इसकी राजधानी निश्चित ही इस्तांबुल होता" (Dünya tek bir ülke olsaydı başkent istanbul olurdu) .
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(रचनाकार-परिचय:
जन्म: 1991 में मध्य प्रदेश के शहर जबलपुर में।
शिक्षा: स्नातक जबलपुर से
सृजन: कविताएं इधर-उधर प्रकाशित 
संप्रति: जामिया मिल्लिया इस्लामिया नयी दिल्ली में तुर्की भाषा एवं साहित्य में अध्यनरत।
अन्य: जबलपुर में रंगमंच में कुछ समय सक्रिय, तकनीकी भाषा विज्ञान, भाषा सम्बन्धी समकालीन मुबाहिसों, इस्लाम और इतिहास अध्ययन में रुचि.विश्व युवा उत्सव (WFYS) के तहत 2010 में जोहान्सबर्ग, दक्षिण अफ्रीका शिरकत। गत मास युनुस एमरे संस्थान अंकारा (तुर्की) की तरफ से आयोजित कार्यक्रम में 45 दिन की शिरकत।
संपर्क: kaushiknishant2@gmail.com )              
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गुरुवार, 4 सितंबर 2014

मैं था शायर, मुझको क्या था

 चार नज़्म 






  








 फ़ैज़ी रेहरवी  की क़लम से

1.

मैं गया कहाँ, बस यहीं रहा,
न रुका कभी, बस चला किया
मेरी ज़िन्दगी थी तेरे लिए,
मेरी लाश तो मुझको सौंप दो

वो सफ़र के जो कोई, कभी न था
वो डगर जो अब तक चली नहीं
वो रुका रुका सा भरा सा दरिया
एक आँख जो अब तक बही नहीं
ये सरमाया हैं मेरी ज़िन्दगी का,
इसे मुझको लाओ सौंप दो

न लिखूंगा तुझको क़सम तुम्हारी
पढूंगा क्या जब लिखा नहीं
वरक़ था कोरा, रहा भी कोरा
क्या ज़िन्दगी? जब जिया नहीं
ये ख़ला के उनवान सी ग़ज़ल है
ख़ला ही इसमें भरी हुई है
ख़ला थी कब के मेरा मुक़द्दर
ये तो अपनी मेरी चुनी हुई है

सितम थे जग में, थे कितने नाले
पलट के मैंने मगर न देखा
शोर के अब्र से बरसती लाशें
हर एक चिता पे ज़मीर सेंका
एहसास-ए-सर्द से भर के दामन
गर्म साँसों को मैंने फेंका

कौन भूखा कौन प्यासा
मैं था शायर, मुझको क्या था
तेरा बदन, ये तेरी निगाहें
तेरे ये गेसू तेरी ये बाहें
तेरे तसव्वर में मैं जी रहा था
शराब-ए- बेहिर्सी मैं पी रहा था
नशा था इल्म-ओ-सुखन का गहरा
नशा था हुस्न-ओ- कलम का गहरा
नशा था दींन -ओ- धरम का गहरा
नशा था यक़ीन-ओ- वहम का गहरा
नशा था इतना, के मैं न संभला
नशा था इतना, के न मैंने देखा

मिस्ले माही मैं बह रहा था
गोते दरिया में मैं खा रहा था
दरिया-ए- दुनिया वसी था इतना
न जाने किस सिम्त मैं जारहा था
के अचानक वो आई मेरे ज़ेहन में
तसव्वुरों में किया उजाला
सुखन को नयी रौ मिली उसी से
अशआरखाने में हुआ चेरागाँ
क़ल्ब को एक ज़िया सी बख्शी

मुगन्नी उसका, मैं उसका शायर
आवाज़ की अब खनक भी वो ही
समातों में भी घुली वही है
वरक पे देखो वो ही पड़ी है
जुबां पे मेरे वही बसी है
तभी किसी ने खोली खिड़की

तभी किसी ने खोली खिड़की
बे रह्म शम्स ने वहां से झाँका
मानिंद-ए-शोला नज़र से देखा
मैं चौका, भागा, जो बढ़ के झाँका
चिंगारियां नीचे पटी पड़ी थी
झुलस रहा था शहर हमारा
हर चीख शोलों सी जल रही थी
फिर मैंने देखा, मैंने समझा
तपिश ये दुनियामें है कैसी फैली
भूख से था कोई झुलस चूका
किसी को उसके खुदा ने फूँका
राख मज़हब की उसने बेचीं
किसी ने कोई बदन खरीदा
किसी कोठे की आतिश्फेशां आवाजें
कई चूड़ियाँ कलाई में पिघल गयीं
दूध की खातिर बिकती माएँ
बाज़ार-ए- जिस्म में क़ुमकुमों की मानिंद
तभी वरक पर नज़र गयी
जहाँ पे तुम थी पडी हुईं
तभी ये फिर से ख़याल आया
कौन भूखा कौन प्यासा
मैं था शायर, मुझको क्या था
एक जीस्त थी सो गुज़र गयी
एक नज़्म थी सो बिखर गयी
मैं गया कहाँ, बस यहीं रहा,
न रुका कभी, बस चला किया
मेरी ज़िन्दगी थी तेरे लिए,
मेरी लाश तो मुझको सौंप दो


2.

