बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

भाजपा पर ज्यां द्रेज बोले, निरमा से नमो तक

रांची में रविवार को विजय संकल्प रैली को भाजपा के पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने संबोधित किया. रैली में जानेमाने अर्थशास्त्री व सोशल एक्टिविस्ट ज्यां द्रेज भी मौजूद थे. उन्होंने जो देखा, सुना और महसूस किया, पेश है उन्हीं की जुबानी.

रांची में नरेंद्र मोदी उवाच 




 







ज्यां द्रेज की क़लम से

नरेंद्र मोदी की रैलियों की हकीकत मीडिया में छपी रिपोर्टो से किस कदर अलग होती है, यह जानना रोचक हो सकता है. इस अंतर को खुद से समझने के लिए मैंने हाल ही में रांची में आयोजित उनकी रैली में शिरकत की. दस दिन पहले से ही रैली के लिए पूरे शहर में जोर-शोर से प्रचार अभियान चल रहा था. मोदी और उनकी पार्टी के अन्य सहयोगियों के बड़े-बड़े पोस्टर शहर के लगभग हर चौक - चौराहे पर लगे थे- कहीं कहीं तो एक जगह दस-दस, बारह-बारह पोस्टर! चाहे आप किसी दिशा में जा रहे हों, शहर की मुख्य सड़कों पर बिना मोदी से नजरें मिलाये निकलना लगभग असंभव था.

रैली बड़ी सुनियोजित थी और भीड़ जबरदस्त थी. इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का सांगठनिक कौशल उम्दा है और उसके पास बहुत पैसा है. किसी को यह पूछने की सहज रुचि हो सकती है कि आखिर यह पैसा आता कहां से है. लेकिन मुख्यधारा की अन्य पार्टियों की तरह, भाजपा भी वित्तीय पारदर्शिता के मान-मूल्यों का विरोध करती रही है. मोदी के आगमन से पहले पार्टी के कई दिग्गज नेता बोले, लेकिन भीड़ ने कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखायी. साफ था कि वे मुख्यत: बहुप्रचारित मोदी की एक झलक मात्र पाने के लिए आये थे. केवल अर्जुन मुंडा ही कुछ हद तक खुद को भीड़ से जोड़ पाने में कामयाब हो सके. मोदी का हेलीकॉप्टर फिल्मी अंदाज में उतरा, तो भीड़ ने जोरदार हर्ष ध्वनि की. पार्टी के कार्यकर्ता इसमें आगे रहे, लेकिन हर कोई अपने तारनहार के स्वागत में खड़ा हो गया. जोरदार साउंड एफेक्ट, वीडियो क्लिपों और ‘नमो-नमो’ की गूंज के साथ स्टेज पर मोदी की एंट्री की तैयारी बड़े नाटकीय ढंग से की गयी थी.

पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने श्रोताओं को संबोधित करते हुए मोदी की तुलना भगवान राम से कर डाली. मोदी बहुत नाटकीय स्वर और भाव-भंगिमाओं के साथ बोले. बेहतरीन प्रभाव पैदा करने के लिए उन्होंने अपनी आवाज में उतार-चढ़ाव का इस्तेमाल किया, कई जगह बिल्कुल सुविचारित अंतराल लिये.  लेकिन यह सारी भाषणबाजी किसी फिल्म के ऑडिशन का भान करा रही थी. विषय-वस्तु एकदम सपाट थी. शायद यही वजह थी कि उनके भाषण के शुरू होने के कुछ ही समय बाद लोग मैदान छोड़ते नजर आये. और जो रु के भी रहे, उनमें भी मोदी की बातों के प्रति कोई खास उत्साह नजर नहीं आया. पार्टी कार्यकर्ताओं के इशारे के बावजूद लोगों ने कभी-कभार ही हर्ष ध्वनि की या तालियां बजायीं. मुझे जान पड़ा कि मोदी श्रोताओं से संवाद कायम कर पाने में नाकामयाब रहे. इसकी शायद एक वजह यह रही हो कि वे यहां एक बाहरी व्यक्ति की तरह आये थे, उन्हें झारखंड के बारे में जल्दबाजी में कुछ-कुछ बताया गया होगा, खुद उन्हें झारखंड के प्रति कोई खास अहसास नहीं था.

दूसरी वजह यह भी रही कि वह वोट के लिए, दूसरे नेताओं द्वारा किये जानेवाले चुनावी वादों से परे नहीं जा पाये. उन्होंने लोगों को राज्य की दयनीय स्थिति की ही ज्यादा याद दिलायी, यह भूलते हुए कि सन 2000 में राज्य के बनने के बाद से 13 सालों में आठ साल से ज्यादा समय तक भाजपा ही सत्ता में रही है. इस रैली से मैंने एक चीज सीखी कि आज राजनीति और व्यवसाय के बीच का अंतर एकदम कम हो गया है. चुनाव अभियान जन-संपर्क उद्योग के एक अन्य क्षेत्र के तौर पर विकसित हो रहा है. कुछ लोग निरमा बेचते हैं, तो कुछ लोग नमो को बेचते हैं. दोनों को बेचने के लिए एक ही तरह की विज्ञापन एजेंसियां एक ही तरह के हथकंडे अपनाती हैं.

