समुद्र नारियल के नमकीन मीठे जल की तरंग
केरल से लौट कर शहबाज़ अली खान
काफ्का ने अपनी कहानी 'चीन की दीवार' में बीजिंग के बारे में कहा है कि हमारा देश इतना विस्तृत है कि इसके बारे में कोई भी किस्सा इसके साथ न्याय नहीं कर सकता. यहाँ तक कि इश्वर भी मुश्किल से इसकी पैमाइश कर सकता है. काफ्का ने शायद भारत नहीं देखा होगा वरना वह इश्वर के लिए इस देश की पैमाइश को मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन ही बता देते. ०७ को गाडी मथुरा से खुली. दो एक घंटे बाद ही कुदरती आबशारों से हम नहाते चले गए.कहीं सूरज की किरणें नर्म गिलाफों सा आ-आ कर लिपट जातीं.जिन-जिन राहों से हम गुज़रे अहसास शिद्दत की गिरफ्त में हुआ. हमारा देश कितना विस्तृत है... मध्यप्रदेश में लगातार होरहे खनन, पहाड़ों को काटती पिटती मशीनों और उडती धूलों, चम्बल के बीहड़ों, सामन्ती अवशेषों- मंदिरों और किलों, छतीसगढ़ के नक्सली इलाकों, महारष्ट्र के हरियल और पनियल इलाकों से गुजरते हुए जब गाड़ी कर्णाटक पहुंची तो हवाओं की नमकीन गंध और नारियल की अबोल-मीठ-फ़िज़ा ने दस्तक दे दी.अहा! अब केरल दूर नहीं! सड़कों के किनारे स्वागत करते नारियल के पेड़. उनके झुरमुटों से छन कर आती ठंडी हवाएं रात की स्याही को रौशन करती रहीं.
सुबह के साढ़े ५ के करीब हम केरल के कोझिकोडे (कालीकट) पहुंचे. बहार निकलते ही मेरी नज़र सबसे पहले जिस चीज़ पर पड़ी वह मार्क्स के तस्वीर की एक बड़ी सी होर्डिंग थी जिस पर सी.पी.आई.एम् के २० वें पार्टी कांग्रेस की तय्यरियाँ चल रहीं थीं.. भोर के धुंधलके में ही मुझे जंक्शन से लेकर अबू के घर तक हर जगह लाल ही लाल दिखाई दिया.. ये हलब्बी हलब्बी बैनर, होर्डिंग, कटआउट वगैरह.. रास्ते लाल रंग के फीते हर जगह टंगे नज़र आयें.. दिन का नज़ारा न पूछिए.. अबू ने कहा कि ये अपने को सर्वहारा की पार्टी कहती है लेकिन इस मौके पर २० करोर से ज्यादा खर्च कर चुकी है. हालांकि मैंने इस तथ्य के बाबत कोई छानबीन नहीं की है लेकिन ये तो तय है कि कालीकट को देखकर ऐसा लगा कि मैं भारत के किसी शहर में नहीं बल्कि रूस के किसी शहर में हूँ.
केरल के पहले ही दृश्य ने मोहा मन
सूरज ज़रा ही उपर चढ़ा था कि हम अबू के घर पहुँच गये. अबू हमें अपने घर के आस पास के पेड़ पौधों को दिखाने लगा. काजू के पेड़, गुजराती लोगों का पसंदीदा सुपारी का पेड़, हमारी तरफ चलने वाले सुपारी (तामुल) का पेड़, कटहल, नारियल का तो पूछना ही क्या है, काफी के पेड़ आदि यह सब उसके घर के भीतर और उसके आस पास लगे थे.. फिर अबू हमें अपने घर के पिछवाड़े ले गया और वहाँ जो दृश्य मैंने देखा उसे भूल नहीं सकता. नारंगी सूरज ज़मीन कुछ इंच ऊपर था और उसमें सियाह बादलों की दो तीन धारियाँ कुछ यूँ लिपटी थीं जैसे माँ ने अपने बच्चे को नज़र से बचाने के लिए दो तीन नज़र की टीकाएं लगा दी हों. ज़मीन का गीलापन और काले बादलों में लिपटे सूरज का वह नारंगी रूप आह! क्या कहने उस दृश्य के. केरल ने अपने पहले ही दृश्य से मन मोह लिया...
