शहनाज़ इमरानी की कविताएं
हथोड़े की आवाज़ गूंजती है
एक वक़्त ऐसा भी था
जब दरख्त लोगों का
सारा सच सुनते थे
दरख्तों के तनों में बने
लकड़ी के कानों में
सब कहा करते थे
दरख्तों के पास अनगिनत
राज़ जमा हो गए थे
और वो कुल्हाड़ियों से नहीं डरते थे
उनकी जड़ें लोगों के ख़्वाबों में
हुआ करती थीं
और ख़्वाबों की चाबी
किसी ख़ुदा या भगवान के
हाथ में नहीं थी.
फिर समय ने कुछ रंग दिये
दबे पाँव लोग मिट्टी से
बाहर निकल कर
अपनी पहचान में रंग भरने लगे
गाँव आदमी के तजुर्बों का
सबसे मुश्किल हिस्सा हो गया
लालसाओं के छुपे नाख़ून पंजों से बाहर निकले
सड़ते ज़हनों की बदबू फैलने लगी
चौराहों पर भ्रामक इश्तहारों की तरह
आश्वासनों से भरी
पीढ़ी गुज़रती गयी क़तार से
विकल्प की संभावना के हाथ कट गए
हर तरफ चेहरे ही चेहरे
दुखी, फ़ीके, उदास
भूखे, धूल खाये, बदहवास
ज़ख़्मी, गुस्साये, बौखलाए
बढ़ता गया अँधेरा और
परावर्तन के डर ने किरणों का प्रवेश बंद कर दिया
फासिस्टी कचरे और उन्माद की गंध से
पूँजीवादी बिलों से निकले बेशुमार कीड़े
और दरख्तों के कानों में घुस कर
उनको बहरा कर दिया
कुछ दिन बाद दरख्तों ने
बिना मिलावट के सच उगल दिये
और एक-एक करके सारे दरख्त मरने लगे
कई ख्वाब टूटे कुछ पर लगा कर उड़ गये
कई हिस्सों में बंटा विरोध।
अब जुर्म कैसे साबित हो
लोग कीड़ों के साम्राज्य से डरते है
मिट्टी में रेडियोएक्टिव किटाणु अब भी
दरख्तों का बदन कुतरते रहते है
सन्नाटे में हथोड़े की आवाज़ें गूंजती है
लोग अभी भी कीड़ों को मार रहे हैं।
मोहबब्त फेयरीटेल्स नहीं है
पार्क तो वही है
गहरी शाम ओढ़े हुये
कई लोग हैं सभी की आँखों की
इबारत अलग है
बेंच पर बूढा आदमी चेहरे पर
आखरी इंतज़ार लिए सो रहा है
एक बच्चा बॉल से खेल रहा है
सब कुछ भूल कर एक कोने में
एक लड़का और एक लड़की हाथ पकड़े बैठे हैं
पार्क में सब कुछ कल जैसा ही है
बदलाव भी अजीब होता है
शायद चीज़ें नहीं बदलतीं हैं
देखने का नज़रिया बदलता जाता है
मोहबब्त फेयरीटेल्स नहीं होती है
रिश्तों को एक ही पैटर्न पर चलते हुए पाते हैं
शुरुआती थ्रिल, ऊब, उपेक्षा और
तनाव फिर सब ख़त्म
मोहबब्त अनकंडीशनल क्यों नहीं होती !
चुनाव का माहोल
बदल जाता है सच
परिस्थतियों के साथ
किस लफ्ज़ ने किस लफ्ज़ से
क्या कहा
सब अनसुना सा हो जाता है
फुल स्टाप के बाद
दिन मांगते हैं न्याय
अटकलों, संदेहों, और अंदेशों पर
लटका समय गुजरने के बाद
शुरू हो गई है खोखली बहस
जिसकी धार मर गयी है
देखने का नज़रिया कैसे बदले
नेता माँ बाप नहीं
जनता के नौकर हैं
जनता हाथ जोड़े खड़ी रहती है
लाठी किसी के भी हुक्म से चले
सहना जनता को पड़ता है
योजनाये बहुत हैं, करोड़ों का बजट है
पर सरकार खुशहाली का निवाला
कुबेरों को खिलाती है
बेशर्मी की चर्बी बढ़ती जाती है
बढ़ती जाती स्लम बस्तियाँ
खत्म हो रहा मध्यवर्ग
धर्म एक हथियार बना है
उन्माद से भरे हैं लोग
पुलिस बनी शिकारी कुत्ता
और जनता को दौड़ाती है
हविस, हिंसा, होड़
सारे विकल्पों को खुला रख कर
चुनाव का माहोल बना है।
एक लड़की है शबाना
सड़क किनारे खड़ी होती है
वो लड़की शबाना
कस्टमर के इंतज़ार में
सुना है अपना घर और ज़मीन गाँव में
गिरवी रख कर आई है.