झारखंड के लोग इससे अधिक के हकदार हैं.

प्रचार का कोई भी हथकंडा इस तथ्य को झुठला नहीं सकता कि बीते 13 वर्षो में झारखंड की बदहाली के लिए भाजपा सबसे बड़ी दोषी है. कांग्रेस सहित मुख्यधारा की अन्य पार्टियां भी राज्य के संसाधनों की लूट में शामिल रही हैं. उम्मीद करनी चाहिए कि इन सबसे अलग विचारदृष्टि के साथ कोई सामने आये और लोगों के सामने बेहतर विकल्प प्रस्तुत करे, जैसा कि एक हद तक हाल ही में दिल्ली में हुआ.

प्रभात ख़बर से साभार

(लेखक-परिचय:
जन्म:  1959 बेल्जियम में
1979 से भारत में। 2002 में  भारत की नागरिकता मिली।
 शिक्षा:  इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टिच्यूट (नई दिल्ली) से पीएचडी किया।
सृजन: अर्थशास्‍त्र पर12 पुस्तकें प्रकाशित ।  नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के साथ मिलकर कई पुस्तकें लिखीं।
डेढ सौ से अधिक एकैडमिक पेपर्स, रिव्यू और अर्थशास्त्र पर लेख
संप्रति: दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स सहित दुनिया के कई ख्यात विश्वविद्यालयों में  विजिटिंग लेक्चरर रहे। अभी पंडित गोविंद वल्लभ पंत सामाजिक अनुसंधान संस्थान में अध्यापन 
संपर्क:  jean@econdse.org)


   
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सोमवार, 30 दिसंबर 2013

अदीब पिता की कवयित्री बिटिया

 
      
















शहनाज़ इमरानी की कविताएं
 
बूँद भर एक ख़्वाब

        बूँद भर एक ख़्वाब
        पलकों की रिहाइश छोड़ कर
        दरिया नहीं, नहर नहीं
        और न बंधता है किनारों में
        झरना होना चाहता है
        चट्टानें तोड़ कर
        पत्थरों के बीच फूट कर
        बहना चाहता है वो
        दुनियाँ को समेट कर।


हाशिये के बाहर

        वो जाते है
        नाक पर रूमाल रखकर
        मुसल्मानों के मोहल्ले में
        जब वोट बटोरना होता है
        खुली बदबूदार नालियाँ गड्डों में सड़ता पानी
        कचरे और गन्दगी का ढ़ेर
        मटमैले अँधेरे घर बकरियाँ,मुर्गियाँ, कुत्ते, बिल्लीयें
        काटे हुए मवेशियों कि दुर्गन्ध
        मुरझाए चहरे पतवारविहीन साँसे
        पंखविहीन सपने
        पेट की आग कुरेदती है
        तो भूख चाहती है
        झपटना चील कि तरह
        और झपटने में जब गिर गए हों
        चारो खाने चित्त
        कितनी शर्म आयी होगी उन्हें
        अब तकलीफें झेलने कि ताब है
        आसना और मुश्किल दिन एकसे हैं
        अब वे एक दूसरी दुनियाँ में हैं
        खिंच गयी एक लकीर हाशिये की
        जिस तरह भूल जाते हैं हम अमूमन
        कुछ-न-कुछ किसी बहाने
        भूलती गयीं सरकारें भी
        बेशक सरकार बनाने में
        यह अहम भूमिका निभाते आये है
        आज भी याद आ जाते है चुनाव के समय
        हाशिए से बारह के लोग।

   मेंरा शहर
       

        शहर में बहुत भीड़ है
        शहर  में खौलता शोर है
        शहर को खूबसूरत बनाया जा रहा है
        वो बारिश में भीगते है
        सर्दी में ठिठुरते हैं
        उनके सरों पर धूप है
        खुरदरी, पथरीली,नुकीली
        भूख की चुभन है
        बदहवास, हताश, परछाइयाँ हैं
        शहर में ज़िन्दा हैं तमाम जुर्म
        क़त्ल, बेईमानी, वारदात, नाइंसाफ़ी, भ्रष्टचार बलात्कार, खुली लूट
        बढ़ती जाती है रोज़-बा रोज़
        महँगाई, गरीबी, बेरोज़गारी और भूख 
        क़ानून उड़ने लगा है वर्कों से
        घुल रही हैं कड़वाहट हवाओं में
        मन में गहरा विषाद
        भूखे  आदमीयों के
        सवाल लगा रहे हैं ठहाके
        अँधेरे के नाख़ून खुरचते है
        बदसूरत ज़ख्मों को
        मर चुकी संवेदनाओं के साथ जी रहा है शहर
        अब बहुत तैज़ दौड़ने लगा है शहर।

      
ट्रैफिक सिंगनल

        ट्रैफिक सिंगनल  पर जब रूकती है कार
        उग आते हैं अनगिनत
        नन्हे-नन्हे हाथ
        किसी हाथ में अख़बार
        किसी में मेंहकता गजरा
        किसी में खिलौने
        किसी में भगवान
        कुछ हाथ खाली हैं
        जिनमें झाँकते हैं
        अनुत्तरित सवाल
        एक बच्चा
        क़मीज़ की आस्तीन से
        जल्दी-जल्दी कार के शीशे साफ़ करता है
        और नाक पोंछ कर कहता है
        कुछ दे दो न साब
        और साब का बच्चा कहता है
        पीछे हट तूने कार के ग्लास गंदे कर दिये।

