बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 27 जुलाई 2011

२५ वर्षों से निकाल रहा धोबी हस्तलिखित अख़बार















मुक्तिबोध का मेहतर गौरी शंकर रजक 



गुंजेश दुमका से 






सब जानते हैं कि झारखंड भारत गणराज्य का एक राज्य है। उनमें कुछ जानते होंगे कि दुमका इस राज्य की उपराजधानी है। लेकिन ज़्यादातर लोगों को यह पता नहीं होगा कि दुमका बस स्टेंड से पोखरा चौंक जाने वाली सड़क पर कुछ दूर चलने पर बाईं जानिब एक दुर्गा स्थान है और वहाँ से कुछ फ़र्लांग और आगे बढ़ने पर दाईं तरफ एक सड़क जाती है जिला कारागार के ठीक बगल-बगल से। उस सड़क पर आगे जा कर एक बाईं तरफ डायोग्नोस्टिक भवन है और थोड़ा और आगे जाने पर पोर्स्ट्मार्टम घर।

खैर, शहर के बारे में यह सब जानकारी तो आपको गूगल मैप से भी मिल सकती है। जो जानकारी आपको गूगल मैप से नहीं मिलनी है वह है झारखंड के एक अनोखे खबरची गौरी शंकर रजक के बारे में। ज़रा सोचिए, आपको बताया जाय कि एक ऐसा आदमी है जो हाथों से हर हफ्ते एक अख़बार निकालता है और ऐसा वह पिछले 25 वर्षों से कर रहा है। कि वह मुक्तिबोध का मेहतर है और पेशे से धोबी है। फिर आप निकल पढ़ते हैं उससे मिलने ऊपर वाले रास्ते पर। नीली छतरी टांगें, बनियान पैजमा पहने, कुर्ते को कंधे पर रखे, कई और लोगों कि तरह एक शख्स भी सामने से गुज़र जाता है। आप बताए गए पते बी. आर. लांड्री. पर पहुँचते हैं, पुछते हैं कि क्या यहीं वो रहते हैं जो हाथ से लिख कर हर हफ्ते अखबार निकालते हैं, “ऊ अभिये कोटा निकला है ऊ देखिये तो छाता लेकर जा रहा है न, वही लिखता है” आप पीछे मूढ कर देखते है वही है। वही है !! आप उसके पीछे भागते हैं, चाचा आप ही हैं जो हाथ से लिखकर अख़बार निकालते हैं, चमकदार आँखें आपको देखती हैं, गौरी शंकर रजक की चमकदार आँखें। जेम्स आगस्टस हिक्की की आँखें भी क्या ऐसे ही चमकदार रही होंगी? पहली बात जो गौरी शंकर जी आजकल आपसे कहेंगे वह यह कि 15 अगस्त से वह साप्ताहिक अख़बार का प्रिंटेड एडिशन निकालने वाले हैं।

आप अगर गौरी शंकर जी के साथ किरोसिन तेल लेने के लिए कोटा (जन वितरण प्रणाली, के तहत ज़रूरत के सामान देने वाली दुकान) गए होते तो आपको पता होता कि कोटा बंद रहने के कारण उन्हें तेल नहीं मिला और फिर बाद में यह भी पता चतला कि उन्हें यह पता नहीं कि कोटा कब खुलता है कब बंद हो जाता है।



हमको तो जो कोई नहीं छापता है, आदमी लोग का दुख, समस्या वही हमको दिखता है हम उसी को लिखते हैं।“

कैसे मन हुआ की लिखा जाय?

-       “एक बार एक आदमी के साथ डीसी के पास गए उसको वृद्धा पेंशन दिलाना था, सब के पास जा कर थक गया था बुड़ा आदमी, 86 का बात है, डीसी भी उल्टा जबाब दे दिया। फिर हम पुछे की ऐसा काहे तो डीसी हमसे बोला की तुम कौन है, जाओ कुछ नहीं मिलेगा तभिये लगा की अपना कुछ ताकत होना चाहिए। तब से लिख रहे हैं.....”


  अख़बार आंदोलन हो गया दीन दलित



1986 में आंदोलन नाम से अख़बार शुरू कर वृद्धा पेंशन योग्य उम्मीदवारों के लिए जो आंदोलन शुरू किया वह आज भी जारी है। 1996 गौरी शंकर के लिए खास रहा दिल्ली तक उनके आंदोलन की गूंज पहुंची, और उन्हें राष्ट्रपति के. आर. नारायनन ने सम्मानित किया। तब ही उनके आखबर को पंजीकृत करने की बात भी हुई और आंदोलन का नाम बादल कर दीन दलित हो गया।     

अख़बार का नाम ज़रूर बदला हो पर सरोकार नहीं बदले हैं। दलितों वंचितों के लिए आज भी गौरी शंकर रजक ही एक पत्रकार हैं जो उनकी बात ऊपर तक पहुंचा पाते हैं। “आजकल बीपीएल कार्ड में बड़ी धांधली हो रहा है उसके बारे में लिखना है... उपरे इतना भ्रष्टाचार है की नीचे कर्मचारी लोग को कोई डर ही नहीं है.... ऊपर ठीक करना होगा पैसा गरीब के लिए आता है और अफसर लोग टीवी फ्रिज खरीदता है मेला देखता है” यह है गौरी शकर रजक की मूल चिंता।



