सैयद एस. क़मर की क़लम से
बना रहे बनारस ..सब की तमन्ना है लेकिन इस बहाने भाई रंगनाथ बेहद ज़रूरी सवालों से मुठभेड़ करते दीखते हैं.उन्होंने विस्मृत हो चुके शहीद अज़ीमउल्लाह ख़ान के उस गीत को पोस्ट किया है जिसे पहला झंडा गीत होने का श्रेय हासिल है.अंग्रेजों ने अपनी कुटिल चालें चलीं और कामयाब हुए..लेकिन इस सच से कौन इनकार कर सकता है कि मुस्लिम हुकूमतों या मुसलमानों के भारत आगमन के बाद जिस साझा संस्कृति ,सरोकारों का उदय हुआ.और देश के इन दो प्रमुख सम्प्रदाय के लोगों ने जिस तरह विदेशियों से लोहा लिया.इतिहास के पन्नों में सुरक्षित है.लेकिन भारत का आर्थिक दोहन करने राजनितिक सत्ता बरक़रार रखने के ध्येय से अंग्रेजों ने हिन्दू-मुस्लिम को दो कट्टर धार्मिक खेमों में विभक्त कर दिया ताकि राष्ट्रीय चेतना का अभुदय पारस्परिक एकता के अभाव में मुमकिन न हो.भारतीय जनमानस लम्हों के लिए इन भरम जाल में अवश्य उलझा, जिस वजह कर राष्ट्रीय आन्दोलन में बाधा उत्पन्न हुई.कालांतर में कुछ लोगों ने इसे समझ लिया और कन्धा से कन्धा मिलाकर संग्राम में सशक्त भागीदारी निभाई.यह १८५७ का समय है.दरअसल यही दौर चाणक्य द्वारा प्रतिपादित भारतीय राष्ट्रवाद का सच था.बकौल प्रसिद्ध राजनितिक दार्शनिक जे एस मिल राष्ट्रीयता मानव जाति का वह भाग है , जो सामान्य सहानुभूति द्वारा आपस में संगठित है और सामान्य सहनुभुतियाँ एक राष्ट्रीयता की दूसरी राष्ट्रीयता से नहीं होती हैं.इस सामान्य सहानुभूति के कारण एक राष्ट्रीयता के लोगों में जितने सहयोग की भावना रहती है , उतनी दूसरों से नहीं हो पाती.
यही राष्ट्रीयता भारतियों के अंतस में समाहित हो चुकी थी, जो कि अंग्रेजों की राष्ट्रीयता [अंग्रेजी राज सत्ता] को किसी भी कीमत पर सहयोग करने को तत्पर नहीं थी.
विभिन्नताओं के बावजूद भारत में एकानुभुति की भावना पायी जाती है.सर हर्बट रिजले ने सही लिखा है, भारत में धर्म, रीती-रिवाज , भाषा तथा सामाजिक और शारीरिक भिन्नताओं के होते हुए भी जीवन की एक विशेष एकरूपता कन्याकुमारी से लेकर हिमाचल तक देखी जा सकती है. आज जिस प्रकार जाति,धर्म और क्षेत्र व भाषा ,मंदिर-मस्जिद को राष्ट्रीयता से ज़्यादा महत्त्व दिया जाता है , ऐसी संकीर्णता के पोषक या तो राष्ट्रिय आन्दोलन से अनभिज्ञ हैं या जानबूझ कर पाश्चात्य साम्राज्यवादी शक्तियों के उस षडयंत्र के यंत्र बने हुए हैं, जिसे देश की एकता अखंडता के विरुद्ध रचा गया है. आज कितने लोग हैं जिन्हें सत्येन्द्र नाथ ठाकुर, रंगोजी बापूजी और अज़ीम उलाह ख़ान के सम्बन्ध में थोडी बहुत भी जानकारी है.
बंगाल में १८६१ में सम्पादनी सभा की स्थापना की गयी थी.अमार बँगला कहने वाले भी तब भारत,हिन्दुस्तान या राष्ट्र शब्दों का बेहिचक प्रयोग किया करते थे.सभा के हर आयोजन में भारतेर जय बुलंद स्वर में गाई जाती थी.इस झंडा गीत के रचयिता थे प्रखर राष्ट्रवादी सत्येन्द्र नाथ ठाकुर. लेकिन इस झंडा गीत से बहुत पहले अज़ीमउलाह ख़ान ने १८५७ के आस पास भारत का झंडा गीत लिख लिया था.
