बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

सोमवार, 7 अक्टूबर 2013

सुकून का लम्‍हा कि जागती सी एक रात













रश्‍मि शर्मा की  दस कविताएँ





अभि‍शप्‍त आत्‍माओं की नींद

फि‍र बीती एक रात
ध्रुव तारे से आंख मि‍लाते
चांद को बादलों तले
देखते ही देखते छुप जाते
तुम्‍हारी भेजी नींद को
देखा रूठ कर दूर जाते

और अब सुबह
आंखों की कालि‍मा में
ढूंढ रही हूं
एक सुकून का लम्‍हा
कि जागती सी एक रात
फि‍र गुजर गई जिंदगी से

इंतजार में हूं कि
देर से जागने के बाद
कहोगे तुम
बड़ी सुकून भरी नींद आई
बस..सपने में तुम न आई

मैं हंस पडूंगी और कहूंगी
दादी कहती थी
सोए इंसान की आत्‍मा
वि‍चरती है, पूरी करती है
अतृप्‍त कामनाएं, मगर

अभि‍शप्‍त आत्‍माओं को
नींद ही मयस्‍सर नहीं होती
कि‍सी के ख्‍वाब में उतर सके
ऐसी तक़दीर नहीं होती...

 मेरे पास कोई स्‍याहीसोख नहीं

ले आई थी
एक कोरी सी डायरी
जि‍समें
मोति‍यों से अक्षरों में
लि‍खना चाहा मैंने
खूबसूरत नर्म सी सुबह
और बारि‍श के बाद
क्षिति‍ज में फैले धुंध को
मुट़ठि‍यों में समेट लेने के
अहसास से भरे
हसीन हसरतों के कि‍स्‍से

तुम्‍हारे साथ और
तुम्‍हारे बगैर गुजरे, वक्‍त के चि‍थड़े
मगर
नामालूम कैसे
खूबसूरत हर्फों के उपर
उलट पड़ी स्‍याही, मि‍ट गया सब
अब फैले हैं
नीले-नीले धब्‍बे, और
मेरे पास कोई स्‍याहीसोख भी नहीं

 जिंदगी इतनी भी रहमदि‍ल नहीं

होकर बेइख्‍़ति‍यार
छू लि‍या तुम्‍हें
एक आवारा से पल में
मेरे अहसास ने
जबकि‍ तय हुआ था
आजन्‍म
एक मर्यादि‍त दूरी
हमारे दरमि‍यां

प्रेम दंश देता है
और फूलों सा
कोमल अहसास भी
बंदि‍शें जि‍स्‍म की होती है
रूह तो
आजाद उड़ान भरती है

तुम्‍हें हक है, सहस्रबाहु बनो
देह के स्‍पंदन को
मेरी तप्‍त सांसों को
अपनी सांस में भरो
प्रेम के लाल रंग से
जीवन-भीत रंग लो

मगर न भूलना ये
सारे सपने पूरे कर दे
जिंदगी इतनी भी
रहमदि‍ल नहीं होती
एक आवारा पल की शरारत
जिंदगी की दशा और दि‍शा
बदल दि‍या करती है.........

रात की झील पर

रात की झील पर
तैरती उदास कि‍श्‍ती
हर सुबह
आ लगती है कि‍नारे
मगर न जाने क्‍यों
ये जि‍या बहुत
होता है उदास .....

ऐ मेरे मौला
कहां ले जाउं
अब अपने
इश्‍क के सफ़ीने को
तेरी ही उठाई
आंधि‍यां हैं
है तेरे दि‍ए पतवार....

कहती हूं तुझसे अब
सुन ले हाल
जिंदगी की झील पर
उग आए हैं कमल बेशुमार
उठा एक भंवर
मुझको तो डूबा दे
या मेरे मौला
अब पार तू लगा दे......
 
 वक्‍त दो वक्‍त को

सच है
मन के तार की झंकार
बि‍ना साज भी
झंकृत करती है
समूचे अस्‍ति‍त्‍व को
और
वेदना के पलों में
नाजुक संवेदनाएं
और मुखरि‍त होती हैं

हां, मैं हूं अपराधि‍नी
अनजाने ही सही
अनसुनी की मैंने
वो आवाज
जब हृदय के हाहाकार से
दग्‍ध तुम पुकार रहे थे
तुम मेरा नाम

अब जबकि
प्रति‍उत्‍तर न पाकर
दि‍ग्‍भ्रमि‍त होकर वो
कातर आवाज
वि‍लीन हो गर्इ अनंत में
और जो मुझ तक आ रही है
वो तुम्‍हारी नरम और
प्‍यारी ध्‍वनि नहीं
एक ज्‍वालामुखी है

मत करो ध्‍वस्‍त सब कुछ
वक्‍त दो वक्‍त को
धीरज धरो
मन का मौसम भीगा सही
आज हम मीलों दूर कहीं
मगर
चलेगी बासंती पुरवाई
ये यकीन अभी एक
ताजी हवा है लेकर आई.....
 
अक्‍स तेरा ही  झलकता है


मेरे
मन के आंगन में
लगे
तुलसी के बि‍रवे को
प्रेम-जल से
सींचती रही हूं बरसों

संचि‍त कर सीने में
रखा है उस एक छुअन को
जो मेरे माथे पर
सिंदुरी होंठों से
रख दि‍या था तुमने

मेरे प्राण, मेरे श्रृंगार
आईने में
जब भी रूप मेरा
दमकता है
आंखों के काजल से ले
हाथों की मेंहदी तक
अक्‍स तेरा ही
झलकता है.....

