अमित राजा की क़लम से
कहानी: बारह साल का बुड्ढा
हालांकि देश के बीसियों मनभावन जगहों की मैंने सैर की है। मगर जमशेदपुर का महज़ चार दिनों का प्रवास स्मृति में अजीब तरह से चस्पां हो गया है। जमशेदपुर की सैर से जुड़ी यादें एक उन्माद और बुखार की तरह आती हैं और मैं कई बार जागी आंखों से बुरे सपने देखने लगता हूं।
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‘‘साहेब सिगरेट...’’ मेरे पीछे-पीछे दौड़ते हुए एक बच्चा पास आ गया। एक पूरा ‘सिगरेट, माचिस, तंबाकू और पान मसाला’ भंडार उसके बेजान गर्दन पर लटका हुआ था।
‘‘हां... लेंगे, एक डब्बा सिगरेट और एक माचिस दे दो. ’’ जमशेदपुर रेलवे प्लेटफार्म पर उतरते ही मुझे सिगरेट की तलब महसूस हुई।
सिगरेट के गोल-गोल छल्ले और लंबे धुंए निकालते हुए मैं जमशेदपुर रेलवे स्टेशन से निकला और अपने अजीज दोस्त अभिजीत के घर होकर जाने वाली लोकल बस पर बैठ गया। धीरे-धीरे सुलगते हुए सिगरेट को देखते हुए बेतरह उस बच्चे का गुमसुम चेहरा मेरी आंखों में ताक-झांक करने लगा।
‘‘बमुश्किल वह दस-बारह बरस का होगा। सिगरेट बेच रहा है। ओह! कैसा देश, कैसा शहर है! कैसे मां-बाप...?’’ ऐसी अनेकों बातें मुझे परेशान किए जा रही थी।
दिल को बहलाने के लिए थकान के वक्त अमूमन मैं ख्वाब में अपनी प्रतिबंधित प्रेमिका की जुल्फें अपने चेहरे पर गिरा लेता हूं। थकान एकदम जाती हुई प्रतीत होती है। शायद ये मेरे दिल को बहलाने का गालिब तर्ज़ ख्याल अच्छा लगता है। मगर उस रोज कमबख्त इस ख्वाब ने धोखा दे दिया। उस रोज अपने चहेरे पर प्रतिबंधित प्रेमिका की गिरी हुई जुल्फों को ख्वाब में महसूसने की तमाम कोशिशें नाकाम साबित हुई। मेरे दिलो-दिमाग में सिगरेट बेचने वाला वह बच्चा था।
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‘‘ये हुआ तुम्हारा कमरा। पहले फ्रेश हो लो।’’ अभिजीत ने मेरे हाथ से बैग लेकर एक कोने में रख दिया।
‘‘हां-हां, बिल्कुल...! जो आदेश!’’ मैंने इशारे में कहा।
‘‘फिर कहीं घूमने-उमने चलेंगे।’’ अभिजीत ने कनखी मारी।
‘‘नहीं यार आज काफी थक गया हूं, शाम भी हो चुकी है... कहीं निकलूंगा-उकलूंगा नहीं।’’ मैंने दोनों बाहें उठाकर लंबी सांस ली।
‘‘ठीक है जैसी मर्जी...मैं तुम्हारे लिए चाय-नाश्ते के लिए बोल देता हूं।’’ अभिजीत दूसरी मंजिल के मेरे कमरे से निकला।
फ्रेश होने के बाद अभिजीत ने मेरे और अपने सोने का इंतजाम ऊपर वाले कमरे में कर दिया। जब तक मैं वहां रहा वह मेरे ही साथ सोया। इससे उसकी पत्नी पर क्या गुजरी, मैं गाफिल रहा।
जमशेदपुर की वह रात बड़ी खामोश थी। इसे कोई करे या न करे मैंने महसूस किया और फिर वहां की रात में बहने वाली नींद ने मुझसे दुश्मनी नहीं की, उसे मनाते-मनाते मेरा उससे झगड़ा भी नहीं हुआ। यह पहला मौका था जब नींद मेरे पास बैठकर मुझ पर झुक गई, फिर मुझे बांहों में भर लिया। आगे मुझे कुछ याद नहीं।