गीत कुछ इस प्रकार था :
इस गीत को रानी लक्ष्मी बाई ,तात्या टोपे से लेकर रंगोंजी तक के सिपाही गाया करते थे. क्रांतिकारी अज़ीमउल्लाह ख़ान १८५७ के स्वंत्रता संग्राम के उन महानायकों में से हैं जिनके शौर्य, साहस और अदम्य देशभक्ती के किस्से इतिहास के पन्नों में गुम होकर रह गए हैं. वरिष्ठ पत्रकार दिवंगत उदयन शर्मा , वरिष्ठ लेखक रूपसिंह चंदेल [जिन्होंने अज़ीमउल्लाह खान पर पुस्तक लिखी] जैसे लोग ही यदाकदा उनका स्मरण कर पाते हैं .
उदयन शर्मा ने अज़ीमउल्लाह के बारे में लिखा था कि उनका सम्बन्ध अत्यंत निर्धन परिवार से था .किशोरावस्था पर उन्हें किसी प्रकार अंग्रेजों के रसोई घरों में बावर्ची की नौकरी मिल गयी थी.ज्यादा पढ़े-लिखे तो थे नहीं, इसलिए अच्छी नौकरी की आशा ही बेकार थी . दूसरी तरफ़ उन्हें विदेशियों की गुलामी पसंद न थी.यहाँ पर आज़ादी के ख्वाब देखा करते थे.विदेशी माहौल में उन्होंने फ्रांसीसी और अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान अर्जन किया . हिन्दू-मुस्लिम एकता के वह प्रबल हिमायती थे.बिना आपसी एकता और सौहाद्र के आज़ादी हासिल करना मुश्किल था. उन्हें इस बात का इल्म था .इसलिए वह जहां खानसामे की भूमिका में विदेशी ज़बान सीख रहे थे तो साथ साथ हिन्दू-मुस्लिम के बीच प्रेम सद्भाव कायम रखने के लिए यत्नशील थे.
भाषा ज्ञान पश्चात अज़ीमउल्लाह ख़ान ने बावर्ची की नौकरी छोड़ दी.एक स्कूल में शिक्षक हो गए. इस प्रकार वह दूरस्थ ग्रामों के लोगों के संपर्क में आये. धीरे-धीरे उनकी चर्चा नाना साहब के दरबार तक जा पहुँची .नाना साहब ने उनको अपने दरबार में बुला लिया. वह उनके सबसे प्रिय सलाहकार बन गए.1854 में नाना साहब ने अज़ीमउल्लाह को अपना प्रतिनिधी बना कर इंग्लॅण्ड भेजा. यहाँ उनकी मुलाक़ात रंगोंबापू जी से हुई. वैचारिक साम्य के कारण दोनों जल्द ही मित्र बन गए.दोनों मित्र भारत को आज़ाद कराने के सपने संजोने लगे. विश्व समर्थन के लिए दोनों ने कई योरोपीय देशों की यात्रा की.अज़ीमउल्लाह ख़ान अंग्रेजों के विरुद्ध मदद मांगने रूस और तुर्की भी गए थे.
रूस से आकर अज़ीमउल्लाह ने राजमहल को क्रांति के वाहकों की छावनी में तब्दील कर दिया. वह सैनिकों को हथियार चलाने का अभ्यास कराने लगे.वह नाना साहब के साथ उत्तर भारत के उन सभी शहरों में गए जहां जहां अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का बिगुल बज रहा था. इसी दौरान उन्होंने वह गीत लिखा, जिसे उत्तर भारत के सभी क्रांतिकारी सैनिक झंडा गीत की तरह गाते थे. १८५७ के विद्रोह के बाद हज़ारों राष्ट्रभक्तों को बिना किसी मुक़दमें के पेड़ों पर लटका कर फांसी दी गयी थी.इन में हिन्दू भी थे और मुसलमान भी.नीम के पेड़ों पर लटकी इन अनगिनत लाशों में एक लाश पयाम-ए -आज़ादी पत्र के सम्पादक मिर्ज़ा बेदार बख्त की भी थी.
