बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 9 अक्टूबर 2013

गीतकार पिता पर कवयित्री बिटिया का लिखना



प्रेम शर्मा के गीतों की फुलवारी का खिल उठना























ऋतुपर्णा मुद्राराक्षस की क़लम से

 प्रेम शर्मा कबीरपंथी गीतकार और पढ़ने-लिखने के बेहद शौक़ीन।  घर के माहौल का असर ही था कि विज्ञान की छात्रा होने के बावजूद साहित्य-पठन-पाठन में अभिरुचि रही। प्रेम शर्मा यानी मेरे पापू पर लिखना मेरे लिए सबसे कठिन कार्यों में से है क्योंकि उन पर लिखना यानी उन स्मृतियों को फिर से जीना है जो मुझमें बेहद बेचैनी, झटपटाहट भर देती हैं। उनकी बेहद लाडली 'ऋतु बेटा' को वह शामें कभी नहीं भूलती जब भारत भूषण, रमा नाथ अवस्थी और कुबेर दत्त के साथ कभी-कभी कैलाश वाजपेयी घर आते थे। उस शाम घर की छत पर गीतों की फुलवारी खिल उठती थी। भाषा का संस्कार और कविता का सौंदर्य मेरे मन में यहीं से उगा । उन गीतों को सुनना अविस्मरणीय, अवर्णनीय अनुभव था मेरे लिए।
 मुझे याद है कि उन शामों में जब पापा गाते थे तो मैं जीने में दुबक जाती थी। सूफ़ियाना, फक्कड़ मिजाज़ के उनके गीतों में शायद कबीर और अन्य सन्त कवियों के तेवर कहीं गहरे तक पैठे थे जिन्हें जब वह अनहद नाद की तरह ऊंचे स्वर में गाते थे तो लगता था मानों प्राण खिंचे जाते हों ... कहीं अनंत में। पापा को सुनना मुझे बेहद भावाकुल कर देता था।रुंधा गला और आँखों से बहता आवेग ... शेष रहता था। क्यों? उस समय नहीं समझ पाती थी लेकिन अब पापा के गीत पढ़ती हूँ तो समझ समझ सकी हूँ कि उनके गीतों में लोक-कथात्मकता और लोक-जीवन की सुगंध बिखरी है वहीँ दूसरी ओर उनके गीतों में जीवन संघर्ष और जुझारूपन के साथ-साथ आध्यात्मिकता और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद भी गुम्फित हुआ है। उन्होंने जो जिया, वही लिखा ... यही वजह है कि मन की बोली-बानी में लिखी ये रचनाएं मर्म तक पहुंचती हैं। उनकी ईमानदारी, सच्चाई, मूल्यनिष्ठा और उस समय की राजनैतिक, सामाजिक परिस्थितियां उदात्त रूप से उनके गीतों में प्रतिबिंबित हुई हैं।
उनकी अंतिम अधूरी रचना "पुलिया पर बैठा बूढ़ा" मेरी पसंदीदा रचनाओं में से है। इस कविता को मैं जब भी पढ़ती हूँ भावुक हो जाती हूँ. उनका अकेलापन उन्हें किस कदर सालता था, उसकी बानगी है यह कविता. माँ के जाने के बाद उन्होंने हमें तो संभाला पर भीतर-भीतर यह अकेलापन उन्हें पूरी तरह तोड़ चुका था.
कभी-कभी लगता है कि शायद माँ से उनका अत्याधिक लगाव ही था जिसने उन्हें माँ के आकस्मिक देहांत के सदमे से उबरने नहीं दिया. प्रेम की पराकाष्ठा में शक्ति और निरीहता दोनों छुपी रहती हैं, शायद...
यह कविता ज्ञानोदय के सितम्बर,2003 के अंक में उनकी मृत्युपरान्त प्रकाशित हुई थी. अपनी इस आखिरी कविता को वह अंतिम स्वरूप नहीं दे सके थे. इसके अलावा "घोड़ों का अर्ज़ीनामा " और "बयान-ए-बादाकश" - जाने-माने समालोचक सुरेश सलिल के अनुसार निराला की "कुकुरमुत्ता" और मजाज़ की "आवारा" के समकक्ष रखी जा सकती है। भारत भूषण जी के शब्दों में कहूं तो, "आज के व्यावसायिक गीतकार समाज के एक पागल मन की हूक-से ये गीत भी हैं, जिनपर कभी अज्ञेय और दिनकर भी मुग्ध हुए थे।
प्रेम शर्मा
जन्म 7 नवम्बर, 1934 मेरठ
शिक्षा:  मेरठ विश्विद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर
नौकरी: 1965 से गाज़ियाबाद के शम्भूदयाल इंटर कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य का अध्यापन, 1989  से सेवानिवृत्ति तक उपरोक्त विद्यालय के प्रधानाचार्य पद पर आसीन
सृजन: 1962  से हिंदी की श्रेष्ठ पत्रिकाओं यथा ज्ञानोदय, धर्मयुग, कादम्बिनी एवं साप्ताहिक हिंदुस्तान आगि में गीति रचनाओं का प्रकाशन, आकाशवाणी तथा दूरदर्शन के साहित्यिक कार्यक्रमों में अनेक रचनाओं का प्रसारण
निधन: 7  जून, 2003  गाज़ियाबाद

