बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शनिवार, 26 जून 2010

नक्सल आन्दोलन के साथ सरकार के हाथ से झर झर गिरते समय की कथा



नक्सल आन्दोलन  के साथ सरकार के हाथ से झर झर गिरते समय की कथा ,
जहां स्थानीय प्रशासन की बदौलत नक्सली के बस स्टैंड के ठेके  हैं तो उसी को पकड़ने के लिए  डेरा
माये  पुलिस का अमला !रांची से महज़ कुछ ही फासले पर है बुंडू...यानी नक्सलियों का हाल मक़ाम !जिसकी कहानी में कोई रोमान नहीं है.जगह जगह पसरी उदासी है..दिन उजाले रात का घुप्प अंधियारा भरा सन्नाटा है.. ... और  मौत - मुआवजे के खेल में  फुटबाल की  तरह  उछाला जा रहा  एक पिता ....













गुन्जेश की क़लम से




16/06/10 की सुबह फोन पर तय हुआ कि ९ बजे दफ्तर पहुचना है , वहीँ से कहीं बाहर चलेंगे.  न पूछने की आदत है और न ही वक़्त था . सुबह के आठ बज रहे थे. नींद हवा में बिखरी हुई थी पर उससे ज्यादा रोमांच था. पहली बार किसी  वरिष्ठ पत्रकार के साथ घुमक्कड़ी  का मौका हाथ आया था. करीब पौने दस बजे हमारी यात्रा शुरू . निराला जी से पूछा - हम कहाँ जा रहे है? क्या रिपोर्ट करना है? 



- कुछ तय नहीं है फ़िलहाल बुंडू जायेंगे.

रांची  और आस-पास को जानने वाले जानते होंगे कि बुंडू  पिछले छः-सात वर्षों से नक्सली प्रभावित इलाकों में है. नक्सलियों और सरकार के बीच जो द्वन्द चल रहा है और उसमें आम जनता की जो हालत है, उसके प्रति संवेदना रखने वाला अब एक ऐसा वर्ग बन तो रहा है जो तटस्थ भी नहीं है और न सरकार के पक्ष में है, न नक्सलियों के पक्ष में. लेकिन चूँकि वह हर तरह के सत्ता से इंकार कर रहा है. इसलिए उसके पक्ष में कहीं कोई मीडिया नज़र नहीं आता.  बन रहे रिंग रोड में आगे चलती ट्रकों ने धूल  की एक दिवार सी खड़ी कर दी थी. सफर में धूलधक्कड़  हो तो सफर क्या ?  
 निराला जी  आठ-नौ वर्षों से रांची में है और अपनी सरोकारों वाली पत्रकारिता के नाते जाने जाते हैं. भर रास्ते उनसे कई तरह की बातें हुई पत्रकारिता और प्रेम पर...रिपोर्टिंग और आज कल खबर बनाने के तरीकों पर. 

करीब एक घंटे चलने के बाद हम बुंडू चौराहे पर थे. वहां पहुँचने से दो किलोमीटर पहले से ही हम आपने स्थानीय संवाददाता से फ़ोन पर संपर्क साधने की कोशिश कर रहे थे, और उसमें असफल रहे थे. बुंडू पहुँच कर भी स्थिति बहुत नहीं बदली थी पर अब आगे के काम के लिए जो पहली शर्त थी वह थी - एक कप चाय. चाय पीते हुए हमने आस-पास का जायजा लिया. बुंडू में स्थिति का अंदाजा तो हमें तभी हो गया. जब, हमने एक दुकानदार से बात करनी शुरू की . शुरुआत में तो उसने हमें सारी जानकारी दी जैसे दुकान पहले रात दस-ग्यारह बजे तक खुली रहती थी , पुलिस के नए अफसर के आ जाने के कारण अब नौ बजे तक ही दुकान बंद हो जाती है. लेकिन जैसे ही हमने उससे  पूछा कि कुंदन पाहन कौन है? हमने बहुत नाम सुना है उसका?