वो चाँद, सितारे फूल ओ खुशबु लाऊँ कैसे 
ऐ ग़ज़ल मेरी मैं तुझको सजाऊँ कैसे

अशआर आंसू की जगह बर्फ हुए जाते हैं 
एहसास गजलोंमें बस कुछ हर्फ़ हुए जाते हैं 
दिल बैठता जाता है आहट से तेरे जाने की 
जज़्बात गुस्से के दलदल में कहीं ग़र्क हुए जाते हैं 
तेरे लिए वोह पंखुड़ियों से लफ्ज़ लाऊं कैसे 
ऐ ग़ज़ल मेरी मैं तुझको सजाऊँ कैसे

तुझे दौलत की हवस, उससे तो सजा सकता नहीं 
घर का दिया है, घर को तो जला सकता नहीं 
रदीब काफिये हर शेर पाक रखे खुदा मेरे
तेरी हवस इस कलम से तो बुझा सकता नहीं
शमा दिखा के इस पत्थर को पिघलाऊँ कैसे
ऐ ग़ज़ल मेरी मैं तुझको सजाऊँ कैसे

फीकी होली अँधेरी दीवाली है मेरी
सोच भी जेब की मानिंद ही खाली है मेरी
कुछ जिम्मेदारियों ने नब्ज़ संभाली है मेरी
क्यों नज़र तेरी फिर भी सवाली है मेरी ?
मुफलिसी का पैरहन तेरे हसीं जिस्म पे पहनाऊँ कैसे
इए मेरी ग़ज़ल, मैं तुझको सजाऊँ कैसे ????? - 
3.
तुम क्या समझोगे 
देशभक्ति के नाम पर 
जुबानो की सियासत 
करने वाले 
टूटपुन्जिये सियासतदानों 

हिंदी हिन्दू हिन्दुस्तान 

से पैदा हुई थी एक ज़बान 
ज़बान नहीं दरिया थी 
जिसमे जब रघुपति सहाय ने डुबकी लगाई
तो रघुपति नहीं फिराक़ निकला था
जिसने भर दिए अनगिनत मोती
इस दरिया में
और बढ़ गया दरिया का पानी और कुछ
सम्पूरण सिंह कालरा
आज भी उसी दरिया में तैरता रहता
दीखता है कभी कभी
लोग समझते हैं
यह गुलज़ार है
वोह बूढा पगड़ी वाला
कृपाण दबाये मोटे चश्मे से
देखो क्या पढ़ रहा है
इसी दरिया के वरक़ पलट रहा है
गुरु ग्रन्थ साहेब
दरिया है
तो संगम भी ज़रूर होगा
जब मिलते हैं
साहिर और अमृता
अलग ज़बानें
अलग ज़ेहन
अलग ज़ायक़ा 
लेकिन फिर बन जाता है एक दरिया.
जो निकलता है कभी अमीर खुसरो
के लब से
कभी क़लम से
इंशा अल्लाह  खान के
कभी गाता है कबीर बन
कभी गिरता है मीरा के चश्म से

तुम क्या समझोगे
दरिया पानी भाप बादल बारिश संगम की
शीरीं सियासत को

देशभक्ति के नाम पर
जुबानो की
सियासत करने वाले
टूटपुन्जिये सियासतदानों
4.
तुम्हे याद है?
जब धर्म ने डाली थे बेडी 
पाँव में तुम्हारे ?

दोनों पाँव सटा कर इस तरह बाँध दिए गये थे 
कि तुम चाह कर भी 
उसे खोल नहीं सकती थीं.

तुम्हारे पाँव नहीं क़ैद करने थे 
धर्म को क़ैद करना था 
अधीन करना था
सीमित करना था
संसार को असीमित बनाने वाले उस अंग को

जो पहचान था तुम्हारी

बहुत चीखीं चिल्लाई थीं
हाथ पाँव चलाये थें
जीभ बहार निकाल कृपान ले रौद्र रूप ले लिया था
शेर पर सवार अरिसेना पर टूट पड़ी थीं
तुम?

नहीं. तुम्हारे अन्दर की औरत
तुमने तो वोह चीत्कार ही नहीं सुनी थी तब
घूंघट के अन्दर पहुंची ही नहीं वोह
चीख

धर्म की बेड़ियां  पुरानी होने लगीं
लगने लगा जंग
कड़ियों में

खड़े कर दिए गए
साहित्यकार
उस असीमित को सीमित रखने के लिए
चाटुकारिता के कोड़े थामे

पन्नों में सजा दिया तुम्हारा
वजूद
पूरा वजूद
नहीं
केवल
शायर का "हुस्न"
और कवि का "यौवन"
चीख रही थी फिर वोह
जौहर की वेदी पर
पति की चिता पे
बाज़ार के कोठों पर

लेकिन किसी ने न खोले उसके पैर

चाटुकारिता के चाबुक पुराने पड़ते ही
ले आया बाज़ार
तुम्हारा खोया हुआ सम्मान
तुम्हारी आजादी
तुम्हारी स्वायत्ता
जो घूमती रहती थी इर्द गिर्द
असीमिन करने वाले सीमित क्षेत्र की
सीमाओं के ही अंतर्गत

फिर चीखा उसने
अबकी समझा रही थी वोह
सचेत कर रही थी तुम्हे
लेकिन डीजे के तेज़ शोर
और मोबाइल की मनमोहक धुनों के बीच
तुम थिरकती ही रहीं ...