पिता की कविताएँ बेटी के निकट



बयाने बादाकश !

इक दीदा-ए तर
इक क़तरा-ए नम,
इक हुस्ने-ज़मीं
इक ख्वाबे-फ़लक
इक जद्दोजहद
इक हक़ मुस्तहक़
मेरी ज़िन्दगी
मेरी ज़िन्दगी...
मेरा इश्क़ है
मेरी शायरी,
मेरी शायरी
शऊर है,
ज़मीर है,
गुमान है,
ग़ुरूर है,
किसी चाक गिरेबाँ
ग़रीब का,
किसी दौलते-दिल
फ़क़ीर का,
मैं जिया तो अपने ज़मीर में
मैं मिटा तो अपने ज़मीर में.
मैं कहूँ अगर
तो कहूँ भी क्या?
मैं तो बादाकश,
मैं तो बादाकश! 


घोड़ों का अर्ज़ीनामा

हुज़ूरे आला,
पेशे ख़िदमत है
दरबारे आम में
हमारा यह अर्जीनामा -

कि हम थे कभी
जंगल के आजाद बछेरे.
किस्मत की मार
कि एक दिन
काफ़िले का सौदागर
हमें जंगल से पकड़ लाया.
उसके तबेले में
बंधे पाँव
कुछ दिन
हम रहे बेहद उदास.


रह-रह कर
याद आये हमें
नदी-नाले
जंगल-टीले-पहाड़,
रंगीन महकती वादियाँ,
हरे-भरे खेत
औ ' मैदान
वे सुनहरे दिन
वे रुपहली रातें
जब मौजो-मस्ती में
बेफ़िक्र हम
मीलों निकल जाते थे,
जब
धरती और आसमान के बीच
ज़िन्दगी हमारी
आज़ादी का
दूसरा नाम थी.
*
तो हुज़ूर
कैदे आज़ादी के एहसास से
कुछ कम जो हुई
आँखों कि नमी
तो भूख-प्यास जगी
जो भूख-प्यास जगी
तो मजबूरन
हमने
अपना आबो-दाना कुबूल किया.
फिर
सधाया गया हमें
सौदागरी अंदाज़ में,
सिखाई गयी चालें
हुनर और करतब,
घोड़ों की जमात में
अब
हम थे नस्ले-अव्वल
बेहतरीन-जाबाज़ घोड़े.

फिर
एक दिन
किया गया पेश
हमें
निज़ामे-शाही के दरबार में.
पुरानी मिस्लों में
दर्ज़ हो शायद
हमारी वह दास्तान
कि जब
सूरज गुरूब होने तक
बीस शाही घुड़सवार
लौटे थे नाकाम
हमें पकड़ पाने में
तो अगले रोज़
आला-हुज़ूर ने
सौ दीनार के बदले
हमें ख़रीदा था,
थपथपाई थी
हमारी पीठ.

