बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

मुल्क की पहली पसमांदा मुस्लिम महिला राज्य सभा में

 कहकशां परवीन के रांची स्थित घर  में जुमा मुबारक  ही बनकर आया हाजी जैनुल हक  रांची के  पहले डिप्टी मेयर बने तो उनके  विजयी जुलूस में एक नन्ही सी बच्ची इठला-इठलाकर खूब नारे लगा रही थी। तब उसके  अब्बू...
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बुधवार, 15 जनवरी 2014

मरना सिर्फ हम भूखे नंगे को है माई बाप!

  संजय सिंह की पांच कविताएं 1.उनकी अफरातफरी मेंशामिल हैं हिरनों की कुलाचेनील गायों कीकुचल डालने वाली निगाहेंऔर चट्टानी खुरउनके उन्माद मेंशामिल हैं हाथों में हाथ डालेगलबहियाँ कियेसब के आक्रोशदण्डकारण्य मेंदण्ड भोगते लोगजो न इधर हैंजो...
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बुधवार, 8 जनवरी 2014

यह महज़ लघु कथा भर नहीं है

चित्र : साभार गूगल लघु कथा : दोस्तों की मेहरबानी चाहिए! " भैय्या अब मैं आपके साथ नहीं रह सकता!'  लवलेश ने ज्यों ही कहा साशा पर मानो पहाड़ टूट पड़ा. नेज़े से उसके टुकड़े साशा  के बदन में चुभ रहे. साशा और लवलेश ऐसे नामी-गिरामी संस्थान में...
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(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)