बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 15 जनवरी 2014

मरना सिर्फ हम भूखे नंगे को है माई बाप!



 









संजय सिंह की पांच कविताएं


1.
उनकी अफरातफरी में
शामिल हैं हिरनों की कुलाचे
नील गायों की
कुचल डालने वाली निगाहें
और चट्टानी खुर

उनके उन्माद में
शामिल हैं हाथों में हाथ डाले
गलबहियाँ किये
सब के आक्रोश

दण्डकारण्य में
दण्ड भोगते लोग
जो न इधर हैं
जो न उधर हैं

जंगल, जमीन और जल
आदिवासियों की नींद से निकाल
सपना उगाते
इधर के लोग
उधर के लोग

गोली और बोली से खूनाखून आदिवासी।।

2.
भागना
सिर्फ भागना
अपनी ही जमीन से
जंगल से
नियति को ”शिशनाग्र पर रखने वाले
भोले भाले

आदिवासी -एक प्रजाति

रेती जा रही कंठों की आवाज से
न ईश्वर काँपते हैं
और न ही उनकी रूह

साँवले घोटूलों पर काबिज
उधार के सपने
कोलेस्ट्राल घटाने वालों की चिंता में
विलुप्ति का कगार
और दया, करूणा, सरकारी मदद

मुखारी, चार और तेंदूपत्ता के खेल में
उनके खून से
अपने जूते
बूट चमकाते लोग।।

3.
उनकी चीखें
सपने को चिंदी करती

सिर्फ कल्पना ही
त्वचा में खूँटा उखाड़ देती है

मान लो किसी पुलिस कैम्प में
कोई आधी रात
बाँस को आपके शरीर के अवांछित जगह में घुसेड़ रहा हो

मान लो किसी अलसुबह
आप रास्ते पर
अपना ही सिर कटा धड़ देखें

तुम मारो
या
वो मारे

मरना
सिर्फ हम भूखे नंगे आदिवासियों को है माई बाप।।

4.
धरती के नीचे
लोहा, बाक्साइट, हीरा
ऊपर हम आदिवासी
और जंगल

त्वचा के नीचे
लालच
इच्छा के नीचे
धोखा

तुम्हारे सपने के लिए
मारे जाते लोग
सरकार और लाल सपने की ठोकरों के बीच
हमारी पूरी प्रजाति
दौड़ती-भागती-हाँफती

गोलियों से भून दी गयी
माँदर की थाप
पैरों की ताल

आदिम ख़ुशी की लाशों  पर
पैर रखकर मुस्कुराता एक देश ।

5.
देश  के नखरे
उठाती पथरीली पीठों
कंधे की गाँठ में बदल गयी सिसकियों
और
नाबालिग इच्छा नुचवाती माँओं
चुप रहने के द्रोह से बेहतर होगा
पूछो
कि हमारा
चीखो
चिल्लाओ

(कवि-परिचय:
जन्म: 28 दिसंबर, 1970 को रायगढ़, छत्तीसगढ़ में
शिक्षा: विज्ञान में स्नातक,  स्नातकोत्तर ग्राम विकास में. साथ स्पेनिश भाषा का डिप्लोमा
सृजन: कथादेश, साक्षात्कार, परिकथा, कथा क्रम, माध्यम,  मधुमती, पक्षधर  आदि में कथा-कविताएं प्रकाशित
सम्मान:विपाशा  कहानी प्रतियोगिता 2008  में प्रथम।  कथादेश कहानी प्रतियोगिता 2007 का सांत्वना पुरस्कार 
संप्रति: महात्मा गांधी अंतर राष्ट्रिय हिंदी विवि, वर्धा से सम्बद्ध
ब्लॉग: कोशिश
संपर्क: perjs@rediffmail.com )      
           

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2 comments: on "मरना सिर्फ हम भूखे नंगे को है माई बाप! "

शाहनाज़ इमरानी ने कहा…

आदिवासियों कि नींद से निकाल
सपना उगाते
इधर के लोग
उधर के लोग
गोली और बोली से ख़ूनाखून आदिवासी।

बहुत सार्थक और सच लिखा है आपने
भावों कि उम्दा अभिव्यक्ति है।

शाहनाज़ इमरानी .....

Vandana Ramasingh ने कहा…

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