उसके बाद
तो हुज़ूर
राहे-रंगत ही
बदल गयी
हमारी ज़िन्दगी की.
अब हम
आला-हुज़ूर की
सवारी के
खासुल-खास
घोड़े थे.
सैर हो कि शिकार
या कि मैदाने जंग,
दिलो-जान से
अंजाम दी हमने
अपनी हर खिदमत.
आला हुज़ूर का
एक इशारा पाते ही
हम
दुश्मन के
तीर-तलवारों
तोप-बंदूकों
बर्छी-भालों की
परवाह किये बिना
आग और खून के
दरिया को चीरते हुए
साफ़-बेबाक
निकल जाते थे.
गुस्ताखी मुआफ,
आला हुज़ूर के
आसमानी इरादों को
कामयाबी
और फतह का
सेहरा पहनाने में
हमारा भी
एक किरदार था
तवारीख के
सुनहरे हाशियों से अलग.

हुज़ूर
कभी-कभी हमें
याद आते हैं
वे शाही जश्नों-जलूस,
लाव-लश्कर,
राव-राजे,
शहजादे
फर्जी और प्यादे,
राग-रंग की
वे महफिलें,
वो इन्दरसभा
वो जलवागाह
कि जिस पर
फरिश्तें भी करें रश्क़.
क्या ज़माना था, हुज़ूर,
क्या रातबदाना था.
***

हुज़ूर
दौरे-जहाँ में
देखा है ज़माना हमने
वतनपरस्तों की
सरफरोशी का.
फिर
देखा है मंज़र
उस
सियासी आज़ादी का
जो
बंटवारे की कीमत पर
सदियों पुराने भाईचारे
और इंसानियत के
खून में नहाकर
आई थी.

फिर
देखी है शहादत
उस बूढ़े फ़कीर की
जिसके सीने को
चाक कर गयीं थीं
तीन गोलियां
मौजूद है जो
हमारे
क़ौमी अजायबघर में.

हुज़ूर,
सुनी हैं तकरीरें
हमने
साल-दर-साल
रहनुमाओं की,
देखें हैं ख्वाब
अमनपसंदी
और खुशहाली के
एक जलावतन
बादशाह की
लाल महराबों से.

हुज़ूर,
अस्तबल से ख़ारिज
हादसे-दर-हादसे
ज़िन्दगी हमारी
कुछ इस तरह गुज़री
कि फिलवक्त हम
मीरगंज की रेहड़ी में
जुते घोड़े हैं
ज़िन्दगी से बेज़ार
पीठ पर
चाबुक की मार
जिन्स और असबाब
सवारियाँ बेहिसाब,
भागम-भाग,
सड़ाप!
सड़ाप!!

हुज़ूर,
ज़िन्दगी औ'  ज़िल्लत में,
जुर्म औ' सियासत में,
अब
ज्यादा फर्क
नहीं रहा.

आखिरत
ये इल्तिजा है  हमारी
कि हमें
गोली से
उड़ा दिया जाये
ताकि हमारी
जवान होती नस्लें
देख सकें हश्र
हमारी
बिकी हुई आज़ादी का,
खिदमत गुजारी का.

हुज़ूर
बाद सुपुर्दे ख़ाक
लिखवा दिया जाए
एक पत्थर पर
दफ़्न हैं यहाँ
वे घोड़े
जो हवा थे
आसमान थे
हयाते दरिया की
रवानी में
मौत ज़िन्दगी का
मुकाम सही
ज़िन्दगी
मौत की गुलाम नहीं. 

युग संध्या
(एक शोक गीत)

