बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

ग़ज़लों की गुलाम हुई रांची

बेरुखी के साथ सुनना दर्दे दिल की दास्तां
वह कलाई में तेरा कंगन घुमाना याद है।
वक्ते रुख्सत अलविदा का लफ्ज कहने के लिए
वो तेरे सूखे लबों का थरथराना याद है।


  26 जनवरी की सुस्त शाम आहिस्ता आहिस्ता मोहब्बत के शबनम में घुलती चली गई। दिलोदिमाग में पैवस्त होते हुए शब्दों ने रूह को जमकर सुकून बख्शा। इन बातों की एक खास वजह थी, गजल गायकी के पर्याय गुलाम अली की रांची में मौजूदगी। गजलों पर तिर कर शाम जवान हुई। सांगीतिक रौशनी में दर्द की चुभन, वफा की बेरुखी, हालात की मजबूरियां, इश्क की कामरानियां और हर्ष विषाद की रंगत चटख रही थी।

कागज के कैनवास से जमीन पर गजल को जीवंत करने वाले फनकार गुलाम अली शहर के अदबनवाजों से रूबरू थे। बारिश की हल्की बूंदें टपकने के साथ ज्यों ही इनके लब से फूटा : अब मैं समझा तेरे रुख्सार पे तिल का मतलब, दौलते हुस्न पर दरबान बिठा रखा है। महफिल पुरकैफ हो उठी।

कुछ चेहरे शर्म से सूर्ख हुए तो कुछ ने बेसाख्ता कहा, वाह! वाह! बेशक कल चौदहवीं की रात थी। राजधानी रात की धवल चांदनी से सराबोर होती रही। गुलाम अली ने गजल की नई परिभाषा दी। कहा कि दो सौ साल पहले ईजाद हुई गजल का मतलब अक्सर महबूब से बातें करना या महबूब की बातें करना समझा जाता है, जबकि गज्जाल से गजल बना है। गज्जाल हिरण को कहते हैं। तीर के शिकार से जख्मी हिरण जब आखिरी बार कराहता है तो उसे गजल कहते हैं।

फिल्म निकाह की गजल चुपके चुपके की रिकार्डिग की कहानी उन्हांेने लोंगो से साझा किया। नए गानों पर व्यंग्य करते हुए कहा कि ऐसे गाने देखे जाते हैं जबकि गजलें सुनी जाती हैं। उन्होंने श्रोताओं से बेहद सुकून के साथ गजल सुनने की गुजारिश की।

ठाठ के साथ उन्होंने हसरत मोहानी की लिखी इस गजल की ठाठ बरकरार रखी। चुपके को इस तरह अदा किया कि कान के परदे पर हौले से दस्तक हुई। इस गजल के कुछ ही शेर से दुनिया परिचित है। रांची ने गुलाम अली की आवाज में दो नए शेरों को भी दिलों में जगह दी। 




 ग़ज़ल ने ऐसी मिठास घोली कि श्रोता कलेजा थाम बैठे

पाकिस्तान के कीट्स कहे जानेवाले शायर सलाम अमजद सलाम के बोल, उनकी आवाज की लरजिश पे काबू पालो, को अपनी आवाज देकर गुलाम अली ने जवानी में दिवंगत हुए इस युवा शायर को नम आंखों से याद किया।

ग म स धारे सानि सारे धानि गारे निसा पा पा के ताल में गुलाम अली ने अनवर बेजाद की गजल: जब भी देखा है इन चेहरे पर ताजा बहार, देखकर मैं तेरी तस्वीर पुरानी रोया से इस यादगार शामे गजल की शुरुआत की। उसके बाद तो तबला, सितार, वायलिन और हारमोनियम ने उनकी आवाज के संग ऐसी कयामत की चाल चली कि सुननेवाले कलेजा थामे बैठ गए।

यूं कुछ गजलें महफिल की रौनक बनीं, लेकिन गुलाम अली ने सुर और ताल के जेवर से शायर की अभिव्यक्तिको इस तरह सजाया कि लोग आयोजकों की बदइंतजामी को लोग भूल गए। उनके कंठ से फूटी गजलें खूबसूरत रहीं।

कहीं भावनाएं शीशे की तरह पारदर्शी और कहीं कल्पनाएं आंख पर उग आई परतों की तरह पाक और श्रोताओं को डबडबा देने वाली। कमाल का रिदम था। हारमोनियम पर एक ओर अली की उंगलियां थिरकतीं तो दूसरी ओर गजल के अनुरूप उनकी आंखों की पुतलियां भी।

संगीत और शायरी से सजी महफिल में उन्होंने साबित कर दिया कि गजल ही उनकी जिंदगी है और राहते दर्द भी। गजलों के बीच दादरा में जब अलाप लिया, बरसन लागी सावन बुंदिया राजा, तोरे बिन लागे न मोरे जिया, तो क्लासिकल ने अंगड़ाई ली।


ईमानदारी का सवाल

पहले से ही आयोजकों द्वारा कार्यक्रम स्थल पर कैमरा आदि लाने की ताकीद की जा रही थी। खबर है कि ऐसा गुलाम अली के निर्देश पर किया जा रहा था। लेकिन जब लाइट चमकी तो गायक की नाजुक मिजाजी सतह पर आ गई।

गुलाम अली ने तीन बार कैमरा बंद करने की गुजारिश की। उन्होंने रिकॉर्डिग तुरंत ही बंद करने की बात आखिर तल्ख लहजे में कहते हुए कहा कि आपने मेरे साथ ईमानदारी नहीं की। रिकार्डिग होती रही तो मैं गाना बंद कर दूंगा। अंतत: फरमाइश की दो गजलों के बाद महफिल को विराम दिया।

जिन शायरों की गाईं ग़ज़लें

जब भी देखा है इन चेहरों पर..: अनवर बेजाद

चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना..: हसरत मोहानी

दिल में इक लहर सी उठी है अभी: नासिर काजमी

हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर..: कैसरुल जाफरी

कल चौदहवीं की रात थी, शब भर रहा..: इब्ने इंशा

भीड़ में इक अजनबी का सामना अच्छा लगा: अमजद

हमको किसके ग़म ने मारा..: मसरूर अनवर

बरसन लागी सावन बुंदिया राजा: अज्ञात

हंगामा है क्यों बरपा थोड़ी सी जो पी ली है, डाका तो नहीं डाला चोरी तो नहीं की है..: अकबर इलाहाबादी







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7 comments: on "ग़ज़लों की गुलाम हुई रांची"

kshama ने कहा…

Padhte,padhte bhee samaan bandh gaya!
Gantantr diwas kee hardik badhayee!

इस्मत ज़ैदी ने कहा…

बहुत अच्छा लिखा आप ने वाक़ई ऐसा महसूस हुआ जैसे क़ारी ,सिर्फ़ क़ारी नहीं सामे’ भी है
शुक्रिया

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

यह सब सुनकर तो आनन्द आ गया होगा।

वाणी गीत ने कहा…

गुलाम अली जी के साथ इस हसीं शाम का अफसाना खूब रहा !

शारदा अरोरा ने कहा…

गुलाम अली की गायकी की वो शाम आपकी लेखनी से भी जादू की तरह उतरी है ....खूब बयाँ किया है ...

Devi Nangrani ने कहा…

Bahut hi sunder post aur bhi sajeev hoti agar in ghazalon ko sur mein yahan sajaate

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