सुबह लंबे-लंबे दरख्तों को छूती सर्द हवा खिड़की से मेरे कमरे में घुस रही थी। पलाश के फूलों से छनकर लाल-लाल धूप मेरे कमरे की दीवारों पर ठिठक रही थी। वह धूप जब मेरी देह और मेरे कपड़ों पर गिरती तो मेरा कपड़ा व मेरी देह लाल रंग से रंग जाती। बासंती हवा, धूप, सुबह और वातावरण से मैं पुलक रहा था। मगर, प्रकृति के इस सान्निध्य में मैंने जो नवमिजाज पाया उसकी एक दृश्य ने चिंदी-चिंदी उड़ा दी। खिड़की के पास मैं खड़ा हो गया। फिर बाहें डालकर अंगड़ाई ली। तो खिड़की से दिखने वाले मैदान में मुझे दिखा कि अलग-अलग समूह में बंटकर बारह से बीस और 25 की उम्र के बच्चे-लड़के क्रिकेट खेल रहे थे। तो वहीं फटा-सुथन्ना पहने एक दस-बारह साल का बच्चा मूंगफली बेच रहा था।
‘‘अरे यह तो वही बच्चा है, जिसने मुझे कल सिगरेट पिलाई थी... मेरी आंखों के सामने रेलवे प्लेटफार्म पर सिगरेट बेचने वाले उस बच्चे का चेहरा घूम गया।
‘‘नहीं भई मूंगफली बेच रहा यह बच्चा वह नहीं है जो तुम समझ रहे हो। गौर से देखो सिगरेट बेचने वाले बच्चे के बाल काफी बड़े-बड़े थे, मगर मूंगफली बेचने वाले इस बच्चे के बाल छोटे हैं।’’ अचानक जोर से किसी ने मुझे झकझोरा। मगर मैंने देखा तो आसपास कोई नहीं था।
‘‘एक तरफ बचपन में खेलने कूदने का मजा 20-25 की उम्र में लेने वाले ये बच्चे हैं। दूसरी तरफ एक यह बच्चा है जो खेलने की उम्र में अन्न की जुगाड़ में खट रहा है। मैं गंभीर सोच में डूबकर चुपचाप और बेसाख्ता पलंग पर बैठ गया।
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पांच बजकर दस मिनट। महकी हुई सांझ। पानी का फव्वारा। दूर तक जहां-तहां बैठी स्त्री-पुरुषों की युवा जोडि़यां। दृश्य है जमशेदपुर के जुबली पार्क का। इसे जमशेदजी टाटा ने बनवाया था। लोग सच ही कहते हैं कि अगर पार्क यहां नहीं बनाया जाता तो यहां जुए का अड्डा, शराबखाना, बीयरबार होता। ऐसे में यहां निश्चित तौर पर बदमाश, चोर, उचक्कों, गुंडे, पुलिस, नेता, व्यवसायियों, अफसरों और पत्रकारों का जमावड़ा लगा रहता। फिर इस जगह का नाम जुबली पार्क नहीं रेगिस्तान, मर्डरिस्तान, चोर पाड़ा, डाकू टोला, मनचला नगर या अलकापुरी होता। लेकिन खैरियत है यहां जुबली पार्क है।
‘‘अबे चुतिया दार्शनिक की औलाद! आसमान क्या झांकता है उधर देखो।’’ अभिजीत ने मेरे कान के नीचे ऊंगली गड़ाई और दाहिने तरफ देखने का इशारा किया।
मैंने देखा एक नौजवान औरत दो युवा मर्दों के साथ जा रही है। औरत बीच में थी और दोनों पुरुष औरत का हाथ थामे आजू-बाजू। वे तीनों कुछ दूर जाकर घास पर बैठ गए। अभिजीत की इच्छा पर उन तीनों से थोड़ी दूरी बनाकर हम दोनों भी घास पर बैठ गए। हम दोनों ने देखा कि कुछ देर आपस में बात करने के बाद उस औरत के साथ वाला पहला आदमी उस औरत को अपनी बांहों में भरकर बैठा हुआ था तो दूसरा आदमी उस औरत की गोद में सर रखकर उसे निहार रहा था। मोटे तौर पर देर तक दोनों आदामी का उस औरत के साथ का व्यवहार यही साबित कर रहा था कि वह दोनों की पत्नी हो।