वही
कुहाँसा,
              वही अँधेरा,
वही
दिशाहारा-सा जीवन,
                     इतिहासों की
                     अंध शक्तियां,
जाने हमें
कहाँ ले जाएँ.
***
                     अट्टहास
                     करता समुद्र है
                     जमुहाई लेते पहाड़ हैं,
एक भयावह
जल-प्रवाह में
समाधिस्थ होते कगार हैं,
                      दुविधाग्रस्त,
                      मनास्थितियाँ हैं,
                      विपर्य्यस्त है जीवन-दर्शन,
एक घुमते
हुए वृत्त पर
ऊंघ रही अनथक यात्राएं .
***
चन्दन-केसर,
कमल-नारियल,
शायद अब निर्वश रहेंगे,
                      गूंगी होंगी
                      सभी ऋचाएं,
                      अधरों पर विष-दंश रहेंगे,
रोंदे हुए
भोजपत्रों पर
सिसक रहे सन्दर्भ पुरातन ,
                       बूढ़े
                       बोधिवृक्ष के नीचे
                       रूधिरासिक्त हैं परम्पराएं.
***
अन्धकार में
डूब चुकी हैं
सूर्य-वंशजा अभिलाषाएं,
                       हम सबके
                       शापित ललाट पर
                       खिंची हुई हैं मृत रेखाएं ,
मरणासन्न
किसी रोगी-सा
अस्तोन्मुख सांस्कृतिक  जागरण
                       ठहर गयी हैं
                       खुली पुतलियाँ
                       जड़ीभूत हैं रक्त-शिराएं.
('साप्ताहिक हिंदुस्तान', १८ अप्रैल, १९६५)

हम जाने या राम !

कैसे बीते
दिवस हमारे
हम जाने या राम!
*
                         सहती रही
                         सब कुछ काया,
                         मलिन हुआ
                         परिवेश,
                         सूख चला
                         नदिया का पानी,
                         सारा जीवन
                         रेत,
उगे काँस
मन के कूलों पर
उजड़ा रूप ललाम.
**
                        प्यार हमारा
                        ज्यों इकतारा ,
                        गूँज-गूँज
                        मर जाय,
                        जैसे निपट
                        बावला जोगी
                        रो-रो
                        चित उडाय ,
बात पीपल
घर-द्वार-सिवाने
सबको किया प्रणाम .
***
                        आँगन की
                        तुलसी मुरझाई,
                        क्षीण हुए
                        सब पात,
                        सायंकाल
                        डोलता सर पर,
                        बूढा नीम
                        उदास,
हाय रे! वह
बचपन का घरवा
बिना दिए  की शाम.
****
                       सुन रे जल
                       सुन री  ओ माटी
                       सुन रे
                       ओ आकाश,
                       सुन रे ओ
                       प्राणों के दियना,
                       सुन रे
                       ओ वातास,
दुःख की
इस तीरथ याश में
पल न मिला विश्राम.
('कादम्बिनी', फरवरी, १९९६)

तू न जिया न मरा !

तू न जिया
न मरा,
                       ज्यों कांटे
                       पर मछली,
प्राणों में
दर्द पिरा.
*
                       सहजन की
                       डाल  कटी ,
                       ताल पर
                       जमी काई,
                       कथा अब
                       नहीं कहता
                       मंदिर वाला
                       साईं,
दुःख में
सब एक वचन
कोई नहीं दूसरा.
**
                       औषधि
                       जल
                       तुलसीदल
                       सिरहाने
                       बिगलाया,
                       ईंधन कर दी
                       अपनी उत्फुल काया,
धरती पर
देह-धरम
आजीवन हुक-भरा.
***
                       माथे पर
                       गंगाराज,
                       हाथों में
                       इक्तारा,
                       बोला
                       चलती बिरियाँ
                       जनमजला
                       बंजारा,
वैष्णवजन
ही जाने
                       वैष्णवजन का
                       दुखड़ा!
 ('धर्मयुग', १५ फरवरी, १९७०)

सुन भाई हर्गुनिया, निर्गुनिया फाग

जल ही
जल नहीं रहा,
                     आग नहीं
                     आग.
सूरत बदले
चेहरे,
                     सीरत बदला
                     जहान,
पानी उतरा
दर्पण,
                     खिड़की-भर
                     आसमान,
ढलके
रतनार कंवल ,
                     पूरते
                     सुहाग.
जीते-
मरते शरीर,
                     दुनिया
                     आती-जाती,
जूझते हुए
कंधे,
                     छीजती हुई
                     छाती,
कल ही
कल नहीं रहा,
                     आज नहीं
                     आज,
सुन भाई
हर्गुनिया,
                     निर्गुनिया
                     फ़ाग.
 ('साप्ताहिक हिंदुस्तान', १३ फरवरी, १९७७)

 बापू के देश !

