शहनाज़ इमरानी की कविताएं
बूँद भर एक ख़्वाब
बूँद भर एक ख़्वाब
पलकों की रिहाइश छोड़ कर
दरिया नहीं, नहर नहीं
और न बंधता है किनारों में
झरना होना चाहता है
चट्टानें तोड़ कर
पत्थरों के बीच फूट कर
बहना चाहता है वो
दुनियाँ को समेट कर।
हाशिये के बाहर
वो जाते है
नाक पर रूमाल रखकर
मुसल्मानों के मोहल्ले में
जब वोट बटोरना होता है
खुली बदबूदार नालियाँ गड्डों में सड़ता पानी
कचरे और गन्दगी का ढ़ेर
मटमैले अँधेरे घर बकरियाँ,मुर्गियाँ, कुत्ते, बिल्लीयें
काटे हुए मवेशियों कि दुर्गन्ध
मुरझाए चहरे पतवारविहीन साँसे
पंखविहीन सपने
पेट की आग कुरेदती है
तो भूख चाहती है
झपटना चील कि तरह
और झपटने में जब गिर गए हों
चारो खाने चित्त
कितनी शर्म आयी होगी उन्हें
अब तकलीफें झेलने कि ताब है
आसना और मुश्किल दिन एकसे हैं
अब वे एक दूसरी दुनियाँ में हैं
खिंच गयी एक लकीर हाशिये की
जिस तरह भूल जाते हैं हम अमूमन
कुछ-न-कुछ किसी बहाने
भूलती गयीं सरकारें भी
बेशक सरकार बनाने में
यह अहम भूमिका निभाते आये है
आज भी याद आ जाते है चुनाव के समय
हाशिए से बारह के लोग।
मेंरा शहर
शहर में बहुत भीड़ है
शहर में खौलता शोर है
शहर को खूबसूरत बनाया जा रहा है
वो बारिश में भीगते है
सर्दी में ठिठुरते हैं
उनके सरों पर धूप है
खुरदरी, पथरीली,नुकीली
भूख की चुभन है
बदहवास, हताश, परछाइयाँ हैं
शहर में ज़िन्दा हैं तमाम जुर्म
क़त्ल, बेईमानी, वारदात, नाइंसाफ़ी, भ्रष्टचार बलात्कार, खुली लूट
बढ़ती जाती है रोज़-बा रोज़
महँगाई, गरीबी, बेरोज़गारी और भूख
क़ानून उड़ने लगा है वर्कों से
घुल रही हैं कड़वाहट हवाओं में
मन में गहरा विषाद
भूखे आदमीयों के
सवाल लगा रहे हैं ठहाके
अँधेरे के नाख़ून खुरचते है
बदसूरत ज़ख्मों को
मर चुकी संवेदनाओं के साथ जी रहा है शहर
अब बहुत तैज़ दौड़ने लगा है शहर।
ट्रैफिक सिंगनल
ट्रैफिक सिंगनल पर जब रूकती है कार
उग आते हैं अनगिनत
नन्हे-नन्हे हाथ
किसी हाथ में अख़बार
किसी में मेंहकता गजरा
किसी में खिलौने
किसी में भगवान
कुछ हाथ खाली हैं
जिनमें झाँकते हैं
अनुत्तरित सवाल
एक बच्चा
क़मीज़ की आस्तीन से
जल्दी-जल्दी कार के शीशे साफ़ करता है
और नाक पोंछ कर कहता है
कुछ दे दो न साब
और साब का बच्चा कहता है
पीछे हट तूने कार के ग्लास गंदे कर दिये।
एक ऊब
घर इत्मीनान नींद और ख़्वाब
सबके हिस्से में नहीं आते
जैसे खाने की अच्छी चीज़ें
सब को नसीब नहीं होतीं
जीवन के अर्थ खोलने के लिए
खुद पर चढ़ाई पर्तों को
उतारना होता है
पैदा होते ही एक पर्त चढ़ाई गई थी
जो आसानी से नहीं उतरती है
पर्त-दर-पर्त पर्तों का यह खोल
उतरने में बहुत वक़्त लगता है
बहुत कड़वा और कसेला सा एक तजुर्बा
यह ऊब बाहर से अंदर नहीं आती है
बल्कि अंदर से बाहर की तरफ़ गयी है
कुछ बचा जाने की ख्वाहिश के टुकड़े
कुछ यूँ कि उसे ठीक करने की कोशिश भी
बेमानी लगती है.
