अमलेन्दु उपाध्याय की क़लम से
माओवादी ममता !
पश्चिम बंगाल के पश्चिमी मिदनापुर ज़िले में, माओवादियों के प्रभाव वाले इलाक़े लालगढ़ में रैली के दौरान ममता बनर्जी ने पुलिस मुठभेड़ में मारे गए नक्सल प्रवक्ता आज़ाद की मौत पर सवाल उठाए थे. जिसको लेकर टिप्पणी को लेकर संसद के दोनों सदनों में पिछले दिनों जमकर हंगामा हुआ. एक दूसरे के धुर विरोधी भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी दल यहाँ एकजुट नज़र आए. लेकिन दीदी जिन्हें अपना हमराज़ हमदम समझ रही थीं उनका कहना है की दीदी भी व्यवस्था का ही एक हिस्सा हैं.भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के पोलित ब्यूरो के सदस्य कोटेश्वर राव यानी किशनजी ने विपक्षी नेताओं के उस आरोप को ठुकरा दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि ममता बनर्जी की लालगढ़ में आयोजित रैली को माओवादियों का समर्थन हासिल था.
इस दहर में सब कुछ है पर इन्साफ नहीं है।
इन्साफ हो किस तरह कि दिल साफ नहीं है।
राजनीति के विषय में अक्सर कई कहावतें सुनने को मिलती हैं। जैसे राजनीति में दो और दो चार नहीं होते या राजनीति में कुछ सही गलत नहीं होता या फिर राजनीति और अवसरवादिता एक दूसरे के पर्याय हैं। राजनीति के इन मुहावरों और सिद्धान्तहीन – अवसरवादी राजनीति की ताजा मिसाल रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी ने हाल ही में पेश की है। एक समय में अटल बिहारी वाजपेयी की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार की आंखों का तारा रहीं और हिन्दू हृदय सम्राट नरेन्द्र मोदी के कारनामों को समर्थन देने वाली ममता दीदी अब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन पार्ट-2 में प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह और संप्रग मुखिया सोनिया गांधी के जिगर का टुकड़ा हैं।
बीती नौ अगस्त को पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में एक रैली में ममता दीदी का प्यार गृह मंत्री पी चिदंबरम और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दुश्मन न. एक माओवादियों के लिए उमड़ पड़ा। ममता ने लालगढ़ में ऐलान किया कि माओवादी नेता आजाद का फर्जी एनकाउन्टर किया गया है। बात सही भी हो सकती है क्योंकि ममता केन्द्र सरकार में महत्वपूर्ण पद पर आसीन हैं और सरकार के अन्दर जो चलता है उसकी पल पल की जानकारी उन्हें रहती है। क्योंकि आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है और लोग अच्छी तरह जानते हैं कि कांग्रेस की प्रदेश सरकारें अपने हाईकमान के इशारे पर ही चलती हैं। लिहाजा जब दीदी कह रही हैं कि आजाद का फर्जी एन्काउन्टर हुआ, तो यकीन न करने का भला कौन सा कारण हो सकता है?
