बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

केशव तिवारी की कविताएँ





 









डर

डर कहीं और था
मैं कहीं और डर रहा था
डर उस जर्जर खड़े
पेड़ की छाँव में था
और मैं धूप से  डर रहा था
दुनिया भर की तमाम
पवित्र किताबें
भय और आतंक से
भरी पडी थीं
और मैं

अपने सबसे डरे समय में
उन्ही को पढ़ रहा था।

 
 मैं इन ठंडी किताबों में क्या कर रहा हूँ


अगर मुझे बाज की उड़ान पसंद है
तो मुझे अपनें पठारी मैदानों में होना चाहिए

तब मैं इस तंग काफी हाउस में
क्या कर  रहा  हूं

अगर मैंने पिछली सर्दी में
आलू बोना सीखा है
तो मुझे ठंडी में अपने
खेत और क्यारियों को
तैयार करना था।

मैं इन ठंडी किताबों में क्या कर रहा हूं

अगर मैंने अभी हाल में
कविता लिखना सीखा है
तो मुझे सबसे पहले
अपने गांव के उस
अलमस्त गडरिये को सुनना चाहिए था

मैं इन वातानूकूलित सभागारों में
क्या कर रहा हूँ।

मुझे वहां होना चाहिए
जहां कहीं नए मकान को
बनाने के बुनियादी प्रयत्न किए जा रहे हैं
इन हवाई किलों में
मेरा दम घुटता है।


जौ  भर नहीं जुमका

 पक कर तैयार है धान की फसल
दूज का चाँद पंहट कर अपनी हंसिया
फसल कटाई की शुरुआत कर रहा है

 मैं फटे कपड़ों में खुद को समेटे
खेत काटती औरतों को देख रहा हूँ
इन्हें इसी हालत में मेरे पुरखों
के पुरखों ने भी देखा था

कब से डटी हैं ये भूख के खिलाफ
इनके हिस्से है इस धरती की भूख
पर इनके समय का धंसा पहिया 
लाख कोशिशों के बाद भी

जौ भर नहीं जुमका
इनका वक्त दुनियां की घड़ियों
के बाहर है
ये धान सटक रही है
इनकी घरों की मुंडेरों पर
बैठा चांद
सुन रहा है इनकी बोलचालभर
मेरा मन समय के उस
धंसे पहिये में ही फंसा है।


 खेत जगाए जा रहें हैं

 दिवाली है
खेत जगाए जा रहे हैं
मेड़ों पर जलाए जा रहे है दिए
न धान को जड़ों भर पानी
न खेतों को कम्पोस्ट और डी .ए.पी .
भूखे प्यासे खड़े हैं खेत
मैं उनको भी जानता हूं
जो इन खेतों के साथ साथ जाग रहे हैं
और उनको भी जो लगातार
सड़ते हुए अनाज पर
गलत बयानी करते जा रहे हैं

 मैं पूछना चाहता हूं
इनकी सजा कौन तय करेगा
ये खेतों के साथ जागते लोग
या फिर एक और तीसरा आयोग

  कराहती क्यों हैं

 रात के पास क्या कोई बीन है
जो घने अंधेरे में भी
बजती है धीमे धीमे

फूल सुंघनी क्या गा गई
सुर्ख अड़हुल के कान में
कि मुंह खोले है अवाक
समुद्र के पास क्या कोई मृदंग है
जो शाम ढलते  ही
देने लगता है ताल
पेड़ों के पास तो
पत्तों की करतल धुने हैं

 सुरों में डूबी धरती
फिर कराहती क्यों है

क्या धरती के हृदय  में
कोई कांटा गड़ा हुआ है।

 मुराद अली

 मशक बीन के उस्ताद मुराद अली
गलगल हो गई शरीर पकी ढाढी
बिना दांत का मुंह
बात-बात में फूलती सांस

ऐसे  ही नहीं थे मुराद अली
जिसने देखा हो उन्हें जवानी में
मशकबीन कांख में दबाए
पैंतरा बदल बदल कर  बजाते

वही जाने क्या थे
गरीब गुरबा सेठ जमींदार
किसके कार परोजन में
नहीं गूंजी उनकी मशक  बीन

मैंने पहली बार इन्ही धुनों  पर
नाचते देखा था नइका को
नयी नयी आई थी ब्याहकर
नाम मिल गया था नइका
कुछ दिन बाद किसी और के
साथ उढर गई
उसके तोड़ की नाचने वाली

फिर नहीं देखी
आज भी याद करते हैं मुराद अली
सूना सूना कर गई गड़रियान
कुछ दिन ही टिकी पर नाम कर गई
 नाचते ही आई थे और
नाचते ही चली गई
चढी दुपरिया जब बाग़ में
टिकाई जाती बारात
सन्नाटे और घमस के बीच
गूंज उठती उनकी मशक बीन
बराती समझ जाते
रंग में मुराद अली
सुर मन में ही नहीं गदराये  आमों में

