बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

रविवार, 16 जनवरी 2011

भगवानपुर में मुसलमान अल्लापुर में हिंदू

शाहनवाज मलिक  की क़लम से  
उत्तर प्रदेश स्थित सिद्धार्थनगर जिले के दो गांव अल्लापुर और भगवानपुर देश के अन्य गांवों की तरह होते हुए भी एक खास पहचान रखते हैं। अल्लापुर की लगभग पूरी आबादी हिंदू है, वहीं भगवानपुर में 90 फीसदी मुसलमान परिवार हैं। इन गांवों के सिर्फ नाम ही नहीं, निवासियों के रीति-रिवाज, विचार और काम भी सांप्रदायिक सद्भाव की अद्भुत मिसाल हैं।

भगवानपुर की करीब डेढ़ हजार की आबादी में महज 30 घर हिंदुओं के हैं। इन घरों में दिवाली के दिन दीपक जलते हैं और नवरात्रि में दुर्गा की पूजा पूरे विधान से होती है, लेकिन अगर इनके यहां किसी की मौत हो जाए, तो शव के अग्नि संस्कार की बजाय उसे दफनाया जाता है। भगवानपुर के हिंदू घरों में भी अंतिम संस्कार मुस्लिम रीति-रिवाज से होता है। इस गांव के भानू बड़ी सादगी से कहते हैं,‘ हम जिंदा रहते एक-दूसरे से भेद नहीं करते, तो मरने के बाद क्यों करें? हम मृतकों को जलाने की बजाय स्वेच्छा से दफना रहे हैं।’

दूसरी तरफ, अल्लापुर की लगभग एक हजार जनसंख्या में रुआब अली का अकेला मुस्लिम परिवार है। वे गर्व से बताते हैं, ‘अगर हम किसी मुस्लिम बहुल गांव में होते, तो इस प्रेम और सहयोग से वंचित रह जाते। कभी-कभार होने वाली तकलीफ को बांटने के लिए हमारे पड़ोसी दीनानाथ और रामदेव हमेशा हाजिर रहते हैं। हमारे लिए यही इस गांव की सबसे बड़ी सौगात है।’ अल्लापुर में हिंदू और भगवानपुर में मुसलमानों का बसेरा कब से है, इसका ठीक-ठीक जवाब दे सकना गांव और आस-पास के लोगों के लिए भले ही मुश्किल हो, लेकिन अपनी अनोखी विरासत पर उन्हें पूरा फख्र है।

अल्लापुर में जन्मे 42 वर्षीय बृजेश कुमार शुक्ला इस बार पंचायत चुनाव में ग्राम प्रधान चुने गए हैं। वे कहते हैं, ‘नाम तो पूर्वजों ने ही रखा है। क्यों रखा था, इसका तात्कालिक कारण बताना अब मुश्किल है, लेकिन हमारे गांवों में कभी किसी झगड़े-फसाद का न होना इस बात इस बात का साफ और सीधा इशारा है कि हमारे पुरखे क्या चाहते थे।’ अल्लापुर और भगवानपुर के बीच एक नहर का फासला है और दूरी करीब दो किलोमीटर लेकिन वहां दिलों के बीच कोई फासला नहीं है।

55 बरस के लालजी तिवारी बताते हैं, ‘इन दोनों गांव के बीच कुछ ऐसा रिश्ता है कि मुसीबत और परेशानी में सब एक-दूसरे के लिए खड़े हो जाते हैं। हम कम पढ़े-लिखे लोग हैं, पर एक-दूसरे की तकलीफ को बखूबी समझते हैं। दुख और परेशानी तो अपनी जगह हैं, लेकिन अल्लापुर और भगवानपुर में शादी-ब्याह की रस्म भी एक-दूसरे के शामिल हुए बिना पूरी नहीं हो सकती। अल्लापुर में होने वाली शादी में भगवानपुर का हर घर शामिल होता है, रात-रात भर जागकर बाहर से आए मेहमानों की खातिरदारी में लगता है। वहीं ईद के मौके पर भगवानपुर में बनने वाली सेवइयां और शुबरात का हलवा पड़ोसी गांव अल्लापुर वालों के लिए खास अहमियत रखता है।’

बहरहाल, नामों को परे रख दिया जाए, तो भी दोनों गांवों में बहने वाली अमन की हवा उनकी असली खूबी है। कभी किसी झगड़े या दंगे के सवाल पर ७२ साल के अब्दुल मजीद एक मिसाल देते हुए उल्टे पूछ लेते हैं कि 1992 में अयोध्या कांड के दौरान अल्लापुर के हिंदू मातम कर रहे थे, ऐसे माहौल में दंगा होने की गुंजाइश ही कहां रह जाती है! इसी बीच अंसारुल्लाह नजर आते हैं। वे खेत में पानी चलाकर आ रहे हैं। मेरा कोई भी सवाल उनके मन में दिलचस्पी नहीं पैदा कर पाता है। वे कहते हैं कि दोनों गांव में हर कोई खुशहाल है।

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4 comments: on "भगवानपुर में मुसलमान अल्लापुर में हिंदू"

राज भाटिय़ा ने कहा…

काश पुरे भारत मे ऎसा हो, आम लोगो मे तो अब भी आपस मे प्यार हे, बस यह नेता ओर ओर गुंडॆ मवाली ही आपस मे झगडे करवा देते हे, बहुत सुंदर लिखा, धन्यवाद इस जानकारी के लिये

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

यह सौहार्द्र बना रहे।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

सिद्धार्थनगर जिले के कुछ राष्ट्रवादी मुस्लिम परिवारों से मेरा भी परिचय है। बहुत प्रेरक लगता है उनका व्यवहार। जिला मुख्यालय पर रहने वाले मो.नईम खाँ ने लावारिस लाशों के उनके धर्म के अनुसार विधिवत अंतिम संस्कार की जो मुहीम शुरू की तो इंडियाटुडे ने उसे ‘मिसाल-बेमिसाल’ स्तंभ में रिपोर्ट किया था।

Rahul Singh ने कहा…

झगड़ा न उपर है, न नीचे, वह तो ले आया जाता है.

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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

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