 उसके मुह से एक भी शब्द नहीं निकले और हमें वहाँ से बैरंग अपने स्थानीय संवाददाता की तलाश में बचे आखरी जगह बुंडू अनुमंडल कार्यालय की तरफ रुख करना पड़ा. शहर या क़स्बा कितना भी छोटा हो अदालत जैसी जगहों पर आज कल भीड़-भाड़ ज्यादा रहने ही लगी है, इसी भीड़ में हमें मिले हमारे स्थानीय संवाददाता. बात-चीत के दौरान पता चला कि वो पेशे से वकील भी है और हर रोज़ दस बजे से साढ़े बारह बजे तक यहीं रहते हैं. थोड़ी ही देर में उन्होंने हमें अपनी पीएचडी की सानोप्सिस भी दिखाई तो हम दंग रह रह गए. खैर स्थानीय संवाददाता ने हमें पहले ही चेताते हुए कहा कि जो भी काम करना है २ बजे तक कर लीजिये हमारे घर में मेहमान आये हुए है शादी  में जाना है. 
उन्होंने बताया कि बुंडू में नक्सलियों और पुलिस के बीच कभी भी बड़ी लड़ाई हो सकती है. बुंडू बस स्टेंड के ठेके जो पहले कुंदन पाहन (नक्सलियों का तथाकथित  नेता, दरअसल हम यह भी जानने की कोशिश कर रहे थे कि कोई कुंदन पाहन है भी या नहीं)  के आदमियों को मिलते थेऔर जिसके कारण जनादालत  में एक की हत्या पहले ही हो चुकी है. माना जाता है कि धनञ्जय मुंडा जिसके पास बस स्टैंड का ठेका था उसने कुंदन पाहन को हिसाब देने में गड़बड़ी की और उसकी हत्या जनादालत में कर दी गई  .उसके बाद उस ठेके को लेकर काफी तनाव रहा और दो साल बस स्टैंड का ठेका किसी को नहीं मिला इसबार यह ठेका पुलिस के द्वारा स्थानीय लोगों के साथ मिलकर बने "समाजसेवक दल" को दिया गया है. सूत्रों का कहना है कि इस दल में भी वही लोग हैं जो पहले कुंदन पाहन के दल में शामिल थे और अब प्रशासन के साथ मिलकर यह "समाजसेवक दल" बना कर काम रहे हैं. आस-पास कहीं कैम्प है क्या पुलिस काहमारे संवाददाता ने बताया , बहुत है.
-कितनी दूरी  पर?
-पांच-छः किलोमीटर
-गावों है वहां ?
-हाँ बराहातु गावं.
हम वहां चल सकते हैं अभी?
हमारा यह सवाल शायद भाई आनंद को झल्ला गया था. फिर भी उन्होंने कहा कि जा तो सकते हैं लेकिन दो बजे तक वापस आना होगा. आप अपनी गाड़ी यहीं रहने दीजिये तीनो एक ही गाड़ी से जायेंगे .........
और शुरू हुआ आनंद भाई की आगुवाई में हमारा सफर. 

बाइक की हैंडल संभाले आनंद भाई हमें हर उस जगह के बारे में बता रहे थे जहाँ सत्ता के संघर्ष के अवशेष मौजूद थे . कहाँ,  किस जगह पर पुलिस के  लैंड माइन डिटेक्टर वाहन को उड़ाया गया था, कहाँ  पुलिया में केन बम लगाया गया था,.


 और जो सामने से आ रहा है, बहुत फटेहाल दिख रहा है वह इस गावं का प्रधान है,और ऐसा नहीं है कि वह अच्छे कपडे नहीं पहन सकता लेकिन उसे डर है कुंदन पाहन का. उन्होंने हमें वह स्कूल भी दिखाया जहाँ वर्ष 2008 में विधायक रमेश सिंह मुंडा की हत्या कर दी गई थी अब उस स्कूल को उन्हीं के नाम पर कर दिया गया है. 'पढ़ाई होती है यहाँ ' -पूछने पर आनंद भाई उछले हुए स्वर में बताते हैं , होती है बच्चे आते हैं.  






















कच्ची-पक्की सडक पर चार-पांच किलोमीटर चलने के बाद हम देखते हैं सुखी लकड़ियों के कुछ बण्डल यूँ ही बेतरतीब पड़े हुए हैं. आम तौर से जब आप झारखण्ड के गाँव में प्रवेश करते हैं तो  आपका स्वागत सड़क पर खेलते नंग-धडंग बच्चे, बच्चों के साथ खेलते चूजे और पेड़ों पर चह चहाती पक्षियाँ  करेंगी लेकिन यहाँ एक घुप सन्नाटा था जिसे सिर्फ  मेरी स्मृति में  स्वयं सृजित नक्सालियों की छवि  तोड़ रही थी. अब तक फिल्मों में देखा था  एक गावं जहाँ किसी का ऐसा आतंक है कि उसकी मर्ज़ी के बीना पत्ता तक नहीं हिलता .पहली बार ऐसा सच में देखा .... पहली बार आतंक के चेहरे को मैं हवा में आकार पाते देख रहा था. कि तभी तारों से घिरे और रेत भरी बोरियों से लदे एक भवन को देखा. इससे पहले कि हम कुछ पूछते आनंद भाई ने बताया यही कैम्प है, कैम्प से पहले यह स्कूल था.