ऋण को
ऋण से भरते
मूंज हुए केश,
                   अपनी
                   तक़दीर रहन
                   उनके आदेश.

ग़ुरबत की
हथकड़ियाँ\
बचपन में पहना दीं,
                  हमको
                  बंधक  सपने
                  उनको दी आज़ादी,
उनको
सब राज-पाट
हम तो दरवेश.

                  राम भजो
                  रामराज
                  समतामूलक समाज,
पातुरिया
राजनीति
ऒखत सत्ताधिराज,
                  चिथड़ा
                  चिथड़ा सुराज
                  बापू के देश.
 ('कादम्बिनी', जनवरी, १९६२)

अग्नि प्रणाम

बूढा बरगद
छाँह घनेरी,
                   मंदिर
                   घाट
                   नदी के,
आसमान
धूसर पगडण्डी,
                   कब से तुझे
                   पुकारे,
लौट न आ रे
लौट न आ रे…
*
सौदागर
नगरी में जाकर,
                   क्या खोया
                   क्या पाया,
भोला मुखड़ा
सपन सजीले ,
                   हीरा
                   कहाँ गंवाया,
कहाँ गया
तेरा इकतारा,
                   राम
                   कहाँ बिसराया ,
कुछ तो कह
ओ राम बावरे
                   कुइच तो गा रे !
**
कंचन नगरी
छत्र बिराजै,
                   मंदिर बरन
                   मदिरा-सुख साजै,
कामिनी
निरत करे हमजोली ,
                   रंग अनंत
                  अनंत ठिठोली,
-ऐहिक
इंद्रजाल उरूझानी
                  हिवड़ा
                  हुडुक-हुडुक हलकानी,
माहुर-धार
कटार सरीखी,
                  तृष्णा
                  मृगतृष्णा रे,
मातुल
पितुल कहाँ रे !
***
प्राण-पुहुप
जननी हम तेरे,
                  पुनरपि जन्मम
                  हेरे-फेरे,
निपट अजोग,
ललाट लिखाने,
                  हम हीरा
                  अनमोल बिकाने,
टूटा
रुनक-झुनक
इकतारा,
                   ना हम जीते
                   ना जग हारा,
लीजो
अग्नि-प्रणाम हमारे,
                   कीजो
                   हमें क्षमा रे !
 ('साक्षात्कार', अगस्त, १९९८) 

जीव गान

नाहिन चाहिबे
नाहिन रहिबे
हंसा व्है उड़ि जइबे रे !
*
काया-माया
खेल रचाया
                 आपु अकेला
                 जग में आया
भीतर रोया
बाहिर गाया
नाहिन रोइबे
नाहिन गाइबे
तम्बूरा चुपि रहिबे रे !
**
सब सुख सूने
सब दुख दूने
                 पात पडंता
                 मरघट-धूने,
नेह बिहूने
गेह बिहूने
                 अगिन पंख
                 झरि जइबि रे,
नाहिन जीइबे
नाहिन मरिबे
मरन-कथा क्या कहिबे रे !
('गगाचांचल', जनवरी-मार्च, २०००)


पुलिया पर बैठा एक बूढ़ा

पुलिया पर
बैठा एक बूढ़ा
काँधे पर
मटमैला थैला,
थैले में
कुछ अटरम-सटरम
आलू-प्याज
हरी तरकारी
कुछ कदली फल
पानी की
एक बोतल भी है
मदिरा जिसमें मिली हुई है,
थैला भारी.


बूढ़ा बैठा
सोच रहा है
बाहर-भीतर
खोज रहा है,
सदियों  से
ग़ुरबत के मारे
शोषण-दमन
ज़ुल्म सब सहते
कोटि-कोटि
जन के अभाव को
उसने भी
भोगा जाना है
उसने भी
संघर्ष किया है
आहत लहुलुहान हुआ है
सच और हक के
समर-क्षेत्र  में
वह भी
ग़ुरबत का बेटा है.