  
एक ऊब

        घर इत्मीनान नींद और ख़्वाब
        सबके हिस्से में नहीं आते
        जैसे खाने की अच्छी चीज़ें
        सब को नसीब नहीं होतीं
        जीवन के अर्थ खोलने के लिए
        खुद पर चढ़ाई पर्तों को
        उतारना होता है
        पैदा होते ही एक पर्त चढ़ाई गई थी
        जो आसानी से नहीं उतरती है
        पर्त-दर-पर्त पर्तों का यह खोल
        उतरने में बहुत वक़्त लगता है
        बहुत कड़वा और कसेला सा एक तजुर्बा
        यह ऊब बाहर से अंदर नहीं आती है
        बल्कि अंदर से बाहर की तरफ़ गयी है
        कुछ बचा जाने की ख्वाहिश के टुकड़े
        कुछ यूँ कि उसे ठीक करने की कोशिश भी
        बेमानी लगती है.
        इसी अफरातफरी में इतना हो जाता है
        तयशुदा रास्ते पर चलते रहना
        मोहज़ब बने रहना बहुत मुश्किल है
        उम्र के दूसरे सिरे पर भी बचपन हँसता है
        गहरे जमीन में जाती जड़ें
        पानी का कतरा खोज कर शाख़ पर पहुँचाती हैं 
        शाख़ें अपनी खुशियाँ फूलों को सौंपती हैं
        फल सब कुछ खो देने के लिए पकता है
        जैसे जैसे पेड़ की उम्र होती जाती है
        इंसानी झुर्रियों जैसी पर्त-दर-पर्त उसका बाहरी हिस्सा बनता जाता है
        और फिर नाखूनों की तरह बेजान हो जाता है।


 ज़िंदा रहना एक फ़न है

        
        ज़िन्दगी में फिर लौट कर आना
        घने कोहरे को दरख्तों के बीच छटते देखना 
        धड़कन की रफ़्तार थोड़ी धीमी सही
        बेचैनी भी है
        पर लगातार जीने का माद्दा तो है
        कमरे में सारी किताबें क़रीने से लगी हैं
        किताबों कि क़तार देख कर सुकून मिलता है
        कितनी ज़िंदगियों का सच छुपा है इनमें
        इंसानों कि बनायीं हुई दुनियाँ में
        बहुत कुछ अच्छा और खूबसूरत बचा तो है
        पढ़ने को इतना कुछ, समझने को इतना कुछ
        जीने को इतना कुछ की एक पूरी ज़िन्दगी कम पढ़ती है
        कितने फलसफे हैं दुनियाँ में उन्हें समझने को
        पत्थर भी घिसे दीखते हैं 
        यूँ तो ख्वाहिशों का कोई आकार नहीं होता
        न उनकी कि गिनती
        अक्सर धुंध में ही तलाशती हूँ
        आखिर मुझे चाहिए क्या
        जैसे आर्टिस्ट खींचता है कैनवास पर पहली लकीर
        बस एक लम्हा ही तो मिलेगा उसे
        जैसे रौशनी ने ज़मीन का सफ़र किया हो
        जैसे भी हो
        ज़िंदा रहना एक फ़न है !




( रचनाकार-परिचय :

जन्म: भोपाल में
शिक्षा:  पुरातत्व विज्ञान (अर्कोलॉजी ) में स्नातकोत्तर
सृजन: पहली बार कवितायेँ "कृति ओर " के जनवरी अंक में छपी है।
संप्रति: भोपाल में  अध्यापिका
संपर्क: shahnaz.imrani@gmail.com )
साहित्यकार पिता मक़सूद इमरानी  स्वतंत्रता सैनानी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य थे।

 
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गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