धीरे धीरे
मिठास की तरह उतर रहे होते
समय के लम्बे दौर  में वो
सक्रिय रहे अपनी मशक बीन
के सुरों के साथ
पूरे के पूरे  पवस्त में कहाँ कहाँ नहीं
उनके सुरों की छाप
हम जैसे कितने जवान हुए
उनके सुरों के साथ
बँसवारी के कितने बांस
कैची से आकाश छूने लगे
भले ही आज भोंडे शोर में
कहीं दब गए  मुराद अली
के मशक बीन के सुर
पर खूंटी पर टंगी लगभग फट चुकी
मशक बीन

यह हिलती डुलती काया
बता रही है अपने समय में
किस तरह हस्तक्षेप किया उसने।

 मोमिना

खटिया बिनती है मोमिना
गाँव- गाँव जाकर
साईकिल मिस्त्री पति नहीं रहा
सयाने होने को दो बच्चे
खटिया बीनना सीख लिया
घुरुहू गडरिया से

यूँ तो दूसरे निकाह की भी
सलाह दी  मायके वालों ने
पर लड़के बेटी का मुंह देख
उधर सोचा भी नहीं

रकम रकम के फूल काढती है
वे अपनी बिनाई  में
आप ने धूप में स्वेटर बुनती
महिलाएं देखी होंगी
नीम के नीचे खटिया बिनते
मोमिना को देखिए

सधे हाथों में बिनाई  का बाध
मछली सी चलती चपल उँगलियाँ
हाथ और चेहरे की तनी नसें
एक थकी थकी फीकी सी मुस्कान

खटिया बिनती मोमिना
मेरे गाँव की
सबसे जागती कविता है

ये जानती भी नहीं कब में
आगे बढ़कर निकल आई
परदे के बाहर
मौलवियों की तिरछी नजर से
बा खबर

गांव -गांव घूमती
जिन्दगी के चिकारे का
तना तार है मोमिना।


(कवि-परिचय:

जन्म:  4 नवम्बर 1963, प्रतापगढ़, अवध के छोटे से गाँव में
शिक्षा:  वाणिज्य स्नातक
सृजन :    देश की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में कविता, समीक्षा और आलेख। ‘इस मिट्टी से बना’, ‘आसान नहीं बिदा कहना’ कविता-संग्रह प्रकाशित
सम्मान:  सूत्र सम्मान से अलंकृत
संप्रति: एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में अधिकारी 
संपर्क : keshav_bnd@yahoo.co.in  )


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11 comments: on " केशव तिवारी की कविताएँ"

kathakavita ने कहा…

हवाई किला बनाने वाली कविताओं का जबाब हैं यह कविताएँ .अपनी मिट्टी के दुःख दर्द पर कवि की संवेदना का मर्म 'गाँव गाँव घुमती \जिन्दगी की चिकोरे का तना तार .. लगातार प्रश्न पूछ रहा है बिगड़ी परिस्थितियों में फंसे वक्त के पहिये को निकाल सही रास्ते पर गतिमान बनाने के लिए डरे समय से दूर ,ठंडी किताबों के बाहर ....

आशुतोष कुमार ने कहा…

कराहती क्यों है ' कविता में धरती का विलाप विदग्ध आलाप की तरह देर तक गूंजता रहता है ..

Digamber ने कहा…

केशव की कविता आपको गाँवों की सैर कराती है, लेकिन उस तरह नहीं जैसे आप उनके खास मेहमान हों और आपको वही-वही दिखाना है जिससे कि आप ग्राम्य शोभा से अभिभूत होकर आह-वाह करे. वे आपको वहाँ ले जाते हैं ज़हाँ फसल बोने से कटने तक का चक्र पूरा होता है और फिर उसमें सेंध लग जाती है.
उनके लिये कविता लिखना हवाई किलों की दीवार फांद कर बार-बार मोमिना, उस्ताद मुराद अली, घुरहू गरडिया, धान काटती औरतों और फुलसुंघी तथा ज़गाये जा रहे खेतों और बुताये ज़ा रहे सपनों के नजदीक पहुँचने की तड़प और तकलीफ है. जियो केशव भाई.

Mahesh Chandra Punetha ने कहा…

लोकधर्मी कविताओं में ही ऐसी वैश्विक अपील हो सकती है . ये कवितायेँ बताती हैं कि लोक से जिस कवि का जितना गहरा लगाव होता है उसका विस्तार उतना ही व्यापक होता है . बस इसके लिए लोक को व्यापक और द्वंद्वात्मक दृष्टि से देखने की जरूरत होती है . दुखद है कि लोकतंत्र में इस लोक की लगातार उपेक्षा की जा रही है . अच्छी बात यह है कि केशव जी की कवितायेँ हमेशा उस उपेक्षा के प्रतिपक्ष में खडी होती हैं और लोक को अपने केंद्र में लाती हैं .वे लोक को सर्वहारा का पर्याय मानते है जो गांव से नगर तक हर जगह फैला हुआ है .