65 वर्षीय गौरी 25 वर्षों के इस सफर में अख़बार पर 5लाख 12 हज़ार चार सौ रुपये खर्च कर चुके हैं। इस मई उन्होने जिला अधिकारी के पास अर्जी दी है की खर्चे का कुछ हिस्सा अगर सरकार की तरफ से मिल जाय तो अख़बार की प्रिंटेड एडिशन निकालने में सहायता मिल जाय। शुबू सोरेन के दिवंगत पुत्र दुर्गा सोरेन ने वादा किया था एक प्रेस ही खोलेंगे उनके लिए, पर अब वही नहीं रहे। एक छोटी मोटी लांड्री से अपनी जीविका चलाने वाले गौरी हर माह बारह सौ रुपये अखबार में खर्च करते हैं। उन्होने दलित समाज में चेतना जागृत करने और उन्हें संगठित करने के लिए एक संघ भी बनाया है- निर्धन दलित समाज संघ। 


सामाजिक न्याय पर आधारित और कानून से संबधित किताबों को पढ़ने वाले इस खबरची ने अख़बार के आलवे भी आतंकवाद और परिवार नियोजन जैसे विषयों पर लंबे लेख लिख रखे हैं और उन्हें प्रकाशक की तलाश है। गौरी शंकर जब अखबारों को दिखाते हैं तो भले ही वर्तनी की बेशुमार गलतियाँ आपको खटके पर ज़रा सोचिए जिस आदमी ने पूरे सामाजिक व्याकरण को पलटने का जिम्मा उठाया लिया हो, वह वर्तनी की फिक्र क्यों करेगा भला।

चलते-चलते उनसे पूछ बैठा शुबू सोरेन के बारे में क्या सोचते हैं आप? “बीजेपी के भरोसे है अब तो, पहले अपना दिमाग से काम करता था तो ठीक था, अब जो, जो बोलता है वही करता, इसलिए तो मोल कम हो गया है उसका, दिल्ली से पैसा मांगता है तो उसको मिलता नहीं है, पहले ऐसा नहीं था”।

गौरी शंकर रजक से मुलाक़ात किसी इतिहास से मुलाक़ात नहीं है, वह वर्तमान है, खालिस वर्तमान। गौरी शंकर से मुलाक़ात उस समझ से मुलाक़ात है जिसके तहत पत्रकारिता एक जज़्बा है।






















इस पोस्ट की चर्चा तेताला, कुछ ख़ास  और ब्लाग ख़बरें पर भी







लेखक-परिचय: बिहार-झारखंड के किसी अनाम से गाँव में -09/07/1989 को जन्मे इस टटके पत्रकार [ गुन्जेश कुमार मिश्रा ] ने जमशेदपुर से वाणिज्य में स्नातक कर महात्मा गाँधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से एम. ए. जनसंचार अभी किया हैं. उनसे gunjeshkcc@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
read more...

स्खलित होता समाज -- अपने ही हाथों में

-->












गुन्जेश की कवितायें


 (1)
ज्ञान, शांति, मैत्री
हमारे दौर के
सबसे प्रतिष्ठित शब्द हैं........
इतने प्रतिष्ठित शब्द कि
ये हमें प्रतिष्ठित कर सकते थे!!
थे?
हाँ, थे!!!!!!!
ज्ञान अब --तथ्य है,
शांति     --प्रतिबन्ध
मैत्री    --चाटुकारिता
और हम अपने समय के सबसे बड़े
शोर.........

 (2)

उसके आवाज़ में
भारीपन था,
स्वर में गहराई,
विचारों में स्पष्टता ,
समय ने
आवाज़, स्वर, और विचार को
अगवा कर लिया
बचा रह गया
भारीपन ----व्यक्तित्व  का
गहराई ----संबंधों में
स्पष्टता ---अधिकारों की..........

 (3)

आज लिखी जाएँगी
जम कर कुछ पंक्तियाँ,
पंक्तियाँ प्रेम पगी
बहुत रस भरी पंक्तियाँ,
नहीं.....
कोई इन्कलाब नहीं हुआ......
सिंहासन भी ज्यूँ का त्यूं है ...
भाई, जंग तो अभी शुरू ही नहीं हुई, तुम जीतने की बात करते हो???
फिर भी चूंकि बहुत-बहुत नकारात्मक नहीं  होना चाहिए
इसलिए लिखी जा रही हैं पंक्तियाँ,
दो शब्द आस-पास रखे गए हैं --
जैसे कैमरे के सामने दो जिस्म ......
जिसे देख कर रत है पूरा समय हस्तमैथुन में
लिखी जाएँगी पंक्तियाँ इसलिए कि
स्खलित हो जाये पूरा समाज -- अपने ही हाथों में
कि रजा को अब और प्रजा की ज़रूरत  नहीं.....

-->(4)

एक होती है कविता की भाषा
और एक भाषा
की कविता
ठीक वैसे ही
जैसे
होती है
राजनीति की 'शिक्षा'
और
'
शिक्षा'
की राजनीति ......