बवंडर में एक उम्मीद का हिलना















पंकज साव की क़लम से

तेजपाल-प्रकरण से  उपजी युवा चिंता


अब से करीब 12 साल पहले ‘तहलका’ ने जिस शख्स के दम पर भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का राजनैतिक करियर खत्म कर दिया था, कहीं आज वह शख्स खुद पतन के कगार पर तो  खड़ा नहीं  है। अपनी ही महिला सहकर्मी द्वारा तहलका के पूर्व संपादक तरुण तेजपाल पर लगाए गए यौन शोषण के आरोप कोर्ट में अगर सही साबित होते हैं,  तो उन्हें दस साल तक की क़ैद हो सकती है। सजा चाहे जो भी हो, पर इतना तो तय है कि भारत जैसा देश तेजपाल को दोबारा पत्रकार के रूप में कभी स्वीकार नहीं कर सकेगा। यहां का समाज में औरत की अस्मिता के साथ खेलना हत्या से भी बड़ा अपराध माना जाता है, भले ही कानून कुछ भी कहे। लेकिन क्या इससे तहलका की साख पर कुछ असर पड़ेगा। क्या  एक भद्दे दाग को धोकर तहलका की वही धवल विश्वसनीयता बरक़रार  रह पायेगी। तुरंत कुछ भी कहना सरलीकरण होगा। पर गर्दिश में सवाल और जवाब दोनों हैं.  
देश के कई इलाकों में बारह बरस को एक युग माना जाता है। तहलका के संदर्भ में यह अवधि सचमुच में एक युग साबित होती दिख रही है। अपनी बेखौफ और जुझारू पत्रकारिता के साथ इतने सालों में आशा की किरण से बढ़ते हुए दिन का सूरज बन चुकी तहलका अब भरी दोपहरी में ही डूबती दिख रही है। मानो तेजपाल-प्रकरण अचानक दोपहर की आंधी बनकर आया हो और यह आंधी कब लौटेगी, किसी को पता नहीं। कहने में तो आसान लगता है कि व्यक्ति से संस्था नहीं चलती, पर व्यवहारिक सच्चाई यह है कि तहलका को तरुण तेजपाल से अलग कर कभी नहीं देखा जा सका।
अब से कुछ हफ्ते पहले तक, जब तक उनका ‘कन्फेशन’ सामने नहीं आया था, किसी भी अच्छी सोच वाले पत्रकार, पत्रकारिता के विद्यार्थी और जागरूक पाठकों के लिए तरुण किसी देवता से कम तो नहीं थे और तहलका, उस देवता की मूर्ति। इसलिए, इस प्रकरण से उठा दर्द सिर्फ पीड़िता का ही नहीं है, बल्कि उन लाखों-करोंड़ों लोगों का भी है।
जिन-जिन मुद्दों पर मुख्यधारा की मीडिया से जनता की उम्मीद खत्म हुई, वहां कुछ गिने-चुने संस्थानों के अलावा एक तहलका ही था, जिससे आस रहती थी। महिलाओं की बराबरी की न सिर्फ बात की बल्कि उसे अपने संस्थान में भी व्यवहार में उतार कर दिखाया। निष्पक्षता ऐसी की दक्षिणपंथियों को लताड़ा तो वामपंथियों को भी नहीं छोड़ा। शंकराचार्य से लेकर तोगड़िया-सिंघल को उसी तरह स्पेस दिया, जितना बिनायक सेन, वारवरा राव को। कांग्रेस से नजदीकियों के आरोप तो लगे, मगर खबरों में कहीं उसकी बू तक नहीं आई। अपने बूते जिसने अपनी ख्याति विदेशों तक में पाई। ब्रिटेन के प्रमुख अखबार द गार्जियन ने इस ‘भारत में खबरों के सबसे बेहतरीन स्रोतों में से एक’ कहा। लेकिन, अपने कंटेंट से किसी का मुंह बंद कर देने की ताकत अब कौन दिखाएगा?
यह आस इसलिए भी खत्म होती दिख रही है क्योंकि इसके संपादक ने पत्रिका की शुरूआत में ही स्थापित आदर्श के उसी मर्म को चोट पहुंचाई है, जो वहां सबसे सुरक्षित माना जा सकता था। आशंका तो यह भी जताई जा रही है कि इस प्रकरण के बहाने उन दक्षिणपंथी तत्वों को एक और तर्क मिल गया है लड़कियों को काम करने और खासकर पत्रकारिता में जाने से रोकने का। अदालत पर भी सबका भरोसा है।  पर, सवाल ये उठता है कि  जनता की अदालत में क्या ‘सच कहने का साहस और सलीका’ कायम रह पाएगा?


(लेखक-परिचय:
 जन्म: 8 अक्टूबर 1986 को हज़ारीबाग (झारखंड) में 
शिक्षा: संत कोलंबा कॉलेज, हजारीबाग से कला स्नातक तथा  माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं जनसंचार विवि, भोपाल से MA in Mass Communication
सृजन: छिटपुट यत्र-तत्र लेख, रपट प्रकाशित
 2011 से पत्रकारिता की शुरुआत
संप्रति:   दैनिक भास्कर डॉट कॉम में सब एडिटर
संपर्क: pankajsaw86@gmail.com )

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सोमवार, 16 दिसंबर 2013

विकल्पहीनता में देश यानी वाम-वाम समय

  