इसी अफरातफरी में इतना हो जाता है
तयशुदा रास्ते पर चलते रहना
मोहज़ब बने रहना बहुत मुश्किल है
उम्र के दूसरे सिरे पर भी बचपन हँसता है
गहरे जमीन में जाती जड़ें
पानी का कतरा खोज कर शाख़ पर पहुँचाती हैं
शाख़ें अपनी खुशियाँ फूलों को सौंपती हैं
फल सब कुछ खो देने के लिए पकता है
जैसे जैसे पेड़ की उम्र होती जाती है
इंसानी झुर्रियों जैसी पर्त-दर-पर्त उसका बाहरी हिस्सा बनता जाता है
और फिर नाखूनों की तरह बेजान हो जाता है।
ज़िंदा रहना एक फ़न है
ज़िन्दगी में फिर लौट कर आना
घने कोहरे को दरख्तों के बीच छटते देखना
धड़कन की रफ़्तार थोड़ी धीमी सही
बेचैनी भी है
पर लगातार जीने का माद्दा तो है
कमरे में सारी किताबें क़रीने से लगी हैं
किताबों कि क़तार देख कर सुकून मिलता है
कितनी ज़िंदगियों का सच छुपा है इनमें
इंसानों कि बनायीं हुई दुनियाँ में
बहुत कुछ अच्छा और खूबसूरत बचा तो है
पढ़ने को इतना कुछ, समझने को इतना कुछ
जीने को इतना कुछ की एक पूरी ज़िन्दगी कम पढ़ती है
कितने फलसफे हैं दुनियाँ में उन्हें समझने को
पत्थर भी घिसे दीखते हैं
यूँ तो ख्वाहिशों का कोई आकार नहीं होता
न उनकी कि गिनती
अक्सर धुंध में ही तलाशती हूँ
आखिर मुझे चाहिए क्या
जैसे आर्टिस्ट खींचता है कैनवास पर पहली लकीर
बस एक लम्हा ही तो मिलेगा उसे
जैसे रौशनी ने ज़मीन का सफ़र किया हो
जैसे भी हो
ज़िंदा रहना एक फ़न है !
( रचनाकार-परिचय :
जन्म: भोपाल में
शिक्षा: पुरातत्व विज्ञान (अर्कोलॉजी ) में स्नातकोत्तर
सृजन: पहली बार कवितायेँ "कृति ओर " के जनवरी अंक में छपी है।
संप्रति: भोपाल में अध्यापिका
संपर्क: shahnaz.imrani@gmail.com )
साहित्यकार पिता मक़सूद इमरानी स्वतंत्रता सैनानी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य थे।
11 comments: on " अदीब पिता की कवयित्री बिटिया"
रचनायें बहुत अच्छी लगीं ।
पर एक कवि की कलम के हिस्से सारे ख्वाब आते हैं .... हर कविता में कुछ ख़ास है
क्या लिखें? ज़िंदा रहना वाकई फ़न ही तो है। हर लफ़्ज़ चीरता हुआ निकल जाता है। इंसानियत के लिए एक नया आईना। रहे ज़ोर ए क़लम और ज़्यादा।
nice
behad sanvedansheel rachnaayen hain .. dil ko chhooti hain.
सभी एक से एक ..साधू साधू
शहनाज जी कवितायेँ बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती हुईं सी ....
कमियों की तरफ क्या ध्यान दिलाएं..कविताएं खूबसूरत एहसास लिए हुए है..औऱ सच के करीब हैं..जिदगी में लौट आना सच में एक फन है..आर्ट है....नववर्ष की शुभकामनाएं
आप सब की प्रशंसा और प्रोत्साहन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। बहुत आभारी हूँ शहरोज़ जी की उन्होंने मुझे खुश होने का मौक़ा दिया। क्योकिं ऐसा मौक़ा देने वाले कम होते हैं ! शाहनाज़ इमरानी :)
31 दिसम्बर 2013 6:31 am
मैं आभारी हूँ आप सभी का. आपने शहनाज़ इमरानी की कविताओं को पढ़ा. हौसला अफ़ज़ाई की. ख़ासकर मैं रश्मि दी, अफ़लातून जी, सुमन जी, पंकज जी, युसूफ भाई, शिखा जी, रोहिताश जी, शारदा जी और अरुण जी का शुक्रगुज़ार हूँ.उम्मीद है कि हमज़बान को आपका स्नेह हमेशा मिलता रहेगा।
शहनाज़ साहिबा ! आप अच्छा लिखती हैं इसलिए मुझे लगा कि हमज़बान इससे अछूता क्यों रहे। रचना के लिए हमज़बान आभारी है!
mujhe lagta hai... der se yahan aaya... par.. der aayad - durust aayad... sach men shehnaaz ke lekhan men ek taazgi mehsoos hui..... bawazood... sadi-gandhaati naliyion ki upasthiti ke... chintan ke aise majmoon... jo aksar nazar andaaz ho jaate hai... shaayra ko badhai
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रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.
न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी