नौ साल का रामरतन
गुल्ली पर टुल लगाने की उम्र में
मैदानों को दौड़-दौड़ थका देने की उम्र में
स्कूल में पहाड़े सुनाते वक्त
सबसे तेज हो सकती थी उसकी आवाज
अपने गांव से कोसो दूर
दिल्ली की एक दूकान पर
गोल-गोल बिलता बचपन
नौ साल का रामरतन
आग उगलती भट्ठियां
वह मट्ठियां बेलता
मालिक की घुड़की है-
‘सुन बे ओए बिहारी ’
एक मासूम मन है गलता
कुछ नन्हें सुख है
परिवार की भूख में उलझे ।
बाजार की लगभग हर दूकान पर बने ऐसे दृश्य में
एक लेबर इन्सपेक्टर घूम रहा है लगातार
अपने बच्चों के लिए मिठाई मांगता
बच्चों से मजदूरी करवाने के एवज़ में अपना इनाम।
वे संभालते दुनिया
दिन भर कमरा खाली रहता है
शाम को अपना दरवाज़ा खोल हो जाता है आबाद
चौदह-बाय्-दस का वह कमरा
उसके हिस्से में आठ जन हैं
स्टोव पर पक रहा है हँसी-ठहाका
थकान की जकड़न से मुक्त साँसें
आँखों में आँखों का झाँकना
सुखद इच्छाओं का तेज़ प्रवाह
बाँगड़ जीवन पर फैलना चाहता
गाँव की कई याद कई तहें
इस कमरे में
उन तहों को ऊपर नीचे करते वे आठ जन
बतियाते हुए गपियाते हुए
अपनी आदतों में
अपनी नींद में
अपने सपनों में
रिश्तों की गरमाहट लिए सुबह में
उन्हें फिर छितर जाना हैं इधर-उधर
वे संभालते दुनिया..............
‘क्लोज-अप’ हसीना के चमकते दाँत से इतर
वहाँ पनपीले मुख पर अट्टहास
‘क्लोज-अप’ हसीना के चमकते दाँत
यहाँ करोड़ों का संताप
सदियों से कार्यरत हथौड़े की ‘ठक-ठक’
सभ्यता के निर्माण परोधा व्यस्त।
यहाँ जीवन कोल्हू में पिला
हाट-बाज़ार बिका
ख्वाब एक बसेरे भर का
आत्मा में वेदना
वहाँ शरीरी अटरिया पर गमकता है तेल
माया का विलास खे़ल
आनंद का तिकड़म
चाँदी की आत्मा सोने का खोल।
वहाँ उज्जवल-कलश लुभावन
‘उन्नति के भव्य दीप यही’
भ्रामक शोर प्रसारित प्रचारित
सत्ता के गलियारे में
केंचुल छोड़ता इंद्रजालिक व्यापारी
यहाँ अधलिखे उपन्यास का क्षोभ
जिसके केन्द्रीय संवेदन में तीखी पुकार
मनुष्य के बेहतर जीवन की
सुबह की लहरों में गेहूँ की बालों पर
ओस की चमकदार बूंदें
मिट्टी की सौंध यहाँ।
एक उदास स्वर
दवाइयों के सहारे
बीमारी के डर से तो बच जाऊँगा
परन्तु कैसे बचा पाऊँगा इस शहर को
खंजर के खौफ से
बम के विस्फोट से
कोई भी घड़ी दे सकती है धोखा
जीवन के किसी भी क्षण पर
बेमुरौवत आरी चल सकती है
कभी भी उजड़ सकता है बागवां
किसी महाकाव्य का दौर नहीं है यह
अपूर्ण भाव में
सूरज का संवारक रूप कहाँ!?
किस अग्नि में तपकर शुद्ध होगी घोषणाएं
पिछड़े जाते है तेज अंधड़ में
आँखों में भर रही है किरकिरी
व्याकुल है पीली घास
आस लिए मन में
हरी-भरी हो जाने को
दुख सूखे ठूंठ पर गड़ा कीला
जो कुछ भी सुख है
उस पर जमी है
थकान की झाई
बहरूपिया
केंचुल उतार गया सांप
और दबा भी नहीं
पहले से ज्यादा चमका है निखर
अपनी पूंछ को घूमा
तीन सौ साठ डिग्री वाली चौकड़ी मार बैठा है
तरह तरह से अपने फन को लहराता
दिखता है प्रफुल्ल
‘नाग का काटा पानी भी नहीं मांगता’
अपने चरित्र की इस विषेशता को अर्थ देने में लगा
हज़म करता निरीह कीड़ों-मकोड़ों को
गदगद है धर्म के कटोरे में दुग्धपान से
व्यवस्था की बीन-धुन पर
दिखावे का सदभावना नाच
अपने ही मोह में धुत्त बहरूपिया।
सौदागर-कलन्दर
महानगर में फैली है भूल-भूलैया सड़कें
सड़कों पर भठयारा सा आदमी
आदमी में फैले हैं सपनें
सपनों पर काला जादू छुमन्तर।
पृथ्वी का यह छोर या वह छोर
मनुष्य की इच्छाओं की खाद-बीज-पौध
सब कुछ काले जादू की गुफा अन्दर
गुफा का अधिश सौदागर कलन्दर।
शहर के बीचो-बीच बसा लूटियन जोन
लूटियन में शाही बिराजा है सुप्रीमों कलन्दर
स्काचॅ की मस्ती में
इंटरनेट पर पोर्नो देखना
उसका प्रिय शगल।
(कवि-परिचय:
जन्म : 11 मार्च 1965 को जिला महेन्द्रगढ़ (हरियाणा ) के गाँव बड़कौदा में
शिक्षा : प्राथमिक शिक्षा गाँव में, उच्च शिक्षा दिल्ली विश्वविधालय से हिंदी में स्नातकोत्तर
सृजन : एक कविता संग्रह ' नया एक आख्यान' (2013 ) प्रकाशित
विभिन्न पत्रिकाओं और इंटरनेट ब्लाग्स पर कविताएं
संप्रति: दिल्ली में व्यवसाय व रहकर स्वतन्त्र लेखन
संपर्क : shambhuyadav65@gmail.com)