बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

गुरुवार, 13 मार्च 2014

चुनावी बुखार की गुलेल गोली


अभिषेक तिवारी का कार्टून साभार

 शहरोज़  की दो अख़बारी फूलझड़ी
 कहीं सच तुम बदल तो नहीं जाओगे
भैया की धडक़नें इनदिनों शहर के  मौसम की तरह  बदल रही हैं। दरअसल उनकी प्रेयसी पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। इसके  लिए भाप तो बहुत पहले से ही उठने लगे थे। जब अंगीठी जलाई गई थी। इसके  ताप को बढ़ाने के  लिए खंड-खंड होते या  किए जा रहे झार-झंखाड़ से कोयले मंगाए जाने लगे थे। भैया को  यूं तो मुंशी-गुमाश्ते  कमी न रही, पर उनके  झक्क  सफेद कुरते पर पता नहीं कैसे कालिख लग गई। हालांकि  इसको  छुड़ाने के  जतन इतना  किये कि  राजधानी एक्सप्रेस हो गए। लेकिन उनके  चेहरे की  हवाई जहाज भी नहीं उड़ा सका । मठ से दरगाह तक  की  जियारत-परिक्रमा कर डाली। पर कमबख्त फिल्म 'दाग'  थी कि परदे से उतरने का नाम नहीं ले रही थी। असर यह हुआ कि सियासी ताप अफवाह सा बढऩे ही लगा। इसके  गुबार से दिल्ली तक  छींक  गई। जाहिर है, ताप बढ़ा, तो वाष्पीकरण की प्रक्रिया तेज हो गई। अब यही वाष्प बादल बनकर उनके  ईर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा है। कभी वह ऐसा ही चक्कर इसी प्रेयसी को हासिल करने के लिए लगाया करते थे। खैर! अब बादल है कि  घुमड़ते-घुमड़ते बरस जाने को बावरा हुआ जा रहा है।


ई कइसा लहरिया बाबू
होशियार ! खबरदार!! बड़का भोंपू से ई बात सुनकर मंगरू चा अपनी गठरी पोटली में बाँधने लगे. हम जब तक उनके पास पहुँचते उन्होंने वहाँ से लत्ती ले ली. हम भी उनके पीछे ऐसा भागे मानो पेट  खराब हो, और कहीं जाकर जल्दी ही निर्वृत हो लूं. हमरे पुकारने पर चच्चा बोले, तुम काहे हमरा पीछा कर रहे हो. तुमको भी का कोई लाल कपड़ा दिखा दिया है.  ऊ कौने फेके वा है जिसको कजरारे वाला नचवा लाल कपड़ा सा बुझा रहा है. और रह-रह के ऊ इधर-उधर बौखलाहट में का-का अनाप-शनाप बोल रहा है. टीविया मा इहो सुने हैं कि उसका कुर्सी बनाने में बड़का-बड़का लोग मदद कर रहा है. अभियो पंडित जी बतात रहींन।  ऊ अभी कासी से ही आये हैं सुनकर!   हम बोले, न मंगरू चा! हम तो आपके भागे के देख दौड़ लगा दिए. आप काहे खिसक लिए ई जगह से? 'लो सुन आउ  देख नहीं रहे हो. होशियार!खबरदार!!'  पता न का आफत है.' अरे कोनो आफत-वाफत न है चच्चा। इ कोई खेल हॉवे वाला है. पर खिलाड़ी चुनबे  न किये कप्तान का घोषणा कर दिए. आउ बोल रहे हैं कि ई बार तो कप्वा हमहीं जीतेंगे! अरे भैया कौन मना  कर रहा है, पर खिलाड़ी चूने मा काहे देरी कर रह हो। जबकि दुसरका टीम का खिलाडी सब प्रेक्टीसो करने लगा है, अपना- अपना मैदान में. औउ ई कप्तनवा सोच रहा है कि सभे मैदान का मैच अकेलिये खेल लेंगे। हमरी बात को सुन अभी -अभी पहुंचे  पंडित जी मुस्कुराए, 'बाबू ई कप्तनवा तो अपना ही मैदान छोड़ कर दुस्सर मैदान देख रहा है. अब भला भांग के आगे कासी में ढोकला चलिहें का.'  

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1 comments: on "चुनावी बुखार की गुलेल गोली "

शाहनाज़ इमरानी ने कहा…

यहाँ अलगाव और भटकाव के लिए एक बेक्टीरिया को पैदा किया गया है। जिसका नाम चुनाव है। बढ़िया व्यंग है।

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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

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