मन ही मन
बातें करता है
गुमसुम गुमसुम
बैठा बूढ़ा
बातों-बातों में  अनजाने
सहसा  उसके
क्षितिज कोर से
खारा सा कुछ बह जाता है
चिलक दुपहरी
तृष्णा गहरी,
थैले से बोतल निकलकर
बूढ़ा फिर
पीने लगता है
अपना कडुवा
राम-रसायन
पीना भी आसान नहीं है,
घूँट-घूँट
पीता जाता है
पुलिया पर
वह प्यासा बूढ़ा

उसकी
कुछ यादें जीवन की
शेष अभी भी
कुछ सपने हैं
जो उसके बेहद अपने हैं,
कुछ अपने थे
जो अब आकाशी सपने हैं,
उसकी भी
एक फुलबगिया थी,
प्राण-प्रिया थी
उसके संघर्षों की मीतुल
चन्दन-गंध सुवासित शीतल
अग्नि-अर्पिता है
दिवंगता है

रोया-रोया
खोया-खोया
काग़ज  पर
लिखता जाता है
कथा-अंश
दंश जीवन के
पुलिया पर
बैठा वह बूढ़ा
तभी अचानक
देखा उसने
झुग्गी का अधनंगा बालक
कौतुक मन से
देख  रहा है
सनकी बूढ़े को
बूढ़ा फिर
हँसने लगता है
बालक भी हँसने लगता है,
दोनों छगन-मगन हो जाते
थैले से
केला निकालकर
बूढ़ा बालक को देता है
उठकर फिर वह
चल देता है
उस  पुलिया से
राह अकेली
भरी दुपहरी.


(लेखिका-परिचय: 
जन्म: 27 दिसम्बर, 1973
शिक्षा: बी.एस.सी., एम.ए., बी.एड., पत्रकारिता में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा
सृजन: कई लेख, कविताएँ  और समीक्षा स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
ब्लॉग: ऋतु
संप्रति: दिल्ली में रहकर स्वतंत्र लेखन
संपर्क:  rituparna_rommel@yahoo.co.in)






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13 comments: on "गीतकार पिता पर कवयित्री बिटिया का लिखना "

Pyarelal Bhamboo ने कहा…

सराहनीय प्रयास!

कविता रावत ने कहा…

बहुत बढ़िया जानकारी के साथ सुन्दर सराहनीय प्रस्तुति ...

shobha mishra ने कहा…

बहुत ही सच्ची और ईमानदार कवितायें... अंकल जी की कुछ रचनाएँ ही पढ़ी हैं .. और पढ़ने की इक्षा है .. एक बेटी के तौर पर तुम्हारी टीप भावुक करने वाली है .. शुक्रिया ऋतु !!

अनिल जनविजय ने कहा…

प्रेम शर्मा जैसे अद्भुत्त कवियों से हिन्दी जगत अनजान है और न जाने कैसे-कैसे कवियों को ढो रहे हैं हम। सचमुच आश्चर्य की बात है। प्रेम शर्मा जी की कुछ और कविताएँ पढ़वाएँगे क्या?

नंद भारद्वाज ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
नंद भारद्वाज ने कहा…

प्रेम शर्मा जी की इन कविताओं और नवगीतों में विषम जीवन की अनगिनत यादें मुखर है, जो उस गुजरे समय को साकार करती हैं, उनकी लंबी कविता 'घोड़ों का अर्जीनामा' तो वाकई गुजरे समय की एक ऐसी दास्‍तान है जो इन्‍सान को अपने हाथों खोई आजादी से साक्षात कराने में एक ऐतिहासिक दस्‍तावेज की तरह है, उनकी काव्‍य-भाषा की रेंज बहुत विशाल है - हिन्‍दी की शास्‍त्रीय परंपरा से लेकर हिन्‍दुस्‍तानी जुबान का जो खूबसूरत सलीका इन कविताओं को अलग पहचान देता है, यह काव्‍य-स्‍वर वाकई अब दुर्लभ है। वे जितनी कुशलता से उस शास्‍त्रीय अभिव्‍यक्ति को साधते रहे हैं, उतनी ही विरल रही है उनकी लोक-संवेदना जो सच में कबीर की परंपरा से अनायास जा लगती है। इन खूबसूरत कविताओं को साझा करने के लिए ॠतु को साधुवाद और बधाई।