और खुल गए
आखिर \
वोह बंधे पैर

लेकिन अभी भी तुम्हारी मर्जी से नहीं
तुम्हारा वजूद 


--

(रचनाकार-परिचय:
 पूरा नाम: हैदर रिज़वी
जन्म : 18 अक्टूबर 1983 को  ओबरा - सोनभद्र, यूपी में
शिक्षा :  इन्जीनीयर ( आई टी)
सृजन: वर्चुअल जगत में सक्रिय लेखन  
संप्रति : डायरेक्टर कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन तहलका टुडे
संपर्क : faizi.rizvi@gmail.com )  
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सोमवार, 1 सितंबर 2014

आदिवासियों ने बनाई पहली फ़िल्म निर्माण कंपनी

पहली फिल्म सोनचांद की शूटिंग जल्द
 


















शहरोज़ की क़लम से
भारतीय सिनेमा में आदिवासी पहचान और अभिव्यक्ति को मुखर करने के लिए वंदना टेटे और ग्लैडसन डुंगडुंग ने मिलकर बिर बुरू ओम्पाय मीडिया एंड इंटरटेनमेंट एलएलपी नामक फिल्म  निर्माण कंपनी बनाई है। यह पहली फिल्म कंपनी है, जिसका स्वामित्व आदिवासियों के पास है। मुंडारी व खड़िया से मिलकर बने शब्द बुरू ओम्पाय का अर्थ ही है, जल, जंगल  व जमीन। जाहिर है, इस कंपनी की फिल्मों में नदी का चंचल प्रवाह,  पहाड़ सा स्वाभिमान और जंगलों सी हरियाली होगी।  वंदना टेटे ने बताया कि भारतीय सिनेमा के सौ साल के इतिहास में आदिवासी कहीं नहीं है। इसलिए उनकी अभिव्यक्ति व उपस्थिति के लिए कंपनी बनाई गई है। जबकि  ग्लैडसन डुंगडुंग का कहना है  आदिवासी अपनी ही जमीन से बेदखल किए जा रहे हैं, उनकी समस्याओं को प्रमुखता से फोकस करना कंपनी का उद्देश्य रहेगा।
कंपनी का पहला प्रोजेक्ट फीचर फिल्म सोनचांद  है। इसमें भी सत्तर फीसदी कलाकार झारखंडी व आदिवासी होंगे। वहीं डैनी डेंगजोप्पा, सीमा बिस्वास और उषा जाधव का अभिनय सोनचांद में चार चांद लगाएगा। झारखंड के अलावा मुंबई, दिल्ली, मप्र., छत्तीसगढ़ व राजस्थान के मनुज मखीजा, रंजीत उरांव, बृजीत सुरीन, विजय गुप्ता, इंद्रजीत सिंह, शंकर सिंह, केएन सिंह मुंडा, इंद्रजीत सिंह और सामंत लकड़ा आदि फनकारों की फिल्म में अहम भूमिका होगी।

 निरे पे सेने पे लंदय पे रियो-रियो
 निरे पे सेने पे लंदय पे रियो-रियो फिल्म सोनचांद की यह पंक्ति टैग लाइन है। मुंडारी के इन शब्दों का मतलब है, आओ दौड़ें, नाचें व खिलखिलाएं। फिल्म में संवाद पात्र के अनुसार नागपुरी, मुंडारी, भोजपुरी और हिंदी में होगा। मुंडारी संवाद कवि-प्रोफेसर अनुज लुगुन लिखेंगे। वहीं निर्देशन करेंगे, अश्विनी पंकज। अभिनय से तकनीकी पहलुओं और लेखन तक में कंपनी को एफटीआई से ट्रेंड सत्तर प्रतिशत आदिवासी युवाओं का योगदान होगा।

 कहानी जो आज तक कही नहीं गई
 इस फिल्म में 12-14 साल की आदिवासी बच्ची सोनचांद मुंडा की कहानी है। आदिवासी प्रदेश की आदिवासी समुदाय से आनेवाली यह लड़की फील्ड एथलीट है। बालिका वर्ग की 100 मीटर रेस में उसका प्रदर्शन बेमिसाल है। यह धाविका स्टेट चैंपियन है। लोग उसे नन्ही आदिवासी उड़नपरी बोलते हैं। उसका सेलेक्शन नेशनल चैंपियनशिप के लिए होता है। लेकिन चैंपियनशिप के कुछ दिन पहले एक रात कोई उसके पांव काट देता है।
भास्कर के रांची संस्करण में 1 सितंबर 2014  प्रकाशित

लेखक-परिचय






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