लेकिन सवाल यह है कि दीदी जो बात आज सरेआम कह रही हैं वह उन्होंने सरकार के अन्दर क्यों नहीं की? दूसरा जब आजाद का फर्जी एन्काउन्टर करने का षड्यन्त्र रचा जा रहा था उस समय दीदी ने आजाद को बचाने का प्रयास क्यों नहीं किया? इसलिए ममता को अपने गिरेबान में भी झांक कर देखना चाहिए कि आजाद की हत्या के लिए जितने दोषी मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और चिदंबरम हैं, ममता उनसे कम गुनाहगार नहीं हैं। क्योंकि मनमोहन सरकार को बैसाखी अब ममता दीदी की लगी हैं उनके दुश्मन माकपाइयों की नहीं। इसलिए अगर आजाद का फर्जी एन्काउन्टर हुआ है, जैसा कि दीदी का आरोप है और अपना भी मानना है, तो आजाद की हत्या के जुर्म से ममता भी बरी नहीं हो सकती हैं।
लोगों को याद होगा कि जब ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस हादसा हुआ था उस समय ममता बनर्जी ही वह पहली शख्स थीं जिन्होंने आरोप लगाया था कि ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस को विस्फोट से उड़ाया गया है और उन्होंने माओवादियों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया था। जबकि गृह मंत्रालय ने साफ कहा था कि विस्फोट के कोई सुबूत नहीं है। यानी जब जरूरत होगी तब ममता माओवादियों को हत्यारा भी कहेंगी और जब जरूरत होगी तब उनके समर्थन से रैली भी करेंगी। यह राजनीति की बेशर्म अवसरवादिता का जीता जागता उदाहरण है।
ममता बनर्जी का यह कोई नया कारनामा नहीं है। वह इससे पहले भी ऊट-पटांग हरकतें करती रही हैं। याद है न समाजवादी पार्टी के तत्कालीन महासचिव अमर सिंह के साथ दिल्ली के जामियानगर में ममता गईं थीं और उन्होंने बटला हाउस एन्काउन्टर को फर्जी करार दिया था और मौके पर ही कुछ पत्रकारों की पिटाई भी करवा दी थी। लेकिन लोकसभा चुनाव में वह बटला हाउस फर्जी मुठभेड़ के लिए जिम्मेदार कांग्रेस के साथ ही मैदान में उतरीं।
मीडिया में जो खबरें आई हैं उनके अनुसार ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस हादसे के मुख्य आरोपियों में से कई ममता की रैली की कमान संभाल रहे थे। इतना ही नहीं ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस की दुर्घटना के लिए जिस पीसीपीए को दोशी ठहराया जा रहा है, ममता की रैली उसी पीसीपीए के बैनर तले हुई। ममता के बहाने सवाल तो गृह मंत्री पी चिदंबरम और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और माओवादी नेता किशन जी से भी हो सकते हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब चिदंबरम माओवादियों का समर्थन करने वाले बुद्धिजीवियों को पुलिसिया भाषा में हड़का रहे थे। अब चिदम्बरम साहब माओवादियों की खुलकर हिमायत करने वाली ममता बनर्जी के खिलाफ क्या कदम उठाएंगे? नक्सलवाद को देश का दुश्मन न. एक करार देने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्या ममता बनर्जी को अपने मंत्रिमंडल से बर्खास्त करने और उनके माओवादियों से संबंधों की जांच कराने की हिम्मत जुटा पाएंगे? लालगढ़ दौरे पर जाकर मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को कानून व्यवस्था का उपदेश देने वाले गृह मंत्री क्या अपनी मंत्रिमंडलीय सहयोगी को भी कुछ ज्ञान देंने की जहमत उठाएंगे?
जो अहम सवाल है वह माओवादी नेता किशन जी और पूरे माओवादी नेतृत्व से है। माओवादी लगातार माकपा और भाकपा को इसलिए कोसते रहे हैं कि इन दोनों दलों ने संसदीय जनतंत्र का रास्ता अपना लिया है। जहां तक माकपा-भाकपा और माओवादियों के अन्तिम लक्ष्य का सवाल है, दोनों के लक्ष्य में कोई अन्तर नहीं है, झगड़ा लक्ष्य को पाने के रास्ते का है। क्या किशन जी यह बता सकते हैं कि नरेन्द्र मोदी का समर्थन करने वाली, अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की जिगर का टुकड़ा रहीं ममता बनर्जी का समर्थन करने से देश में साम्यवाद आ जाएगा? क्या जिस संसदीय जनतंत्र को माओवादी लगातार कोसते रहे हैं, उनका यह कदम उसी भ्रष्ट व्यवस्था को पोषित करने वाला नहीं है? क्या यही नई जनवादी क्रांति है? क्या किशन जी यह गारंटी दे सकते हैं कि माकपा को उखाड़ कर और तृणमूल कांग्रेस को सत्ता में लाकर माओवादियों का लक्ष्य पूरा हो जाएगा? अब यह तय करना माओवादी नेतृत्व का काम है कि क्या वह ममता बनर्जी के साथ खड़े होकर देश भर में अपने समर्थकों को खोना चाहेंगे?