हम कैम्प पार कर उसके ठीक पीछे पहुँच चुके थे. "यहीं रुकते हैं" शायद आनद भाई के किसी परिचित का घर था जिसमें एक छोटी सी दुकान भी चलती है. हम घर के बाहर ही बैठे और कुछ औपचारिक सवाल जो स्वत: ही ऐसे अनौपचारिक हालात को देख कर मन में उठते हैं हमारे भी मन में उठे! बात किससे की जाये.  पांच सौ की आबादी वाले इस गावं में एक सवा घंटे तक हमें कुछ बच्चों को छोड़ और कोई नहीं दिखा. स्कूल के ठीक पीछे ही है गावं का तीन कमरों वाला पंचायत भवन जिसमें अब वो स्कूल भी चलता है जिसपर फ़िलहाल सी आरपीऍफ़ की टुकड़ी टिकी हुई है. 


























गावं में कुल पांच सौ घर हैं उन पांच सौ घरों के बच्चे उसी पंचायत भवन में पढ़ते हैं जहाँ गावं का स्वस्थ्य केंद्र भी है. करीब आधे घंटे उस पंचायत भवन के पास टहलने के बाद हमें एक व्यक्ति मिला जो उम्र से ज्यादा बुढा दिख रहा था और हमसे बात करने में अतिरिक्त सावधानी भी बरत रहा था,. उसकी आँखों में समय का भूरापन था और शब्द कहीं दूर उदासी के किसी खंडहर से निकलते थे जो कई बार तो हमारे  कानो तक पहुँचने से पहले ही भय से भरे वायुमंडल में खोते जा रहे थे.
-प्रेस से हैं?
-हाँ , कुछ बताइए क्या हाल चाल है खेती बारी कुछ है ?
-हाँ ....(कैम्प की हरफ देखते हुए) सब ठीके है क्या होगा यहाँ , स्कुल का क्या हाल है देखिये रहे हैं केतना लिख के दिए लेकिन छो महिना से इलोग कह रहा है की एक महिना और एक महिना और ... 
-और कोई दीखता नहीं है सब काम पे गया होगा न?
-नहीं सब घरे में है नहीं निकलता है घर से निकलेगा तो चार ठो लोग मिलेगा बात भी होगा मीटिंग करना मना गावं में ....
-गावं में बिजली है ?
-2002 के बाद से नहीं है..
तब तक आनंद भाई की घडी उनके  सब्र को तोड़ने लगी थी - "चलिए सर अब हमको जाना है घर में मेहमान लोग आ गया है.."
-हाँ जाइये आप लोग यहाँ ज्यादा देरी मत रुकिए (यह उस गावं का आदमी बोल रहा था )
-अच्छा यहाँ किसी को नक्सली लोग मारा है क्या ?
-(थोड़ी देर की चुप्पी के बाद) हाँ रमेश सिंह मुंडा के साथ ही एक लड़का मारा गया था ....
फिर आनंद भाई बताते हैं ..स्कूल में बहुत अच्छा नंबर लाया था उस दिन विधायक जी से उसको इनाम मिलता .....चलिए न हम बताते हैं आपको .
-यहीं पर तो है उसका घर, उसको तो २ लाख देने का बात भी था बंधू तार्कि बोला था लेकिन कहाँ मिला ..एक प्रेस वाला पहले भी आया था नंबर दे के गया की पैसा नहीं मिले तो फ़ोन करना लेकिन फोने नहीं उठता है लोग....यह एक गावं वाले की व्यथा थी तो तमाम पहरों के बाद भी फूट पड़ी . इसके बाद हमने जो कुछ भी देखा सुना समझा उसे देख समझ और सुनकर कोई भी बस यही कह सकता है कि आखरी आदमी हर तरफ से सिर्फ आखरी आदमी है जिसे तमाम वादे तो सबसे पहले किये जाते हैं पर जब वादों को पूरा करने की  बारी आती है तो उस आखरी आदमी का नंबर शायद कभी आता ही नहीं ....




