फुर्सत के पल

आकाश के
दक्षि‍ण-पश्‍चिम कोने पर
टि‍मटि‍मा रहे
चमकीले तारे ने
पूछा मुझसे......
क्‍या मैं तुम्‍हारे लि‍ए
बस एक फुर्सत का
पल हूं ?
जब दुनि‍या भर के
कामों को
नि‍बटा लेती हो
अपनों को संतुष्‍ट
और परायों को
वि‍दा कर देती हो....
तब
मेरी ओर देखकर
इतनी लंबी सांसे
क्‍यों भरती हो ?
मैं भी चाहता हूं
तुम्‍हें भर आंख देखना
तुमसे कुछ बति‍याना
और तुम्‍हारी
खि‍लखि‍लाहट को सुनना
मगर तुम
तभी आती हो
जब मैं डूबने वाला होता हूं
तुम्‍हारा आना
और मेरा जाना....
क्‍या नि‍यत है हमारा वक्‍त ?
कभी सोचा है तुमने
कि‍ मैं
तुम्‍हारे फुर्सत का पल हूं
या फि‍र
यही एक पल है
जब तुम
तुम्‍हारे साथ होती हो
और मैं
तुम्‍हारे नि‍तांत अपने पल का
एकमात्र साक्षी बनता हूं.....
 
वि‍देह हो जाना चाहता है.

बनकर खुशी
कभी नहीं रहे तुम पास मेरे
जब भी महसूस कि‍या
उमस भरी दोपहरी की तरह ही
मि‍ले तुम
एक अबूझ बेचैनी लि‍ए
दर्द से अनवरत बहते हुए
आंखों में भर आए पानी जैसे
सर के दोनों तरफ की
तड़कती नसों में घुले दर्द के साथ
हरदम आए तुम

फि‍र भी

तुम्‍हारा पास न होना
इतना दर्द देता है जैसे
रेत रहा हो आरी से
एक हरेभरे पेड़ का
मजबूत तना कोई
और दूरी का अहसास
इस तरह पागल करता है
जैसे
शरीर छोड़ने को प्राण तड़पे
मगर मुक्‍ति नहीं मि‍ले

तुम हो न हो
तुम्‍हारा दर्द कसकता, टीसता है
हरदम
फि‍र भी ये नि‍स्‍पृह देह
वि‍देह हो जाना चाहता है
अंतरि‍क्ष में एक घर बनाना चाहता है
चाहे-अनचाहे मि‍ले
सारे दर्द को समेटकर
ध्रुव तारे की तरह हरदम
तेरे-मेरे नाम से 'एकनाम' बन
चमकना चाहता है.......

अनदेखी लि‍पि‍यां

कही तुमने मुझसे
बार-बार वो बातें
जि‍नका मेरे लि‍ए
न कोई अर्थ है
ना ही अस्‍ति‍त्‍व
जो मैं पढ़ना चाहूं
तुम्‍हारे आंखों की
अनदेखी लि‍पि‍यां
कहो कौन सी कूट का
इस्‍तेमाल करूं
मैं ढूंढती रहती हूं
कोई ऐसा स्रोत
ऐसी कि‍ताब
जो आंखों की भाषा को
शब्‍दों में बदलती हो
है ये ईसा पूर्व की या
सोलहवीं सदी
की सी बात
कि हमारे बीच से
शब्‍द अदृश्‍य ही रहे हैं

अब तुम पढ़ना
मेरा मौन, सहना
मेरी अनवरत प्रतीक्षा
और मैं कूट-लि‍पि‍क बन
पढूंगी, आंखों की अनदेखी लि‍पि‍यां
 
है कोई नापना.

कि‍तनी है
आकाश की उँचाई
और धरती की गहराई
ये हम कल्‍पना कर सकते हैं
मगर
नापना चाहकर भी
नाप नहीं सकते
फि‍र
मेरे अंतस में छुपे भावों की
तुम्‍हारे प्रति
छलकते प्‍यार को
और जुड़े रहने की चाह को
क्‍यों नापना चाहते हो
बार-बार
है कोई नापना जो तुम्‍हारे पास
तो दे दो मुझे
मैं बता दूं नापकर
कि कि‍तना प्‍यार है तुमसे.........


(परिचय:
जन्म:   2 अप्रैल 1974,  मेहसी थाना, मोतीहारी, बि‍हार
शिक्षा:   इति‍हास में स्‍नात्‍कोत्‍तर बैचलर ऑफ जर्नलिज्‍म लेखन
सृजन: पत्र-पत्रिकाओं में लेख और कविताओं का प्रकाशन, शब्द-संवाद व स्त्री होकर सवाल करती है जैसे  कविता संकलनों में भी रचनाएं संगृहित
ब्लॉग: रूप-अरूप
सम्मान: सीएसडीएस का  नेशनल इंक्लूसिव मीडिया फ़ेलोशिप-२०१३
संप्रति:स्‍वतंत्र पत्रकारि‍ता एवं लेखन
संपर्क:rashmiarashmi@gmail.com)   









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2 comments: on "सुकून का लम्‍हा कि जागती सी एक रात"

कविता रावत ने कहा…

रश्मि शर्मा की सुन्दर रचनाओं के प्रस्तुतीकरण के लिए लिए धन्यवाद. ..

रश्मि शर्मा ने कहा…

हमज़बान को दि‍ल से धन्‍यवाद....खुद की रचनाएं यहां देखकर अच्‍छा लग रहा है..

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