बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 4 सितंबर 2014

मैं था शायर, मुझको क्या था

 चार नज़्म 






  








 फ़ैज़ी रेहरवी  की क़लम से

1.

मैं गया कहाँ, बस यहीं रहा,
न रुका कभी, बस चला किया
मेरी ज़िन्दगी थी तेरे लिए,
मेरी लाश तो मुझको सौंप दो

वो सफ़र के जो कोई, कभी न था
वो डगर जो अब तक चली नहीं
वो रुका रुका सा भरा सा दरिया
एक आँख जो अब तक बही नहीं
ये सरमाया हैं मेरी ज़िन्दगी का,
इसे मुझको लाओ सौंप दो

न लिखूंगा तुझको क़सम तुम्हारी
पढूंगा क्या जब लिखा नहीं
वरक़ था कोरा, रहा भी कोरा
क्या ज़िन्दगी? जब जिया नहीं
ये ख़ला के उनवान सी ग़ज़ल है
ख़ला ही इसमें भरी हुई है
ख़ला थी कब के मेरा मुक़द्दर
ये तो अपनी मेरी चुनी हुई है

सितम थे जग में, थे कितने नाले
पलट के मैंने मगर न देखा
शोर के अब्र से बरसती लाशें
हर एक चिता पे ज़मीर सेंका
एहसास-ए-सर्द से भर के दामन
गर्म साँसों को मैंने फेंका

कौन भूखा कौन प्यासा
मैं था शायर, मुझको क्या था
तेरा बदन, ये तेरी निगाहें
तेरे ये गेसू तेरी ये बाहें
तेरे तसव्वर में मैं जी रहा था
शराब-ए- बेहिर्सी मैं पी रहा था
नशा था इल्म-ओ-सुखन का गहरा
नशा था हुस्न-ओ- कलम का गहरा
नशा था दींन -ओ- धरम का गहरा
नशा था यक़ीन-ओ- वहम का गहरा
नशा था इतना, के मैं न संभला
नशा था इतना, के न मैंने देखा

मिस्ले माही मैं बह रहा था
गोते दरिया में मैं खा रहा था
दरिया-ए- दुनिया वसी था इतना
न जाने किस सिम्त मैं जारहा था
के अचानक वो आई मेरे ज़ेहन में
तसव्वुरों में किया उजाला
सुखन को नयी रौ मिली उसी से
अशआरखाने में हुआ चेरागाँ
क़ल्ब को एक ज़िया सी बख्शी

मुगन्नी उसका, मैं उसका शायर
आवाज़ की अब खनक भी वो ही
समातों में भी घुली वही है
वरक पे देखो वो ही पड़ी है
जुबां पे मेरे वही बसी है
तभी किसी ने खोली खिड़की

तभी किसी ने खोली खिड़की
बे रह्म शम्स ने वहां से झाँका
मानिंद-ए-शोला नज़र से देखा
मैं चौका, भागा, जो बढ़ के झाँका
चिंगारियां नीचे पटी पड़ी थी
झुलस रहा था शहर हमारा
हर चीख शोलों सी जल रही थी
फिर मैंने देखा, मैंने समझा
तपिश ये दुनियामें है कैसी फैली
भूख से था कोई झुलस चूका
किसी को उसके खुदा ने फूँका
राख मज़हब की उसने बेचीं
किसी ने कोई बदन खरीदा
किसी कोठे की आतिश्फेशां आवाजें
कई चूड़ियाँ कलाई में पिघल गयीं
दूध की खातिर बिकती माएँ
बाज़ार-ए- जिस्म में क़ुमकुमों की मानिंद
तभी वरक पर नज़र गयी
जहाँ पे तुम थी पडी हुईं
तभी ये फिर से ख़याल आया
कौन भूखा कौन प्यासा
मैं था शायर, मुझको क्या था
एक जीस्त थी सो गुज़र गयी
एक नज़्म थी सो बिखर गयी
मैं गया कहाँ, बस यहीं रहा,
न रुका कभी, बस चला किया
मेरी ज़िन्दगी थी तेरे लिए,
मेरी लाश तो मुझको सौंप दो


2.

वो चाँद, सितारे फूल ओ खुशबु लाऊँ कैसे 
ऐ ग़ज़ल मेरी मैं तुझको सजाऊँ कैसे

अशआर आंसू की जगह बर्फ हुए जाते हैं 
एहसास गजलोंमें बस कुछ हर्फ़ हुए जाते हैं 
दिल बैठता जाता है आहट से तेरे जाने की 
जज़्बात गुस्से के दलदल में कहीं ग़र्क हुए जाते हैं 
तेरे लिए वोह पंखुड़ियों से लफ्ज़ लाऊं कैसे 
ऐ ग़ज़ल मेरी मैं तुझको सजाऊँ कैसे

तुझे दौलत की हवस, उससे तो सजा सकता नहीं 
घर का दिया है, घर को तो जला सकता नहीं 
रदीब काफिये हर शेर पाक रखे खुदा मेरे
तेरी हवस इस कलम से तो बुझा सकता नहीं
शमा दिखा के इस पत्थर को पिघलाऊँ कैसे
ऐ ग़ज़ल मेरी मैं तुझको सजाऊँ कैसे