लेखक-परिचय
बना रहे बनारस ..सब की तमन्ना है लेकिन इस बहाने भाई रंगनाथ बेहद ज़रूरी सवालों से मुठभेड़ करते दीखते हैं.उन्होंने विस्मृत हो चुके शहीद अज़ीमउल्लाह ख़ान के उस गीत को पोस्ट किया है जिसे पहला झंडा गीत होने का श्रेय हासिल है.अंग्रेजों ने अपनी कुटिल चालें चलीं और कामयाब हुए..लेकिन इस सच से कौन इनकार कर सकता है कि मुस्लिम हुकूमतों या मुसलमानों के भारत आगमन के बाद जिस साझा संस्कृति ,सरोकारों का उदय हुआ.और देश के इन दो प्रमुख सम्प्रदाय के लोगों ने जिस तरह विदेशियों से लोहा लिया.इतिहास के पन्नों में सुरक्षित है.लेकिन भारत का आर्थिक दोहन करने राजनितिक सत्ता बरक़रार रखने के ध्येय से अंग्रेजों ने हिन्दू-मुस्लिम को दो कट्टर धार्मिक खेमों में विभक्त कर दिया ताकि राष्ट्रीय चेतना का अभुदय पारस्परिक एकता के अभाव में मुमकिन न हो.भारतीय जनमानस लम्हों के लिए इन भरम जाल में अवश्य उलझा, जिस वजह कर राष्ट्रीय आन्दोलन में बाधा उत्पन्न हुई.कालांतर में कुछ लोगों ने इसे समझ लिया और कन्धा से कन्धा मिलाकर संग्राम में सशक्त भागीदारी निभाई.यह १८५७ का समय है.दरअसल यही दौर चाणक्य द्वारा प्रतिपादित भारतीय राष्ट्रवाद का सच था.बकौल प्रसिद्ध राजनितिक दार्शनिक जे एस मिल राष्ट्रीयता मानव जाति का वह भाग है , जो सामान्य सहानुभूति द्वारा आपस में संगठित है और सामान्य सहनुभुतियाँ एक राष्ट्रीयता की दूसरी राष्ट्रीयता से नहीं होती हैं.इस सामान्य सहानुभूति के कारण एक राष्ट्रीयता के लोगों में जितने सहयोग की भावना रहती है , उतनी दूसरों से नहीं हो पाती.
यही राष्ट्रीयता भारतियों के अंतस में समाहित हो चुकी थी, जो कि अंग्रेजों की राष्ट्रीयता [अंग्रेजी राज सत्ता] को किसी भी कीमत पर सहयोग करने को तत्पर नहीं थी.
विभिन्नताओं के बावजूद भारत में एकानुभुति की भावना पायी जाती है.सर हर्बट रिजले ने सही लिखा है, भारत में धर्म, रीती-रिवाज , भाषा तथा सामाजिक और शारीरिक भिन्नताओं के होते हुए भी जीवन की एक विशेष एकरूपता कन्याकुमारी से लेकर हिमाचल तक देखी जा सकती है. आज जिस प्रकार जाति,धर्म और क्षेत्र व भाषा ,मंदिर-मस्जिद को राष्ट्रीयता से ज़्यादा महत्त्व दिया जाता है , ऐसी संकीर्णता के पोषक या तो राष्ट्रिय आन्दोलन से अनभिज्ञ हैं या जानबूझ कर पाश्चात्य साम्राज्यवादी शक्तियों के उस षडयंत्र के यंत्र बने हुए हैं, जिसे देश की एकता अखंडता के विरुद्ध रचा गया है. आज कितने लोग हैं जिन्हें सत्येन्द्र नाथ ठाकुर, रंगोजी बापूजी और अज़ीम उलाह ख़ान के सम्बन्ध में थोडी बहुत भी जानकारी है.
बंगाल में १८६१ में सम्पादनी सभा की स्थापना की गयी थी.अमार बँगला कहने वाले भी तब भारत,हिन्दुस्तान या राष्ट्र शब्दों का बेहिचक प्रयोग किया करते थे.सभा के हर आयोजन में भारतेर जय बुलंद स्वर में गाई जाती थी.इस झंडा गीत के रचयिता थे प्रखर राष्ट्रवादी सत्येन्द्र नाथ ठाकुर. लेकिन इस झंडा गीत से बहुत पहले अज़ीमउलाह ख़ान ने १८५७ के आस पास भारत का झंडा गीत लिख लिया था.