लगभग १०० मीटर चलने के बाद हम लोग 'सुभाष पातरके घर के बाहर थे. अब 'सुभाष पातर का ध्यान करते ही सूर्यकांत त्रिपाठी 
निराला की कविता याद हो आती है -" पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक ...." पर 'सुभाष भिखारी नहीं अधिकारी है,सरकारी मुआवज़े की  राशी का जिसे देने का वादा सरकारी महकमे ने किया है.
'सुभाषरामधन पातर के पिता हैं. राम धन पातर वही है जिसकी हत्या  2008 में उग्रवादियों ने विधायक रमेश सिंह मुंडा के साथ कर दी थी . उसी समय घोषणा की  गई थी कि 'सुभाष पातर को दो लाख रुपये मुआवज़े के रूप में दिए जायेंगे. एक बेटे को गवा कर दुसरे  को गोवा भेज देने वाले 'सुभाष पातर हमें सारे कागजात दिखाते हैं. कब- कब कहाँ, कहाँ गए सब कुछ बताते हैं. उन्हें उम्मीद है ,जब झारखण्ड में सरकार होगी तो उन्हें उनका पैसा भी जरुर मिलेगा .........
आनंद भाई हड़बड़ी में हैं, हलकी-हलकी चल रही हवा, और उनसे उठने वाला पत्तों का शोर  मन में सिहरन पैदा कर रही है. स्कूल के छत पर पुलिस वालों की  संख्यां बढती जा रही है. अंत में नज़रे मिलने पर छत से ही एक सिपाही हमसे पूछता है, क्या बात है.? आनंद भाई अतिरिक्त सावधानी से बताते हैं "प्रेस से हैं" .  
 मौत और मुआवजे के इस खेल में एक पिता फुटबाल की  तरह  उछाला जा रहा है, हम गावं छोड़ बाहर आ चुके हैं लेकिन पीठ पर एक डर सा चिपक गया है. यह क्या है? या शायद फिर कभी जान पाऊं......





[लेखक-परिचय:जन्म: बिहार के अनाम से गाँव में ९ जुलाई १९८९ ,
शिक्षा ;जमशेदपुर से स्नातक.
सम्प्रति : महात्मा गांधी हिंदी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय से जन संचार में एम ए के छात्र
और प्रभात खबर के रांची संस्करण में प्रशिक्षु पत्रकार.]

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शुक्रवार, 25 जून 2010

चम्बल के बीहड़ ...ज़िंदगी के रेतीले सफ़र





 







शाह आलम की क़लम से












 






बीहड़ कभी भी अपनी जगह नहीं बदलते पर बदल गए हैं बीहड़ों के रास्ते और उनकी उम्मीदें ! उम्मीदों पर ग्रहण है तो आशाओ पर पानी की गहरी धार.जिसमे से बिना सहारे के निकलना बीहड़ों के खातिर चुनौती भी है और जरुरी भी.कभी बीहड़ो की ओर रुख कीजिये तो उपेक्षा ही नज़र आएगी .
डकैतों के खात्मे के बाद विकास के नाम पर अरबों रुपयें मिले पर विकास आज भी उनसे मीलों  दूर है . रहन- सहन आदिम युग  का है .अपराधी यही पनपते है और भोगोलिक परिस्थितियाँ   उनका साथ देती है.बीहड़ मैं दस्यु समस्या अभी भी मुह फैलाये  खड़ी है.कभी पुलिस का आरोप तो कभी डकैतों  की  कारगुजारियो का दंश. शायद  यही बीहड़  का दुर्भाग्य बन गया है. विकास की बातों पर  ग़ौर  करें विकास में बीहड़ उपेक्षीत    है. क्योंकि विकास का पैकज  बुंदेलखंड के हिस्से में जाता  है और यहाँ विकास के दावे तक का अपहरण तरह-तरह के झंडे वालों द्वारा किया जाता रहा है. स्थानीय  नेता भी बीहड़ो का रुख नहीं करना चाहते,लिहाजा उनको बीहड़ो का दर्द नहीं  समझ  आता. बीहड़ के गावों के  विकास की खातिर " खेत का पानी खेत में और गाँव का पानी तालाब में " साथ ही अनेक भूमि सुधार  योजनाओ का लाभ महज  उन्ही जगहों  पर हुआ है जहाँ आला अधिकारियो  का दौरा  कराया जाना है ,बाकि के किसानो  के हाथ खाली ही रहे  हैं. बीहड़वासियों    के बूढी आँखों  में विकास के सपने तो पलते है पर हकीकत का रूप लेने से पहले ही  कईयों आँखें  बंद हो चुकी हैं उम्मीदों  पर ग्रहण है तो भविष्य गर्त में नज़र आता है. विकास के ठेकेदार रसूख वाले बन बेठे हैं. जिनको विकास के नाम पर हर पांच  साल बाद वोट लेना है. उन्हें इस बात से कुछ लेना देना नहीं है कि विकास की जमीनी  हकीकत क्या है ? कभी कोई बीहड़ो का रुख करता भी हैं तो बंजरो में कटीली झाड़ियो के बीच फिर से खुद को न उलझने का जज्बा लेकर जाता है. खबरिया संस्थाओं के लिए बीहड़  जभी खबर बनता है जब गोलियां चले तोप दागे जाएँ......उन्हें यहाँ दम तोड़ती..कोई बुधिया या तिल तिल दाने को तरसते लोग किसी प्रेमचंद कालीन उपन्यास के पात्र लगते हैं.