***********************************************
परिचय:
बिहार-झारखंड के किसी अनाम से गाँव में -09/07/1989 को जन्मे इस टटके कवि-कथाकार [
--> गुन्जेश कुमार मिश्रा ] ने जमशेदपुर से वाणिज्य में स्नातक किया.सम्प्रति महात्मा गाँधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,  वर्धा में एम. ए. जनसंचार के छात्र हैं.परिकथा में इनकी पहली कहानी प्रकाशित हुई जिसे हमने भी साभार हमज़बान में प्रस्तुत किया था.खबर है कि उसी पत्रिका के ताज़े अंक में उनकी दूसरी कहानी भी शाया हुई है.उन्हें मुबारक बाद!!
कविता के बारे कोई राय देना नहीं चाहता..वो खुद मुखर हैं.यूँ गुन्जेश स्वीकार करते हैं कि जितना समय वह पाठ्य-पुस्तकों को देते हैं,उस से कम साहित्यिक पुस्तकों को नहीं देते!उनका विश्वास है : संसार में जो भी बड़ा से बड़ा बदलाव हुआ है, उसके पीछे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गंभीर लेखन की भूमिका अवश्य रही है. ..माडरेटर
 


read more...

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

आतंक के विरुद्ध जिहाद!
















देश के लिए कुर्बान मुजाहिदीनों को सलाम!
पाठक चौंक रहे होंगे । मैं क्या बेवकूफाना हरकत कर रहा हूँ.सच मानिए देश में हुई अब तक की तमाम आतंकी घटनाओं में  उनसे जूझते हुए,  लड़ते हुए जामे-शहादत पी जानेवाले वो तमाम जांबाज़ मुल्क के सिपाही, अफसर और आम नागरिक ही मेरी नज़र में सबसे बड़े मुजाहिदीन हैं।
मुजाहिदीन अर्थात जिहद, प्रतिकार, संघर्ष करनेवाला
ऐसा संघर्ष जो आतंक, अन्याय,असत्य,ज़ुल्म और अत्यचार के विरुद्ध हो। ऐसे मकसद के लिए जद्दोजिहद जिसका ईमान इंसान की जान बचाना और ज़मीन पर अमनो-अमन कायम करना हो।
अबुलकलाम आजाद, भगत सिंह, अशफाक, रामप्रसाद, विद्यार्थी,नेहरू, सुभाष जैसे अनगिनत लोग हुए जिन्होंने अंग्रेजों से मुल्क को आज़ादी दिलाने के लिए जिहाद किया.और आज इतिहास उन्हें मुजाहिदे-आज़ादी कहता है।


२३/११ को भी  मुंबई में शहीद हमारे देशवासियों ने विदेशियों की नापाक साजिश से मुक्त कराने के लिए जिहद किया और शहीद तो हुए लेकिन उन्हों ने ये विश्व को दिखा दिया की तिरंगा झुकनेवाला नहीं है।इस १३ को जो हुआ.जिसने भी किया.हर ओर से घोर भर्त्सनाएँ हो रही हैं. केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि धमाकों के लिए फ़िलहाल किसी एक गुट को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता.लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि अम्रीका और पाकिस्तान पोषित मानसिकताएं बेहद चतुराई के साथ आम भारतीय युवाओं को बरगला कर उनसे धर्म और मज़हब के नाम पर ऐसे खूनी कारनामे करवा रही हैं.

लेकिन समूची इंसानियत को बंदूक की नोक पर नचाने का सपना देखने वाले इस्लाम समेत किसी भी धर्म-सभ्यता में मुजाहिदीन नहीं कहे जा सकते।

वे आतंकवादी हैं, उग्रवादी हैं, दहशतगर्द हैं।
उन्होंने कठोर से कठोर सज़ा मिलनी चाहिए।
उन्हें मज़हब और धर्म का इस्तेमाल करने की इजाज़त किसी भी कीमत पर नहीं मिलनी चाहिए.इस्लाम ऐसे दहशतगर्दों के लिए कठोरतम सज़ा की हिमायत करता है.मुस्लिम परिवार में जन्म लेने के कारण इस्लाम की थोड़ी-बहुत जो समझ, और संस्कार ने जो तमीज दी है , उसके आधार पर मैं सबसे पहले मुसलामानों से अपील करता हूँ की आप आगे आयें और इस्लाम को बदनाम करनेवाले इन दहशतगर्दों के विरुद्ध जिहाद करें.अपने सभी संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए, पूरी शक्ती के साथ आतंकवादियों का मुकाबला कीजिये,आतंकवाद की कमर तोड़ दीजिये.आपके प्यारे नबी की हदीस है ; वतनपरस्ती ॥ अपने वतन की तरफ़ बुरी नज़र से देखने की कोई हिमाक़त करे तो उसकी आँख फोड़ दीजिये।

जिहाद वो नहीं जैसा नाम-निहादी कर रहे हैं बल्कि उनके ख़िलाफ़ खड़े होना जिहाद है।
इस्लाम में जिहाद
बे-ईमानी के विरुद्ध ईमानदारी के लिए संघर्ष।
असत्य के विरुद्ध सत्य के लिए संघर्ष।
अत्याचार, ज़ुल्म, खून-खराबा और अन्याय के विरुद्ध सद्भाव, प्रेम, अमन और न्याय के लिए संघर्ष।
अब कुरान क्या कहती है:
...जो तुम पर हाथ उठाए , तुम भी उसी तरह उस पर हाथ उठा सकते हो,अलबत्ता ईश्वर से डरते रहो और यह जान रखो कि ईश्वर उन्हीं लोगों के साथ ही जो उसकी सीमाओं के उलंघन से बचते हैं।
२:१९४
....उन लोगों से लड़ो,जो तुमसे लड़ते हैं, परन्तु ज्यादती न करो।अल्लाह ज्यादती करने वालों को पसंद नहीं करता.
२:१९०
....और यदि तुम बदला लो तो बस उतना ही ले लो जितनी तुम पर ज्यादती की गयी हो. किन्तु यदि तुम सबर से काम लो तो निश्चय ही धैर्य वालों के लिए यह अधीक अच्छा है।
१६:२६
शान्ति, सलामती इस्लाम की पहचान रही है.जभी आप एक-दूसरे से मिलने पर अस्सलाम अल्लैकुम यानी इश्वर की आप पर सलामती हो , कहते हैं.आप कुरान की ये आयत जानते ही हैं:
जिसने किसी की जान बचाई उसने मानो सभी इंसानों को जीवनदान दिया।
५:३२