 अमित राजा की क़लम से
दिल्ली और बाक़ी राज्यों के आम आदमी में फ़र्क़
जटिलताओं के देश भारत में राजनीति एक उलझी हुई डोर है। इस उलझी हुई डोर का एक सिरा दिल्ली में 'आप' नहीं-नहीं आम आदमी के हाथ लगा है। लेकिन डोर का दूसरा सिरा जबतक देश के बाक़ी  हिस्सों में आम आदमी के हाथ नहीं लगता है, अनबुझ पहेलियों में कैद सियासत मुक्त नहीं हो सकती। जो हो, दिल्ली के चुनाव परिणाम ने हाल के दिनों में विकसित हुई कुछ मान्यताओं की चिंदी उड़ा दी। ये जाहिर हो गया कि देश को कांग्रेस के साथ भाजपा का भी विकल्प चाहिए। दोनों दलों में एकरूपता है और वे एक-दूसरे के विकल्प नहीं हो सकते। आंकड़े भी इसे पुष्ट करते हैं।
मध्यप्रदेश में जहां मतदाताओ के 1.5 फ़ीसदी ने नोटा का सहारा लिया। वहीं राजस्थान में 1.8 फ़ीसदी और छत्तीसगढ़ में 3.4 फ़ीसदी ने नोटा पर बटन दबाया। जबकि दिल्ली में महज 0.6 फ़ीसदी मतदाता ही नोटा के साथ गए। मतलब साफ है कि मतदाताओ में दिल्ली के उम्मीदवारों को लेकर कन्फयूजन कम था।
जनता का जिन मुद्दों को लेकर रुझान केजरीवाल की पार्टी 'आप' की ओर गया, वे मुद्दे नए भी नहीं थे। वामपंथी दलों का मुद्दा भी यही था। माले विधायक रहे शहीद महेंद्र सिंह ने कई बार सदन में माननीयों को मिलने वाले उपहारों को लौटा दिया था । उनकी पार्टी के दूसरे  विधायकों ने भी यही किया। तीन बार विधायक और तीन बार सांसद रहे मार्क्सवादी समन्वय समिति केएके रॉय भी यही करते रहे। उन्होंने एक मुश्त 70 लाख पेंशन की राशि प्रधानमंत्री रहत कोष में जमा करा दी थी । क्योंकि इससे पहले उन्होंने कभी पेंशन को स्वीकारा ही नहीं था। सो पेंशन की राशि बढ़ते-बढ़ते 70 लाख हो गई थी। कई मार्क्सवादी बेवजह सुरक्षा लेने से भी इंकार करते रहे हैं। भाकपा के सांसद रहे भोगेन्द्र झा से लेकर सीपीएम के  नम्बूदरीपाद और वासुदेव आचार्य, देवाशीष दासगुप्ता तक मिसाल रहे हैं। वामपंथी माननीय राजधानी में मिले बंगलों में  नहीं रहकर भी मिसाल देते रहे हैं। ऐसे में वामपंथी दलों को भी चुनाव नतीजों ने अपनी रणनीतियों पर पुनर्विचार का मौका दिया है। क्योंकि  डेढ़ सालों की मेहनत और मुद्दों की राजनीति से उभरी 'आप' ने देश को कांग्रेस व भाजपा के साथ लेफ्ट पार्टियों का भी विकल्प पेश करने की स्थिति पैदा की है। हालांकि तात्कालिक मुद्दों से निकली और पिक तक पहुंची पार्टियों का इतिहास टूटन भरा रहा है। सोसलिस्ट पार्टी के बाद 1977 में जनता पार्टी, 1989 में बीपी सिंह की पार्टी भी इस लिस्ट में है। मगर इन पार्टियों में ऐसा टूटन आया कि 50 से अधिक छोटे-बड़े दल अस्तित्व में आये।
बहरहाल, देश की जनता ने बता दिया कि उनके लिए सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता कोई मुद्दा नहीं है। भ्रष्टाचार मुक्त भारत, सुशासन, जनता के सेवकों पर जनता की गाढ़ी कमाई खर्च नहीं करना ही मुद्दा है। इसलिए इन मुद्दों के साथ चली  'आप' को बिना कोई बड़े मैदान में रैली किये आम आदमी ने चुन लिया। जनता ने बता दिया कि विकल्पहीनता की स्थिति में ही जनता पैसे पर वोटिंग करती रही और आज विधानसभाओं व संसद में करोड़पति माननीय बहुसंख्यक हो गए है।
                                                                                                                                                                

(लेखक-परिचय
जन्म: 09 मार्च 1976  को दुमका (झारखंड) में 
शिक्षा: स्नातक प्रतिष्ठा।
सृजन: कई पत्र-पत्रिकाओं में लेख -रपट
संप्रति: दैनिक भास्कर के  गिरिडीह ब्यूरो
संपर्क:amitraja.jb@gmail.com)  

  
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बुधवार, 11 दिसंबर 2013

मंज़िल ढूँढता एक मुसाफिर गुमनामी में जी रहा हिंदी का लेखक

 
 सेहन में बैठे फणीन्द्र मांझी  डायरी से एक गीत सुनाते हुए

ज़िंदगी चलती नहीं प्यारे धकेली जाती है :फणीन्द्र  मांझी

चौक-चौराहे पर शहीद भगत सिंह या सुभाष चन्द्र बोस की प्रतिमा देख  धरती  आबा का सुरक्षा कवच रहा डुमबारी पहाड़ भले दूर से ही लुकाछिपी खेले, पर खूंटी को इस बात पर कोई गिला नहीं कि यहाँ भगवान् बिरसा की एक भी प्रतिमा शहर में नहीं है. बावजूद इसके अपने पुरखों की विरासत को सम्भालने वाले का तेज ज़रा भी मद्धम नहीं है. खूँटी के शहीद भगत सिंह चौक पर मिले हिंदी लेखक मंगल सिंह मुंडा बताते हैं कि पांचवे दशक में इस जवार में सागू मुंडा जैसा क़िस्सागो भी हुआ. जो घूम-घूम कर अपने पुरखों की कहानियां सुनाया करता था. वहीँ सुखदेव बरदियार गाँव-गाँव मुंडारी में नाटक किया करते थे. सामाजिक बदलाव के अतिरिक्त उनके मंचन मुग़ल काल की ख्यात प्रेम-कथा अनारकली-सलीम पर भी केंद्रित होते। हिंदी के नामवर आलोचकों से अलक्षित मंगल मुंडा का खुद एक कहानी-संग्रह छैला सन्दु  राजकमल प्रकाशन से छप चुका है.
हमारे साथ झारखंडी साहित्य संस्कृति अखड़ा के अश्विनी पंकज और दिल्ली से आये पत्रकार रजनीश साहिल भी थे.  अब हम खूंटी  से महज़ छह किमी की दूरी पर स्थित हस्सा गाँव के अखरा पर पहुंच चुके थे. उसके सामने ही एक धूसर चौड़ी गली बड़े से बगीचा का पता देती है. हस्सा यानी मुंडारी में मिटटी। तो हम इसी हस्सा   के  पुराना घर की  डेवढ़ी में दाखिल हुए.  सामने फूल-पत्तों से लदे आँगन की छोर पर सेहन किनारे फर्श पर एक पाये से कमर टिकाये बैठे थे फणीन्द्र  मांझी। जन्म 21 मार्च 19 30. 