 











भोगोलिक परिस्थितियाँ  दस्यु समस्या के लिए ज्यादा जिम्मेदार रही हैं. डकैतों की भूमि  तो पहले भी चम्बल रहा है. बात करीब १९२० के आसपास की हैं जब ब्रह्मचारी  डकैत ने डकैती छोडकर आज़ादी के समर में कूदा था, पर  आज़ादी के इतिहास के समरगाथा से ब्रह्मचारी  डकैत  गायब हैं.बीहड़ न सिर्फ विकास में बल्कि इतिहास में भी उपेक्षा झेलता आया है. आज बीहड़ की पहचान उसकी बदनामी से ही होती है. निर्भेय गुर्जर,फक्कड़ ,कुशमा ,रज्जन ,जगजीवन आदि ऐसे नाम रहे
हैं जिन्होंने अपने दस्यु जीवन में बीहड़ों को अपने खौफ से उबरने दिया वहीँ दस्यु  सुन्दरी  सीमा परिहार के भाग्य का निर्णय मुम्बैया फ़िल्मी बाजार  तय नहीं कर सका.

बीहड़ में अवाम का सिनेमा

आज बीहड़ों का कसूर    क्या है ? क्या इस पर बदनुमा दाग बरकरार रहेगा ? या फिर सहयोग की खातिर हाँथ  बढाने में कोई झिझक है ! हमारा मानना है कि बीहड़ों का शानदार इतिहास दुनिया के सामने आये न कि इसका बदनुमा अतीत. बीहड़ो में कुछ दर्द है कुछ शिकायत हैं कुछ अपनापन है तो  कुछ पाने कि हसरत भी इन  बीहड़ों में छीपी है . बीहड़ों की  रवानी को दुनिया के सामने लाने की  हसरत ही फिल्म उत्सव आयोजन का मकसद बनी . उम्मीदों से परे यह फिल्म उत्सव उन बीहड़ गावो में आयोजित हुआ जो दस्युओ  से प्रभावित  रहे हैं. मार्च में औरैया, इटावा, मालवा, अम्बेडकर नगर, मऊ में फिल्म उत्सव का आयोजन किया गया . जिसमे खास तौर से जन सरोकारों पर केन्द्रित युवा फिल्मकारों की फिल्मो का प्रदर्शन करउन्हें प्रोत्साहन देना है. "अवाम का सिनेमा " के माध्यम से आम जन संवाद हो  . इसी क्रम में देश में फिल्म के बहाने युवा प्रतिरोध को स्वर दे सकेंगे , उम्मीद दिखती है.















सभी चित्र  शाह आलम द्वारा उपलब्ध.

 [ लेखक-परिचय :शाह आलम बस्ती जिले के रहने वाले हैं।
शिक्षा : समाज कार्य [social work]  में एम ए किया। 
फैजाबाद में विभिन्न सामाजिक कार्यों में संलग्न रहे। उसके बाद दिल्ली आ गए।
सम्प्रति :जामिया मिल्लिया इस्लामिया से एम फिल कर रहे हैं।]

साभार रंगनाथ सिंह का बना रहे बनारस 
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बुधवार, 23 जून 2010

अभिशप्त एक और भोपाल! एंडरसन भागा नहीं है !!!!

