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सैयद शहरोज़
क़मर की क़मर से
सनातन परंपरा
की अलौकिकता के महाकुंभ सिंहस्थ
उज्जैन में देश-दुनिया
की विभिन्न रंगत अकार ले रही
है। श्रद्धालुओं से घिरे
साधु-संतों
में कई ऐसे हैं,
जो कभी
बिजनेस मेन रहे,
तो कोई
बड़े सरकारी अफसर। सिद्धवट
मंगलनाथ के पास बेतरतीब बढ़ी
हुई दाढ़ी में भगवावस्त्र
धारे एक युवा से भेंट होती है,
जो
स्कूल-कॉलेज
के छात्र-छात्राओं
के बीच अप दीपो भव:
का
प्रचार-प्रसार
कर रहे थे। बीच-बीच
में जब उन्होंने धाराप्रवाह
अंग्रेजी में समाज और राजनीति
पर टीका-टिप्पणी
की,
तो उनकी
विद्वता का पता चला। पता यह
भी चला कि आईआईटी कानपुर से
2003
में
पासआउट यह चंद्रशेखर राजपुरोहित
हैं। जिनका नया परिचय है स्वामी
पशुपतिनाथ,
पता
देश-दुनिया
का कोई भी कोना,
जहां
धर्म की भेड़चाल से तंग लोग
अध्यात्मिक शांति तलाश रहे
हों। बहुत ही मिन्नत के बाद
यह युवा संन्यासी धीमे-धीमे
लहजे में अपने बारे में बताना
शुरू करता है। संकोच के इस
दायरे में भी कई ऐसी बातें
ज्ञात होती हैं,
जो
भौतिकवादी अंधकार में धवल
मार्ग प्रशस्त करती हैं। वह
युवा पीढ़ी से निराश नहीं।
कहते हैं,
अध्यात्मिक
प्रगति समय के साथ परवान चढ़ती
है। ईश्वरज्योति से आलोकित
इस युवा संन्यासी का शेष समय
नाभिकीय संरचना पर केंद्रित
पुस्तक लिखने में गुजरता है।
यूं उन्हें सियासत की वर्तमान
उग्रता से बहुत चिढ़ है। खासकर
धर्म के नाम पर विश्व में हो
रही हिंसक घटनाएं उन्हें
विचलित करती हैं। भारतीय
संदर्भ में उन्होंने संघ पर
आरोप लगाया है कि वो हिंदुओं
की कई समाजिक और समाजिक संस्थाओं
को खत्म करने पर तुला है। पर
उन्हें विश्वास है कि उसके
कट्टरवादी हिंदुत्व का जवाब
आम भारतीय ही जल्द देंगे।
चित्तौड़गढ़
के राजपुरोहित रहे पूवर्ज
चंद्रशेखर
उर्फ स्वामी पशुपतिनाथ के
पूवर्ज चित्तौड़गढ़ राजघराने
के राजपुरोहित रहे हैं। लेकिन
चंद्रशेखर ने आईआईटी कानपुर
से बीटेक इंजीनियरिंग की।
शुरुआती पढ़ाई गुजरात के
बड़ौदा और राजस्थान के पाली
से की। जौधपुर से इंटर करने
के बाद इनका चयन आईआईटी कानपुर
के लिए हो गया। कानपुर से
इंजीनियरिंग करने के बाद
चंद्रशेखर ने इंडस्ट्रीयल
पाटर्स के इंपोर्ट-एक्सपोर्ट
का बिजनेस शुरू किया।
2006
में बनाई
राजनीतिक पार्टी
मानस
में उमड़ते-घूमड़ते
समाजिक परिवर्तन के ज्वार के
कारण चंद्रशेखर का मन व्यवसाय
से उचाट हो गया। इस बीच उनकी
मुलाकात मुंबई और कानपुर के
पांच आईआईटीयंस अजित शुक्ला,
अमित
बिसेन,
संघगोपालन
वासुदेव,
धीरज
कुंभाटा और तन्मय राजपुरोहित
