सपा, बसपा और हमारी भूमिका
कॅंवल भारती की क़लम से
उत्तर प्रदेश में लोकसभा-2014 के चुनाव-परिणाम इसलिये नहीं चैंकाते हैं कि भाजपा की इतनी बड़ी जीत अप्रत्याशित थी, बल्कि इसलिये चैंकाते हैं कि इसने बसपा का सूपड़ा साफ कर दिया है और सपा को पाॅंच सीटों पर समेट दिया है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में सपा-बसपा की इस शर्मनाक पराजय के दूरगामी अर्थ हैं। कुछ चिन्तकों का कहना है कि मोदी की लहर ने जाति और धर्म की राजनीति को खत्म का दिया है। किन्तु यदि ऐसा सचमुच होता, तो भाजपा को इतनी बड़ी जीत कभी हासिल नहीं हो सकती थी। जाति-धर्म से मुक्त राजनीति की जीत तब तो मानी जा सकती थी, जब यदि आम आदमी पार्टी को यह सफलता हासिल हुई होती। पर भाजपा की इस जीत का अर्थ ही यह है कि जनता ने जाति और धर्म के नाम पर भाजपा के पक्ष में मतदान किया है। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि संघ परिवार और मोदी की टीम ने मिलकर उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मणवाद का पुनरुद्धार किया है? किन्तु इस पुनरुद्धार के लिये अगर कोई जिम्मेदार है, तो वह है सपा-बसपा का नेतृत्व, जिसके पास भाजपा से लड़ने के लिये कोई कारगर राजनीतिक हथियार नहीं था। मुलायमसिंह यादव ने मोदी को मुस्लिम-विरोधी बताकर राजनीति की, तो मायावती ने उन्हें दलित-विरोधी बताकर, और इसी राजनीति ने हिन्दू मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकृत करने का काम किया। सवाल यह नहीं है कि भाजपा और मोदी मुस्लिम-दलित-विरोधी नहीं हैं, सचमुच वे हैं। पर बात सिर्फ इतनी भर नहीं है। यह बहुत ही छोटा नजरिया है, उन्हें देखने का। भाजपा, मोदी और संघपरिवार को इससे बड़े नजरिये से देखा जाना चाहिए था। यह नजरिया सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का होना चाहिए था, जो एक फासीवादी अवधारणा है। दलित और मुस्लिम-विरोध तो इस राष्ट्रवाद का छोटा-सा हिस्सा भर है। यदि इस नजरिये से मायावती और मुलायम सिंह ने भाजपा, मोदी और संघपरिवार के विरुद्ध जनता में एक वैचारिकी विकसित की होती, तो शायद भाजपा के लिये दिल्ली अभी आसान नहीं होती। लेकिन यह काम वे इसलिये नहीं कर सके, क्योंकि इसके लिये जिस पढ़ाई-लिखाई की जरूरत है, वह न सपा-मुखिया मुलायमसिंह यादव के पास है और न बसपा-सुप्रीमों मायावती के पास है। दोंनों पार्टियों के नेता जब रैलियों और अन्य मंचों पर बोलते हैं, तो वे कहीं से भी पढ़े-लिखे नजर नहीं आते। वैचारिकी तो एकदम सपा नेताओं के पास नहीं है। वे सिर्फ नाम के समाजवादी हैं, उसकी ए, बी, सी तो दूर, ‘ए’ भी ठीक से नहीं जानते हैैं। उन्हें सुनकर लगता ही नहीं कि वे समाज और राजनीति में कोई बदलाव चाहते हैं।
जिस निर्भया के बहाने बलात्कार के विरुद्ध कड़े कानून बनाने के लिये देश-व्यापी जनान्दोलन हुआ, वहाॅं मुलायमसिंह यादव अपनी चुनावी रैलियों में यह कह रहे थे कि ‘बच्चे हैं, गलती हो जाती है, तो क्या उन्हें फाॅंसी दे दी जाय?’ पूरे देश की महिलाओं ने मुलायमसिंह के इस बेहूदे और शर्मनाक बयान को स्त्री-विरोधी बयान के रूप में लिया और उन्हें एक सम्वेदनहीन अयोग्य शासक के रूप में देखा। इसी तरह जब सपा नेता आजम खाॅं ने कारगिल की जीत को मुस्लिम सैनिकों की जीत कहकर इस इरादे से अपनी पीठ ठोकी कि मुसलमान खुश होकर उन्हें अपने कन्धों पर बैठा लेंगे, तो वहाॅं उनकी ‘तालीमी जहालत’ ही ज्यादा नजर आ रही थी, जो यह नहीं समझ सकती थी कि उन्होंने अपनी समाजवादी राजनीति की ही कब्र नहीं खोद दी है, बल्कि मुसलमानों को भी मुख्यधारा से दूर कर दिया है। यह इसी का परिणाम हुआ कि न सिर्फ मुसलमानों में इसकी अच्छी प्रतिक्रिया नहीं हुई, बल्कि सपा-समर्थक हिन्दू मतदाता भी सपा के खिलाफ ध्रुवीकृत हो गये।