 










आवेश की  क़लम से

 बाँध में महल के साथ डूब गयी रानी रूपमती का क़िस्सा 













वारेन एंडरसन के भागे जाने पर हो हल्ला मचाने वाला मिडिया कैसे नए नए भोपाल पैदा कर रहा है. आइये हम आपको इसकी एक बानगी दिखाते हैं | हम बात कर रहे हैं उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जनपद की ! यह देश में हर जगह पैदा हो रहे भोपाल का क़िस्सा है . दरअसल यह हिंदुस्तान के स्विट्जरलेंड  की तबाही का क़िस्सा है . रिहंद बाँध में अपने महल के साथ डूब गयी रानी रूपमती का क़िस्सा है . यह मंजरी के डोले का क़िस्सा है और लोरिक की बलशाली भुजाओं को आज तक महसूस कर रहे चट्टानों का भी क़िस्सा है .
सोनभद्र हम इसे देश की उर्जा राजधानी भी कहते हैं ये क्षेत्र देश का सबसे बड़ा एनर्जी पार्क है सोनभद्र सिंगरौली पट्टी के लगभग ४० वर्ग किमी क्षेत्र में लगभग १८००० मेगावाट क्षमता के आधा दर्जन बिजलीघर मौजूद हैं जो देश के एक बड़े हिस्से को बिजली मुहैया करते हैं . अगले पांच वर्षों में यहाँ रिलायंस और एस्सार समेत निजी व् सार्वजानिक कंपनियों के लगभग २० हजार मेगावाट के अतिरिक्त बिजलीघर लगाये जायेंगे . बिरला जी का अल्युमिनियम और कार्बन , जेपी का सीमेंट और कनोडिया का रसायन कारखाना यहाँ पहले से मौजूद है .यह इलाका स्टोन माइनिंग के लिए भी पूरे देश में मशहूर है .

और हाँ ! यहाँ पांच लाख आदिवासी भी मौजूद हैं जिन्हें दो जून की रोटी भी आसानी से मयस्सर नहीं होती | सोनभद्र की एक और पहचान है यहाँ आठ नदियाँ भी हैं जिनका पानी पूरी तरह से जहरीला हो चुका है . यह इलाका देश में कुल कार्बन डाई ओक्साइड का १६ फीसदी अकेले उत्सर्जित करता है | सीधे सीधे कहें तो यहाँ चप्पे चप्पे पर यूनियन कार्बाइड जैसे दानव मौजूद हैं. इसके लिए सिर्फ सरकार और नौकरशाही तथा देश के उद्योगपतियों में ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने के लिए मची होड़ ही जिम्मेदार नहीं है ,सोनभद्र को जनपदोध्वंश के कगार पर पहुँचाने के लिए बड़े अखबारी घरानों और अखबारनवीसों का एक पूरा कुनबा भी जिम्मेदार है.


कनोडिया केमिकल देश में खतरनाक रसायनों का सबसे बड़ा उत्पादक है . कनोडिया के जहरीले कचड़े से प्रतिवर्ष औसतन ४० से ५० मौतें होती हैं . वहीँ हजारों की संख्या में लोग आंशिक या पूर्णकालिक विकलांगता के शिकार होते हैं मगर खबर नहीं बनाती क्यूंकि कनोडिया अख़बारों की जुबान बंद करने का तरीका जनता है ,पिछले वर्ष दिसंबर माह में उत्तर प्रदेश -बिहार सीमा पर अवस्थित सोनभद्र के कमारी डांड गाँव में कनोडिया द्वारा रिहंद बाँध में छोड़ा गया जहरीला पानी पीकर २० जाने चली गयी उसके पहले विषैले पानी की वजह से हजारों पशुओं की मौत भी हुई थी ,मगर अफ़सोस जनसत्ता को छोड़कर किसी भी अखबार ने खबर प्रकाशित नहीं कि जबकि जांच में ये साबित हो चुका था मौतें प्रदूषित जल से हुई है ,हाँ ये जरुर हुआ कि इन मौतों के बाद सभी अख़बारों ने कनोडिया के बड़े बड़े विज्ञापन प्रकाशित किये थे ,ऐसा पहली बार नहीं हुआ था इसके पहले २००५ जनवरी में भी कनोडिया के अधिकारियों की लापरवाही से हुए जहरीली गैस के रिसाव से पांच मौतें हुई ,लेकिन मीडिया खामोश रहा |