से हुई। सभी ने मिलकर 2006
में
लोक परित्राण नामक राजनीतिक
दल का गठन किया। तमिलनाडु में
विस चुनाव भी लड़े,
पर
हार गए।
अंत
में अध्यात्म ही बना आश्रय
चंद्रशेखर
सदैव शांति की खोज में लगे
रहे। अचानक देश-भ्रमण
पर निकल गए। कहते हैं कि उन्हें
कोई सच्चा गुरु नहीं मिला।
उन्होंने पशुपतिनाथ को ही
अपना गुरु स्वीकार कर तपस्वी
का भेष धारण कर लिया। उनका
कहना है कि उन्होंने भैरवनाथ
का साक्षात दर्शन किया है।
वह सभी कुंभों के अलावा देश
के नगर-कस्बों
का भ्रमण करते रहते हैं।
उद्देश्य एक ही है,
युवाओं
का अध्यात्म से परिचय कराना।
भास्कर के
लिए लिखा गया
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उज्जैन सिहंस्थ
बना सनातन परंपरा की एकता
बंधुत्व का महाकुंभ
सैयद शहरोज़
क़मर की क़लम से
हावड़ा
से चली क्षिप्रा एक्सप्रेस
देर रात ज्योंही भोपाल जंक्शन
से छूटी,
यात्रियों
में खलबली शुरू। कोई एक हो तो
नाम लूं। लगभग 90
प्रतिशत
मुसाफिरों के चेहरे खिल उठे।
मुखर्जीजी हों,
या
यादवजी,
मिश्राजी
हों या कुशवाहाजी,
चौधरीजी
हों या सिंहजी । सिंहस्थ में
पहुंचने के लिए अधिकतर श्रद्धालु
सपरिवार ही ट्रेन पर सवार थे।
रात्रिकाल में उनकी कांतिमयी
उपस्थिति का कारण बनी महाकाल
की नगरी उज्जयिनी।
माताएं,
बहनें
अपने-अपने
बर्थ से उठ बैठीं। अपने-अपने
सामान संभाले। कुछ के हाथों
की मनकाएं रेलचक्र की तरह
तीव्रता से चलने लगीं,
तो
कइयों के होंठ पर मंत्रोच्चार।
उज्जैन स्टेशन पहुंचने से
घंटे भर पहले ही ढेरों ने गेट
पर कतार सी लगा दी। मात्र एक
ही लक्ष्य,
पावन
धरती पर पग धरूं पहले सबसे
पहले। गंतव्य पहुंचने के बाद
जब इनका कारवां कुंभ मेला
पहुंचा,
तो
मंदिरों की आरती,
मस्जिद
की अजान और गुरुद्वारे के
अरदास उजास को अलौकिक कर रहे
थे। जैसे-जैसे
पौ फटता गया,
रामघाट
से भूखीमाता मंदिर घाट तक
क्षिप्रा में डुबकी लगाती
आस्थाएं इंद्रधनुषी होती
गईं। न कोई गोरा,
न
कोई काला। न कोई अगड़ा,
न
कोई पिछड़ा। कोई
भेद नहीं,
न
भाव। सभी एक ही रंग
समरसता
में झिलमिल।
यही सनातन है। क्या
बच्चे,
क्या
बूढ़े,
क्या
स्त्री,
क्या
पुरुष आस्था की बर्फीली चादर
ओढ़े पंक्तिबद्ध इनकी लाखों
की संख्या अच्छे से अच्छे
प्रबंध गुरु की युक्तियों
समेत दोपहर की तपिश को मात
देती रहीं।
इधर,
कोलकता
की सोहानी अधिकारी खुश थीं
कि उन्हें प्रयाग के बाद सिहंस्थ
में अजूबे संगम के दर्शन हुए।
उन्होंने स्नान कर अमृतपान
किया ही,
ज्ञान
भी हासिल कर लिया। दरअसल मप्र
सरकार ने क्षिप्रा में नर्मदा
जल उपलब्ध कराए हैं। नर्मदा
को ज्ञान देने
वाली कहा गया