मुंबई के हादसे पर इंसानियत आपसे सवाल करती है.यूँ देश के तमाम मुस्लिम संस्थाओं, इमामों और उल्माओं ने घटना की कठोर निंदा के साथ दोषियों को सख्त से सख्त सज़ा की मांग की है.समय-समय पर एक मुस्लिम संघठन आतंकवाद-विरोधी जलसा वर्ष-भर से जगह-जगह आयोजित करता रहा है.किसी संगठन ने कभी अमन-मार्च भी निकालाथा .लेकिन महज़ निंदा और जलसे जुलुस से अब कुछ नहीं होने वाला अब ज़रूरत खुलकर आतंकवादियों का मुकाबला करने की है.पास-पड़ोस में पनप रही ऐसी किसी भी तरह की मानसिकता को ख़त्म करने की.सरकार और पुलिस को सहयोग करने की.संसार के सामने प्रमुख चुनौतियों में से एक है आतंकवाद!जिसका समूल नाश बेहद ज़रूरी है॥ वसुधैव कुटुंब बकम .ये हमारी विरासत है।
और पगैम्बर मुहम्मद की ये हदीस हमारा ईमान :
सम्पूर्ण स्रष्टि इश्वर का परिवार है.अतःइश्वर को सबसे प्रिय वो है जो उसके परिवार के साथ अच्छा व्यव्हार करे।


भाई आवेश ने इसे नेटवर्क 6 पर भी पेस्ट किया है.यहाँ भी पढ़ सकते हैं.
read more...

शनिवार, 9 जुलाई 2011

मैन ऑफ इटर अब बन गया शिवभक्त


हस्तरेखाएं देख अब दूसरे का भविष्य बांच रहे हैं मनातू  मौआर
सतर के  दशक  में बोलती थी तूती
आदमखोर के नाम से कुख्यात इस सामंत पर लगे थे बंधुआ मजदूरी कराने के आरोप
गांववालों पर लगाए कर और जुर्माने
जमीन हड़प कर खड़ा किया था साम्राज्य



सैयद शहरोज कमर, मनातू से लौटकर

कलाइयों पर रुद्राक्ष का कलेवा, गले में दमकती अनगिनत मालाएं। लेकिन  कल के आदमखोर सामंत कहे जाने वाले मनातू मौआर जगदीश्वर जीत सिंह की पहचान अब शिवशिष्य संप्रदाय के एक  कट्टर भक्त की ही नहीं है, उन्होंने समय के  अनुकूल खुद को पूरी तरह ढाल लिया है। उनसे मिलकर दहशत नहीं, सहानुभूति हो सकती है। शालीनता और विनयशीलता के उनके नए लबादे ने इतिहास में उनके नाम दर्ज तमाम कू्ररताओं को ढंकने की सफलतम कोशिशें की हैं। जब हम पहुंचे तो मौआर अपने ढहते साम्राज्य की देहरी पर किसी शहरी व्यक्ति की रेखाओं को देखकर उसका भविष्य बता रहे थे। सवाल मौजूं हो सकता है कि  क्या उन्होंने अपनी रेखाओं की पहचान भी कर ली थी।

मेन इटर ऑफ मनातू । आप को कहा गया। इस नाम की फिल्म भी बन गई। हम सीधे सवाल पर आते हैं। सारी फितूर में राजनीति है। और मैं तब भी इसे गंदी चीज मानता था। हुआ यूं कि  सत्येंद्रनारायण सिंह उर्फ छोटे साहब मुझसे बहुत स्नेह रखते थे। वहीं उनके और भीष्मनारायण सिंह के बीच छत्तीस के रिश्ते थे। छोट साहब से पारिवारिक  संबंध रहे हैं। भीष्मनारायण सिंह ने मुझे बुलाकर कहा, पलामू में रहे का तो हमरे साथ आप को रहना चाहिए। छोटे साब का साथ छोड़ दीजिए। हमने कहा, हम उनका साथ नहीं छोड़ सकते, तो उन्होंने कहा कि  फिर भोगिया। उनका कहा न मानने की सजा हम आज तक  भोग रहे हैं।

मतलब? मौआर कहते हैं, भीष्मनारायण सिंह ने तभी से मेरे विरुद्ध दुष्प्रचार कराना शुरू कर दिया। सन 72 के किसी महीने  सबसे पहले मुजफ्फरपुर के एक  अखबार शानदार ने मुझे आदमखोर कहा। बताइये भला क्या अगर ऐसा होता तो मेरे घर के लोग जिंदा बच जाते ! इस शानदार करतूत के बाद तो मीडिया में सबसे अधिक  बिकाउ चीज मैं हो गया। अनगिनत पत्र और पत्रकारों ने मुझ पर रोज नए इलजाम लगाए। और गालियां देनी आरंभ कर दी। लेिकन मुझसे मिलने कोई नहीं आया। पी साइंनाथ, फिर एक  दिल्ली के बाद आप तीसरे पत्रकार हैं जो मुझसे मिलने आया।