‘‘जरूर ये औरत आधुनिक समाज की द्रौपदी है, जिसके पांच नहीं दो पति हैं।’’ मैंने खुद से कहा।
तभी उन तीनों का अभिवादन करने के अंदाज में हाथ उठाता हुआ मेरी बगल से एक आदमी गुजरा और कहा ‘‘हाय डार्लिंग सोमा, हाय रोहित, हाय साबिर।’’
इस तीसरे आदमी ने उस औरत की ओर हाथ बढ़ाया और उसका हाथ पकड़कर खींचते हुए उसे पहले अपनी बांहों में भर लिया फिर उसे चूम लिया। ये सब देखकर अभिजीत और मैं अवाक् था। अब मैं उस औरत से इन तीनों पुरुषों के रिश्ते के बारे में सोचता ही कि एक बच्चे ने मेरी सोच के रास्ते में एक अवरोध-सा खड़ा कर दिया।
‘डेली न्यूज लीजिए, डेली न्यूज पढि़ए’ की आवाज मेरे कानों में देर से आ रही थी। पर, यह आवाज लगाकर सांध्य दैनिक बेचने वाला बच्चा अब मेरे बेहद करीब था।
‘‘साहब, ‘डेली न्यूज’ ले लो’’। मेरी ओर देखकर बोल रहे उस बच्चे की आवाज में आग्रह घुला हुआ था।
उस बच्चे की ओर मैं बोक्का की तरह देखता रह गया। डेढ़ रुपए लेकर मुझे सांध्य दैनिक ‘डेली न्यूज’ देने वाला यह बच्चा वही था, जिससे रेलवे स्टेशन में मैंने सिगरेट ली थी और जो मुझे खिड़की के पार मैदान में खेलते लड़कों के बीच मूंगफली बेचते हुए दिखा था।
‘‘आखिर यह कौन बच्चा है इतना क्यों खटता है? क्या इसे अपनी बेटी या बहन की शादी करनी है (?) जो दो दिनों के भीतर बेतहाशा कभी सिगरेट, बीड़ी, पान-मसाला कभी मूंगफली तो कभी सांध्य दैनिक बेच रहा है।’’ मैं जोर-जोर से सोच रहा था।
मेरे जोर-जोर से सोचने को सुनकर किसी ने मेरे कान में धीरे से कहा- ‘‘अरे नहीं दोस्त ये वह बच्चा नहीं है जो तुम सोच रहे हो। सिगरेट बेचने वाले, मूंगफली बेचने वाले और ये अखबार बेचने वाले तीनों बच्चे अलग-अलग हैं। सिगरेट बेचने वाला बच्चा बिल्कुल काला था। इसे देखो ये तो गोरा है।’’ मैंने बाजू देखा तो कोई नहीं था, मगर हां चारेक फूल गाछी की पत्तियों की सरसराहट बिल्कुल आदमी की तरह बोल रही थी।
‘‘ओह...’’ मैं अपने दुःखते हुए सर को दबा रहा था। मैं उस बच्चे के ही बारे में सोच रहा था। मैं जानना चाहता था कि आखिर ये बच्चा कौन है और क्यों इस कदर हाड़-तोड़ मेहनत करता है। हालांकि उस बच्चे से ये सब जानने के मैंने दो मौके खो दिए। एक तो उस वक्त जब वह बच्चा मूंगफली बेच रहा था- मैं अगर चाहता तो दो रुपए की मूंगफली खरीदकर उससे पूछ सकता था कि ‘‘बेटे तुम इतना काम क्यों करते हो?’’ मगर मैं इस संकोच से नहीं पूछ सका कि अभिजीत और दूसरे लोग क्या कहेंगे।
दूसरा मौका तब आया जब वह बच्चा सांध्य दैनिक बेच रहा था। उस वक्त मैं पूछ सकता था कि - ‘‘बेटे तुम्हारा घर कहा है - तुम्हारे पिताजी क्या करते हैं? तुम इतना काम क्यों करते हो?’’ मगर मैं नहीं पूछ सका, क्योंकि मन में झिझक थी कि जुबली पार्क में मौज-मस्ती कर रहे लोग क्या कहेंगे? यही न कि ‘‘साला पागल है’’।