इतना ही नहीं, प्रदेश की जनता यह भी देख रही थी कि सपा-बसपा के नेता संसद में काॅंग्रेस की जन-विरोधी नीतियों में काॅंगे्रस का खुलकर समर्थन कर रहे थे और संसद के बाहर काॅंगे्रस का विरोध करके जनता की आॅंखों में धूल झोंक रहे थे। वे उस काॅंगे्रस सरकार के संकट-मोचक बने हुए थे, जिसने आम आदमी को जीने-लायक हालात में भी नहीं छोड़ा था। इन सपा-बसपा नेताओं की आॅंखों पर अज्ञानता की इतनी मोटी पट्टी चढ़ी हुई है कि उन्हें यह तक दिखाई नहीं दे रहा है कि कम्प्यूटर युग की जनता न सिर्फ सब जानती है, बल्कि उनके खेल को समझती भी है। इस जनता ने यह जान लिया था कि सपा-बसपा के ये मुखिया केन्द्र में अपनी राजनीतिक शक्ति का इस्तेमाल सिर्फ अपने निजी हित में सौदेबाजी करने के लिये करते हैं।
वे लोकतन्त्र की दुहाई जरूर देते हैं, पर खुद फासीवादी चरित्र से मुक्त नहीं हैं। यही कारण है कि वे भाजपा और संघपरिवार के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को समझने का वैचारिक स्तर नहीं रखते। याद कीजिए, नोएडा में एक मस्जिद का अवैध निर्माण गिराने के आरोप में सपा-सरकार ने एक आईएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल को निलम्बित कर दिया था, पर जब वही गलत काम आजम खाॅं ने रमजान के महीने में मदरसा गिराकर रामपुर में किया, तो फेसबुक पर उसका विरोध करने पर उसी सरकार ने मुझे गिरफ्तार करा लिया। इस घटना के विरोध में देश-व्यापी प्रदर्शनों के बावजूद सरकार ने मेरे विरुद्ध दायर मुकदमा वापिस नहीं लिया। क्या यह सपा का फासीवादी चरित्र नहीं है? यही नहीं, जब मायावती ने भी इस सम्बन्ध में मौन रहकर सपा सरकार का समर्थन किया और लोकतन्त्र का गला घोंटने वाली सपा सरकार की तानाशाही के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठायी, तो उत्तर प्रदेश की जागरूक जनता ने यह समझने में जरा जरा भी देर नहीं लगायी कि मायावती भी सांस्कृतिक फासीवाद को ही पसन्द करती हंै और लोकतन्त्र में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का सवाल उनके लिये बिल्कुल भी महत्वपूर्ण नहीं है।
बहुत से दलित विचारक और राजनीतिक विश्लेषक 2007 में बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार के लिये मायावती की सोशल इंजीनियरिंग को श्रेय देते हैं। पर मैंने उस समय भी इसका खण्डन करते हुए लिखा था कि यह सोशल इंजीनियरिंग नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक लम्बे समय से हाशिए पर बैठे ब्राह्मणों ने सत्ता में आने के लिये मायावती का साथ पकड़ा था, क्योंकि यह वह समय था, जब उनकी प्रिय पार्टियों--काॅंगे्रस और भाजपा--का पतन हो चुका था और सपा को वे पसन्द नहीं करते थे। इस तरह मायावती उनके डूबते जहाज के लिये तिनके का सहारा भर थीं। अतः, कहना न होगा कि ब्राह्मण स्वार्थवश बसपा से जुड़ा थे, न कि दलितों के प्रति उनका हृदय-परिवर्तन हुआ था। इसलिये जैसे ही मोदी ने भाजपा का रास्ता साफ किया, ब्राह्मणों ने अपनी घर-वापसी करने में तनिक भी देर नहीं लगायी। अगर सच में कोई सोशल इंजीनियरिंग होती, तो क्या बसपा का सूपड़ा साफ होता?