गीत कुछ इस प्रकार था :
हम हैं इसके मालिक हिन्दुस्तान हमारा
पाक वतन है कौम का जन्नत से भी न्यारा
यह है हमारी मिल्कियत हिन्दुस्तान हमारा
इसकी रूहानियत से रौशन है जग सारा
कितना क़दीम,कितना नईम सब दुनिया से प्यारा
करती है जिसे सरखेज़ गंग-ओ-जमुन की धारा
ऊपर बर्फीला पर्वत, पहरेदार हमारा
नीचे साहिल पे बजता सागर का नक़क़ारा
इसकी खानें उगल रही हैं, सोना, हीरा, पारा
इसकी शान-ओ-शौकत का दुनिया में जयकारा
आया फिरंगी दूर से ऐसा मंतर मारा
लूटा दोनों हाथों से न्यारा वतन हमारा
आज शहीदों ने तुमको अहले वतन ललकारा
तोड़ो गुलामी की जंजीरें , बरसाओ अंगारा
हिन्दू,मुस्लिम, सिक्ख हमारा,भाई-भाई प्यारा
यह है आज़ादी का झंडा इसे सलाम हमारा
इस गीत को रानी लक्ष्मी बाई ,तात्या टोपे से लेकर रंगोंजी तक के सिपाही गाया करते थे. क्रांतिकारी अज़ीमउल्लाह ख़ान १८५७ के स्वंत्रता संग्राम के उन महानायकों में से हैं जिनके शौर्य, साहस और अदम्य देशभक्ती के किस्से इतिहास के पन्नों में गुम होकर रह गए हैं. वरिष्ठ पत्रकार दिवंगत उदयन शर्मा , वरिष्ठ लेखक रूपसिंह चंदेल [जिन्होंने अज़ीमउल्लाह खान पर पुस्तक लिखी] जैसे लोग ही यदाकदा उनका स्मरण कर पाते हैं .
उदयन शर्मा ने अज़ीमउल्लाह के बारे में लिखा था कि उनका सम्बन्ध अत्यंत निर्धन परिवार से था .किशोरावस्था पर उन्हें किसी प्रकार अंग्रेजों के रसोई घरों में बावर्ची की नौकरी मिल गयी थी.ज्यादा पढ़े-लिखे तो थे नहीं, इसलिए अच्छी नौकरी की आशा ही बेकार थी . दूसरी तरफ़ उन्हें विदेशियों की गुलामी पसंद न थी.यहाँ पर आज़ादी के ख्वाब देखा करते थे.विदेशी माहौल में उन्होंने फ्रांसीसी और अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान अर्जन किया . हिन्दू-मुस्लिम एकता के वह प्रबल हिमायती थे.बिना आपसी एकता और सौहाद्र के आज़ादी हासिल करना मुश्किल था. उन्हें इस बात का इल्म था .इसलिए वह जहां खानसामे की भूमिका में विदेशी ज़बान सीख रहे थे तो साथ साथ हिन्दू-मुस्लिम के बीच प्रेम सद्भाव कायम रखने के लिए यत्नशील थे.
भाषा ज्ञान पश्चात अज़ीमउल्लाह ख़ान ने बावर्ची की नौकरी छोड़ दी.एक स्कूल में शिक्षक हो गए. इस प्रकार वह दूरस्थ ग्रामों के लोगों के संपर्क में आये. धीरे-धीरे उनकी चर्चा नाना साहब के दरबार तक जा पहुँची .नाना साहब ने उनको अपने दरबार में बुला लिया. वह उनके सबसे प्रिय सलाहकार बन गए.1854 में नाना साहब ने अज़ीमउल्लाह को अपना प्रतिनिधी बना कर इंग्लॅण्ड भेजा. यहाँ उनकी मुलाक़ात रंगोंबापू जी से हुई. वैचारिक साम्य के कारण दोनों जल्द ही मित्र बन गए.दोनों मित्र भारत को आज़ाद कराने के सपने संजोने लगे. विश्व समर्थन के लिए दोनों ने कई योरोपीय देशों की यात्रा की.अज़ीमउल्लाह ख़ान अंग्रेजों के विरुद्ध मदद मांगने रूस और तुर्की भी गए थे.