मानहानि का दावा क्यों नहीं
किया।  इसलिए मुकदमा नहीं किया िक  उन्हें बेवजह शोहरत मिलती। लिखते लिखते एक  दिन लोग खुद थक  जाएंगे।

आप पर कई मुकदमे थे। हां सही है। लेकिन मैंने सभी जीते। (कहा जाता है कि उनके आतंक  के कारण उनके खिलाफ कोई गवाह ही नहीं मिला)।

उर्दू की नफासत और अंगे्रजी के एटिकेट पर कहा, मैं कभी स्कूल नहीं गया। पहली बार डाल्टेनगंज के ग्रेवर स्कूल में दाखिला हुआ। वहां के टीचर सफदर अली की पिटाई के बाद दोबारा स्कूल गया ही नहीं। यहां से 14 15 किलोमीटर पर खानों की बस्ती है कोठी। वहां के लोगों का घर पर अक्सर आना जाना रहता। घर पर पचास फीसदी स्टाफ मुस्लिम ही थे। उनकी सोहबत में उर्दू आ गई। वहीं अंग्रेजों के कारण अंग्रेजी के साथ उनका अनुशासन सीख गया।

ढहती दीवारों के बीच कैसा लगता है। अच्छा तो नहीं लगता। देख ही रहे हैं। नौ सौ साल पहले अकबर ने हमारे पूर्वजों को यहां की जमींदारी दी थी। सात आँगन वाला यह घर एक माघ 1127 ई को बना। (वह अपने लकड़ी के बुलंद दरवाजे पर कैथी में लिखी इबारत दिखाते हैं)। आगे का हिस्सा दादा प्रयागजीत सिंह रायबहादुर ने 1946 में बनवाया। आंगन तो रहा ही नहीं, दीवारें और छतें भी ढह रही है। लेिकन इसकी मरम्मत कराना बूते में नहीं। दरवाजे पर रहते थे 2 चीते, 2 हाथी और 14 घोड़े । चीता 82 में मर गया। धीरे धीरे हाथी घोड़े भी गए। पहले की दो विदेशी कार अब बदरंग और बेकार हो गई है । अब जमींदारी भी नहीं रही। महज 350 एकड़ जमीन बची है। उसमें भी अकाल सूखे की मार।

आपका तो इलाका था। कल की बात है। जंगल भी था। लेकिन  82 के आसपास नक्सलियों ने तंग किया। लोगों ने खेतों पर कब्जा कर लिया। सरकार ने जंगल ले लिया। (कहा जाता है कि इस परिवार ने जबरन जवार की जमीनों पर कब्जा कर लिया था। विरोधियों को अपने पालतू बाघ के आगे भी फेंक  दिया करते थे मौआर ।)

लेकिन अब बहुत पहले धार्मिक किताबें ढूंढते हुए शिवपुराण पर नजर पड़ी। पढ़ डाला। तभी से शिवभक्त हो गया। शिव ही गुरु हैं, भगवान भी मेरे। उन्होंने ही मुझे संकटों से उबारा। सात बेटे जब एक  के बाद एक बड़े होने लगे तो उन्होंने व्यवसाय करना शुरू किया तो घर की स्थिति सुधरी। वरना अकाल के इस इलाके में हम जिंदा नहीं बचते।

अस्सी की उम्र में चाक  चौबंदी
की वजह यह है कि  मैंने कभी शराब नहीं पी। न ही बीड़ी तंबाकू। हां मांसाहारी हूं। हार्ट, शुगर और ब्लडप्रेशर का मरीज हूं। लकवा भी मार चुका है। लेकिन जड़ी बूटी और शिव की कृपा काम आती है।

गंगा जमुनी तहजीब
खानदानी रही है। इस इलाके में बोउराशरीफ में लेटे हुए दाता अमीर अली शाह और मंगतूशाह, जिनकी मजार मनातू में है, हमारे घर पर ही जिंदगी भर रहे। वफात से पहले उन्होंने वसीयत की थी कि  उनकी मजार पर पहली चादर मेरे घर से ही जाए। यह परंपरा आज तक  निभाई जा रही है। अमीर शाह की तलवार भी हमारे पास आज तक  सुरक्षित है।

नक्सलियों से घिरे रहने
के बावजूद कल के इस खूंख्वार सामंत की ठसक  में बल तो पड़े हैं, पर उसके आभामंडल में कमी नहीं आई है। आज भी लोग उनके चरणस्पर्श करते हैं। उनके खिलाफ खुलक र बोलने से कतराते हैं। है न चकित करने वाली बात!

भास्कर के लिए 
मई  की अंतिम किसी तारीख को लिखा गया था


read more...