मैं लगभग 1996 से ही डा. आंबेडकर की जातिविहीन और वर्गविहीन वैचारिकी के सन्दर्भ में कांशीराम और मायावती की राजनीति को कटघरे में खड़ा करता आ रहा हॅंू, जिसके लिये मैं दलित चिन्तकों और बुद्धिजीवियों की निन्दा का पात्र भी हूॅं। पर, मैं जातिवादी तरीके से नहीं सोच सकता। मेरे लिये दलित-विमर्श सामाजिक परिवर्तन का विमर्श है। इस नजरिये से मैं जब भी मायावती की राजनीति को देखता हूॅं, तो वह मुझे उनकी जाति को भुनाने वाली राजनीति ही दिखायी देती है। वह मुझे कहीं से भी परिवर्तन की राजनीति नजर नहीं आती है। इसलिये वर्तमान लोकसभा में बसपा की शर्मनाक ‘अनुपस्थिति’ पर हमारे दलित चिन्तक मायावती के पक्ष में चाहे कितने ही ‘किन्तु-परन्तु’ करके बात करें, पर मेरा आज भी यही मानना है कि उन्होंने डा. आंबेडकर के आन्दोलन को गर्त में ढकेल दिया है। उनकी राजनीति का सबसे बड़ा विद्रूप यह है कि उसका कोई सांस्कृतिक आन्दोलन नहीं है। अगर होता, जिस दलित वोट पर मायावती सबसे ज्यादा आत्ममुग्ध होती हैं और जिसकी पूरी कीमत वसूल कर वे सवर्णों को टिकट देती हैं, वह वोट आज उनसे खिसका नहीं होता। यह जानकर तो उनको जरूर तगड़ा झटका लगा होगा कि उनके चमार और जाटव वोटर ने इस बार मोदी के पक्ष में भाजपा को वोट दिया है। शायद मायावती इस अनहोनी को नहीं समझ सकंेगी, क्योंकि एक तो जनता के साथ उनका संवाद न के बराबर है और दूसरे वे दलित बुद्धिजीवियों को नापसन्द करती हैं। शायद ‘बसपा’ भारत की एकमात्र पार्टी है, जिसकी अपनी कोई बौद्धिक सम्पदा नहीं है। दलित बुद्धिजीवी केवल जाति के आधार पर ही इस पार्टी से सहानुभूति रखते हैं। इसलिये इस तथ्य को समझना जरूरी है कि बसपा-सुप्रीमो, जो किंगमेकर ही नहीं, सौदेबाजी करके प्रधानमन्त्री बनने का भी सपना देख रही थीं, धड़ाम से नीचे कैसे गिर गयीं? इसका एक बड़ा कारण है नयी पीढ़ी के मध्यवर्गीय दलित युवकों का हिन्दू चेतना से जुड़ाव। इस पीढ़ी के साथ लगातार सम्पर्क और संवाद करने के बाद यह तथ्य सामने आया कि वे अपने दिन-भर का अधिकांश समय अपने हिन्दू दोस्तों के साथ व्यतीत करते हैं, जो उनके सहपाठी और सहकर्मी दोनों हैं। उनके साथ उनका उठना-बैठना, घूमना-फिरना और खाना-पीना सब होता है। वे एक-दूसरे के घरों में आते-जाते हैं, सुख-दुख में शरीक होते हैं। इस बीच जाति के सामाजिक तनाव उनके बीच नहीं होते। ये सम्बन्ध यहाॅं तक विकसित हुए हैं कि दलित युवक अपने हिन्दू दोस्तों के साथ मन्दिर भी जाते हैं और उनके देवी-जागरण जैसे धार्मिक कार्यों में भी भाग लेते हैं। इस दोस्ती ने दलित युवकों को सिर्फ हिन्दू चेतना से ही नहीं जोड़ा, बल्कि उन्हें हिन्दू राजनीति से भी जोड़ दिया। लेकिन इसी हिन्दू राजनीति ने उन्हें मुस्लिम-विरोधी भी बना दिया, जिसमें उनके कुछ कटु सामाजिक अनुभवों ने भी अपनी भूमिका निभायी है। चूॅंकि इन दलित युवकों के घरों में भी कोई सांस्कृतिक परिवर्तन नहीं हुआ है, इसलिये उनका मोदी के पक्ष में भाजपा के साथ जाना बिल्कुल भी आश्चर्यजनक नहीं है। मायावती चाहें तो अपने दलित वोट बैंक का सर्वे करा सकती हैं और देख सकती हैं कि जिस जमीन पर वे खड़ी हैं वह किस कदर दरक गयी है।