रूस से आकर अज़ीमउल्लाह ने राजमहल को क्रांति के वाहकों की छावनी में तब्दील कर दिया. वह सैनिकों को हथियार चलाने का अभ्यास कराने लगे.वह नाना साहब के साथ उत्तर भारत के उन सभी शहरों में गए जहां जहां अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का बिगुल बज रहा था. इसी दौरान उन्होंने वह गीत लिखा, जिसे उत्तर भारत के सभी क्रांतिकारी सैनिक झंडा गीत की तरह गाते थे. १८५७ के विद्रोह के बाद हज़ारों राष्ट्रभक्तों को बिना किसी मुक़दमें के पेड़ों पर लटका कर फांसी दी गयी थी.इन में हिन्दू भी थे और मुसलमान भी.नीम के पेड़ों पर लटकी इन अनगिनत लाशों में एक लाश पयाम-ए -आज़ादी पत्र के सम्पादक मिर्ज़ा बेदार बख्त की भी थी.
लेखक-परिचय
37 comments: on "आज शहीदों ने तुमको अहले वतन ललकारा : अज़ीमउल्लाह ख़ान-- जिन्होंने पहला झंडा गीत लिखा"
बढ़िया लेख
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है....(जय भारत.)
प्रथम स्वतंत्रता दिवस से जुडी कुछ दुर्लभतम तस्वीरें तथा विडियो
बंगाल में १८६१ में सम्पादनी सभा की स्थापना की गयी थी.अमार बँगला कहने वाले भी तब भारत,हिन्दुस्तान या राष्ट्र शब्दों का बेहिचक प्रयोग किया करते थे.सभा के हर आयोजन में भारतेर जय बुलंद स्वर में गाई जाती थी.इस झंडा गीत के रचयिता थे प्रखर राष्ट्रवादी सत्येन्द्र नाथ ठाकुर. लेकिन इस झंडा गीत से बहुत पहले अज़ीमउलाह ख़ान ने १८५७ के आस पास भारत का झंडा गीत लिख लिया था.
उन्हीं अज़ीमउलाह खान के बारे में कुछ और बातें ज़रूर पढ़ें.
रूस से आकर अज़ीमउल्लाह ने राजमहल को क्रांति के वाहकों की छावनी में तब्दील कर दिया. वह सैनिकों को हथियार चलाने का अभ्यास कराने लगे.वह नाना साहब के साथ उत्तर भारत के उन सभी शहरों में गए जहां जहां अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का बिगुल बज रहा था. इसी दौरान उन्होंने वह गीत लिखा, जिसे उत्तर भारत के सभी क्रांतिकारी सैनिक झंडा गीत की तरह गाते थे
و طن کے لیے جا ں فشا نی کر نے و ا لے ے شما ر ہیںآ پ نے کر صر ف ا یک کا کیا ھے۔
लोगों ने जिस तरह विदेशियों से लोहा लिया.इतिहास के पन्नों में सुरक्षित है.'
स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आप एवं आपके परिवार का हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ.
सादर
समीर लाल
अज़ीमउल्लाह ख़ान के झंडा गीत से रुबरु करवाने के लिए आपका आभार शहरोज भाई
आजादी के उन अनाम वीरों को हार्दिक श्रद्धांजलि
जिन्होने आजादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व अर्पित किया।
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
बधाई
जानकारी देता हुआ लेख ,
यौम ए आज़ादी बहुत बहुत मुबारक हो
... बेहद प्रभावशाली पोस्ट !!!
... स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं !!!
विस्मृत हो चुके शहीद अज़ीम उल्लाह ख़ान ka गीत जिसे पहला झंडा गीत होने का श्रेय हासिल है,very nice !
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
बधाई
स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं!
aapne ajimula khan ke bare jankari dekar uchit kiya.
aise kai shaheed hain jinke bare me hamlog nahin jante.