तुम्हे यहाँ नहीं आना चाहिए था
उसने मुझसे कहा
एक कमरा मटमैले अँधेरे से घिरा हुआ
जिसकी दीवारों का रंग उड़ा हुआ था
आख़री बार पता नहीं पुताई कब हुई थी
दीवार में एक छोटा सा रोशनदान
जिससे धुँधली फ़ीकी
धूप गिर रही थी
एक पलंग पर सिलवटों से भरी
चादर बिछी थी और दो तकिये रखे थे
शराब की खाली बोतल पड़ी थी पलंग के नीचे
कोने में जल रही अगर बत्तियों में से
कुछ राख में बदल चुकी थीं.
सुना था तुम नज़रों का जाल बुनकर
लोगों को फँसाती हो
जो कुछ सुना था
उसके विपरीत हो तुम
निचोड़े गये नीबू जैसा जिस्म
उम्र की सारी बरसातें
बर्फ़ में बदल गयी हो जैसे
एक बेरंग दुनियाँ
लोग भी तो काली रातों के होगें
जिनके चेरहे दिन में पहचानना
बहुत मुश्किल है
तुम्हारी आवाज़ से मैं
चौंक गई तुम कह रही थी
यहाँ से चली जाओ
तुम्हे मेरे बारे में जानने की
इत्ती क्या पड़ी है
एक फ़ायदा भी हुआ है तुम्हारे आने से
मोहल्ले के लोग कुछ दिन मुझे
शरीफ़ लोगों में शामिल कर लेंगे
और जब पता चलेगा तो
हमेंशा की तरह फिर जगह बदलना पड़ेगा
तुम्हारी बैचेनी का गवाह तुम्हारा चेहरा
भूख, बेरोज़गारी, ग़रीबी का आत्मविलाप
सोच रही थी सरकार ने
कई योजनायें बनायीं हैं
और एन.जी.ओ.वाले
कंडोम बाँट कर
मदद करते हैं तुम्हारी
तुम्हे एक नाम भी मिला है
सेक्स वरकर्स
आख़िर समाज की
सभ्यता बनाए रखने के लिए
तुम्हारी ज़रूरत है
कब तक खड़ी रहोगी तुम
सड़क के मोड़ों पर
पुलिस खदेड़ देगी या
और लड़कियों के साथ
भेड़ों की तरह पुलिस वैगन में
भर कर ले जायेगी
और फिर हवालात।
गरीब की झोपड़ी में
साँप, बिच्छू या कोई भी
जानवर के आने पर पाबंदी नहीं होती
यह सब में तुमसे कहना चाहती थी
मगर पीली थकी बीमार हाँपती हुई
तुम्हारी आँखों में देख कर
खुद से नफरत की
आज शुरूआत हुई।
अब डर लगता है
जायज़ या नाजायज़ हालात
समय की पैदाइश हैं
ग़ायब हो चुके पार्क में
वो झूले याद आते है
तेज़ झूले का डर
छिपकलियों और कॉकरोचों से डर
परीक्षा में फ़ेल होने का डर
भूत, चुड़ैलों का डर.
डर भी कितने छोटे होते थे
शरारत और डांटों के बीच
डर अँधेरे के साथ ही रोज़ रात आता
डराता और सुबह होते चला जाता
साल-दर साल मेरे साथ-साथ
डर भी बड़े हुए
में तो एक हूँ यह अनन्त हुए.
अब डर लगता है
लोगों की चालाक मुस्कानो से
दोस्ती में छुपी चालों से
शतरंज की बिसातों से
नफरतों से चाहतों से
आतंक, विस्फोट, और इंसानी जिस्मों के टुकड़ों से
दंगाइयों से, आग से, लाठीचार्ज से
पुलिस, नेताओं, चुनाव और फसाद से
मस्जिद में अल्लाहो अकबर और
मंदिर में हर हर महादेव के नारों से
भीड़ में और बस में पास बैठे अजनबी के स्पर्श से
रास्ता चलते हुए जिस्म का जायज़ा लेती नज़रों से !