मुंडा संस्कृति की झलक समेत कई किताबें
यह वही फणीन्द्र  हैं जिनके लेखन की कभी तूती बोलती थी. राधाकृष्ण के संपादन में निकलने वाली पत्रिका आदिवासी के अंक की कल्पना तो उनके बिना अधूरी मानी  जाती थी. वहीँ उनके रिपोर्ताज, संस्मरण, गीत और कहानियां धर्मयुग, दिनमान, नवनीत, आर्यावर्त, जनसत्ता जैसे पत्र-पत्रिकाओं  की शोभा बढ़ाते थे. तब के प्रमुख हिंदी दैनिक रांची एक्सप्रेस और प्रभात खबर के तो यह स्थायी लेखक रहे. लेकिन इनके लेखन की चर्चा आपको हिंदी के इतिहास में नहीं मिलेगी। न ही राजधानी रांची के साहित्यिक गलियारे में इनकी कुछ जानकारी मिल पाती है. जबकि  कई पुस्तकें प्रकाशित हैं. तीन खण्डों में मंज़िल ढूँढता एक मुसाफिर, मुंडा संस्कृति की झलक  के अलावा उगता सूरज, ढलती शाम चर्चित रही है.

लिखने का जज़बा 87 साल की उम्र में भी जवां
लेकिन यह लेखक आज खुद ही  गुमनामी में 'मंज़िल ढूंढता एक मुसाफिर' में तब्दील हो गया है.  हालांकि 2002 की 13 जुलाई को नवजवान बेटे की असामयिक मौत ने उनकी लेखनी को विराम दे दिया। पोते-पोतियों को पढ़ाना  अपना ध्येय बना चुके फणिन्द्र का लेखक  अब भी कसमसाता है. कहते हैं, क्या आप अपने अखबार में मेरे लेख या कहानी को छापेंगे।  

भौतिकी में गोल्ड मेडल, पहली कहानी 1958 में छपी
 जानकर हैरत होती है कि मुरहू के मिशन एलपी स्कूल, फिर खूंटी से मैट्रिक कर चुके फणीन्द्र  ने वाया संत ज़ेवियर्स कॉलेज , रांची काशी हिन्दू विश्व विद्यालय से भौतिकी में एमएससी कर गोल्ड मेडल हासिल किया। लेकिन उनकी प्रतिभा  हिंदी साहित्य में आकर स्वर्णिम हुई. हालांकि शिक्षक विज्ञान के ही रहे. लेखन की ओर झुकाव  के लिए जगदीश त्रिगुणायत  को प्रेरक मानते हैं. कहते हैं, मैं हिंदी में हमेशा अव्वल आता था. वह हाईस्कूल में टीचर थे. एक दिन बोले, फणीन्द्र  तुम अपना अनुभव लिखो। अखड़ा के नृत्य पर कहानी लिखो। तब पहली बार एक कहानी लिखी ' बोलना गीत, चलना नृत्य'. यह सम्भवता सन 1958 में दैनिक आर्यावर्त के किसी अंक में छपी. उसके बाद एक लेख माघ मेले पर लिखा 'अनोखा' जिसे राधाकृष्ण जी ने आदिवासी में छापा।

मुंडारी व हिंदी में आंदोलनकारी गीत भी लिखे
 राधाकृष्ण को सरल ह्रदय बताते हुए लिखने को उकसाने वाले भी कहा. झारखंड के महत्वपूर्ण लेखक  प्यारे लाल केरकेट्टा को याद करते हुए  कहते हैं कि नाम के अनुरूप ही वह बेहद प्यारे थे. जातीय पूर्वाग्रहों से मुक्त स्पष्टवादी। हंसमुख व्यक्ति।  मरांगगोमके की कम चर्चा होने पर कुपित होते हैं. बोले, तब मैं नौवीं में था. खूंटी हाईस्कूल के दक्षिण में एक मैदान था, वहां जय पाल सिंह मुंडा की सभा थी. हेड मास्टर ने हमलोगों की छुट्टी कर दी. यह जज़बा था आंदोलन का. हालांकि इसके असर ने मुझे मैट्रिक बाद घेरा। जय पाल मुंडारी और हिंदी दोनों में धरा प्रभाव बोलते थे. बिना माइक के भी उनकी आवाज़ दूर तक सुनी जाती थी. कहते हैं कि उनकी बातें बहुत बाद में समझ आयी तो मुंडारी और नागपुरी में आंदोलनकारी गीत लिखे।