है।
उज्जैन
शहर के कई कोनों से सरकार ने
नि:शुल्क
वाहन की व्यवस्था मेला क्षेत्र
के लिए कराई है। इसके बावजूद
लगभग 5-6
किमी
तक पदयात्रा ही एकमात्र विकल्प
है। रामघाट पर बाड़मेड़ से आए
करीब 70
वर्षीय
बुजुर्ग ओमप्रकाश गहलोत स्नान
के बाद महाकालेश्वर के दर्शन
करने जाना चाहते थे। उनके
बेटे-बहू
हाथ ठेलावाले यासीन मियां को
पकड़ लाए। लेकिन बाबा बोले,
मैं
पैदल ही जाऊंगा दर्शन करने।
उनके आठ साल के प्रपौत्र विवेक
भी उनसे लिपट गए। दादू मैं भी
पैदल ही जाऊंगा। इस बीच
ऑस्ट्रेलिया की मार्था और
मेरी के विवेक ने तुरंत ही
विवेक को गोद उठा लिया। रामघाट
पुल पर एक बाइक सवार ने पूछा,
साहब
कहां जाएंगे। आपको जो देना
हो दे देना। हम तो सेवा के लिए
खड़े हैं। पता चलता है कि अमीन
खान जैसे 100
मुस्लिम
युवा बाइक पर एक-दो
श्रद्धालुओं को इधर से उधर
पहुंचाने की सेवा दे रहे हैं।
ऐसे कई दृश्य यहां आम हैं।
जिसमें मंथन के बाद छलके अमृत
की बूंदों की झलक इंसान के
व्यवहार में झूम-झमक
होती है। कोई नहीं चाहता कि
उनसे मनुष्य होने के नाते कोई
चूक हो। क्योंकि:
श्मशान
ऊर्वर क्षेत्रं पीठं तु वनमेव
च।
पञ्चैके
न लभ्यंते महाकाल बनाद्रते।।
कश्मीर से
कन्याकुमारी और नेपाल से
अमेरिका तक से सभी उज्जैन इसी
लिए आए है कि यहां भगवान् रमण
करते हैं। यहीं से मोक्ष मिलता
है। सब पापों का विनाश होता
है। हरसिद्धिजी व अन्य मातृकाओं
का स्थान है। सबसे सर्वोपरि
महाकाल का निवास स्थान है।
महाकालेश्वर
मंदिर पहुंचते-पहुंचते
कई आंखों में क्षिप्रा उतर
आई। जाने-अनजाने
जिंदगी में हुई कोई भूल,
कोई
गल्ती,
कोई
अपराध की गलानि। वहीं अरदास,
भोले
बाबा अब न करेंगे ऐसा। कतारों
में महिलाओं की तादाद हर जगह
अधिक दिखी। संध्या आरती के
बाद महाकालेश्वर से कुछ बांस
की दूरी पर मस्जिद के ओटे पर
आईआईटी कर चुके राजस्थान के
युवा संन्यासी स्वामी पशुपतिनाथ,
बिहार
के साधु शिवकुमार पांडेय और
मौलाना सैयद मशहूद हसन की
बैठकी समरसता के अलग कोलाज
निर्मित करती रही। श्रद्धालुओं
के लिए बने चिकित्सा सेवा
शिविर के संचालक अब्दुल माजिद
नागोरी कहते हैं कि पिछले
दिनों शहर में आए बारिश-तूफान
में मस्जिदों ने श्रद्धालुओं
के लिए दरवाजे खोल दिए थे।
शायद सिहंस्थ का अध्यात्मिक
स्वर भी यही है,
वसुधैवकुटुंबकम।
भास्कर के
लिए लिखा गया
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मंगल
सिंह मुंडा बोले, बिना
उनसे पूछे उनके उपन्यास पर
बना दी
गई फिल्म, भेजेंगे
लिगल नोटिस जबकि निर्माता और
निर्देशक का
लिखित अनुमति का
दावा
सैयद
शहरोज़ क़मर की क़लम से