कानों में तेल डालने से पहले
कितना आसान होता है आगे बढ़ना
अगर सामने रास्ते होते है
मगर रास्ते सब के लिये कहाँ होते हैं
कुछ लोग चुनौती को स्वीकारते है
कभी -कभी शुरुआत मंज़िल से
पहले ही हार जाती है
फिर भी लोग
रास्ता तलाशने में लगे हैं
खेतों, कारखानों में कई करोड़
किसान और मज़दूर
कई करोड़ बेरोज़गार युवा
जिनकी कोशिश जारी है
एक सम्पादक लिखता है
विद्रोह न्यायसंगत है
अन्याय के ख़िलाफ़
एक चित्रकार चित्रित करता है
किसान की खुदकशी
एक कवि लिखता है
धर्म के ठेकेदारों के षड्यंत्रों के विरुद्ध
कुछ लोग ढूँढ़ते हैं मसीहा
विचारहीन सम्मोहित भीड़ चल पड़ती है
उसके पीछे-पीछे
क्या तानशाह का ह्रदय परिवर्तन हुआ है.
तुम्हारे कानों में तेल डालने से
पहले की बात है यह
गोधरा के बाद सत्ता द्वारा आयोजित नरसंहार
विधर्मियों को आग में झोंक कर
गुजरात में नरमेंघ यज्ञ
धर्म के ठेकेदारों के पास तुम्हारी
तकलीफों से रिहाई की कोई राह नहीं
और तुम्हारे पास ज़ंजीरों के
सिवा खोने को कुछ नहीं*।
* कॉल मार्क्स
वो आदमी
जिसे सब पागल कहते हैं।
पत्थर तो पहले से थे
पत्थरों से आग पैदा हुई
और फिर आग को बेचने वाले
वक़्त जितना गुज़र गया है
उतना ही ठहरा हुआ है
लोग बना रहे है अपना
आज, कल और परसों
उनकी तकलीफें
दूसरों का मनोरंजन
बुझे अलाव की मद्धिम सी आँच में
बूढ़े बरगद के नीचे
सड़क के कुत्तों के साथ
वो आदमी फिर सो गया है
उसे सब पागल कहते हैं।
चटोरी गली
शाम को सूरज डूबने के बाद
चटोरी गली की रौनक़ बढ़ जाती है
यह एक अलग दुनियाँ है
उन्हें पता नहीं फाइव स्टार होटल और हाइजीनिक फ़ूड
उधड़ी सड़क, काला धुआँ दीवारों और चेहरो पर
टूटी-फूटी टेबल कुर्सियां और उन पर रखे मटमैले गिलास
सूरज तो सही वक़्त पर निकला था
और अँधेरा जब हुआ भूख की आवाज़ ऊँची होने लगी
रात ने कहा अगर सन्नाटे न टूटे तो
जमाई आती है
67 साल लम्बी उम्र होती है
एक आदमी बनियान में कमज़ोर सा , काला रंग
पसीने से शराबोर भट्टी पर
बड़ी-बड़ी रोटियां पकाता है
पान चबाता हुआ पीले-पीले बल्ब की उदास रौशनी
बड़े-बड़े काले तवों पर सिकते परांठे, शामी कबाब, मछली
मसाला लगे मुर्गे लटके हुए
नानवेज में सब कुछ मिलता है चटोरी गली में
जो अंदर बैठे है और जो बाहर खड़े हैं उनमें
आधे लोगों से ज़यादा पढ़ना नहीं जानते होंगे
किसी के मुहँ में पान है किसी के हाथ में बीड़ी है
मटमैले कपड़ों में होटल का मालिक गल्ले पर बैठा
हिसाब किताब में उलझा है
दो लड़के बातें कर रहे है
अरे खां वो अपने धोनी की तो फिलिम उलझ गयी
क्या केरिये हो मियाँ
सच केरिया हूँ फिक्सिंग में नाम आ गिया है
लम्बे बालों वाला लड़का दूसरे से
अबे भूरे फिर क्या हुआ
जब साले अरशद ने तेरी सब्ज़ परी (पतंग का नाम )
पर लंगर डाल दिया था
अबे मैंने कोई कच्ची गोलियाँ थोड़ी खेली है
मैने भी छत पर ग़टटे (पत्थर) जमा कर लिए हैं
मिला-मिला के दिये साला चप्प्लें (चप्पल) छोड़कर भाग गिया
कुछ उम्र दराज़ लोग जो इस दुनियां से बहुत परेशान लगते है
उन्हें क्या खाना है किसी की दाढ़ में दर्द है
किसी का पेट खराब किसी के मुँह में छाले हैं
अरे मियाँ पीर सलीम मियाँ क्या पोह्ची हुई हस्ती है
दर्द से तड़प रिया था मेरा पोता
मियाँ ने ऊँगली पकड़ली और जो पड़ना शुरू किया
तो पिशाब करा दिया हाथ जोड़ने लगा
इमली वाला था बच्चे पे आ गिया था
क्यों खां तुम्हारी औरत घर आ गई
उन्ही में से एक शातिर सा दिखने वाला आदमी
सर में तेल और आँखों में सुरमा
हाथों में मेहँदी थोड़े साफ़ कपडे पहने हुए
एक मरियल बूढ़े से आदमी ने पीले दाँत निकाल कर पूछा
आएगी नहीं तो जायेगी कहाँ तुक (सीधा) कर दिया है
जब से भूत उतारा है (मारना बेहरहमी से)
इस इस्तेमे (इज्तिमा) में लड़की का निकाह करवा रिया हूँ
वो भी अपनी माँ की तरह लल्लो (ज़ुबान) चलाती है.