‘‘ओह...’’मैं धीरे-धीरे निःस्संगता में खोता जा रहा था।
‘‘क्या हुआ चलो’’, अभिजीत ने मेरी पीठ पर हाथ रखकर मुझसे कुछ इस अंदाज में कहा। जैसे मुझे वह गहरी नींद से जगा रहा हो और मैं बिना ऊंह-आंह किए कुछ इस तरह से उठा कि मुझे नींद से जागना ही न आता हो।
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‘‘आज क्वाइल लाना भूल गया। बहुत मच्छर है।’’ मेरे बगल में सोया अभिजीत अपनी ही देह में चट-चट कर मच्छर मार रहा था।
‘‘हां मच्छर है।’’ मेरे मुंह से निकला, मगर मैं गहरी नींद सो रहा था।
‘‘सो रहे हो क्या।’’ दस मिनट की खामोशी तोड़ते हुए अभिजीत ने कहा।
‘‘हां सो रहा हूं, गहरी नींद में सो रहा हूं।’’ मैंने कहा।
फिर कुछ देर खामोशी रही! बाद में पलंग से उतरकर अभिजीत ने बल्व जलाया और अलगनी से मच्छरदानी लेकर मेरे पास खड़ा हो गया। ‘‘चलो हटो, उठो, थोड़ा मसहरी लगा दूं, बहुत मच्छर है।’’
‘‘नहीं मैं नहीं उठूंगा, मैं बहुत गहरी नींद में सो रहा हूं। नींद टूट जाएगी। मुझे मच्छर नहीं काट रहा, मैं गहरी नींद में सो रहा हूं।’’ मैं कह रहा था।
‘‘अजीब आदमी है, आंखें खुली है, बातें कर रहा है और कहता है गहरी नींद में सो रहा हूं’’ अभिजीत मच्छरदानी लगाते हुए बुदबुदा रहा था।
एक घंटे के बाद नींद में मैंने कहा ‘‘अभिजीत सो रहे हो क्या?’’ अभिजीत इस कदर बेसुध सो रहा था कि मेरी बात का जवाब भी नहीं दिया। तभी किसी बच्चे की जोर-जोर से रोने-चिल्लाने की आवाज से मेरी नींद टूट गई। फिर कुछ देर ठहरकर मैं बालकनी गया और वहां रखी कुर्सी पर बैठ गया। यूं ही वहां बहुत देर बैठे-बैठे मैंने देखा आसमान बादलों से घिर गया। पहले बिजली चमकी, बाद में बारिश की पतली-पतली, छोटी-छोटी फिर मोटी-मोटी, बड़ी-बड़ी बूंदे टपकने लगी। इतने मैं मैंने देखा कि बालकनी के सामने वाले मकान के बरामदे पर एक बच्चा पानी से बचने के लिए दौड़ते हुए आया और बरामदे पर लगी ग्रील के पास छज्जे के नीचे खड़ा हो गया। वहां खड़ा-खड़ा वह थोड़ा भींग रहा था, थोड़ा बच रहा था। तभी टॉर्च की लाइट की तरह बिजली की चमक इस बच्चे के चेहरे पर गिरी। बाद में एक झलक में मुझे वह बच्चा वही दिखने लगा, जो पहले मुझे सिगरेट, मूंगफली और सांध्य दैनिक बेचते हुए दिखा था। उस रात मैं उस बच्चे के बारे में जानने के लिए मिले मौके को खोना नहीं चाहता था।
‘‘ऐ बच्चा तू कौन है? क्या तुम्हारा कोई घर नहीं है? जो इस बारिश की रात में तुम भींग रहे हो...! या कि तुम सांध्य दैनिक बेचने के बाद घर जाते हुए बारिश में फंस गए हो?...बच्चा क्या तुम मेरी बात नहीं समझ रहे हो या नहीं सुन रहे हो...! देखो मुझे देखो...।’’ मैं लगातार जोर-जोर से बोले जा रहा था, मगर शायद मेरी आवाज बारिश की बूंदों की आवाज और बिजली की कड़क में गुम हुए जा रही थी। लेकिन, मैंने हिम्मत नहीं हारी और उस बच्चे से चिल्ला-चिल्ला कर पूछता रहा।