फीकी होली अँधेरी दीवाली है मेरी
सोच भी जेब की मानिंद ही खाली है मेरी
कुछ जिम्मेदारियों ने नब्ज़ संभाली है मेरी
क्यों नज़र तेरी फिर भी सवाली है मेरी ?
मुफलिसी का पैरहन तेरे हसीं जिस्म पे पहनाऊँ कैसे
इए मेरी ग़ज़ल, मैं तुझको सजाऊँ कैसे ????? - 
3.
तुम क्या समझोगे 
देशभक्ति के नाम पर 
जुबानो की सियासत 
करने वाले 
टूटपुन्जिये सियासतदानों 

हिंदी हिन्दू हिन्दुस्तान 

से पैदा हुई थी एक ज़बान 
ज़बान नहीं दरिया थी 
जिसमे जब रघुपति सहाय ने डुबकी लगाई
तो रघुपति नहीं फिराक़ निकला था
जिसने भर दिए अनगिनत मोती
इस दरिया में
और बढ़ गया दरिया का पानी और कुछ
सम्पूरण सिंह कालरा
आज भी उसी दरिया में तैरता रहता
दीखता है कभी कभी
लोग समझते हैं
यह गुलज़ार है
वोह बूढा पगड़ी वाला
कृपाण दबाये मोटे चश्मे से
देखो क्या पढ़ रहा है
इसी दरिया के वरक़ पलट रहा है
गुरु ग्रन्थ साहेब
दरिया है
तो संगम भी ज़रूर होगा
जब मिलते हैं
साहिर और अमृता
अलग ज़बानें
अलग ज़ेहन
अलग ज़ायक़ा 
लेकिन फिर बन जाता है एक दरिया.
जो निकलता है कभी अमीर खुसरो
के लब से
कभी क़लम से
इंशा अल्लाह  खान के
कभी गाता है कबीर बन
कभी गिरता है मीरा के चश्म से

तुम क्या समझोगे
दरिया पानी भाप बादल बारिश संगम की
शीरीं सियासत को

देशभक्ति के नाम पर
जुबानो की
सियासत करने वाले
टूटपुन्जिये सियासतदानों
4.
तुम्हे याद है?
जब धर्म ने डाली थे बेडी 
पाँव में तुम्हारे ?

दोनों पाँव सटा कर इस तरह बाँध दिए गये थे 
कि तुम चाह कर भी 
उसे खोल नहीं सकती थीं.

तुम्हारे पाँव नहीं क़ैद करने थे 
धर्म को क़ैद करना था 
अधीन करना था
सीमित करना था
संसार को असीमित बनाने वाले उस अंग को

जो पहचान था तुम्हारी

बहुत चीखीं चिल्लाई थीं
हाथ पाँव चलाये थें
जीभ बहार निकाल कृपान ले रौद्र रूप ले लिया था
शेर पर सवार अरिसेना पर टूट पड़ी थीं
तुम?

नहीं. तुम्हारे अन्दर की औरत
तुमने तो वोह चीत्कार ही नहीं सुनी थी तब
घूंघट के अन्दर पहुंची ही नहीं वोह
चीख

धर्म की बेड़ियां  पुरानी होने लगीं
लगने लगा जंग
कड़ियों में

खड़े कर दिए गए
साहित्यकार
उस असीमित को सीमित रखने के लिए
चाटुकारिता के कोड़े थामे

पन्नों में सजा दिया तुम्हारा
वजूद
पूरा वजूद
नहीं
केवल
शायर का "हुस्न"
और कवि का "यौवन"
चीख रही थी फिर वोह
जौहर की वेदी पर
पति की चिता पे
बाज़ार के कोठों पर

लेकिन किसी ने न खोले उसके पैर

चाटुकारिता के चाबुक पुराने पड़ते ही
ले आया बाज़ार
तुम्हारा खोया हुआ सम्मान
तुम्हारी आजादी
तुम्हारी स्वायत्ता
जो घूमती रहती थी इर्द गिर्द
असीमिन करने वाले सीमित क्षेत्र की
सीमाओं के ही अंतर्गत

फिर चीखा उसने
अबकी समझा रही थी वोह
सचेत कर रही थी तुम्हे
लेकिन डीजे के तेज़ शोर
और मोबाइल की मनमोहक धुनों के बीच
तुम थिरकती ही रहीं ...

और खुल गए
आखिर \
वोह बंधे पैर

लेकिन अभी भी तुम्हारी मर्जी से नहीं
तुम्हारा वजूद 


--

(रचनाकार-परिचय:
 पूरा नाम: हैदर रिज़वी
जन्म : 18 अक्टूबर 1983 को  ओबरा - सोनभद्र, यूपी में
शिक्षा :  इन्जीनीयर ( आई टी)
सृजन: वर्चुअल जगत में सक्रिय लेखन  
संप्रति : डायरेक्टर कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन तहलका टुडे
संपर्क : faizi.rizvi@gmail.com )  

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2 comments: on " मैं था शायर, मुझको क्या था"

Unknown ने कहा…

बहुत खूबसूरत। बेहद उम्दा।

शाहनाज़ इमरानी ने कहा…

बहुत बेहतरीन नज़्में हैं। यह हालातों और ज़हन की कश्मकश और लहूलुहान करे वक़्त की नज़्में है। एक दौर था जब संघर्ष का अर्थ सिर्फ आर्थिक संघर्ष माना जाता था। आज हर क्षेत्र में नाजायज़ को जायज़ मान लिया गया है। आज देश जिन हालातों से गुज़र रहा है उसका असर इन कविताओं में भी देखा जा सकता है। उम्मीद है आगे भी आपकी कविताएं पढ़ने को मिलती रहेंगी।

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- अल्लामा जमील मज़हरी

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