एक और मेज़ पर बिरयानी खाते हुए कुछ लोग
कुछ गालियां बक रहे है एक दूसरे को
ज़ोर-ज़ोर से हँसते हैं गंदे लतीफों पर
एक आदमी कहता है
भाई मियाँ शहर क़ाज़ी ने अच्छा किया
औरतो के बज़ार (बाज़ार) जाने पर पाबंदी लगा दी
रमज़ान के महीने में क्या धक्का-मुक्की होती है
उनमें से एक बोला
हमारी बीवी हर साल पैसे जोड़ती
और सब लूटा देती थी कपड़ों पर
अब ले लो सब हँसते हैं
एक आदमी साईकिल घसीटता हुआ
टूटी चप्पल जगह-जगह से फटे कपड़े
एक कट (आधी ) चा (चाय) ला और दो तोस (टोस्ट) देना
यहाँ कोई टिप नहीं मिलता
रात को कुछ औरतें बुर्क़ा ओढ़े
कुपोषित बच्चो को लिये आ जाती है
अल्लाह के नाम पर दे दो तुम्हारे बच्चों का सदक़ा
रात बढ़ती जाती है कुछ लोग इन औरतों को गाली देते है
कहते हैं इस तरह माँग कर मुसलमानों
का नाम ख़राब कर रही है
बाहर कुत्ते सूंघ-सूंघ कर खा रहे हैं
कुछ गुर्रा रहे हैं
रात और गहराने लगी है।
_________________
हम भी भारत वासी है
हम भी जीना चाहते है
हमें भी चाहिये
हमारे हिस्से की हवा
हमारे हिस्से की ज़मीन
हमारे हिस्से का आसमान
हमारे हिस्से का सब कुछ
ओ मेंरे वक़्त तुम सुनों
की ज़िन्दगी में
इन्सान मोहब्ब्तों के लिये
और चीज़ें इस्तमाल के लिये थीं
लेकिन हवस ने हमारी आत्मा
कि गठरी बना कर
एक गहरे काले समन्दर में
पत्थरों से बाँध कर फ़ेंक दिया
अब हम चीज़ों से मोहबब्त करते हैं
और इन्सानो का इस्तमाल करते हैं
अपनी तमाम अमानवीय क्रूरताओं के साथ
हर जगह क़ब्ज़ा करती जा रही है
बढ़ती ज़रूरतें और लालसायें।
लकड़ी को जलने और जलाने में
मासूम चेहरा धुला-धुला सा तन-मन
आज दुनियाँ में जब चाँद पर घर और
अंतरिक्ष में फसल उगा रहे है
सब कुछ बदल रहा है
पर गाँव अब भी वैसा ही है
सुबह से लट्टू की तरह घूमती है
मोमबत्ती सी गलती लड़की
आँखों को जिंदगी दिखेगी कैसे
अगर आँखों में खारा पानी हो
भीगा चूल्हा गीली लकड़ी
कितनी तकलीफ है
लकड़ी को जलने और जलाने में
जैसे बुखार से भरी हुई नसें
आदिवासी स्त्रियों का शोक गीत
भूख की चमक का चढ़ता पारा
वो बतिया रही थी आग से
जल जा न कहे परेसान करती है।
औरत भी शामिल है इंसानो में
आज लोग ज़िन्दगी के बड़े से बड़े हादसे को
सोशल साइट के स्टेटस की तरह देखते हैं
हमारी बिगड़ती जा रही मानसिकता
या ख़त्म होती जा रही इन्सानियत
सतीत्व, शिष्टता, सौन्दर्य
इन शब्दों से नारी का चेहरा उभरता है
पुरुष का नहीं, और पुरुष शिष्ट नहीं हुआ तो क्या
हमारा समाज भी तो पुरूष प्रधान है
नारी को सम्पति मानने वाला पुरुष
नारी जब पूरे कपड़ों में ढँकी रहती हैं