‘‘क्या हो गया तुझे, ये सुबह-सुबह क्यों चिल्ला रहा है? आखिर लोग क्या कहेंग।’’ मेरी दोनों बाहें पकड़कर अभिजीत एकदम मुझे उस तरह से झकझोरने लगा जैसे मैं कोई पागल होऊं और वह पागलों का डॉक्टर।
‘‘य...यार...अ...अभिजीत, बा...बारिश, बिज्जली, बबब बच्चा।’’ मैं अभिजीत की मजबूत पकड़ से अपनी बाहें छुड़ाने की कोशिश करता हुआ एकदम से हकला रहा था।
‘‘तुझे क्या हो गया दोस्त, न तो बारिश हो रही है, न ही बिजली गरज रही है और यहां कोई बच्चा भी नहीं है।’’
‘‘अरे तुझे तो बुखार भी है।’’ अभिजीत मेरे ललाट, गाल और गले को छू-छू कर मेरे बुखार का तापमान मापने की कोशिश करने लगा।
उस रोज अभिजीत ने मेरे नहाने, धोने, घर से निकलने और टहलने पर एकदम रोक लगा दी। उसने फौरन अपने फेमिली डॉक्टर को भी बुलवा लिया था।
‘‘कुछ नहीं बस उन्हें थोड़ी-सी हरारत है, अभी ये दो गोली खिलाकर इनको सो जाने कहिए फिर रात में दो गोली दे दीजिएगा।’’ डॉ ने अभिजीत को अपनी बैग से निकालकर कुछ दवाईयां दे दी।
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‘‘क्यों भाई साहब आप कल ही चले जाएंगे?’’ अंजू भाभी ने बेहद सलीके से मेरी ओर चाय का ट्रे बढ़ाते हुए पूछा।
‘‘हां भाभी हर हाल में कल सुबह ही निकल जाना होगा।’’ मैंने ट्रे से चाय का प्याला उठा लिया।
‘‘मगर इन्होंने तो कहा था कि आप आएंगे तो पूरे दस रोज ठहरेंगे।’’ भाभी मेरे बगल में सोफे पर बैठ गई।
‘‘क्या करूं भाभी बहुत काम बाकी है, अपने शहर लौटकर उसे पूरा करना है। हालांकि अगली बार आया तो जरूर दस दिन ठहरूंगा।’’ भाभी को मनाने के लिए मैंने बात बनाया।
‘‘हां-हां, आप दोनों दोस्त झूठ बोलना बहुत अच्छी तरह जानते हैं।’’ भाभी की आंखों में हंसी और जुबान पर गुस्सा था।
‘‘अच्छा-अच्छा बहस-वहस छोड़ो आज कुछ खास बनाकर खिलाओ। शादी के पहले तुम्हारे सात गुणों में तुम्हारे कुकिंग कोर्स की खूब चर्चा सुनी थी। मगर शादी के बाद इधर के तीन बरस में तुमने मुझे रोज दाल-भात, सब्जी और दाल, रोटी, चोखा ही खिलाया है।’’ अभिजीत तपाक से बोला।
‘‘मैं क्या कर सकती हंू, आपकी मां से जब भी पूछती हूं रोज-रोज वो दाल-भात सब्जी बनाने को कहती हैं। अब आज आप खास बनाने कह रहे हैं तो जरूर कुछ खास बनाने की कोशिश करूंगी।’’ भाभी का मुंह बंद था, मगर उनके भीतर से ये शब्द-वाक्य फूट रहे थे।
तुरंत बाद भाभी ने मुंह खोला ‘‘ठीक है आज कुछ खास बनाऊंगी।’’
कुछ देर तक अभिजीत मुझसे बातें करता रहा. फिर अचानक किचन की ओर गया। ‘‘खाना बना कि नहीं जी’ (जोर से) क्या खास बनी रही हो। (धीरे से)।’’
‘‘जी ला रही हूं।’’ किचन की ओर से आवाज आई। कुछ देर बाद डाइनिंग हॉल से आवाज आई ‘‘आईए खाना लग गया है।’’