और अम्मी ने मेरे तलवे को हौले से सहलाया
शाम को समन्दर देखने गये. रास्ते में सी.पी.आई.एम् के २० वें पार्टी कांग्रेस की लहरें अपने उफान पर थीं. इस से बचते बचाते हम वहाँ पहुंचें जिसे देखने की लालसा मेरे दिल में कई सालों से थीं.. जी हाँ मेरे सामने हहराता समन्दर था. २८ साल बाद नंगी आँखों से उसे देखना एक रोमांचकारी क्षण था. पल के लिए मैं डर गया.. इतना भव्य, विशाल, व्याकुल, अंतहीन, लहर दर लहर जोश से भरा हुआ. सब कुछ लीलने को तैयार बैठा हुआ. उस पर अम्मी की हिदायत ... तुम समन्दर के नजदीक मत जाना (उन्हें मालूम है बचपन से पानी से डरता हूँ). मैं अभी उधेड़बुन में ही था कि सारे दोस्त तुरंत पैंट-शैंट चढ़ा के, सैंडिल-जूता एक तरफ कर के घुटनों तक जा पहुंचें. कई छोटे बच्चे कूद-कूद कर उसमें नहा रहे थे. अम्मी की हिदायतों को समन्दर के आकर्षण ने परास्त कर दिया. मुझे याद नहीं, कब मैंने सैंडिल उतारी, पैंट चढ़ाई और उसके पास चला गया. लहरों ने मेरा पैर छुआ. लगा मैं अबोध शिशु हूँ और अम्मी ने मेरे तलवे को हौले से सहलाया हो! जितनी बार लहर आती मेरे पैरों के नीचे की रेत बहा ले जाती.... एक चुल्लू पानी भी पिया. लगा मानो एक चम्मच भरपूर नमक फांक लिया हो. समन्दर के भीतर नमक न होता तो उसे नियंत्रित करना मुश्किल था. उस एक घूँट पानी ने मुझे यह अहसास कराया कि दुःख हमारे जीवन का एक ऐसा ही नमक है. जो हमारे जीवन को संतुलित करता है, नियंत्रित करता है. खूब ढेर सारी फोटो खीचा-खिचौअल के बाद आइस अचार का खट्टा-मीठा स्वाद का चटखारा! अब भी उसकी सोंधी डकार बरक़रार है. एक गोरखपुर के पान वाले से मीठा पान खाया. और अँधेरा होते होते वापस अपने कयाम गाह तक लौट आये...
दुल्हन के घर से आई बरात
अगले दिन बन-ठन के अबू के निकाह के लिए तैयार हुए.. पता चला कि केरला की एक बड़ी पार्टी इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के अध्यक्ष सैयद हैदर अली शहाब थंगल अबू का निकाह पढ़ाएंगें. शहाब साहब जब आये तो उनके आगे पीछे कोई और गाड़ी नहीं थी. न ही भीड़-भड़क्का. चूँकि केरल की संस्कृति में सामन्ती अवशेष नहीं के बराबर हैं. वहाँ शादियों में लड़की वाले लड़के वालों के यहाँ आते हैं. वो भी एक दो नहीं पूरे सौ-दो सौ लोग. जितनी तेज़ी से आते हैं उतनी ही तेज़ी से वापस चले जाते हैं. बिलकुल शांत और सुरुचिपूर्ण तरीके से खाना पीना होता है. निकाह के बाद कोई हो-हल्ला नहीं. बन्दूक-गोलियां नहीं चलती हैं. उनके रहनुमा भी इस संस्कृति का ही पालन करते हैं. सबका पहनावा लगभग एक था- लुंगी और शर्ट और पैर में सैंडिल. शहाब साहब का भी. चलन इस कदर है कि पैंट पर भी लोग शर्ट इन नहीं करते हैं. ये पहनावा केरल का अपना ही है या वाम विचारधारा का प्रभाव, मुझे पता नहीं चल पाया (पिछले तेरह सालों से एक बड़े कामरेड प्रो. इरफ़ान हबीब को इसी पहनावे को पहनते देखा है, शर्ट बाहर, पैर में सैंडिल या चप्पल, और अभी भी साइकिल से चलना.).. निकाह बेहद सादगी से हुआ, कोई टीम-टाम नहीं, झट-पट. खाना तो खैर माशा अल्लाह था. खाने के बाद गर्म पानी, एक केला, और एक कप काढ़ा. यह सब हम लोगों के लिए बिलकुल नया था. खाने के बाद सभी तुरंत चले गये, लड़की वाले, अबू के रिश्तेदार भी.