राष्ट्रीयता मानव जाति का वह भाग है , जो सामान्य सहानुभूति द्वारा आपस में संगठित है और सामान्य सहनुभुतियाँ एक राष्ट्रीयता की दूसरी राष्ट्रीयता से नहीं होती हैं.इस सामान्य सहानुभूति के कारण एक राष्ट्रीयता के लोगों में जितने सहयोग की भावना रहती है , उतनी दूसरों से नहीं हो पाती.
स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आप एवं आपके परिवार का हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ.
अज़ीमउल्लाह ख़ान का झंडा गीत और लेख दोनों काबिले तारीफ हैं.
स्वतंत्रता दिवस की बहुत-बहुत बधाई!
ऐ मेरे वतन के लोगो ज़रा आंख में डालो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कुर्बानी.
जय हिंद!
अज़ीमउलाह ख़ान जी के परिचय के लिए आभार ...!
अज़ीमउल्लाह ख़ान के झंडा गीत से रुबरु करवाने के लिए आपका आभार ...
स्वतंत्रता दिवस की बहुत-बहुत बधाई!
अज़ीमउलाह ख़ान जी के परिचय aur गीत ke liye badhai. unke is geet ke bare me kahin padha tha...aapne uplabdh karaya....Aabhar
स्वतंत्रता दिवस की बहुत-बहुत बधाई!
महत्वपूर्ण जानकारी मिली, तथ्यों का प्रस्तुतीकरण अच्छा लगा...
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं.
अज़ीमउल्लाह ख़ान के झंडा गीत ka ullekh maine bachcho k liye likhe apne ek naatka mey kiyaa thaa. natak ka naam thaa-''aazadee kee amar kahanee'' yah mahaan geet hai. ise gayaa jana chahiye. magar dukh ki baat hai, ki kuchh achchhhi cheeze bhi bhula dee jatee hai.
बहुत महत्वपूर्ण जानकारी देता लेख ....आभार झण्डा गीत और उसके रचयिता से परिचित कराने के लिए ..
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें
इतनी महत्त्व पूर्ण जानकारी और झंडा गीत पढवाने के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया...
नीरज
स्वतंत्रता दिवस की बहुत-बहुत बधा ...
बड़ा ही ज्ञानवर्धक व सुन्दर लेख। यह परिचय भी प्रथम बार हुआ है।
आभार झण्डा गीत और उसके रचयिता से परिचित कराने के लिए ..
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें
gyanvardhak jaankari k liye shukriya...
happy independence day..
रोज मर्रा की दौड़ धुप चंद नाम भुला देती है
अभी जनता इतनी खुद गरज नहीं,
याद जब आये भगत सिंह, आज़ाद
चंद अंशु आज भी बहा देती है ...
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
वन्दे मातरम् पर शोर मचाने वाले क्या भारत की एकता के लिए ये सब गीत नहीं गा सकते?
बढ़िया लेख
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
झंडा गीत पढवाने के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया
स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर आप एवं आपके परिवार का हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ!
अज़ीमउल्लाह ख़ान जैसे देश प्रेमी की बदौलत ही हम आज खुली हवान में सांस ले पा रहे हैं .संकलनीय !
बेहतरीन लेख...... देश के पहले झंडा गीत से रु-बरु करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद!