नौ अगस्त की लालगढ़ रैली ने सवाल तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश और मेधा पाटकर के लिए भी खड़े किए हैं। अभी तक दोनों ही लोग स्वयं को सामाजिक कार्यकर्ता घोषित करते आए हैं। लेकिन ममता बनर्जी के साथ उनका मंच साझा करना उनकी नीयत पर भी सवाल खड़ा करता है। एक आरोप अक्सर लगता रहा है कि देश के अन्दर कम्युनिस्ट पार्टियों के खिलाफ पूंजीवादी ताकतें पिछले दरवाजे से काम कर रही हैं और अब माओवादी भी जाने अनजाने इन ताकतों के हाथ का खिलौना बन रहे हैं। यह आरोप ममता की लालगढ़ रैली के बाद अब काफी हद तक सही लगने लगा है। अगर स्वामी अग्निवेश, मेधा पाटकर, ममता और माओवादी एक साझे मंच पर आते हैं तो क्या कहा जाएगा?
ममता बनर्जी का बयान सिर्फ राजनीतिक अवसरवादिता की ही बानगी नहीं है, बल्कि यह मौजूदा मनमोहन सरकार के ऊपर कई सवालिया निशान लगाती है। ममता रेल मंत्री हैं और किसी भी मंत्री का बयान पूरे मंत्रिमंडल का बयान समझा जाता है। यूपीए-2 के ही कई मंत्रियों को मंत्रिमंडल की भावना के खिलाफ जाकर बयानबाजी करने के कारण सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी पड़ी है। क्या प्रधानमंत्री ममता से भी माफी मंगवाएंगे?
[ लेखक-परिचय:
जन्म : 18,मई १९७० को बदायूं में
शिक्षा: एक सभ्य सुसंस्कृत और शैक्षणिक परिवार से होने के बावजूद अमलेंदु जी कहते हैं कि लेकिन मैं स्वयं शिक्षित नहीं [हँसना मना है !]
जन्म : 18,मई १९७० को बदायूं में
शिक्षा: एक सभ्य सुसंस्कृत और शैक्षणिक परिवार से होने के बावजूद अमलेंदु जी कहते हैं कि लेकिन मैं स्वयं शिक्षित नहीं [हँसना मना है !]
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन साथ ही एक नये समाचार पोर्टल
http://hastakshep.com/ की तैयारी में व्यस्त
संपर्क: amalendu.upadhyay@gmail.com ]
20 comments: on "लालगढ़ से संसद तक लाल हुईं ममता"
खुलेआम आतंकवादियों का समर्थन ! ऐसा भारत देश है मेरा ! असली आतंकवादी तो यहाँ पकड़े ही नही जाते । और न इन पर कोई आँच आ पाती है। पर आतंकवाद के नाम पर हजारो बैगुनाह आज भी जेल मे हैं
आतंकवाद के नाम पर हजारो बैगुनाह आज भी जेल मे हैं
AMLENDU JEE NE YAHAN WAHI DUHRANE KEE KOSHISH KEE HAI JISE POONJIWADI MANSIKTA SE POSHIT DAL AUR UNKE BHOMPU RAH RAH KAR AANDHRA PARADESH SE BASTAR TAK BAJATE RAHTE HAIN.
राजनीति और अवसरवादिता एक दूसरे के पर्याय हैं। राजनीति के इन मुहावरों और सिद्धान्तहीन – अवसरवादी राजनीति की ताजा मिसाल रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस नेता ममता है। एक समय में अटल बिहारी वाजपेयी की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार की आंखों का तारा रहीं और हिन्दू हृदय सम्राट नरेन्द्र मोदी के कारनामों को समर्थन देने वाली ममता दीदी अब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन पार्ट-2 में प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह और संप्रग मुखिया सोनिया गांधी के जिगर का टुकड़ा हैं।
lekhak sahab aapkee jo bhee daleel ho lekin deedee ne singur se lekar lalgarh tak jis tareeqe se aam logon kee zindagi ko mutasir kiya hai,aap kya ek lekh ya article lih kar matiya met karna chahte hain to yeh aapka sapna hai.