गीता पंडित ने कहा…

नमन मेरा आपके पिताश्री को ऋतु ! एक खूबसूरत लेखनी और आपकी यादें सीधे मन में प्रवेश कर गयीं और मुझे अपने पिताश्री की यादों में ले गयीं ... इससे सुंदर पल किसी भी बेटी के लियें नहीं हो सकते ...
आभार और बधाई..
और भी पढ़ने के इच्छा है मित्र .. :)

Satish Saxena ने कहा…

बहुत अच्छा लगा , पिताश्री को प्रणाम !
शुभकामनायें !

MUKESH MISHRA ने कहा…

प्रेम शर्मा जी को सुनने का दो - या शायद तीन बार सौभाग्य मुझे मिला है । अपनी कविताओं और अपने गीतों को वह जिस अदा से पढ़ते/गाते थे उसमें संवेदना के अनेक स्तर अभिव्यक्त होते और मर्मस्पर्शी भावात्मक रूप बनते हुए से महसूस होते थे । यहाँ ऋतुपर्णा जी का आलेख और प्रेम शर्मा जी की रचनाएँ पढ़ कर उन्हें 'सुनना' जैसे याद हो आया |

https://kathaanatah.blogspot.com ने कहा…

Khoobsurat, anek yaden, adbhut kavutayen. Likhn aur kahne ko bahut kuchh. Ek sham meri baithak mayn. Baithkar yad karen ki vo kabir kaisa tha. Kyon duniya se itni jaldi rikhsat ho gaya. Uff....Kamal ke kavi the Tumhare pita shri. Mujhe pata hi nahi tha ki tum unki beti ho. Merut ka suraj kund, Jasoosi lekhak omprakash shrma ne milvaya,ye hain....Tab B.A. ka student hua karta tha. Unper tab ek lekh likha tha. Ghat per prem ji ne geet sunaye, bharatbhooshan ne kaha, kabir hai ye.Ved Prakash Kamboj jate-jate baith gaye. Pandiya ji bole,lokgeet suno.Arti ne chti li, ancle se romantic geet ka agrah karen, main chup. Arti aj vakil hai. OP sharma duniya se ja chuke hain. Prem ji bhi. kya kahun. Jab samajh ai to log chal base....

sudipti ने कहा…

रचनाकार पिता पर लिखना आसन नहीं होता पर बेटियां तो किसी कठिनाई से पीछे हटती नहीं। बेहद उम्दा कविताएँ और उतने ही अच्छे से याद किया है ऋतुपर्णा ने

प्रकाश गोविंद ने कहा…

बेहतरीन कविताओं से रूबरू होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ
'चुम्बकीय' शक्ति से सराबोर रचनाओं को दाद देने के सारे प्रतिमान ठिगने प्रतीत हो रहे हैं

प्रेम शर्मा जी को नमन !

सुधा अरोड़ा ने कहा…

हुज़ूर
जिंदगी औ' ज़िल्लत में
जुर्म और सियासत में
अब
ज्यादा फ़र्क
नहीं रहा। …

मौत जिंदगी का
मुकाम सही,
जिंदगी मौत की
गुलाम नहीं !

हैरान हूँ कि लोकरंग में सराबोर और सहजता से मन के भीतर उतर जाने वाले जनकवि प्रेम शर्मा को पहली बार पढ़ रही हूँ ! बापू के देश , अपनी प्राण प्रिया की याद में पुलिया पर बैठा प्यासा बूढा , घोडों का अर्जीनामा , तू न जिया , न मरा , जीव गान -- छोटी छोटी पंक्तियाँ और न्यूनतम शब्दों में कहन का कितना नायाब सलीका हैं जो अनायास मन को छू लेता है !

'' ऋतु बेटा '' का पिता के अनमोल खजाने को पाठकों से साझा करना मन को सुकून देता है ! ऐसी बिटिया की पाती पढ़कर पिता कितने संतोष से भर गए होंगे ! प्रेम शर्मा जी को नमन और बिटिया को आशीष !

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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

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