शीरीं-फरहाद,
हीर-रांझा,
लैला-मजनूं,
सोहीनी-महिवाल
और रोमियो-जूलियट
की प्रेम कथाएं अमर हो चुकी
हैं। लेकिन झारखंड के छैला-संदु
की मोहब्बत के संगीत से देश-दुनिया
अंजान थी। जबकि वो आज भी दशमफाॅल
के आसपास की हरी-भरी
वादियों में गूंजता है। मुंडारी
जानने वालों के बीच पीढ़ी-दर-पीढ़ी
यह कहानी अलग-अलग
शैली और मुहावरे में प्रचलित
रही है। पर साहित्य की शक्ल
में इसका दस्तावेजी प्रमाण
नहीं मिलता। खूंटी के मुंडारी-हिंदी
साहित्यकार मंगल सिंह मुंडा
ने सबसे पहले इस लोक कथा को
आधार बनाकर 1995 में
हिंदी में छैला संदु शीर्षक
से उपन्यास लिखा। राजकमल
प्रकाशन से 2004 में
यह उपन्यास प्रकाशित हुआ।
इसके बाद हिंदी की कई पत्र-पत्रिकाओं
में यह प्रेम कहानी छपकर अमर
हो गई। ताजा खबर है कि छैला
संदु के नाम से ही ओवियान मूवीज
जमशेदपुर ने राढ़ी बांग्ला
में फिल्म बनाई है। पिछले
दिनों उसका प्रीमियर शो भी
हुआ। फिल्म के पोस्टर में बतौर
कहानी लेखक मंगल सिंह मुंडा
का नाम दर्ज है। स्क्रीन पर
भी उनका नाम आता है। लेकिन इन
सबसे लेखक मंगल अनभिज्ञ हैं।
उनका कहना है कि बिना उनसे
अनुमति लिए उनके उपन्यास पर
फिल्म बना दी गई है। वह जल्द
ही प्रोड्यूसर और डायरेक्टर
को कानूनी नोटिस भेजेंगे।
इधर, निर्माता
और निर्देशक ने दावा किया है
कि उनके पास मंगल सिंह मुंडा
का लिखित अनुमति पत्र है।
फिल्मकार
ने कहानीकार को किया पहचानने
से इंकार
लेखक
मंगल सिंह मुंडा ने बताया कि
सालभर पहले उन्हें पता चला
था कि उनकी जगह साहित्यकार
रणेंद्र का नाम कहानीकार के
नाते फिल्म में शामिल किया
जा रहा है। इसके बाद मुंडा
रणेंद्र से मिले। उनसे पता
लेकर जमशेदपुर जाकर निर्माता
और निर्देशक से मिले। बकौल
मुंडा, निर्माता-निर्देशक
ने उन्हें पहचानने से इंकार
कर दिया। कहा कि वे किसी मंगल
सिंह मुंडा को नहीं जानते।
उन्होंने रणेंद्र की पुनर्लिखित
लोक कथा के आधार पर फिल्म बनाई
है।
लोक
कथा किसी की बौद्धिक संपदा
नहीं होती : रणेंद्र
कवि-लेखक
रणेंद्र ने कहा है कि छैला
संदु उपन्यास मंगल सिंह मुंडा
का ही है। हालांकि छैला संदु
की लोककथा बहुत पहले से जन-जन
में लोकप्रिय रही है। लोक कथा
किसी की बौद्धिक संपदा होती
भी नहीं है। लेकिन इसके बावजूद
उन्होंने फिल्मवालों से कहा
था कि कहानी लेखक की हैसियत
से मंगल सिंह मुंडा का ही नाम
जाए। फिल्म के ब्रोशर,
पोस्टर में
उनका नाम छपा भी है। इसके अलावा
फिल्म के परदे पर भी मुंडाजी
का ही नाम आता है।
लिखित
अनुमति देकर सरासर झूठ बोल
रहे हैं मंगल : निर्देशक
छैला
संदु के निर्देशक मो.