FELUX ने कहा…

कविताऐं नहीं एक समूचा गाँव पढ़ा .. ये कविताऐं एक द्रश्य रचती हैं पाठक जिनका स्वयमेव एक हिस्सा हो जाता है और बाहर आने के बाद भी भीगी माटी की खुश्बू रची बसी रहती है । कविताओं में प्रतिरोध भी पुख्ता तौर पर आया जो गहराई लिये है भोथरा नहीं .. अदभुत रचनाऐं .. आज का दिन बड़ा सार्थक रहा .. कुछ बहुत अच्छा जो पढ़ने मिला

Ganesh Pandey ने कहा…

तिवारी जी निरंतर अच्छी कविताएँ लिख रहे हैं। दिगम्बर जी तथा अन्य मित्रों ने इन कविताओं के लिए उचित ही प्रशंसा की है। उन्हें बहुत बधाई।

रश्मि शर्मा ने कहा…

माटी की खुश्‍बू लि‍ए है सारी रचनाएं....बधाई इस सृजन के लि‍ए

santosh chaturvedi ने कहा…

केशव जी की कविता का आलाप गाँव-घर का वह आलाप है जो मन में देर तक गूंजता रहता है. एक ठोस धरातल की कविताएँ हैं ये. किसी भी बेहतरीन कवि को इससे रश्क हो सकता है.

कुलदीप "अंजुम" ने कहा…

क्या बढ़िया कवितायेँ हैं ....क्या सादा और साफ़ बयानी और फिर ये मेयार.....कोई जबाब नहीं ...बहुत उम्दा....

Neeraj Neer ने कहा…

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (07.10.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें .

شہروز ने कहा…

पाठकों आप सभी का आभार। यहाँ कुछ ऐसे कमेंट हैं, जो फेस बुक पर दिए लिंक पर आये थे।

शम्भू यादव :
हवाई किला बनाने वाली कविताओं का जबाब हैं यह कविताएँ .अपनी मिट्टी के दुःख दर्द पर कवि की संवेदना का मर्म 'गाँव गाँव घुमती \जिन्दगी की चिकोरे का तना तार .. लगातार प्रश्न पूछ रहा है बिगड़ी परिस्थितियों में फंसे वक्त के पहिये को निकाल सही रास्ते पर गतिमान बनाने के लिए डरे समय से दूर ,ठंडी किताबों के बाहर ....

अशोक कुमार पांडेय :
मैं केशव भाई को लोक या अंचल का कवि कहे जाने का इसीलिए विरोध करता हूँ. वह हिंदी के एक जनपक्षधर कवि है जिनकी रचनाओं में उनका अंचल धडकता है और लोकल ग्लोबल बन जाता है.

मोहन श्रोत्रिय :
केशव की कविताएं उनकी छवि को पुष्ट करती हैं, एक जनवादी कवि के रूप में. सलाम !

नील कमल:
कविताएं पढ़ते हुए अपने गाँव-जेवार के कई चरित्र आँखों के सामने आ गए । एक साथ कई अच्छी कविताएं पढ़ने का अवसर उपलब्ध कराने के लिए "हमज़बान" ब्लॉग का शुक्रिया ।

विजय सिंह:
.खूब और जीवंत कवितायें।

विमल चन्द्र पाण्डेय:
बढ़िया कविताएँ जिन्हें ठहर कर पढ़ना होता है

शिरीष कुमार मौर्य :
अच्‍छी कविताएं हैं केशव भाई की।

ऋतू पर्णा मुद्रा राक्षस:
केशव जी की कविताएँ शोर मचाकर झकझोरती नहीं हैं.... ये धीमे-धीमे देर तक मन-मस्तिष्क को कुरेदती हैं..... ' कराहती क्यों है...' , ' मोमिना' ' उस्ताद मुराद अली' ऐसी ही जीवंत कविताएँ हैं जो हमारी संवेदनाओं के साथ अद्भुत तारतम्य बना हमारे साथ लम्बे अरसे तक रहेंगी... इन बेहतरीन रचनाओं के लिए केशव तिवारी जी और हमज़बान को साधुवाद !

लीना मल्होत्रा :
मेरे कंप्यूटर से लिंक नहीं खुल रहा है। लेकिन महेश जी की बातों से सहमत। केशव जी को पढना बहुत भाता है।

रश्मि शर्मा:
बहुत बेहतरीन लि‍खा है....

निलय उपाध्याय :
पहली नजर में बहुत अच्छी कविताऎ। केशव भाई की कविताओं में एक स्वाद है। आराम से पढकर प्रतिकिया दूंगा। लोकधर्मिता और विश्व दृष्टि के बारे में रसूल हमजातोव का कथन मै हमेशा याद रखता हूं ,वे कहते है कि जब मैं दागिस्तान में रहता हूं, पूरी दुनिया का प्रतिनिधि बन कर रहता हूं और जव कभी बाहर जाता हूं, दागिस्तान का प्रतिनिधि बन कर ।

कृष्ण मुरारी:
बहुत बढ़या कविता।
.

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- अल्लामा जमील मज़हरी

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