मीडिया अब भी ख़ामोश है जब सोनभद्र के गाँव गाँव फ्लोरोसिस की चपेट में आकर विकलांग हो रहे हैं यहाँ के पडवा कोद्वारी ,कुसुम्हा इत्यादि गाँवों में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो फ्लोरोसिस का शिकार न हो ,जांच से ये बात साबित हो चुकी है कि फ्लोराइड का ये प्रदूषण कनोडिया और आदित्य बिरला की हिंडाल्को द्वारा गैरजिम्मेदाराना तरीके से बहाए जा रहे अपशिष्टों की वजह से है |बिरला जी के इस बरजोरी के खिलाफ लिखने का साहस शायद किसी भी अखबार ने कभी नहीं किया ,हाँ वाराणसी से प्रकाशित गांडीव  ने एक बार हिंडाल्को द्वारा रिहंद बाँध में बहाए जा रहे कचड़े पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी | आखिर करता भी कैसे? जब दैनिक जागरण समेत अन्य अख़बारों में नौकरी भी हिंडाल्को के अधिकारियों के रहमोकरम पर टिकी होती है |
शायद और हाँ ! विश्वास करना कठिन हो मगर यह  सच है कि यहाँ के हिंदी दैनिकों ने अपने सोनभद्र के कार्यालयों पर सालाना विज्ञापन का लक्ष्य एक से डेढ़ करोड़ निर्धारित कर रखा है ,इनमे वो विज्ञापन शामिल नहीं हैं जो जेपी और हिंडाल्को समेत राज्य या केंद्र सरकार की कमानियां सीधे या एजेंसियों के माध्यम से देती हैं ,अगर इन सबको शामिल कर लिया जाए तो सोनभद्र से प्रत्येक अखबार को सालाना ८ से १० करोड़ रूपए का विज्ञापन मिलता है. इन अतिरिक्त विज्ञापनों का लक्ष्य यहाँ के गिट्टी बालू के खनन क्षेत्रों से प्राप्त किया जाता है .  खनन क्षेत्र जिन्हें “डेथ वेळी “कहते हैं और जो सरकार प्रायोजित भ्रष्टाचार और वायु एवं मृदा प्रदुषण का पूरे देश में सबसे बड़ा उदाहरण बने हुए हैं पर कोई भी अखबार कलम चलने का साहस नहीं करता जबकि यह अकाल मौतों की सबसे बड़ी वजह है . और तो और यहाँ की खदानों से निकलने वाली भस्सी ने हजारों एकड़ जमीन को बंजर बना डाला .
ख़बरें न छापने की वजह भी कम खौफनाक नहीं है . यह आश्चर्यजनक लेकिन सच है कि सोनभद्र में ज्यादातर पत्रकारों की अपनी खदाने और क्रशर्स हैं जिनकी नहीं हैं उनकी भी रोजी रोटी इन्ही की वजह से चल रही हैं . ख़बरें ना छापने की कीमत वसूलना अखबार भी जानते हैं ,पत्रकार भी |
सोनभद्र के बिजलीघरों से प्रतिवर्ष लगभग डेढ़ टन पारा निकलता है . हालत यह हैं कि यहाँ के लोगों के बालों ,रक्त और यहाँ की फसलों तक में पारे के अंश पाए गए हैं ,इसका असर भी आम जन मानस पर साफ़ दीखता हैं . उड़न चिमनियों की धूल से सूरज की रोशनी छुप जाती है और शाम होते ही चारों और कोहरा छा जाता है . भारी प्रदुषण से न सिर्फ आम इंसान मर रहे हैं बल्कि गर्भस्थ शिशु भी  | मगर ख़बरें नदारद हैं .वजह साफ़ है, सभी अखबारों के पन्ने दर पन्ने प्रदेश के उर्जा विभाग के विज्ञापनों से पटें रहते है . सैकड़ों की संख्या में मझोले अखबार तो ऐसे हैं जो बिजली विभाग के विज्ञापनों की बदौलत चल रहे हैं . ये एक कड़वा सच है कि उत्तर प्रदेश सरकार के ओबरा और अनपरा बिजलीघरों को पिछले एक दशक से केंद्रीय प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड के अन्नापत्ति प्रमाणपत्र के बिना चलाया जा रहा है जबकि बोर्ड ने इन्हें बेहद खतरनाक बताते हुए बांड करने के आदेश दिए हैं.

क़िस्सा  इसलिए क्यूंकि हम एक ऐसे देश में जी रहे हैं जहाँ मौजूद मीडिया को मुगालता है कि वो देश,समय,काल को बदलने का दमखम रखता है | मगर खबर नदारद है क्यूँकि वारेन एंडरसन हिंदुस्तान से भाग चुका है |
लेकिन क्या कर लेंगे आप
सोनभद्र का एंडरसन भागा नहीं है !!