निजाम ने बताया
कि साहित्य अकादमी से प्रकाशित
पुस्तक भारत की लोककथाएं से
उन्हें छैला संदु की कहानी
मिली थी। जिसमें पुनर्लेखन
के तौर पर रणेंद्र नाम लिखा
था। उनके प्रोड्यूसर कुमार
अमित ने फिल्म बनाने की इच्छा
जताई। हमलोग रणेंद्र से मिले।
उन्होंने सहमति दी और लेखक
बतौर मंगल सिंह मुंडा का नाम
देने को कहा। बाद में मंगल
सिंह जमशेदपुर आए और उन्होंने
लिखित अनुमति दी। अब वह सरासर
झूठ बोल रहे हैं।
यह
है प्रेम कहानी
कहा
जाता है कि आदिवासी युवक था
छैला संदु। जिसकी बांसुरी पर
एक राजकुमारी बूंदी फिदा हो
गई। जिद कर बैठी कि वह विवाह
करेगी, तो
उसी से। राजा ने शर्त रखी कि
छैला को दरबारी संगीतज्ञ से
संगीत प्रतियोगिता जीतनी
होगी। वह जीत भी गया, पर
उसने शादी से इसलिए इंकार कर
दिया कि राजकुमारी को गरीबी
में जिंदगी गुजारनी पड़ेगी।
इधर, छैला
की विधवा भाभी उससे विवाह करना
चाहती है। जबकि छैला नदी पार
के गांव की लड़की नारो से प्रेम
करने लगता है। रोज की तरह एक
रात जब वह एक जंगली लता के सहारे
नदी पार कर रहा होता है,
तो लता काट दी
जाती है। बांसुरी और मांदर
के साथ नदी में गिरकर छैला मर
जाता है। जब से समूचा इलाके
में उसकी बांसुरी की धुन गूंज
रही है।
भास्कर
के लिए लिखा गया
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रांची में हर्ष-आस्था का रंग
|
फोटो : माणिक बोस |
सैयद शहरोज़ क़मर की क़लम से
वही
"नवमी तिथि मधुमास पुनीता' यानी चैत्र महीना की नौवीं तारीख। मौसम भी
मध्यान्ह में वही "शीतल मंद सुरभि बह बाऊ।' हर्ष-उल्लास की बानगी भी वही,
बस तब अयोध्या नगरी थी, शुक्रवार को हमारी रांची। जिसके हर घर-आंगन,
गली-चौबारे और सड़कें-चौक रामलला के जन्मोत्सव के आनंद में आकंठ डूबे थे।
आस्था और उमंग का अद्भुत ज्वार किसी भाटे की तरह रांचीवासियों को सराबोर
किए रहा। श्रद्धा जब गांव-शहर तक प्रकाश की तरह बिखरी, तो हर चेहरा दीप्त
और झिलमिल हुआ। वहीं आंखों में पनियल मिठास लिए माताओं ने रामलला के
भेषधारे अपने बच्चों का कौशल्या समान बलैया लिया। नन्हे कदम चहकने ही
नहीं, फुदकने लगे। उस पिता की छाती सबसे बड़ी पताका से भी चौड़ी हुई, जिसके
कंधे पर बालक हनुमान मंद-मंद मुस्कुराए जा रहे थे।
चलिए बात शहर की
ढाई सौ वर्ष प्राचीन तपोवन मंदिर से करते हैं। क्योंकि बिना इसके दर्शन किए
रामनवी की पूजा-अर्चना पूरी नहीं होती। जब पहली बार 1929 में कृष्णा साहू
की अगुवाई में राजधानी में शोभायात्रा निकली थी, तो उसके अखाड़े भी यहीं
पहुंचे थे। पौ फटने के बाद शंखनाद और मंत्रोच्चार के बीच सबसे पहली पूजा
यहीं हुई। इसके बाद सजे-सजाए शहर के दूसरे मंदिरों में भी श्रद्धालुओं ने