बाद में अभिजीत और मैंने डायनिंग टेबल पर बैठकर कुछ खास व्यंजन के बारे में सोचते हुए दाल, भात, सब्जी, रोटी, पापड़ आदि निकालकर खाने लगा। शायद रंजू भाभी ने भी कुछ खास व्यंजन बनाने की सोचते हुए दाल-भात, सब्जी, रोटी और पापड़ बना लाई हो।
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कुछ दिन और ठहरने के लिए मुझे मनाने की कोशिश में परास्त होने के बाद अभिजीत और अंजू भाभी को आखिरकार मुझे विदा करना ही पड़ा। फिर अभिजीत ने स्कूटर से मुझे रेलवे स्टेशन तक छोड़ दिया।
‘‘गाड़ी खुलने में अभी 40 मिनट देर है, चलो एक-एक चाय पीता हूं।’’ अभिजीत एक ढाबानुमा चाय दुकान की ओर बढ़ा।
‘‘ना-ना चाय नहीं, एक-एक सिगरेट पी जाए! क्या?’’ मुझे सिगरेट पीने की इच्छा हो रही थी।
‘‘ठीक है ‘सिगरेट’ भी साथ-साथ लेंगे।’’ अभिजीत मुस्कुराया।
मैंने चाय की घूंट ली। फिर, सिगरेट का कश भरा। धीरे-धीरे हलक से निकलता हुआ धुंआ मेरी आंखों के पास आकर जमा हो गया। धुंए को चीरती हुई मेरी आंखे इस चाय-नाश्ते की दुकान पर हुकूम ठोंकते साहबों की खिदमत में लगे एक दस-बारह साल के बच्चे पर ठहर गई।
‘‘ये तो संयोग है। मैंने तो सोचा भी नहीं था कि यह बच्चा मुझे इस चाय-नाश्ते की दुकान में मिल जाएगा। आज मैं इससे सब कुछ पूछ लूंगा-सब कुछ।’’ मैं खुशी से एकदम चहक उठा। गोया शायद मुझे इस बच्चे की वर्षों से तलाश हो।
लेकिन दूसरे ही क्षण मैं निराश और दुखी हो गया। क्योंकि जैसे ही मेरी आंखों के सामने जमा ‘धुंआ’ गायब, वह बच्चा भी गायब... मेरा मन भारी हो गया। टिकट काउंटर से टिकट खरीदकर अभिजीत ने मुझे दिया। ‘‘सोलह मिनट बाद तुम्हारी गाड़ी खुलेगी।’’
‘‘शुक्रिया अभिजीत अपनी और भाभी का ख्याल रखना, चिट्ठी लिखना, फोन करना और हां भाभी को लेकर आना। मैं भी दोबारा आऊंगा।’’ मैंने विदाई ली। दूर तक विदाई देते हुए अभिजीत मुझे इस कदर तक रहा था जैसे कुछ बोल रहा हो।
प्लेटफार्म नंबर-1 के प्रवेश द्वार पर मेरी नजर अपने जूते पर गई। जूते पर धूल जमी थी और वहीं पर बैठा एक बच्चा लोगों के जूते पॉलिश करता दिखा। जूता पॉलिश कराने के लिए मैं भी आगे बढ़ा कि मेरी नजर उसके चेहरे पर रूकी। मैं चौंक गया। मेरी बांछे खिल गई...। अरे यह तो वही बच्चा है, जिसकी मुझे तलाश थी। आज मैं इस बच्चे से खूब बातचीत करूंगा। पूछ लूंगा कि वह इतना काम क्यों करता है।’’
‘‘अबे ले इस जूते पर बरस मार।’’ एक आदमी ने उस बच्चे की ओर अपना बायां पैर बढ़ा दिया।
दूसरे आदमी ने एकदम रईसजादे की तरह उस बच्चे के आगे पांच रुपए का सिक्का उछाल दिया, गोया खैरात बांट रहा हो ‘‘ऐ लो जी पैसा लो।’’
अब मेरी बारी थी। बच्चा मेरे जूते पर पॉलिश कर रहा था। और मैं उस बच्चे से यह पूछने के लिए बेताब था कि वह इतना काम क्यों करता है। ऐसी क्या जरूरत है कि कभी वह सिगरेट, कभी मूंगफली, कभी अखबार बेचता है तो कभी मजदूरी तो कभी जूता पॉलिश करता है। लेकिन बूट पॉलिश के लिए बेचैन वहां खड़े शूट-टाई-पैंट पहने दो लोगों की ‘एलिटियाना हरकत’ देखकर मैं बच्चे से कुछ नहीं पूछ पाया। अब तक बच्चा मेरे दोनों जूते पॉलिश कर चुका था।
