डॉ. अमिता नीरव की क़लम से
रविवार का दिन था, स्कूल की छुट्टी। सरकारी स्कूलों में यूँ भी होमवर्क-फोमवर्क जैसा कुछ हुआ नहीं करता था। इसलिए दिन भर उसके फुदकने-खेलने के लिए था। वो यूँ ही घर में ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर के चक्कर लगा रही थी। पता नहीं क्यों, उसके बहुत दोस्त नहीं थे। पिता सब्जी लेकर अभी-अभी लौटे थे और वो उस जादू के थैले में से अपने काम की चीजें टटोल रही थी। अरे वाह...! आज तो बहुत कुछ था उस थैले में... सर्दियों के दिन थे – गाजर, मटर और हाँ... बेर भी...। उसने अपनी फ्रॉक को झोलीनुमा बनाया और उसमें अपनी छोटी-छोटी मुट्ठी में भरकर मटर और बेर डालने लगी... जब लगा कि अभी गाजर रखने की जगह बचानी है तो दो-तीन बड़ी-बड़ी गाजर उठाकर अपनी झोली में रख ली और गली के मुहाने पर जहाँ तीन-चार रास्ते गुजरते हैं और इस वजह से वहाँ एक मैदान सा बना है, वहाँ पहुँच गई।
ये वही जगह है, जहाँ आसपास के गलियों में रहने वाले सारे बच्चे शाम को खेलने आते हैं। वहीं एक पत्थर पर वो बैठ गई। मैदान सुनसान था वक्त हुआ होगा कोई 10-11 बजे का (सुबह)। उसने इत्मीनान से अपने दोनों पैरों को फैलाकर अपने फ्रॉक की झोली को सहेजकर व्यवस्थित कर लिया। गाजर खाना शुरू किया, फिर मटर... तभी उसके सामने एक 25-27 साल का युवक आकर खड़ा हो गया। उसने सामने वाली गली की तरफ इशारा कर कहा – उधर गली में 10 पैसे पड़े हैं, चल लेकर आते हैं...। उस 7-8 साल की बच्ची ने उसकी तरफ आश्चर्य से देखा...उसके मन में सवाल आया कि गली में 10 पैसे कैसे पड़े होंगे...? औऱ पड़े हैं तो उसने कैसे देखें? और उसने देखें तो फिर उसने खुद क्यों नहीं उठाएँ, ये उसे क्यों बता रहा है? लेकिन उसने उससे कोई सवाल नहीं किया। उसने देखा कि उस लड़के ने नीले रंग की पेंट पर बहुत सारे खूबसूरत और चटख रंगों का लाइनिंग वाला कोट पहना हुआ था। बच्ची को उसका कोट बहुत पसंद आया...।
उस लड़के ने फिर से अपनी बात दोहराई। बच्ची ने कहा – नहीं, मुझे नहीं चाहिए और उसने अपनी झोली में से बेर उठाकर उसकी टोपी काटी। वो लड़का थोड़ी देर असमंजस में खड़ा रहा। फिर उसने कहा – अच्छा, ये तेरे इयररिंग मुझे बहुत अच्छे लगे... मैं ले लूँ!
बच्ची ने बेर की गुठली चूसते हुए हाँ में सिर हिला दिया। उसने बच्ची के कानों की बालियाँ उतारी और लेकर चला गया। वो वहाँ वैसे ही अकेले बैठी रही। गाजर और मटर पहले ही खत्म हो चुकी थी, सारे बेर खत्म किए और खड़े होकर अपनी फ्रॉक झाड़ी...। थोड़ी देर यूँ ही बैठी रही और फिर घर लौट आई। माँ ने खाने के लिए कहा तो वो अपनी छोटी थाली लेकर बैठ गई। माँ थाली में रोटी रख रही थी तो उसने जोर-जोर से सिर हिलाकर इंकार किया, पता नहीं कैसे माँ की नजर उसके कानों पर गई। तेरी बालियाँ कहाँ गई? – माँ ने जोर देकर पूछा।
उसने बहुत निस्संगता से दाल-चावल का कोर बनाते हुए बताया – वो एक अंकल ले गए।
अब माँ घबराई... – कौन अंकल?
वो अंकल जो वहाँ मैदान में मिले थे...। उसे समझ नहीं आ रहा था कि माँ क्यों घबरा रही थी! अबकी माँ खड़ी हो गई और उसका हाथ पकड़कर घर के आँगन में ले आई। पिता, ताऊ-ताई सबके सामने उन्होंने सारी बात बताई। और फिर सारे लोग उसे उस जगह ले गए। उससे पूछा – तूने देखा वो अंकल किस तरफ गए हैं?