अब फूलों संग पत्नी गीता का सहारा
फणीन्द्र  बिरसा, गांधी मार्क्स, माओ, लेनिन, फिदेल कास्त्रो, ओशो से प्रभावित फणिन्द्र  प्रेमचन्द, दिनकर,  शेली, गोर्की और टॉल्स्टॉय को रट-घोंट चुके हैं. हमलोगों को दुबारा चाय पीने को कहते हैं. आप लोग आ गये. अब तो कोई बात करने वाला भी नहीं मिलता।  अभी दिल्ली से बेटी ललितां आयी हुई है. वरना पत्नी गीता देवी ही उनकी सच्ची संगिनी हैं जीवन की. उनके साथ ही वो आँगन में आम, अमरुद, मेहंदी, कटहल, अलेवेरा, गुलाब, गेंदा, गुलदाउदी, उड़हुल, अटल और फुटबॉल फूल से बतियाते हैं. बोले जीवन का क्या पूछते हैं. वह  अपना ही मंचित नाटक बहादुर शाह ज़फर का संवाद दुहराते हैं,  'ज़िंदगी चलती नहीं प्यारे, धकेली जाती है'.    

दैनिक भास्कर, झारखंड के 11 दिसंबर 2013 के अंक में प्रकाशित 
   

    
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सोमवार, 9 दिसंबर 2013

सिर्फ़ आप ही नहीं, कर सकते हो तुसी भी कमाल!

फ़ोटो गूगल महाराज की कृपया से











हालिया चुनाव पर कुछ इस तरह भी तो सोच सकते हैं
तमाम तामझाम और बेशर्मी लांघती मीडिया रपटों के बावजूद लोकमानस को समझ पाने में हम लोग असमर्थ रहे. लेकिन ज़िद की लकीर का अहं अब भी मुंह नहीं चुरा  रहा है. दरअसल सेठों का पैसा दाव पर है. उसकी अपनी ज़रूरतें हैं. अपने निहितार्थ हैं. शहरों के मध्य-वित्त वर्ग को उसका चमकीला रैपर बहुत सुहाता है. और देश को इन्हीं के मार्फ़त चलाने की क़वायद रवां-दवाँ है. गांधी का गाँव कहीं  खो गया है. उसकी चिंता जभी होती है, जब सेठों को अपने उत्पाद की बिक्री करनी होती है. इसी बहाने सड़कें तो बन ही जाती हैं. लेकिन वहीँ तक बनती हैं जहां क्रय-शक्ति है. और उत्पाद छोटे पैक में भी बिक जाता  हो.  इधर व्यस्क होते  शहरी युवाओं की ऊर्जा और उत्साह का इस्तेमाल धर्म और जाति की सियासत करने वाले उन्हें वरगलाकर करते हैं. और अभी उसका फीसद अच्छा-खासा है. लेकिन क्या यह स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है कि हम गाँव में रहने वालों की अनदेखी कर दें.
लेकिन सच यह भी तो है कि जनता कार्पोरेट राजनीति और राजनीतिक कारोबार को कुछ-कुछ तो ज़रूर समझने लगी है. क्या ताज़ा चुनाव इसकी तस्दीक़ नहीं करता कि दो प्रमुख राष्ट्रीय दलों से जन-मोह भंग हो रहा है. और इसकी शुरुआत तो बहुत पहले दक्षिण और पूर्वोत्तर में  हुई. बाद में उत्तर प्रदेश और बिहार-झारखंड  में उभरे इलाक़ाई दलों ने बखूबी महसूस  किया। तुरंता मिसाल दिल्ली की है. जहां आप  ने कमाल कर दिया। यदि दिल्ली की तरह ही राजस्थान,  छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में कोई तीसरा विकल्प होता तो क्या परिणाम यही होते। गर पुण्य प्रसून  बाजपेयी जैसा पत्रकार यह कहता है कि   'कांग्रेस के खिलाफ गये चार राज्यों के जनादेश का सबसे बडा संकेत 2014 में एक नये विकल्प को खोजता देश है' तो गलत क्या है. यह विकल्प कांग्रेस या भाजपा से इतर तीसरी राह की और अग्रसर होगा।
समय है कि हर क्षेत्र की सियासी जमात अपनी खुन्नस त्याग कर  मज़बूत तीसरा मोर्चा तैयार करें तो इन बड़बोलों का गुब्बारा हवा हो जाए! तभी नमो जाप करने वाले नमो-नमो करने लगेंगे। क्योंकि वो सोच रहे हैं कि  कांग्रेस की नीतियों को लेकर बढ़ता आक्रोश उन्हें सत्तासीन कर देगा। यदि इन दोनों के अलावा तीसरा विकल्प सामने होगा तो जनता निसंदेह उसे ही तरजीह देगी। सच्चे लोकतंत्र की भी यही मांग है.  वर्ना तमाशा देखते रहिये।
 छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के खिलाफ लगभग 59 प्रतिशत मत पड़े लेकिन रमन सिंह महज़  41.4 प्रतिशत मत पाकर फिर ताज सम्भाल लेंगे ! जबकि सिर्फ एक प्रतिशत से भी कम मत लाने वाली कांग्रेस विपक्ष का स्वाद लेगी। हालांकि विकल्प न होने की स्थिति और नक्सली हिंसा में मारे गए नेताओं की हमदर्दी में ही उसे यह वोट मिल गया। तस्वीर तो यही है कि मतदाता देश में केंद्र सरकार से नाखुश थे. हर जगह कांग्रेस के विरोध में ही मत पड़े. गर कोई लहर रहती तो वोट का प्रतिशत भाजपा का दिल्ली और छत्तीसगढ़ में इतना कम न होता। हद तो यह है कि सरगुजा में जिस नक़ली लाल क़िले से नरेंद्र मोदी ने सभा संबोधित की थी, वहाँ ही कई विस से भाजपा का सूपड़ा साफ़ हो गया.    


