चित्र : साभार गूगल |
लघु कथा : दोस्तों की मेहरबानी चाहिए!
" भैय्या अब मैं आपके साथ नहीं रह सकता!' लवलेश ने ज्यों ही कहा साशा पर मानो पहाड़ टूट पड़ा. नेज़े से उसके टुकड़े साशा के बदन में चुभ रहे. साशा और लवलेश ऐसे नामी-गिरामी संस्थान में काम करते हैं. जिसकी शाखाएं मुल्क में तेज़ी से बढ़ रही हैं. विकास और सामाजिक सरोकार के लिए संस्था काम करती है। लवलेश और साशा छोटे- बड़े भाई हैं. दरअसल एक के हिंदी और दूसरे के उर्दू नाम को देख लोगों को इनका भ्रातृत्व हज़म नहीं हो पाता। लेकिन दफ़तर में तुषार जैसे मित्र साशा की हिम्मत बढ़ाते रहे हैं. उसे किसी तरह की ठाकुर सुहाती कभी रास नहीं आयी भी नहीं।
लेकिन जब साशा ने लव से वजह जाननी चाही, तो पता चला कि तुषार और हरीश नहीं चाहते कि लव मुस्लिम बहुल मोहल्ले में रहे. साशा के आस्तीन से निकल सर्प फुंफकारने लगा. लव और साशा के आसपास गणेश शंकर विद्यार्थी, ज़की अनवर की रूह बेचैन। समय बसंत का था. पलाश के फूल रक्तिम शोले से दहक रहे थे. दरख्तों से पत्तियाँ झर-झर आँगन में ढेर हो गयीं।
" लव मैं भी तो श्रीरामपुर में बरसों रहा हूँ और तुम भी मुस्तफाबाद में. ऐसा कुछ नहीं। अब समय नहीं रहा कि स्टेशन पर कोई चिल्लाये, हिन्दू पानी ले लो! मुस्लिम पानी ले लो!!"
'' भैय्या सब वैसा ही है, जो नहीं दीखता वही खतरनाक होता।"
"अरे नहीं बाबू! तुषार मज़ाक़ कर रहे होंगे। कभी मैं भी उन्हें ठिठोली में संघी तो वो मुझको तालिबानी कह देते हैं. पर मस्त आदमी है तुषार! बिंदास!"
" नहीं भैया सिर्फ तुषार या हरीश जी की बात नहीं है. सर ने कह दिया है कि मुझे आपके साथ नहीं रहना चाहिए।"
" बकवास है?"
" बकवास नहीं भैया सच है!"
" मुझे तो किसी ने नहीं कहा ?"
"आपको कहेंगे भी नहीं!"
दोनों के सामने बॉस के लक-दक लिबास से झांकता व्यक्ति अचानक दानव हो गया. अपने कुटिल मुस्कान से क्रूरता को भयावह करता रहा.
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लवलेश ने कमरा ख़ाली कर दिया है. साशा ने कपडे उतार फेंके हैं. बावजूद जिस्म जल रहा है. जैसा गुजरात की एक बेकरी में ज़िंदा लोग भून दिए गए थे.
उधर क़ैसर बानो के गर्भ से चीरे गए अजन्मे शिशु की चीख़ नींद को बेदखल करती रही. नफ्ज़ डूबती, तो कभी सांस धावक हो जाती।
किसी तरह उठा और ग़ालिब, मीरा, तुलसी, रसखान, रहीम, रसलीन, कबीर, सरहपा के सारे दीवानों को चिंदी-चिंदी करने लगा. बुल्लेशाह चिनाब में कूद चुके थे. दकनी की मज़ार अहमदाबाद में मिस्मार .
इस बीच भगत सिंह कूद पड़े. बोले धर्म के ग्रंथों को फूँक डालो।
ईसा ने टोका, वह पीछे खड़े मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे. फिर जाति , क्षेत्र और भाषा की हिंसा से कैसे मुक्त हो पाओगे।
ईसा कहीं गुम हो चुके थे. उनकी बात फ़िज़ा में थी, प्रभु इन्हें क्षमा करना यह नहीं जानते वे क्या कर रहे हैं!
दूर बाम्बियान से बुद्ध की हंसी कानों में घुलती रही.साशा बुदबुदाया, निदा तुम कित्ता सच कहते हो न ! " हिन्दू भी मज़े में हैं, मुसलमाँ भी मज़े में/ इंसान परेशाँ है, यहाँ भी है, वहाँ भी!"
तुम्हारी ताकीद भी नहीं भूलूंगा ' हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी/ जिसको भी देखना हो कई बार देखना! '
अचानक चीखा साशा, गुस्ताखी मुआफ़ हो निदा मिआं । आदमी जंगल में खो गया. जानवर अब दफ्तरों और अपार्टमेंटों में हुंकार रहे हैं!
5 comments: on "यह महज़ लघु कथा भर नहीं है "
"दोस्तों की मेहरबानी चाहिए" आज के परिवेश में बहुत उम्दा है। लघु कथा जो बेहद मानवीय और संवेदनशील ढंग से लिखी गई है। अपने समय के समाज में एक सार्थक हस्तक्षेप। हम सब इस समय सामाजिक-राजनीतिक महत्त्व के जरूरी सवालों से टकरा रहे है। कभी-कभी लगता है देश में सारी विपरीत परिस्थितियाँ यथावत बनी रहेंगी, उसमें कोई सुधार नहीं होगा।शाहनाज़ इमरानी
हर दौर में कुछ स्वार्थी तत्वों ने समाज को बांटने की कोशिश की है, जिसका शिकार आम जन हो जाता है। मानवता की विराट समझ ही इसे बचा सकती है।
अपने परिवेश से मुकालमा करती ये लघु कथा यथार्थ के धरातल से टकरा रही है. इंसानियत की सिसकियाँ कहीं मंद तो कहीं मुखर . कथाकार इस लघु कथा में बहुत कुछ कहता नज़र आया.
bhai.. apni bhi bolti band kar di is kahaani ne to... drawna sach chhupa hai
कहानी अच्छी है। पर जो थीम है वह थोड़ा विस्तार मांगती है
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- अल्लामा जमील मज़हरी