सवाल यह है कि ऐसा क्यों हुआ? हमेशा हाथी पर बटन दबाने वाले कुछ दलितों का तर्क है कि जब मायावती हाथी से गणेश तक जा सकती हैं, तो वे सीधे गणेश को वोट क्यों नहीं दे सकते? जब मायावती परशुराम का गुणगान कर सकती हंै, तो वे मोदी का समर्थन क्यों नहीं कर सकते? जब मायावती को भाजपा मुख्यमन्त्री बना सकती हैं, तो वे मोदी को प्रधानमन्त्री क्यों नहीं बना सकते? ये वे तर्क हैं, जिनका कोई जवाब मायावती के पास नहीं है। कुछ दलितों का तो यहाॅं तक कहना है कि अगर बसपा की पिछली सीटें बरकरार रहतीं और भाजपा की सीटें बहुमत से कुछ कम आतीं, तो मायावती को भाजपा को ही समर्थन देकर अपना उल्लू सीधा करना था।
दरअसल, जाति और वर्गविहीन समाज की दिशा में डा. आंबेडकर की जो रेडिकल वैचारिकी थी, मायावती न केवल उससे दूर हैं, बल्कि उसे जानना भी नही चाहती हैं। यही कारण है कि उन्होंने सत्ता में आने के लिये जातियों को मजबूत करने का ‘शार्टकट’ रास्ता अपनाया। इसके सिवाय उन्होंने दलितों में कोई रेडिकल सांस्कृतिक आन्दोलन पैदा करने की कोशिश कभी नहीं की। सत्ता के ‘शार्टकट’ रास्तों की परिणति हमेशा लाभकारी नहीं होती है, वह धूल भी चटा देती है।
बहरहाल, देश की जनता ने यह जानते हुए भी कि मोदी घोर साम्प्रदायिक और मुस्लिम-विरोधी हैं, यह जानते हुए भी कि उनका राजनीतिक एजेण्डा लोकतन्त्र का नहीं, हिन्दू राष्ट्रवाद का है और यह जानते हुए भी कि वे बड़े पूॅंजीपतियों के हित में सामाजिक न्याय, सुरक्षा और परिवर्तन की संवैधानिक व्यवस्थाओं को बदल सकते हैं, उन्हें भारी बहुमत से जिताया है। मैं तो कहुॅंगा कि देश की निकम्मी वाम-सेकुलर शक्तियों ने थाल में सजाकर मोदी को सत्ता सौंप दी है। इसलिये अब प्रगतिशील चिन्तकों, लेखकों, पत्रकारों और कलाकारों की भूमिका और भी बढ़ गयी है, जिसे हमें अब पूरी निर्भीकता और जिम्मेदारी से निभाना होगा।
(17 मई 2014)
(लेखक-परिचय:
प्रगतिशील -अम्बेडकरवादी विचारक, कवि, आलोचक और पत्रकार
जन्म: 4 फ़रवरी 1953 को उत्तर प्रदेश के रामपुर में
शिक्षा: स्नात कोत्तर
सृजन: पंद्रह वर्ष की उम्र से ही कविताई। दलित इतिहास, साहित्य, राजनीति और पत्रकारिता पर हिंदी में अब तक 40 पुस्तकें प्रकाशित.
ब्लॉग: कँवल भारती के शब्द
संप्रति: स्वतंत्र लेखक व पत्रकार
संपर्क: kbharti53@gmail.com)
1 comments: on "उत्तर प्रदेश में लहर के मायने "
अब समय आ गया है की चुनाव के दौरान जो भी दल एवं मीडिया किसी भी संसदीयक क्षेत्र में जाती या धर्म के आधार पर मतों की बात करे या वहां कितने प्रतिशत कौन है इस पर चर्चा न करे। आज भी न जाने कुछ लोगों को स्वीकार करने में शर्म क्यों आ रही है की चुनाव के दौरान जातिवाद और सम्प्रदाय वाद छोड़कर केवल विकास की बात की जाये तथा पिछली सरकार के कामकाज का ब्यौरा। ऐसे ही लोग भा ज पा और संघ की राष्ट्रवाद की विचारधारा की आलोचना बखूबी कर वाहवाही लूटने में पीछे नहीं हटते।
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- अल्लामा जमील मज़हरी