      




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बुधवार, 4 दिसंबर 2013

न रहा घर, न ही कोई आसरा, मां पहले ही गुज़र चुकी




















पाइलिन में पिता और छोटा भाई खो  चुके पवन की  कहानी

उसकी  आंखें लबालब हैं। मानो पाइलिन उतर आया हो। जबकि यह तूफ़ान तो अक्टूबर के  पहले सप्ताह आया था। मैं बात अरगोड़ा, रांची  के 22 साल के  पवन तिर्की की कर रहा हूं।  जिसके पिता और एक  छोटे भाई को  इस क़हर ने लील लिया।  अब वह  पंखे की तेज़ खड़-खड़ाहट  से भी कांप जाता है। घर तो रहा नहीं। अब उसका  पता है  , अशोक  नगर, रोड नंबर एक ।
पवन कहता है, दो दिन तक  तूफानी हवाओं के  साथ मुसलाधार बारिश होती रही । मज़दूरी कर तीन बच्चों को  पालने वाले बाबा गंदरू तिर्की  कभी इधर बाल्टी रखते, तो कभी उधर। हम तीनों भाई मैं  पवन, आकाश, पंकज बदन पर कथरी ओढ़े अपने बाबा की  मदद करते रहे। लेकिन खपरैल छत ने आसरा छोड़ दिया। दो अक्टूबर की  रात थकन ने हमें  दबोच लिया। जिसे जहां जगह मिली नींद के  आगोश में चला गया।  क्या पता था कि यह आखऱी नींद होगी।
पवन के  थरथराते होंठ से निकलता है, तब 12 बज रहा होगा। ज़ोर की  आवाज़ हुई। इतना शोर कभी न सुना था। मोहल्ले वाले बाबा का  नाम लेकर पुकार नहीं, मानो चीख रहे थे। मैं हड़बड़ा कर उठा।   वह कहते-कहते  चुप हो गया। खुद ही खामोशी तोड़ी। मैं जब उठा तो उसी स्थिति में रह गया अवाक । जैसे पूरे शरीर को  का ठ मार गया हो। हमारा मिटटी का घरोंदा हम सब पर मलबा बनकर सवार था। पड़ोसियों ने हम सभी को  बमुशकिल बाहर  निकाला। बाबा, आकाश और पंकज की हालत गंभीर थी। उनका कंठ  बंद था। सिर्फ आंखें उनकी  पीड़ा को  बयान कर रही थी। मोहल्ले वाले तीनों को  अस्पताल लेकर गए. जहां बाबा और आकाश ने दम तोड़ दिया।
अम्मा बहुत पहले ही गुजऱ गयी थी। बाबा से ही ममता और वात्सल्य मिलता था। घर भी तो न रहा। छोटे भाई पंकज को  लेकर मैं पड़ोसियों की भीख पर ज़िंदा हूं।  गरीबी ने पढऩे न दिया, लेकिन भाई को पढ़ाना चाहता हूं।  लेकिन  पडोसी कब तक  दया करते रहेंगे। मैं तो बस इतना चाहता हूं कि  सरकार वाजिब मुआवज़ा दे तो मैं कुछ कारोबार कर सकूं । घर बना सकूं । अब  पंकज का बाबा और अम्मा मैं हूं न!

यह है सरकार की  कहानी
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने 15 अक्टूबर को  बुलाई आपदा बैठक  में पाइलिन से प्रभावित लोगों को  सात दिनों के  अंदर मुआवज़ा देने का  निर्देश दिया था  पवन ने 21 अक्टूबर को  डीसी और शहर अंचल कार्यालय में मुआवज़े के  लिए आवेदन दिया। लेकिन आज तक  उस पर कार्रवाई नहीं हुई है। महीने भर दफ्तरों का  चक्कर लगाकर यह आदिवासी युवक  हताश हो चुका  है। भाजपा व्यापार प्रकोष्ठ के ज्ञानदेव झा कहते हैं कि आदिवासी राज्य, आदिवासी  सीएम के  रहते आदिवासी युवक  की  गुहार जब अनसुनी है, दूसरों के  हित का  सोचना ही गलत है. जबकि  पवन बीपीएल कार्ड धारी  भी है।   

भास्कर रांची के 3 दिसंबर 2013 के अंक में प्रकाशित



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