शहीद अजीमुल्लाह खान को शहरोज़ की खिराज़े अकीदत बडी भाव पूर्ण है..वह भी तथाकथित आज़ादी दिवस के अवसर पर..मेरा स्पष्ट मानना है कि अगर भारत को कोई आन्दोलन या उसके किसी अतीत के आंदोलन के ज़रिये से जाना जा सकता है या उसकी सही व्याख्या की जा सकती है तो वह एक मात्र १८५७ का गदर है जिससे किसी विशाल, अविभाजित, गंगा-जमुनी तहजीब याफ़्ता किसी मुल्क की कोई नज़ीर मिलती है या कोई तस्वीर दिखाई पडती है..यही वो आन्दोलन था जो पूरे देश को एक जुट रख सकता था और दुख की बात यह है कि इसे भुलाने की कोशिशें पहले अंग्रेज़ों ने की और फ़िर बाद में देसी हुक्मरानों ने की..एक साजिश के तहत..अगर १८५७ को याद किया गया तो इनके सारे तथाकथित राष्ट्र नेता, बापू, बापा, चाचा, चाची सब फ़ीके पड जाते..१८५७ का विद्रोह भारत का पहला विद्रोह था जिसके नीचे किसी राष्ट्र की नींव सुलग रही थी..हालाकि कोई ७ रियासतों का ये विद्रोह था और उसके खिलाफ़ कोई २० रियासतों ने अंग्रेज़ों के साथ मिलकर इसको कुचला था जिसमें आधुनिक दुनिया का सबसे बडा रक्तपात हुआ था कोई दो लाख लोगों की निर्मम हत्यायें की गयी थी..जिसके बाद अग्रेंज हकुमत और ९० साल तक राज कर पायी..लेकिन यह बहा हुआ खून उन्हें हमेशा सालता रहा...आज तक किसी देशभक्त सरकार ने १८५७ के गदर की कोई जांच नही करायी और आज तक अंग्रेज़ों से इसका विवरण मांगा..आज भी आम भारतीय को यह नही पता कि उसके कितने लोग शहीद हुये हैं..माफ़ी और मुआवज़ा तो ये शिखण्डी क्या मांगेंगे..?? शहरोज़ साहब आपसे कुछ ही मील की दूरी पर..हिण्डन नदी के तट पर घमासान युद्ध हुआ था, अग्रेंज़ तोपों ने बाबा शाहमल के नेतृत्व में कोई ५००० देशभक्तों की लाशें गिराई थी..शाहमल एक गुर्जर नेता थे जो बाद में फ़रारी का जीवन व्यतीत करते हुये एक मुस्लिम दारोगा द्वारा सोते वक्त मार दिये गये थे..अंग्रेज़ सरकार को जब इस हाकिम ने बाबा शाहमल के सर की भेंट चढाई तो सरकार ने इसे नवाब बना दिया..और ये ज़िला मेरठ की तहसील बागपत में एक जगह है जिसे नवाब कोकब के नाम से जाना जाता है..ये घर आज भी कांग्रेसी है...ऐसा क्यों हुआ...कोकब से लेकर सिंधिया तक के इतिहास की सब पर्ते खुल जायेंगी अगर १८५७ के बारे में चर्चा चली..ये अपराध गुर्जरों ने किया था जिसकी आज तक हम उन्हें सजा दे रहे हैं...
खैर..आपका खोज पूर्ण लेख..लोगों को और खोज बीन करने को प्रेरित करेगा..हापुड में बस अड्डे के सामने एक बडा विशाल बरगद का पेड है जहाँ न जाने कितनो को फ़ाँसी दे गयी थी..१८५७ में आज भी कुछ लोग हैं जो उस पेड की अहमियत मानते हैं..मई माह में एक मेला भी भरता है उस छोटे से मैदान में..
सादर
आज जिस प्रकार जाति,धर्म और क्षेत्र व भाषा ,मंदिर-मस्जिद को राष्ट्रीयता से ज़्यादा महत्त्व दिया जाता है , ऐसी संकीर्णता के पोषक या तो राष्ट्रिय आन्दोलन से अनभिज्ञ हैं या जानबूझ कर पाश्चात्य साम्राज्यवादी शक्तियों के उस षडयंत्र के यंत्र बने हुए हैं, जिसे देश की एकता अखंडता के विरुद्ध रचा गया है.
सेनानी अज़ीमउल्लाह ख़ान और झंडा गीत पर विस्तृत जानकारी देने के लिए आपका शुक्रिया!!
अभी फिर से ‘जन गण मन’ को पढ़ा। इस नए वाले मे एक भी उर्दू का शब्द नहीं है। और ‘जन गण मन’ का यह अधिनायक कौन है यह भी साफ नही। असदउल्ला खान वाले में साफ कहा गया है कि ‘ये है हमारी मिल्कियत’, लेकिन नए वाले में तो यह ‘जन गण मन’ वाकई जिसका हिंदुस्तान मिल्कियत है ‘अधिनायक’ के आधीन है। इसी अधिनायक के अधीन भारत की जनता है। जबकि पुराने वाले में गान में यह साफ-साफ झलकता है कि ‘हिंदुस्तान’ जनता का है....और वह खुद अपने भाग्य की विधाता है....कोई अधिनायक नहीं.... आज शहीदों ने है तुमको अहले वतन ललकारा
तोड़ो गुलामी की जंज़ीरें बरसाओ अंगारा।
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रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.
न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी