रांची में रविवार को विजय संकल्प रैली को भाजपा के पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने संबोधित किया. रैली में जानेमाने अर्थशास्त्री व सोशल एक्टिविस्ट ज्यां द्रेज भी मौजूद थे. उन्होंने जो देखा, सुना और महसूस किया, पेश है उन्हीं की जुबानी.
रांची में नरेंद्र मोदी उवाच
ज्यां द्रेज की क़लम से
नरेंद्र मोदी की रैलियों की हकीकत मीडिया में छपी रिपोर्टो से किस कदर अलग होती है, यह जानना रोचक हो सकता है. इस अंतर को खुद से समझने के लिए मैंने हाल ही में रांची में आयोजित उनकी रैली में शिरकत की. दस दिन पहले से ही रैली के लिए पूरे शहर में जोर-शोर से प्रचार अभियान चल रहा था. मोदी और उनकी पार्टी के अन्य सहयोगियों के बड़े-बड़े पोस्टर शहर के लगभग हर चौक - चौराहे पर लगे थे- कहीं कहीं तो एक जगह दस-दस, बारह-बारह पोस्टर! चाहे आप किसी दिशा में जा रहे हों, शहर की मुख्य सड़कों पर बिना मोदी से नजरें मिलाये निकलना लगभग असंभव था.
रैली बड़ी सुनियोजित थी और भीड़ जबरदस्त थी. इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का सांगठनिक कौशल उम्दा है और उसके पास बहुत पैसा है. किसी को यह पूछने की सहज रुचि हो सकती है कि आखिर यह पैसा आता कहां से है. लेकिन मुख्यधारा की अन्य पार्टियों की तरह, भाजपा भी वित्तीय पारदर्शिता के मान-मूल्यों का विरोध करती रही है. मोदी के आगमन से पहले पार्टी के कई दिग्गज नेता बोले, लेकिन भीड़ ने कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखायी. साफ था कि वे मुख्यत: बहुप्रचारित मोदी की एक झलक मात्र पाने के लिए आये थे. केवल अर्जुन मुंडा ही कुछ हद तक खुद को भीड़ से जोड़ पाने में कामयाब हो सके. मोदी का हेलीकॉप्टर फिल्मी अंदाज में उतरा, तो भीड़ ने जोरदार हर्ष ध्वनि की. पार्टी के कार्यकर्ता इसमें आगे रहे, लेकिन हर कोई अपने तारनहार के स्वागत में खड़ा हो गया. जोरदार साउंड एफेक्ट, वीडियो क्लिपों और ‘नमो-नमो’ की गूंज के साथ स्टेज पर मोदी की एंट्री की तैयारी बड़े नाटकीय ढंग से की गयी थी.
पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने श्रोताओं को संबोधित करते हुए मोदी की तुलना भगवान राम से कर डाली. मोदी बहुत नाटकीय स्वर और भाव-भंगिमाओं के साथ बोले. बेहतरीन प्रभाव पैदा करने के लिए उन्होंने अपनी आवाज में उतार-चढ़ाव का इस्तेमाल किया, कई जगह बिल्कुल सुविचारित अंतराल लिये. लेकिन यह सारी भाषणबाजी किसी फिल्म के ऑडिशन का भान करा रही थी. विषय-वस्तु एकदम सपाट थी. शायद यही वजह थी कि उनके भाषण के शुरू होने के कुछ ही समय बाद लोग मैदान छोड़ते नजर आये. और जो रु के भी रहे, उनमें भी मोदी की बातों के प्रति कोई खास उत्साह नजर नहीं आया. पार्टी कार्यकर्ताओं के इशारे के बावजूद लोगों ने कभी-कभार ही हर्ष ध्वनि की या तालियां बजायीं. मुझे जान पड़ा कि मोदी श्रोताओं से संवाद कायम कर पाने में नाकामयाब रहे. इसकी शायद एक वजह यह रही हो कि वे यहां एक बाहरी व्यक्ति की तरह आये थे, उन्हें झारखंड के बारे में जल्दबाजी में कुछ-कुछ बताया गया होगा, खुद उन्हें झारखंड के प्रति कोई खास अहसास नहीं था.
दूसरी वजह यह भी रही कि वह वोट के लिए, दूसरे नेताओं द्वारा किये जानेवाले चुनावी वादों से परे नहीं जा पाये. उन्होंने लोगों को राज्य की दयनीय स्थिति की ही ज्यादा याद दिलायी, यह भूलते हुए कि सन 2000 में राज्य के बनने के बाद से 13 सालों में आठ साल से ज्यादा समय तक भाजपा ही सत्ता में रही है. इस रैली से मैंने एक चीज सीखी कि आज राजनीति और व्यवसाय के बीच का अंतर एकदम कम हो गया है. चुनाव अभियान जन-संपर्क उद्योग के एक अन्य क्षेत्र के तौर पर विकसित हो रहा है. कुछ लोग निरमा बेचते हैं, तो कुछ लोग नमो को बेचते हैं. दोनों को बेचने के लिए एक ही तरह की विज्ञापन एजेंसियां एक ही तरह के हथकंडे अपनाती हैं.
झारखंड के लोग इससे अधिक के हकदार हैं.
प्रचार का कोई भी हथकंडा इस तथ्य को झुठला नहीं सकता कि बीते 13 वर्षो में झारखंड की बदहाली के लिए भाजपा सबसे बड़ी दोषी है. कांग्रेस सहित मुख्यधारा की अन्य पार्टियां भी राज्य के संसाधनों की लूट में शामिल रही हैं. उम्मीद करनी चाहिए कि इन सबसे अलग विचारदृष्टि के साथ कोई सामने आये और लोगों के सामने बेहतर विकल्प प्रस्तुत करे, जैसा कि एक हद तक हाल ही में दिल्ली में हुआ.
प्रभात ख़बर से साभार
(लेखक-परिचय:
जन्म: 1959 बेल्जियम में
1979 से भारत में। 2002 में भारत की नागरिकता मिली।
शिक्षा: इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टिच्यूट (नई दिल्ली) से पीएचडी किया।
सृजन: अर्थशास्त्र पर12 पुस्तकें प्रकाशित । नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के साथ मिलकर कई पुस्तकें लिखीं।
डेढ सौ से अधिक एकैडमिक पेपर्स, रिव्यू और अर्थशास्त्र पर लेख
संप्रति: दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स सहित दुनिया के कई ख्यात विश्वविद्यालयों में विजिटिंग लेक्चरर रहे। अभी पंडित गोविंद वल्लभ पंत सामाजिक अनुसंधान संस्थान में अध्यापन
संपर्क: jean@econdse.org)