बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

सोमवार, 31 अगस्त 2015

इमरोज़ के हाथ की चाय नहीं पिओगे ?

अमृता प्रीतम की जयंती 31 अगस्त पर ख़ास संस्मरण वर्षा गोरछिया 'सत्या' की क़लम से उन्होंने हमें कल चार बजे बुलाया है, मैंने उससे कहा. मैं इतनी खुश और उत्साहित थी कि आगे कुछ भी बोलना मुझसे नहीं हो पा रहा था. फिर मैंने अपने साँसों पर नियंत्रण रखकर कहा- इमरोज़ जी ने. इससे पहले हुआ ये था कि अमृता प्रीतम को कई बार अखबारों और पत्रिकाओं में पढ़कर बिना नाम जाने भी उस लेखिका से एक अजीब सा सम्बन्ध महसूस होता था. बाद में ये जाना कि जाने-अनजाने जिसकी नज्में पढ़ी हैं और अच्छी लगी हैं वो अमृता हैं. फिर धीरे-धीरे उसे तलाशना शुरू किया और लफ्जों के सहारे इमरोज़ तक पहुँच गयी. मालूम हुआ कि अमृता तो अब नहीं रहीं मगर इश्क का दूसरा नाम इमरोज़ अभी भी जिंदा हैं और फिर उनसे रु-ब-रु होने की इच्छा मेरे अन्दर दबी हुई सी सांस लेने लगी . इक रोज़ यूँ ही जब अमृता पर बात चल निकली तो मैंने उससे कहा- “क्या हम इमरोज़ से मिल सकते हैं”. उसका ज़वाब था - यकीन तो नहीं दिला सकता पर कोशिश करता हूँ. मुझे लगा बात आई-गयी क्यूंकि कुछ रोज़ बीत गए और फिर मैंने दुबारा कहा भी नहीं, सोचा इमरोज़ क्यूँ मिलने लगे हमसे. मगर उसे याद था. मुझे बताये बगैर उसने मुहीम छेड़ रक्खी थी. आखिर सफलता हाथ लगी. कहीं से उसे फोन न० और घर का पता मिला. अब मुश्किल ये थी कि हम उनसे कहें क्या. मैंने ये काम भी उसे ही करने को कहा, वो शायद बेहतर करता या शायद मैं अपने घबराहट को छुपा रही थी. मगर कई रोज़ हाथ में फोन लेकर भी वो फिर नहीं लगा पाया था. फिर इक रोज़ मैंने हिम्मत दिलाई और लगा दिया. ये अत्यंत रोमांचक क्षण था. फ़ोन हैंडफ्री ...
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