[लेखक-परिचय : बहुत ही आक्रामक-तीखे तेवर वाले इस युवा पत्रकार से आप इनदिनों हर कहीं मिलते होंगे, ज़रूर.! .आपका का ब्लॉग है कतरने. लखनऊ और इलाहाबाद से प्रकाशित हिंदी दैनिक डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट में ब्यूरो प्रमुख। पिछले सात वर्षों से विशेष तौर पर उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जनपद की पर्यावरणीय परिस्थितियों का अध्ययन और उन पर रिपोर्टिंग कर रहे हैं। आवेश से awesh29@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। ]
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सोमवार, 21 जून 2010

ईरान की गोली

 







विश्व के  चौधरी ने खाप लगा कर फ़तवा जारी कर दिया है कि खबरदार ! होशियार ! इराक़ के बाद अब बारी ईरान की है ! और आरोप वही हैं जो इराक़ पर थे और उस मुल्क की तबाही वहाँ के तेल कुएं पर कब्जे के बाद गलत साबित हुए थे.खैर, लेकिन आप उस गोली का क्या करेंगे  ! जो तेज़ से तेज़ तर होती जा रही है.जिसके  निशाने पर पूरी दुनिया है.उसे बच्चों की मुस्कान लह लहाती  फसलों में, तो कभी किसी फूल में दिखाई देती है.

उम्र 11 किताब 34

शर्म आती है लिखते हुए कि चौंतीस साल में हमलोग ग्यारह किताब नहीं लिख पाए.कभी समय का रोना तो कभी स्थितियों का विलाप ! लेकिन उसकी  उम्र महज़ ग्यारह साल है और उसने अब तक 34 किताबें लिख दीं हैं। किताबों की बिक्री से मिले पैसे का सदुपयोग अनाथ बच्चों के लिए किया जाता है.यह उसका ही निर्णय है.जी ! आप सही समझ रहे हैं मैं ईरान की रहने वाली विश्व की सबसे कम आयु की रचनाकार  मेलिका गोली की बात कर रहा हूँ. इस तरह वह दुनिया की सबसे कम उम्र की दानी भी है।

मुझको जाना है अभी ऊंचा हद-ए-परवाज़ से .उसके आदर्श हैं फ़ारसी के ख्यात साहित्यकार फ़िरदौसी और प्रचुर लेखन कर उन्हीं की  तरह रिकॉर्ड  बनाना चाहती है.आगे उसने  कहा कि हालांकि  उसे पता है कि वह  उस शिखर तक  कभी नहीं पहुँच सकती. क्योंकि वह वास्तव में एक महान व्यक्तित्व थे . बच्चों के लिए लिखने का उसका इरादा जीवन भर है . इरान के मशहद शहर  में अपने  परिवार के साथ रहने वाली मेलिका  जब  सात वर्ष की थी और पहली कक्षा में पढ़ती थी  तो  स्कूल में   आयोजित कहानी लेखन में उसने भाग लिया था. हालांकि, वह मौखिक प्रतियोगिता थी. लेकिन यहीं से उसके  लेखन की शुरुआत होती है.संसार के साहित्य पटल पर सितारे की तरह नमूदार हुई इस नन्ही लेखिका की अब तक चौदह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं.जिनमें भगोड़ा, दौलतअमीर  बाप,दुल्हन,अधिक से कहीं ज्यादा सुंदर, साइकिल, अंतिम समय  और नया बॉस उसकी प्रमुख कृतियाँ  हैं.
मुख्य रूप से विदेशी लेखकों की  किताबें पढ़ने में उसकी  दिलचस्पी है. ब्रिटिश उपन्यासकार रोल्ड   डहल , अमेरिकी साहित्यकार शेल  सिल्वर स्टेन  , डेनिश लेखक हैंस क्रिश्चियन एण्डरसन और ईरान के  लेखकों में  मेहदी अजार यजदी  और सदक़  हिदायत   उसके पसंदीदा लेखकों  में से हैं. उसका कहना है कि बच्चे ज़्यादातर विज्ञान की किताबें पढना चाहते हैं जबकि स्कूल के पुस्तकालयों   में उन्हें धर्म और इतिहास से सम्बंधित पुस्तकें ही मिलती हैं जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए.
फिलहाल वह अपना नाम गिनीज बुक आफ र्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज करवाना चाह रही है। मेलिका के पिता ने  अपनी बेटी का नाम गिनीज बुक ऑफ र्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज कराने के लिए आवेदन कर दिया है। लेकिन गिनीज बुक के अधिकारियों का कहना है कि मेलिका को यह सम्मान देने के लिए उन्हें ईरान सरकार की ओर से भी आधिकारिक आवेदन चाहिए। आगे वे कहते हैं कि उन्हें  नहीं लगता कि इससे पहले इतनी छोटी उम्र का कोई लेखक सामने आया है। ईरान के नेशनल रिकॉर्ड लिस्ट के अधिकारियों ने  इसकी आधिकारिक घोषणा कर दी है कि मोलिका ही सब से कम उम्र की लेखिका है.





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