वास्को डी गामा के क़दम जब पड़े
निकाह बाद बचे सिर्फ हम लोग. फिर तय पाया गया कि हमें कापड बीच देखना चाहिए जहां पहली बार वास्को डी गामा के पैर पड़े थे. अँधेरा होने से थोड़ी ही देर पहले पहुंचे. यहाँ के चट्टान और समंदर, दोनों ही गवाही दे रहे थे कि कभी यहाँ दुनिया आकर मिलती रही होगी. हालांकि इन चट्टानों पर सी.पी.आई. एम् के इश्तेहार दूर से ही नुमाया हो रहे थे. वास्को कभी यहाँ आया था उसकी कोई इबारत नहीं देखी. सिर्फ एक समंदर था जो यह चीख चीख कर कह रहा था कि मेरे सीने पर वास्को ने कभी नाव चला कर इस सर ज़मीन पर अपने पैर रखे थे. चट्टानों से गले मिलने को बेताब समंदर का जोर देखने लायक था. लेकिन बेदिल चट्टान हर बार उसकी बेताबी को झुठलाकर उसे वापस कर देता था. समंदर की बेताब लहरें आपस में खूब टकराती हैं लेकिन ऐसा लगता मानो कभी मिल नहीं पाती. हमारे दो दोस्तों ने सूरे रहमान की उस आयत का ज़िक्र किया जिसमें कहा गया है कि समंदर जब मिल रहे होते हैं तो उनके बीच में एक पर्दादारी होती है, जिसका वह अतिक्रमण नहीं कर पाते. सच aisa hi लगा. सूरज जल-समाधि के लिए अधीर हो रहा था. आध घंटे में उसने जब समाधि ली तो शोर कुछ थम सा गया. बारिश की आशंका ने भी हमें वहाँ से वापस होने पर मजबूर कर दिया.