शहरोज़् भाई अब मैं ‘दि संडे पोस्ट’ में नहीं हूं। 31 मार्च 2010 तक वहां सह संपादक था।
आप समझ सकते हैं कि छोटे-छोटे दल राष्ट्रीय फलक पर अपनी उपस्थिति क्यों नहीं दर्ज करा पाते। दरअसल,इनका टुच्चापन जाता ही नहीं। ममता को न तो आजाद से कोई सरोकार है और न दिल्ली की गद्दी की। उनका तो बस एकसूत्री एजेंडा है-रायटर्स बिल्डिंग। फिर चाहे उसके लिए समर्थन माओवादियों का ही क्यों न लेना पड़े।
@Amlendu jee
दरअसल परिचय अनुपलब्ध रहने के कारण ऐसा हुआ.यूँ मैंने आप से परिचय के लिए भी आग्रह किया था.यदि वर्णित जानकारी सही मिल जाय तो आभार होगा !
सच पूछिए तो बंधु, ये घटनाक्रम हमारी लोकतांत्रिक मूल्यों के कमजोर होने के स्पष्ट संकेत है.ममता से कहीं अधिक दोषी प्रधानमंत्री सरीखे है जो राष्ट्रविरोधी तत्वों को बढ़ावा दे रहे है? एक केन्द्रीय मंत्री कुछ बोले और सरकार कुछ,यह भारत में ही संभव है.
मित्रों! मान लिया जाय कि ममता अवसरवादी हैं..लेकिन क्या ऐसा कह देने से आदिवासियों की समस्या का हल निकल आएगा ! कौन है जो उनके आंसू भी पूछने आये!दीदी इतना तो करती ही हैं.सिंगुर को लोग भूल गए और दीदी के योगदान को भी!
... saarthak abhivyakti ... in savaalon ke javaab na to mamtaa ke paas honge aur na hi pradhaanmantri ji ke paas !!!
MAMTA SAHIBA NE SINGUR ME EK BADI JANG JEETI.ISSE INKAR NAHIN KAR SAKTE AUR AAJ BENGAL ME SIYASI LOGON KI JO KHUD KO SACHCHA AUR AAM LOGON KA HAMDARD SAMAJHTE RAHE THE NEECHE SE ZAMEEN KHISAKNE KAGI HAI.
LALGARH KA SACH BHEE AAJ NAHIN TO KAL SAMAJH ME AAYEGA !1
सही कहा आपने
ममता तो क्या माफी मांगेगी, हो सकता है प्रधानमंत्री को ही ममता से ममता के लिए माफी मांगनी पड़े। ममता के साथ के साथ केन्द्र सरकार बचाई जा रही है यह क्या छोटी अवसरवादिता है?
@अमलेंदु जी
परिचय संशोधित कर दिया गया है देख लें !
राजनीति में जो खेल न खेला जाये कम है ..सब अवसरवादी हैं ...
राजनीति आज दुकान है
ऊंची दुकान फीके पकवान
ऊंचे लोग ऊंची पसंद
प्रिय भाई,
अच्छा है। थोड़ा सन्क्षिप्त होता तो और अच्छा होता।
सहमत
shahroz sahab,
amlendu ji ka aalekh padhi. rajnitik galiyaare mein kya hota aur kyon hota ye sawaal puchhna aur batana dono mushkil hai. kab kaun nirparaadhi maowaadi ya naksalwadi kah kar farji muthbhed mein maar diya jaaye aur kab sandigdh apraadhi hamara vijai neta ban jaaye.
lekh achha laga, ispar punarvichaar ki jarurat hai hum sabko. shubhkaamnaayen.
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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
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- अल्लामा जमील मज़हरी