फिर भी कई पुरूषों को नग्न नज़र आती हैं
नारी को उसके अंगों से हटकर सोचने की आदत
बहुत कम पुरूषों में होती है
बहुत छोटी उम्र में
जब बीमार मानसिकता का पुरूष छूता है
स्कूल में जब शिक्षक महोदय
पीठ पर अजीब तरह से हाथ फेरते हैं
भीड़ भरे रास्ते, बस, ट्रेन
पड़ोस, मुहल्ले, परिवार, रिश्तेदार
हर कहीं कुछ घटता है
और डरी हुई नारी जो
सामना, करना, लड़ना नहीं सीखती
इस भेद-भाव की क्रूरता और
समाज का असली चेहरा नहीं दिखाती
डरती हैं, पति से परिवार से समाज से
लड़की को डरा कर उसे दोषी ठहरती है
तुम्हारे कपड़े, तुम्हारा मेकअप
तुम्हारा हँसना, तुम्हारी दोस्त
तुम कितनी देर तक बाहर रहती हो
उसके मन में अँधेरा भर देती है
उसे अपने ही जिस्म से डर लगने लगता है
और फिर सीख जाती है बलात्कृत होने के बाद
मुंह बंद रखने का सबक़
माँ ने लड़की को अपने जिस्म को पाकीज़ा
रखने और लड़की होने के कई सबक़ दिये
मगर लड़के को बलात्कार न करने का
और औरत को इंसान मानने का
कोई सबक़ नहीं दिया
संघर्ष से जूझती हुई हालात को टक्कर देती
खुद की तलाश गहरे अँधेरे में
बैचेनी छटपटाहट और कई
सवालिया निशान ?
वजहें बहुत सारी हैं
ख़याल बहुत खूबसूरत होते हैं
भूली नज़्म का न जाने कौन सा हिस्सा
इन ख्यालों की दुनिया भी अजीब होती है
कभी चाहकर भी कुछ नहीं
और कभी न चाहते हुए भी दिल के दरवाज़े पर
एक भीड़ सी लग जाती है
ख्यालों की दुनिया में दिमाग का कोई काम नहीं है
खयालो की एक तवील महक है
रोज सुबह कई मुखोटे डाल कर सब निकलते है
ओर दिन पर सच का मुलम्मा चढ़ाकर
रात की ओर धकेल देते है
और फिर खुद से नज़रे बचा कर उस पर
"दुनियादारी ' का बोर्ड लगा देते है
ख़यालों में जीना ऐसा ही है शायद
जैसे हादसों से भरे वक्त की चादर ओढ़े
आगे बढ़ते जाना
जो बिछड़ गए उनका इंतज़ार और जो साथ हैं
उनकी चहरे की चमक से आँखों की नमी तक
एक उम्मीद सबसे खूबसुरत है
दुखों के गहरे कुंए में या रास्तों के जंगल में
खो गए लम्हों की यादें
एक दिन जिस्म के साथ ही बुझ जायेंगी
और इन सब के बीच ज़िन्दगी का
शुक्रिया अदा करने की वजहें बहुत सारी हैं।
( रचनाकार-परिचय :
जन्म: भोपाल में
शिक्षा: पुरातत्व विज्ञान (अर्कोलॉजी ) में स्नातकोत्तर
सृजन: पहली बार कवितायेँ "कृति ओर " के जनवरी अंक में छपी है।
संप्रति: भोपाल में अध्यापिका
संपर्क: shahnaz.imrani@gmail.com )
साहित्यकार पिता मक़सूद इमरानी स्वतंत्रता सेनानी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य थे। )
हमज़बान में उनकी कुछ और कविताएं