बुधवार, 6 जुलाई 2011

बिलकुल एक-सी होती हैं लड़कियाँ

 


 

 

 

 

 

 

 

संध्या नवोदिता की क़लम से चार कविताएँ 

जिस्म ही नहीं हूँ मैं

जिस्म ही नहीं हूँ मैं
कि पिघल जाऊँ
तुम्हारी वासना की आग में
क्षणिक उत्तेजना के लाल डोरे
नहीं तैरते मेरी आँखों में
काव्यात्मक दग्धता ही नहीं मचलती
हर वक़्त मेरे होंठों पर
बल्कि मेरे समय की सबसे मज़बूत माँग रहती है
मैं भी वाहक हूँ
उसी संघर्षमयी परम्परा की
जो रचती है इंसानियत की बुनियाद
मुझमें तलाश मत करो
एक आदर्श पत्नी
एक शरीर- बिस्तर के लिए
एक मशीन-वंशवृद्धि के लिए
एक गुलाम- परिवार के लिए

मैं तुम्हारी साथी हूँ
हर मोर्चे पर तुम्हारी संगिनी
शरीर के स्तर से उठकर
वैचारिक भूमि पर एक हों हम
हमारे बीच का मुद्दा हमारा स्पर्श ही नहीं
समाज पर बहस भी होगी
मैं कद्र करती हूँ संघर्ष में
तुम्हारी भागीदारी की
दुनिया के चंद ठेकेदारों को
बनाने वाली व्यवस्था की विद्रोही हूँ मैं
नारीत्व की बंदिशों का
क़ैदी नहीं व्यक्तित्व मेरा
इसीलिए मेरे दोस्त
खरी नहीं उतरती मैं
इन सामाजिक परिभाषाओं में

मैं आवाज़ हूँ- पीड़कों के ख़िलाफ़
मैंने पकड़ा है तुम्हारा हाथ
कि और अधिक मज़बूत हों हम
आँखें भावुक प्रेम ही नहीं दर्शातीं
शोषण के विरुद्ध जंग की चिंगारियाँ
भी बरसाती हैं
होंठ प्रेमिका को चूमते ही नहीं
क्रान्ति गीत भी गाते हैं
युद्ध का बिगुल भी बजाते हैं
बाँहों में आलिंगन ही नहीं होता
दुश्मनों की हड्डियाँ भी चरमराती हैं
सीने में प्रेम का उफ़ान ही नहीं
विद्रोह का तूफ़ान भी उठता है

आओ हम लड़ें एक साथ
अपने दुश्मनों से
कि आगे से कभी लड़ाई न हो
एक साथ बढ़ें अपनी मंज़िल की ओर
जिस्म की शक्ल में नहीं
विचारधारा बनकर ! 


औरतें -1


कहाँ हैं औरतें ?
ज़िन्दगी को  रेशा-रेशा उधेड़ती
वक्त की चमकीली सलाइयों  में
अपने ख्वाबों के फंदे डालती
घायल उंगलियों को  तेज़ी से चला रही हैं औरतें

एक रात में समूचा युग पार करतीं
हाँफती हैं वे
लाल तारे से लेती हैं थोड़ी-सी ऊर्जा  
फिर एक युग की यात्रा के लिए
तैयार हो  रही हैं औरतें

अपने दुखों  की मोटी नकाब को
तीखी निगाहों से भेदती
वे हैं कुलांचे मारने की फिराक में
ओह, सूर्य किरनों को  पकड़ रही हैं औरतें





औरतें 2


औरतों ने अपने तन का
सारा नमक और रक्त
इकट्ठा किया अपनी आँखों में

और हर दुख को  दिया
उसमें हिस्सा

हज़ारों सालों में बनाया एक मृत सागर
आँसुओं ने कतरा-कतरा जुड़कर
कुछ नहीं डूबा जिसमें
औरत के सपनों और उम्मीदों
के सिवाय

लड़कियाँ


लड़कियाँ
बिलकुल एक-सी होती हैं
एक-से होते हैं उनके आँसू
एक-सी होती हैं उनकी हिचकियाँ
और
एक-से होते हैं उनके दुखों के पहाड़

एक-सी इच्छाएँ
एक-सी चाहतें
एक-सी उमंगें
और एक-सी वीरानियाँ ज़िन्दगी की

सपनों में वे तैरती हैं अंतरिक्ष में
गोते लगाती हैं समुद्र में
लहरों सी उछलती-मचलती
हँसी से झाग-झाग भर जाती हैं वे

सपनों का राजकुमार
आता है घोड़े पर सवार
और पटक देता है उन्हें संवेदना रहित
बीहड़ इलाके में

सकते में आ जाती हैं लड़कियाँ
अवाक् रह जाती हैं

अविश्वास में धार-धार फूटती हैं
बिलखती हैं


सँभलती हैं,
फिर लड़ती हैं लड़कियाँ

और यों थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ती हैं
ज़िन्दगी की डोर
अपने हाथ में थामने की कोशिश करती हैं


 







(जन्म: 12 सितंबर 1976, बरेली, उत्तरप्रदेश में
सृजन :सहारा समय, हंस, इतिहास बोध, विज्ञान प्रगति, सांस्कृतिक समुच्चय, दस्तक, दैनिक जागरण, अमर उजाला और आज आदि में कवितायें, लेख, समीक्षा, फ़ीचर एवं रिपोर्ट प्रकाशित

कृति: जिसे तुम देह से नहीं सुन सकते (कविता-संग्रह)
फिलहाल:  स्वतंत्र पत्रकार एवं एक्टिविस्ट संपर्क: इलाहाबाद , navodita @gmail .com
ब्लॉग : SECOND OPINION )
read more...

सोमवार, 4 जुलाई 2011

किसका कसूर है कि कैसा निज़ाम ए दस्तूर है .संदर्भ फारबिसगंज

क्या बिहार में मुसलमान होना गुनाह है ??????
