‘हां’ मैंने झुककर बच्चे की ओर पैसा बढ़ाया।
‘हां साहब!’ बच्चे ने हाथ बढ़ाया, उसकी आंखों में विस्मयजनित चमक थी। अब मैं आगे बढ़ने को ही था कि कुछ देखकर चौंकते हुए थोड़ी देर रूक गया। दरअसल, जहां बच्चे ने जूता पॉलिश की दुकान सजाई थी, वहीं मुझे एक बैसाखी और बच्चे का घुटने तक कटा एक पैर दिखा। बच्चा अपाहिज था। मगर मैंने बच्चे के अपाहिज होने के कारणों के बारे में उससे पूछ नहीं सका। क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि उस बच्चे से बात करने की जहमत के रूप में वहां खड़े एलिटों की हेय नजर मुझपर पड़े।
‘‘प्लेटफार्म पर सिगरेट या सड़क पर अखबार बेचते हुए जरूर किसी हादसे में इस बच्चे ने अपना एक पैर गवांया होगा।’’ मैंने गेस किया। तब तक गाड़ी लग चुकी थी। मैं बोगी के अंदर गया और फिर अपने बर्थ पर खिंच गया। बस मन में बच्चे से बात न कर पाने का मलाल रह गया।
(लेखक-परिचय:
जन्म: 09 मार्च 1976
शिक्षा: बीए ऑनर्स,
सृजन: झारखंड की बेटी, रूप की मंडी ;शोध रिपोतार्ज का सह लेखन, आग में झरिया ;पुस्तक प्रकाशित। देश के कई नामी पत्र-पत्रिकाओं में पुस्तक समीक्षा, कविता, कहानी आदि.
पेनोस साउथ एशिया से पर्यावरण, खनन और दलित महिलाओं के स्वास्थ्य व मानवाधिकार विषय पर फेलोशिप।
संप्रति: दैनिक भास्कर गिरिडीह में ब्योरो चीफ।
संपर्क: amitraja.jb@gmail.com, 9431169152 )
5 comments: on "मां उबालती रही पत्थर तमाम रात, बच्चे फ़रेब खाकर चटाई पे सो गए"
आत्मा को झंझोड़ देने वाली कहानी है। हर जगह पढ़ने की उम्र में काम करते बच्चे देखते हैं। बहुत कुछ घटता रहता है हमारे आस-पास और हम गहरी नींद में जागते हुए सोते रहते है। और जब बोलने या कुछ करने कि बारी आती है तो हमारी खुद की गुलाम मानसिकता सामने खड़ी हो जाती है। बहुत बेहतरीन तरीक़े से लिखी गयी कहानी है। शाहनाज़ इमरानी
SACH ME AISE BACHCHE HAMARI KAHANI KA PATR TO BAN JATE HAIN PAR HAM CHAHKAR BHI UNKE LIYE KUCHH NAHI KAR PATE .MARMIK KAHANI .AABHAR
shahroz bhai ka shukriya... itni umda kahaani ko padhne ka mauqa dene ke liye
I always knew you are a very good writer and it is one of your best piece Amit ji. And the story you narrated is unfortunately reality for most of poor children in our country. But the most important fact which who try to pen down is how helpless we are, who knowing everything could not do anything for such children, considered future of India.
वे बच्चे हमारे थोड़े ही है भाड में जाए हम क्यों उनकी चिंता करे . अपने बच्चे के लिए तो अच्छा खासा डिपाजिट कर के रख दिया हु.
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- अल्लामा जमील मज़हरी