बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

झारखंड बनने के बाद 3 लाख बेटियों का पलायन


रांची। दस वर्षीया गुरबारी और 16 वर्षीया देवंती उन 10 सौभाग्यशाली झारखंडी बेटियों में से हैं, जिन्हें दिल्ली से छुड़ाकर 14 अप्रैल को रांची ले आया गया। लेकिन राजधानी से लगे प्रखंड चान्हो की 72 बेटियों की किस्मत ऐसी नहीं।

वे आज भी दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में दो जून की रोटी के लिए यातना भरी जिंदगी जीने को बेबस हैं। अगर एक स्वयंसेवी संस्था की खोज को सही माना जाए, तो पिछले एक दशक में तीन लाख से अधिक बेटियों का यहां से पलायन हुआ। इनमें आदिवासी लड़कियों की संख्या ज्यादा है। किसी दूसरे के घर का चौका-बर्तन कर परिवार का भरण-पोषण करने हर साल 30 से 35 हजार बेटियां यहां से बाहर जा रही हैं। इनमें से ज्यादातर शारीरिक और मानसिक शोषण का शिकार होती हैं।

इस तरह जाने और वहां रहने के दौरान यह किन अंध गुफाओं से गुजरती हैं, उनकी दर्द भरी आवाज सुनने वाला कोई नहीं है। दस फीसदी बेटियों के बारे कुछ अता-पता नहीं कि वे जिंदा भी हैं या मर गईं। हैं भी तो कहां और किस हाल में हैं। सिमडेगा से लगे गांव कोनमिंजरा की 16 लड़कियां दस साल पहले घर से गईं। उनमें से छह वापस तो आ गईं, लेकिन दस का आज तक कोई पता नहीं।

क्या किया सरकार ने

एटसेक के साथ समाज कल्याण विभाग ने बाहर गई बेटियों को झारखंड लाने के प्रयास तेज भले किए हैं, लेकिन सच तो यह है कि सरकार ने कभी इन बेटियों के दर्द को गंभीरता से नहीं लिया। उन्हें चाहे बाहर से लाने का सवाल हो या उनके स्वरोजगार की पहल। सरकार ने इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की। बड़े शहरों से छुड़ाकर लाई गई बेटियों को स्वरोजगार देने के लिए 2001 में एक योजना बनी थी, लेकिन योजना आज तक जमीन पर नहीं उतर पाई। इनके पुनर्वास के लिए भी सरकार के पास कोई योजना नहीं है।

जो आप जानना चाहते हैं

झारखंड छोड़नेवाली 35 हजार बेटियों में से नौ फीसदी दलालों के बहकावे में आकर, तीन फीसदी घर के दबाव में आकर, 37 फीसदी सहेली और संगियों के साथ और बाकी 51 प्रतिशत परिवार के ही किसी सदस्य के साथ परदेस चली जाती हैं।

20 साल से कम उम्र की 67 प्रतिशत

ज्यादातर कम उम्र की बेटियां झारखंड से बाहर जाई या ले जाई जा रही हैं। पलायन करनेवालों में 20 साल से कम उम्र की लड़कियों का प्रतिशत 67 है। इसके बाद 15 फीसदी 20 से 25 और 18 प्रतिशत 25 से अधिक आयु की बेटियां बाहर जा रही हैं।

कहां-कहां से सर्वाधिक पलायन

पाकुड़, साहेबगंज, सिमडेगा, गुमला, रांची, गिरिडीह, लोहरदगा, दुमका और गोड्डा ऐसे आदिवासी बहुल क्षेत्र हैं, जहां से सबसे अधिक लड़कियां बाहर जाती हैं या भेज दी जाती हैं।
कहां-कहां जाती हैं बहकावे में या स्वेच्छा से झारखंड से बाहर जानेवाली बेटियों का केंद्र देश की राजधानी दिल्ली है। इसके अलावा मुंबई, कोलकाता, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा इनको ले जाया जाता है।


इनका कहना 



झारखंड की  बेटियां बाहर न जाएं, उनके  रोजगार के  लिए प्रयास किये  जा रहे हैं। साथ ही हमें यह तय करना होगा की  हम किसी के  ·बहकावे  में न आएं। पुलिस ·की चाक चौबंदी भी जरूरी है।



श्रीमती विमला प्रधान, समाज ·ल्याण मंत्री


रोज़गार की तलाश में झारखण्ड की बेटियाँ बहार न जाएँ. ऐसी व्यवस्था हो की उन्हें यहीं रोज़गार मिल जाए, ताकि वो बहार न जा सकें.बहार से आयी लड़कियों के पुनर्वास की व्यवस्था आयोग करेगा.
हेमलता एस मोहन, अध्यक्ष, महिला आयोग



झारखंड ·की  बेटियां अपने प्रांत से पलायन न   करें, इसके  लिए समाज कल्याण  विभाग के  साथ मिलकर एटसेक  उनके  लिए रोजगारोन्मुख ट्रेनिंग जैसे सिक्योरटी गार्ड, हाउस कीपिंग आदि देने पर विचार कर रही है।



संजय मिश्र, राज्य समन्वय·, एटसेक ·


आजादी ·के  60 साल बाद भी आदिवासी लडकियां  शिक्षा से वंचित हैं। राज्य में गरीबी के कारण उनके  माता-पिता बेटियों को  बाहर भेजने को  विवश हो रहे हंैं।



लक्खीदास, संयोज· कम्पेन फॉर राइट टू एजुकेशन इन झारखंड
 


 भास्कर के लिए लिखा गया   



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1 comments: on "झारखंड बनने के बाद 3 लाख बेटियों का पलायन"

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति।

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