संदीप मौर्य की क़लम से
आज के बदलते दौर में यह सवाल संभवतः कई सवालों को जन्म देता है। मसलन क्या भारत वाकई में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र नहीं है? अथवा क्या भारत के मुसलमानों को जीने का अधिकार नहीं है? अथवा क्या भारत के मुसलमानों को अभी भी कुर्बानियां देनी होगी, यह साबित काने के लिये कि वे भी इसी माटी के सपूत हैं? जाहिर तौर इस सवाल का कोई मतलब नहीं होता अगर भारत में गुजरात नहीं होता या फ़िर गुजरात में नरेंद्र मोदी जैसा शासक नहीं होता। लेकिन दुर्भाग्य कहिये कि अब ये सवाल हमारे बिहार में भी उठने लगे हैं। यह सवाल उठा है उस व्यक्ति के शासनकाल में जो स्वयं को बिहार का सबसे काबिल मुख्यमंत्री बताते फ़िरते हैं और फ़िर बिहार की गरीब जनता के पैसे को विज्ञापन के रुप में बांटकर पालिटिशियन आफ़ द इयर का अवार्ड लेना इनका शौक बन चुका है।
जी हां, हम बात कर रहे हैं, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की। इनकी बात हम बाद में करेंगे। सबसे पहले हम बात करेंगे उपर तस्वीर में दिख रहे चेहरों की। इन सभी लोगों का गुनाह यह है कि ये सभी बिहार के अररिया जिले के फ़ारबिसगंज के निवासी हैं। इनमें से एक अब इस दूनिया में नहीं है। लेकिन 3 जून तक वह बिहार का वासी था। उसके साथ कुछ और लोगों ने इस दूनिया को अलविदा कहा। यह उनके जाने का समय नहीं था। मरने वाले सभी की उम्र 35 वर्ष से कम ही रही होगी। इनमें से एक की उम्र तो केवल 7 महीने की थी। उसका नाम नौशाद था। उसकी मां उसे अपने गोद में छिपाये सुरक्षित स्थान की ओर भाग रही थी। पुलिस ने सामने से उस पर गोली चलाया और गोली नौशाद को लगी। 7 महीने का नौशाद खुशनसीब था कि उसकी मौत मां की गोद में हो गई। नौशाद की मां अपने लाल को मरा देख दहाड़े मारकर रोने लगी। पुलिस को फ़िर भी रहम नहीं आई। उसने नौशाद की मां पर भी गोली चलाई। गोली उसके जांघ में लगी और वह गिर पड़ी। एक तरफ़ नौशाद की लाश पड़ी थी, तो दूसरी ओर उसकी मां गोली लगने की वजह से बेसुध पड़ी थी।
कुछ दूरी पर एक और लाश पड़ी थी। वह लाश थी मुस्तफ़ा की। मुस्तफ़ा 18 वर्ष का नौजवान था। वह फ़ारबिसगंज में ही कर्बला के पास पान की दूकान चलाया करता था। उसके पिता फ़ुलकान अंसारी ने बताया कि उनका बेटा बाजार से सामान लेकर लौट रहा था। इसी बीच वह पुलिस की गोली का शिकार हो गया। 18 साल के नौजवान मुस्तफ़ा को पुलिस ने 4 गोलियां मारी थी। लेकिन वह मरा नहीं था। उसके शरीर में जान बाकी थी। एक पुलिस वाला उसके शरीर पर कूद रहा था और उसे अपने बूट से मारे जा रहा था। मुस्तफ़ा मरा तो नहीं, लेकिन उसके शरीर में प्रतिरोध की शक्ति नहीं थी। वह पुलिस वाला उस बेजान पर अपनी मर्दानगी दिखा रहा था। बाद में पुलिस ने उसे मरा हुआ जानकर पोस्टमार्टम के लिये भेज दिया। पोस्टमार्टम के दौरान डाक्टरों ने उसे जीवित पाया। डाक्टरों ने उसे तत्काल ही इलाज के लिये भेज दिया और उसे तत्काल ही आक्सीजन लगाया गया। लेकिन तबतक बहुत देर हो चुकी थी और इस बार वह हमेशा-हमेशा के लिये मर चुका था।
एक महिला भी सुशासक नीतीश कुमार के राज में पुलिस की गोली का शिकार हुई। वह भी फ़ारबिसगंज के भजनपुर गांव की ही रहने वाली थी। उसका पति उसी निर्माणाधीन फ़ैक्ट्री में काम करता था, जिस फ़ैक्ट्री के संचालकों के दबाव पर बिहार पुलिस ने लोगों पर कहर बरपाया। वह गर्भवती थी। उसके पेट में 6 माह का बच्चा था। वह बाजार में एक मैटरनिटी सेंटर से अपना चेक अप कराकर घर लौट रही थी। लेकिन वह घर नहीं पहुंच सकी। इसकी वजह रही कि वह घर पहुंचने से पहले ही परलोक सिधार चुकी थी। उस गर्भवती महिला और उसके अजन्मे बच्चे को भी नीतीश कुमार की पुलिस ने गोली से मार दिया। जरा सोचिये कि आखिर उस महिला ने बिहार के मुखिया अथवा सत्ता में बैठे लोगों अथवा उस कंपनी के मालिकों का कौन सा हक छीनने का प्रयास किया कि पुलिस ने उसे एक नहीं 6 गोलियां मारी।
जाहिर तौर पर इन सवालों का जवाब बिहार सरकार के पास नहीं है। बिहार सरकार की गद्दी पर जो महानुभाव बैठे हैं, उनका एक ही एजेंडा है। गरीबों को मारो, उद्यमियों को खुश रखो। विकास के इसी फ़ार्मूले को नीतीश कुमार न्याय के साथ विकास कहते हैं।
खैर, उस घटना, घटना के कारणों और घटना को अंजाम देने वाले लोगों के बारे में बता दें कि आखिर क्यों और किसने भजनपुर गांव के लोगों के घर में लाशों का ढेर लगा दिया। बदलता बिहार का एक बदलता हुआ जिला है अररिया जिला। इस जिले को सरकार ने दो हिस्सों में बांट रखा है। एक हिस्सा खास अररिया के नाम से जाना जाता है तो दूसरे हिस्से को लोग फ़ारबिसगंज के नाम से जानते हैं। वह वही फ़ारबिसगंज है, जहां कभी मैला आंचल के जनक फ़णीश्वरनाथ रेणु का जन्म हुआ था। इसी फ़ारबिसगंज में एक गांव है भजनपुर गांव और इसके बगल में एक और गांव है रामपुर। नाम से लगता है कि ये दोनों गांव हिन्दूओं के गांव होंगे। लेकिन भारतीय धर्मनिरपेक्षता का अधूरा प्रमाण कि इन दोनों गांवों के अधिकांश वाशिंदे मुसलमान हैं।