वाय्नार्ड के जंगलों में इतिहास का सूरज
दो दिन समन्दरों के हहराते शोर और चंचल लहरों को देखने में गुज़रे. अगले दिन यह तय पाया कि अब हम कोझिकोडे से लगभग २०-३० किमी दूर वाय्नार्ड चलते हैं. वाय्नार्ड कर्नाटक और केरल को जोड़ता है. ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों के बीच से टीपू सुल्तान ने यह रास्ता खोजा था. (कुछ का मानना है कि टीपू ने नहीं बल्कि हैदर अली ने इस रास्ते की खोज की थी) इन दोनों बाप-बेटों में से जिसने भी इस रास्ते की खोज की हो, इस रास्ते को देख कर मैं अपने देश के शासकों के सराहनीय योगदानों के प्रति अभिभूत हो गया. इस रास्ते पर चलते हुए दोस्तों ने शेरशाह सूरी द्वारा निर्मित भारतीय सड़क व्यवस्था की भी चर्चा की. इन चर्चाओं के बाद मुझे यह अहसास हुआ कि आखिर किस बात पर हम अंग्रेजों द्वारा माल्गोदामी व्यवस्था की सराहना करते हैं? किस आधार पर उन्होंने यह कह दिया कि हमारा पिछला शासन अविकसित था. अगर कोई हिंदुस्तान को गौर से देखे तो उनकी बातें झूठी साबित हो जायेंगी. वाय्नार्द चारो और से पहाड़ों से घिरा है. यूँ ट्रेन के सफ़र में भागते पहाड़ों को देखा तो था लेकिन इतने नज़दीक से .. ओह् ह्ह इतना उदात्त, गंभीर, अविचल, मौन था कि उसको देख के कुछ सूझ ही न रहा था. समझ में नहीं आ रहा था कि यह समाधि में बैठा को कोई साधू है या आँखें तरेरता हुआ कोई दबंग है. . या ज़मीन में धंसी कोई कील है जिसने ज़मीन को पकड़ रखा है.(एक दोस्त ने बताया कि अल्लाह कुरआन में पहाड़ों के बारे में कहता है कि हमने इसे कील की तरह ज़मीन में ठोंक दिया है.. ताकि ज़मीन हिल न सके) पहाड़ों को देख के न जाने दिल में क्या-क्या आया वह बता पाना मुश्किल है, कितने कवियों की पहाड़ पर लिखी कवितायें याद आयीं. लेकिन "तुझको देखूं की तुझसे बात करूँ" वाली स्थिति मेरी थी.
पहाड़ के आह से उपजी नदी
वाय्नार्द के जंगलों के आस पास बसी आदिवासियों की बस्ती उतनी ही खुबसूरत सुरम्य. वहां की एक झील का आनंद लेने के बाद हमने कुरुवा द्वीप में फिसलन भरे पत्थरों और चट्टानों के बीच कल-कल बहते नीर के साथ थोड़ी सी मस्ती की. उससे थोड़ी दूर पूकोट्टू झील के पास पहुंचे जो भारत के नक्शे की तरह बसा था...हमने यहाँ बोटिंग की. बोटिंग कराने वाले ने हमें उस झील की गहराई और उससे जुड़े कुछ और तथ्यों के बाबत जानकारी दी. उसने हम लोगों की तस्वीर भी खींची. केरल वासी सौम्य और सुलझे तथा कितने सभ्य हैं उस एक आदमी से बात करके यह बात और भी पुख्ता होगयी. लौटते वक्त ट्रेन में पैंट्री कार के एक वेंडर ने मोहम्मद जलाल या जमाल, जो की सीलनपुर का था, ने भी इस की तस्दीक की. पूकोट्टू में हमने लकड़ी से बने कुछ सामान खरीदे. और लौट पड़े. शाम अब बेहद गहरा गयी थी. चारो और एक धुंध सी थी. पहाड़ धुएं से लिपटे हुए थें. तब मेरे ज़ेहन में यह आया कि पहाड़ साधू या हो दबंग हो, असल वह एक वियोगी है. एक दुःख से भरा प्रेमी है. जैसे-जैसे रात होती है, उसका दिल जलता है, इक धुंआ-सा उठता है.... इतना धुंआ उठता है कि दूर से देखने पर लगता है नदी बह रही हो. यह पहाड़ के आह से उपजी नदी थी जो सिर्फ रात के अँधेरे में ही बहा करती है.