माथा टेका। इसके बाद "भए प्रकट कृपाला दीनदयाला कौशल्या हितकारी' के मंगल
गीतों के मध्य महावीरी अखाड़े शहर के कोन-कोने से निकलने लगे। वहीं नेत्रों
के माध्यम से हृदय में घर करती जातीं ढेरों झांकियों ने अयोध्याकाल की उन
स्मृतियों को जीवंत किया, जिनका होना उर्दू कवि इकबाल के अनुसार
"हिंदुस्तां को नाज' (गर्व) से भर देता है। इनमें भोले बाबा, श्रीराम,
लक्ष्मण और मां सीता बने नन्हे-मुन्नों का ठुमकना मुख्यमंत्री से लेकर
पूर्व मुख्यमंत्री तक को आशीष देने पर विवश कर गया।
गफ्फार के परिवार
कीे बनाई अधिकतर पताकाएं फहरातीं दिखीं, तो अलबर्ट एक्का चौक की बेला
इंद्रधनुषी हो उठी। कहीं गेरुआ, कहीं लाल, कहीं पीली, कहीं सतरंजी, कहीं
बैग्नी, कहीं गुलाबी, कहीं हरी, कहीं कत्थई पताकाएं। मोरहाबादी के घोल के
छोटे-छोटे ध्वज सरसों के फूलाें जैसे जगमगाए, तो मंचों पर खड़े बड़े-बड़े
लोग भी उसका स्पर्श करना नहीं चूके। पारंपरिक शस्त्राें-अस्त्रों से
सुसज्जित टोलियां के करतबों की प्रतीक्षा में छतों, मंचों, फुटपाथों पर
श्रद्धालु थे ही कि उनकी आंखें चौंधिया गईं। अरे ये क्या? 35 तल के मंदिर
बुर्ज पर घ्वज भगवा। अद्भुत। रांची महावीर मंडल की पताका कुछ ऐसी थी ही।
इसके सम्मोहन को मनोकामना समिति, चडरी और श्रीरामसेना के गगनचुंबी ध्वज ने
और बढ़ाया। जबकि गगन भी भक्ति में लीन रामभक्तों को सूर्य की उग्रता से
बादलों से बचाता रहा।
भक्तों का समूह पंक्तिबद्ध होकर जब भजन करने
लगे, "श्रीरामजानकी बैठे हैं मेरे सीने में' तभी आकाश से पुष्पवर्षा
(हेलिकॉप्टर से) होने लगी। महिलाएं, बच्चे इसके बाद गुलाल उड़ाते ग्लाइडर
देखने उमड़े, तो महावीर अखाड़े के रामभक्त कार्यकर्ताओं ने पुलिस कर्मियों
के संग सैलाब को अनुशासित किया। नियंत्रित किया, तो मर्यादा पुरुषोत्तम राम
की परहित चिंतन परंपरा साकार हुई। मेन रोड से लेकर राजेंद्र चौक तक
स्थान-स्थान पर लगे स्वागत शिविरों में तैनात युवाओं ने भगवनश्रीराम के
सदाचार को चरीतार्थ किया। संध्या हौले-हौले रात्रि में परवर्तित क्या हुई,
रामनवी दीपवली में बदल गई। रंग-बिरंगियों रौशनियों में मटकते- ठुमकते,
गाते-गुनगुनाते रामभक्तों की रेल कहीं छुक-छुक, कहीं राजधानी बन तपोवन
पहुंची। लेकिन जब इन्होंने विराम लिया, तो ड्रोन कैमरे भी लाखों की भीड़ को
कैद करने में नाकाम रहे। मध्यरात्रि तक ढोल-बैंजों की संगीत लहरियां युवा
करतबबाजों को झुमाती रहीं। देर रात्रि तक ये क्रम चला। फिर शनै: शनै:
अखाड़े अपने-अपने गंतव्य को प्रस्थान कर गए।
दैनिक भास्कर के रांची अंक में 16 अप्रैल को प्रकाशित
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