दरअसल यह जमीन जिसके नाम पर बिहार सरकार ने आवंटित किया है, वह भाजपा विधानपार्षद अशोक अग्रवाल का बेटा है। यह वही अशोक अग्रवाल हैं जिनपर हत्या करने का एक मामला हाईकोर्ट में चल रहा है और इनके उपर स्मगलिंग करने का आरोप भी लग चुका है। जब स्थानीय प्रशासन आम नागरिकों को समझाने में असफ़ल रही तो उसने 2 जून को ही ग्रामीणों के साथ लिखिज समझौता किया। लिखित समझौते के हिसाब से कंपनी को पहले गांव में आने-जाने के लिये रास्ता बनवाने का वायदा किया गया। लेकिन 3 जून को दोपहर में पुलिस वालों की मौजूदगी में कंपनी वालों ने भजनपुर गांव के लोगों के लाइफ़लाइन पर दीवार खरी कर दी। फ़िर क्या था, यह खबर इलाके में जंगल की आग की तरह फ़ैल गई। लोग जूटने लगे। गांव वाले दीवार हटाने की मांग कर रहे थे। लेकिन जब प्रशासन की ओर से बातचीत के लिये कोई पहल नहीं की गई तब ग्रामीणों का आक्रोश बढने लगा। इस बीच ग्रामीणों ने कंपनी प्रबंधकों द्वारा बनाये गये नवनिर्मित दीवार को ढाह दिया। इस घटना से आपा खोते हुए स्थानीय आरक्षी अधीक्षक ने फ़ायरिंग करने का आदेश दे दिया। फ़िर जो कुछ हुआ, उस पर अफ़सोस ही जताया जा सकता है।
खैर, अब इस घटना को बीते एक सप्ताह हो चुका है और अभी तक मृतकों के परिजनों और घायलों को मुआवजा नहीं दी गई है। इस पर तुर्रा यह कि राज्य का सुशासक यह दलील दे रहा है कि सभी को मुआवजा न्यायिक जांच के बाद दी जायेगी। यानि पहले पूरे घटना की जांच की जायेगी और फ़िर मुआवजे की राशि तय की जायेगी।
वैसे इस संबंध में मेररी निजी राय है कि बिहार सरकार को इस घटना के लिये जिम्मेवार लोगों को कोई मुआवजा नहीं देना चाहिये। सबसे पहले तो मुआवजा उस कंपनी के प्रबंधकों को मिलनी चाहिये, जिसे इतना नुकसान हुआ। गरीब ग्रामीणों का क्या है, उन्हें मुआवजा देने से क्या लाभ? वैसे भी गलती उनकी है कि उन्होंने सच के लिये अपनी कुर्बानी दी और आज की तारीख में ऐसे लोगों को शहीद कहा जाता है। शहीदों की शहादत की कोई कीमत नहीं होती है। शहीदों की शहादत कभी बेकार नहीं जाती। संभव है कि लाशों के ढेर पर बिहार में खड़ा होने वाले उद्योगों से बिहार की गरीबी दूर हो। हालांकि एक सवाल यह भी क्या वाकई इस राज्य में मुसलमान होना कोई पाप है। जरा सोचिये कि अगर भजनपुर और रामपुर गांव के लोग मुसलमान के बजाय हिन्दू होते तो क्या भाजपाई उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी अपने दल के क्रिमिनल विधान पार्षद अशोक अग्रवाल के पक्ष में बिहार की भलमानस पुलिस को ग्रामीणों पर फ़ायरिंग करवाते। इसका सीधा जवाब है- नहीं। इसका एक प्रमाण यह कि जब उत्तरप्रदेश के नोयडा के एक गांव में जमीन अधिग्रहण को लेकर हिंसा हुई तो भाजपा के सभी बड़े नेताओं सहित सुशील मोदी ने भी उत्तप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की आलोचना की थी। बहरहाल, हम तो आप सभी से इसी सवाल का जवाब जानना चाहते हैं-
फेस बुक से साभार




(लेखक-परिचय: जन्म:अरवल बिहार में, २२ दिसंबर १९८८
शिक्षा: पत्रकारिता और जन संचार में उपाधि
सम्प्रति :महिंद्रा-महिंद्रा में जनसंपर्क अधिकारी ,पटना  )


read more...
(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)