रिश्ता रंग बिरंगे प्यार के धागे से बुना
केरल का हमारा प्रवास चौथे दिन अपनी समाप्ति की ओर आ गया. अबू के घर मिली इतनी मोहब्बत और स्नेह हम भूल नहीं सकते. हमारे और अबू के घर वालों के बीच भाषा की दीवार थी. हमारे एक मित्र हफीज ने इस दीवार को गिरा दिया था. वह कर्नाटक के मैंगलूर के वासी हैं, केरल में शिक्षा प्राप्त की है, अभी अलीगढ से अरबिक से पीएच. डी कर रहे हैं. ६ भाषाओँ के जानकार हैं. उन्होनें ट्रांसलेटर की भूमिका बहुत शानदार ढंग से निभायी. उनके बिना टूर अधूरा होता. यूँ तो हर दोस्त अपने में ख़ास था लेकिन उनका महत्त्व रेखांकित करने योग्य है... जाने से पहले मैंने कहा था कि यूँ तो केरल के टूर पर जाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है. लेकिन मेरे लिए एक केरलवासी दोस्त अबू की शादी में शिरकत करना बहुत अहमियत रखता है. मेरे लिए यह उस हिन्दुस्तानी तहजीब की बेमिसाल रिवायतों में से एक है कि यहाँ तमाम तहजीबों के बीच एक रिश्ता रंग बिरंगे प्यार के धागे से बुना होता है. यह धागा तोड़े से भी नहीं टूटता है. दूरियों को ये एक क़दम में नाप लेता है. अजनबियत को चुटकी में बाँध कर किसी दरिया में डाल देता है. और यह धागा किसी दुकान पर नहीं, बल्कि हमारे दिलों में मिलता है. हिन्दुस्तान इसी मायने में अपने भीतर हमेशा जिंदा रहता है....
वहां से आते वक्त दिल में बस इतना ही कहा कि वाकई यहाँ सब अल्लाह की खैर है.*
(लेखक-परिचय:
जन्म: १८ मई, १९८४, बहराइच में
शिक्षा: अलीगढ मुस्लिम विवि से राही मासूम राजा पर पी-एच डी कर रहे हैं
सृजन: पत्र-पत्रिकाओं में छिटपुट. फेसबुक के चहीते रचनाकार
संपर्क:alikhan.shahbaz@gmail.com)
हमज़बान पर उनकी पहली पोस्ट शहरयार की याद पढ़ें
6 comments: on "केरला यानी यहाँ सब अल्लाह की ख़ैर है"
बहुत बढ़िया लिखते हो, शाहबाज़ ! रोचक और बहुत सारी जानकारियां देने वाला. कविता की सी के है, तुम्हारे गद्य में. बनाए रखो इसे. नहीं, फलने-फूलने दो, खूब-खूब गद्य लिखकर. मुबारक.
बहुत बढ़िया लिखते हो, शाहबाज़ ! रोचक और बहुत सारी जानकारियां देने वाला. कविता की-सी लय है, तुम्हारे गद्य में. बनाए रखो इसे. नहीं, फलने-फूलने दो, खूब-खूब गद्य लिखकर. मुबारक. और हां, शहरोज़ को शुक्रिया.
वाकई शाहबाज़ भैया .... अंत तक पढ़े बिना कुर्सी से हिल भी न सका .... केरल गया तो नहीं हूँ लेकिन आपके इस यात्रा संस्मरण को पढ़ने के बाद ऐसा लग रहा है जैसे मैं भी उस यात्रा का एक हिस्सा था .. बधाई... और शुक्रिया शहरोज़ भैया को.. इस खूबसूरत गद्य को हमज़बान पे चस्पा करने के लिए ....
बहुत ही सुन्दर शब्दों के चित्र और चित्रों के शब्द प्रस्तुत किये आपने!
खुबसूरत संस्मरण!
कुँवर जी,
बहुत सुंदर, एक बार तो लगा के केरला में पहुँच गए..खूब सारी जानकारियाँ, लेकिन ऐसी जैसे किसी जजीरे के बारे में कोई कहानी सुनी जा रही हो....यानी संस्मरण की बोरियत भरी भाषा की बजाये कविता और कहानी सरीखी रचना..आपके पास भाषा है, जानकारी है और सबसे जरुरी भाव मौजूद हैं, जैसे के अम्मी वाला किस्सा..जैसे के नमक वाली बात...बहुत बढ़िया..हमारी दुया है के आप ऐसे ही आगे बढ़ते रहें..
vandana khanna
सुन्दर यात्रा वृतांत...
जानकारियां और भावों से भरी!!
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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
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- अल्लामा जमील मज़हरी