बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 19 जनवरी 2011

झारखंड के साईं बाबा या कहिये कबीर

अजानों का भजनों से  है रिश्ता पुराना

गिरिडीह से 40 किमी दूर खड़गडीहा में आप ज्योंही दाखिल होते हैं, यह एहसास मजबूत होता है कि अजानों का भजनों से  है रिश्ता पुराना। यहीं आपका परिचय मुल्क की उस साझा विरासत से होता है, जिसका एक सिरा संत साईं बाबा, कबीर, गुरुनानक, बुल्लेशाह तो दूसरा सिरा रहीम, रसखान और रसलीन की जोगियाना व कलंदराना परंपरा तक पहुंचता है। यहीं दफन हैं लंगटा बाबा। मेला तो बुधवार को है। लेकिन श्रद्धालु मंगलवार से ही जुटने लगे हैं। इसमें वयोवृद्ध नगमतिया देवी व सकीना बानो शामिल हैं, तो बेंगलुरू से आशीष और दिल्ली के युवा भी मुरादों के साथ पहुंचे हैं।

हिंदू या मुसलमान : 25 जनवरी 1910 को इनका देहावसान हुआ तो सवाल उठा कि उनकी देह का क्या किया जाए? क्योंकि हिंदू उन्हें संत मानते थे और मुस्लिम सूफी फकीर। सर्वसम्मति से पहले उन्हें दफनाया गया, फिर समाधि बना दी गयी। ऐसा हुआ था संत कबीर के निधन पर। पौष पूर्णिमा पर हर साल यहां मेला लगता है।

यहां उनके मुरीद सुखदेव पूजा कराते हैं तो फरीदी फातिहा। चादर हिंदू-मुस्लिम दोनों चढ़ाते हैं।

सबसे पहले थाने की चादर : खड़गडीहा अब जमुआ थाना हो गया है। पहली चादर यहीं से आती है। इसके बाद हिंदू-मुस्लिम साथ-साथ चादरपोशी, फातिहा और पूजा करते हैं। मेला मिर्जागंज गौशाला से खड़गडीहा तक दो किमी पर लगता है। आज से ही दुकानंे सजने लगीं हैं। मेला संयोजन में लगे हुए श्यामा प्रसाद कहते हैं कि भंडारे में शुद्ध घी का भोजन श्रद्धालुओं को वितरित किया जाता है। आयोजन के लिए कोई निर्वाचित समिति नहीं है। सबकुछ शांतिपूर्वक श्रद्धालुओं के सहयोग से हो जाता है। मेले में लगने वाले दुकानों के लिए किसी तरह का चंदा नहीं लिया जाता।


कौन हैं लंगटा बाबा

गंगा-जमुनी तहजीब के वारिस लंगटा बाबा 1870 में खड़गडीहा पहुंचे। थाना परिसर को ही ठिकाना बना लिया। मौसम कोई भी हो, शरीर पर नाम मात्र का कपड़ा। इसी कारण लंगटा बाबा कहलाए। ईश्वर के ध्यान में इस कदर लीन रहते कि खुद का भी होश नहीं रहता। तसव्वुफ और वेदांत को समझने वाले ये सूफी संत नियंता को ही असली सच मानते हैं। बाबा जब तक रहे कुरआन की आयत ‘अल्हम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन और ऋगवेद के श्लोक ‘माहिदेवस्य सवितु परिष्ठति’ का जाप करते रहे। दोनों का अर्थ एक ही है।


भास्कर के लिए लिखा गया
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3 comments: on "झारखंड के साईं बाबा या कहिये कबीर"

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

ऐसे महापुरुष धार्मिक सीमाओं से परे होते हैं।

मनोज कुमार ने कहा…

अद्भुत! बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
बालिका दिवस
हाउस वाइफ़

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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

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