उसने भी हाथ के इशारे से बाँई और जाती गली बता दी... लेकिन वो सोचने लगी कि आखिर बालियाँ तो उसकी गई है ये सारे लोग इतना क्यों घबरा रहे हैं? उसे अक्सर बड़ों की दुनिया बड़ी रहस्यमयी लगती थी, लेकिन रहस्यों में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए उस दुनिया में उसने झाँकने की कभी कोशिश भी नहीं की। ताई ने पूछा – कित्ती देर पहले की बात है?
उसने बहुत लापरवाही से कंधे उचका कर कहा – बहुत देर हो गई।
इतना सुनते ही सारे लोग निराश हो गए... अब तक तो पता नहीं कहाँ का कहाँ पहुँच गया होगा। हुआ क्या था? अब ये सवाल उठा। उस बच्ची ने सारी घटना सिलसिलेवार सुना दी। अरे... ! 10 पैसे के लालच में इसने अपने इयररिंग गवाँ दिए...। – माँ ने कहा तो उसने तुरंत प्रतिवाद किया – नहीं पैसे के लालच में नहीं...। लेकिन उसकी बात अनसुनी कर दी गई...।
फिर कई तरह की बातें हुई – अच्छा ही हुआ जो इसने इंकार नहीं किया, क्या पता गला ही दबा देता या फिर उठाकर ही ले जाता। धीरे-धीरे जो हुआ उसे होनी मानकर और उसे कोई नुकसान नहीं पहुँचाया ये सोचकर घरवालों ने उस घटना को भुला दिया। बाद में कई बार अलग-अलग लोगों के सामने या फिर अतीत को याद करते हुए इस घटना को दोहराया गया और हर बार वो ये सुनकर प्रतिवाद करती कि – ‘10 पैसे के लालच में इसने अपने इयररिंग गवाँ दिए।’ बाद के दिनों ने जब कभी इस घटना को दोहराया जाता और ‘लालच’ वाली बात बोली जाती तो उसे लगता कि क्यों नहीं उसने उस गली में जाकर देखा और वो 10 पैसे उठाकर ले आई... कम-से-कम ये ‘लालच’ ही कर लेती तो उसे इतना बुरा तो नहीं लगता। फिर घरवालों ने उसे सोना पहनाना बंद कर दिया, बड़े होने पर उसने खुद ही सोने से दूरी बना ली। बड़े हो जाने के बाद इस घटना की दो चीजें उसे शिद्दत से याद रही – एक उस लड़के का सुंदर कोट और दूसरा उस दिन उसने 10 पैसे का लालच नहीं किया था।
इस घटना के बाद सोना (gold) उसके जीवन की ग्रंथि बन गया। शौक से खरीदती, लेकिन ना उसे पहनने की इच्छा होती और ना ही हिम्मत...। हाँ लेकिन एक चीज जो उसने जानी ये कि वो आज भी वो किसी चीज के लिए इंकार नहीं कर पाती है। पता नहीं ये अच्छा है या बुरा...!
(रचनाकार परिचय:
जन्म: उज्जैन (मध्यप्रदेश), मार्च १९७१ में
शिक्षा: एम. ए., एम. फिल्.(राजनीति-विज्ञान), 'सार्त्र और कामू के अस्तित्ववादी विचारों का तुलनात्मक अध्ययन' पर पीएच. डी.
सृजन: पाखी, गुंजन, वंशिका, साहित्य nest और किस्सा में कहानियां प्रकाशित, नईदुनिया, दैनिक भास्कर और प्रथम प्रवक्ता में समसामयिक विषयों पर लेख, परिंदे और सहारा समय में यात्रा संस्मरण और समीक्षाएँ, वेब-पत्रिकाओं में जैसे सृजनगाथा, हिंदीकुंज, अभिव्यक्ति, नव्या में कहानियों का प्रकाशन और हिंदी समय, सृजनगाथा और जनसत्ता के अतिरिक्त कई अखबारों में ब्लॉग्स का प्रकाशन। लेख और कहानियों का प्रकाशन, ब्लॉग का विभिन्न अखबारों में प्रकाशन।
ब्लॉग: अस्तित्व
संप्रति: इंदौर से प्रकाशित दैनिक अखबार नईदुनिया के फीचर विभाग में कार्यरत
संपर्क: amita.neerav@gmail.com)
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- अल्लामा जमील मज़हरी