अजय पांडेय 'सहाब' की क़लम से
1.
कुछ चीखती उदास सी शामों को
छोड़कर
वो चल दिया कहीं
सभी रिश्तों को तोड़कर
सब कुछ बिखर गया
मेरा उसके फ़िराक में
वो जो चला गया
मुझे रखता था जोड़कर
मिल भी गया तो
देखिये ,चेहरा घुमा लिया
इक वक़्त था कि
वो मुझे मिलता था दौड़कर
आँखों में कोई
अश्क न मुझमे लहू बचा
रक्खा है तेरे
दर्द ने ऐसा निचोड़ कर
ले दे के उसका
खाब ही मेरा था पर 'सहाब '
दुनिया ने क्यूँ
जगा दिया मुझको झिंझोड़ कर
2.
जिसे लिखता है तू वो ही
तेरा किस्सा नहीं होता
जो अपना है वही
अक्सर यहाँ अपना नहीं होता
कहीं चेहरा तो
मिलता है मगर शीशा नहीं होता
कहीं आइना होता
है मगर चेहरा नहीं होता
मुहब्बत की न हो
बुनियाद तो रिश्ते बनाएं क्यूँ
फ़क़त बरगद उगा
लेने ही से साया नहीं होता
फ़क़त इंसान ही
इन्सां नहीं बनता ज़माने में
वगरना आज की
दुनिया में देखो क्या नहीं होता
करे तश्हीर वो
जितनी मचाले शोरो गुल जितना
कोई क़तरा कभी
फैलाव में दरिया नहीं होता
कई आंसू यहाँ चुपचाप बह जाते हैं अनदेखे
हरिक आंसू की ख़ातिर दोस्त का कन्धा नहीं होता
वो सब कुछ देख कर और सोचकर कुछ फैसला करता
कई आंसू यहाँ चुपचाप बह जाते हैं अनदेखे
हरिक आंसू की ख़ातिर दोस्त का कन्धा नहीं होता
वो सब कुछ देख कर और सोचकर कुछ फैसला करता
अगर मज़हब न होता
तो बशर अँधा नहीं होता
3.
मुझे मौजू'अ ग़ज़लों का, गमे दुनिया से मिलता
है
ये है वो आब जो
मुझको इसी सहरा से मिलता है
जहाँ का दर्द
मिल जाता है मेरे शेर में जैसे
फ़ना होकर कोई
कतरा किसी दरिया से मिलता है
जहाँ के तजरुबे
ही हैं हमारे इल्म के मकतब
कहाँ ये इल्म
हमको सोह्बते दाना से मिलता है
ज़मीं पर
हिन्दू ओ मुस्लिम झिझकते होंगे मिलने से
मगर जन्नत में
मेरा राम तो अल्ला से मिलता है
वही गद्दार मेरे
मुल्क का रहबर न बन जाए
जो हर इक रोज़
जाकर लश्करे आदा से मिलता है ..
वो तो यादें
तुम्हारी हैं जो मिलने आ ही जाती हैं
वगरना कौन अब
मेरे दिले तनहा से मिलता है
मिरे
नज़दीक क्यूँ हो फर्क भी हिन्दू में मुस्लिम में ?
मिरे मंदिर का हर रस्ता, रहे काबा से मिलता है
मिरे मंदिर का हर रस्ता, रहे काबा से मिलता है
अगर अशआर अच्छे हैं तो है तनक़ीद भी उतनी
कहाँ एजाज़
ऐसे पुर हसद उदबा से मिलता है
(मौजू'अ=विषय, मकतब=पाठशाला
सोह्बते दाना=विद्वानों की
संगत,.लश्करेआदा=दुश्मनसेना
(मौजू'अ=विषय, मकतब=पाठशाला
एजाज़=सम्मान, पुरहसद=इर्ष्यासे भरे, उदबा=विद्वान समूह)
4.
ज़ात के नाम पे बंटना नहीं देखा जाता
हमसे नफरत का ये धंदा नहीं देखा जाता
जिनकी हर सोच ही जुगनू में सिमट आई है
उनसे सूरज का उजाला नहीं देखा जाता
जिसको कुत्ते भी न खाएं उसी रोटी के लिए
भूके बच्चे का बिलकना नहीं देखा जाता
मेरे मौला मिरी आँखों को तू पत्थर कर दे
मुझसे ये खून ये दंगा नहीं देखा जाता
हमने बस प्यास में काटे हैं ज़माने लेकिन
हमसे इक शख्स भी प्यासा नहीं देखा जाता
जो बदलना है बदल डाल तू रहबर लेकिन
हमसे हर वक़्त का नारा नहीं देखा जाता
दर्द इतना है दिया उसके बिछड़ने ने मुझे
मुझसे कोई यहाँ बिछड़ा ,नहीं देखा जाता
कितना धुन्दला है सियासत का ये दरपन यारो
दिल में गैरत हो तो चेहरा नहीं देखा जाता
थोड़ी आजादी तो इन्सां को दो मज़हब वालों
अब ये हर बात पे फतवा नहीं देखा जाता
तंग तशरीह के खूँरेज़ अंधेरों में 'सहाब '
हमसे मज़हब का सिमटना नहीं देखा जाता
(परिचय:
जन्म: रायगढ़( छत्तीसगढ़ ) में 23 अप्रेल 1972 को
शिक्षा: रसायन विज्ञानं में स्नातकोत्तर और मास कॉम
सृजन: पहला अल्बम, वन्स मोर . अंतिम अल्बम : रोमानियत
पंकज उदास, शिशिर, चन्दन दास, सुदीप बनर्जी, गुलाम अब्बास खान और गुरमीत ने गजलों को स्वर दिया है। मरहूम जगजीत सिंह ने भी एक ग़ज़ल को अपनी धुन में पिरोया था लेकिन आकस्मिक निधन से वो अल्बम नहीं आ पाया।
उर्दू व हिंदी के कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन, उर्दू में मज्मुआ कहकशाँ शीघ्र प्रकाश्य
कुछ फिल्म के लिए गीत। फिल्म स्केपगोट का लिखा गाना वाह रे दुन्या, शिकागो फिल्म फेस्ट के नामांकित।
सम्प्रति:मुंबई में स्पेशल एक्साइज़ कमिश्नर
सम्मान: साहित्य के लिए नेशनल स्माइल अवार्ड, उर्दू अदब के लिए 2013 का साहिर लुधियानवी अवार्ड
संपर्क: ajay.spandan@gmail.com )
4 comments: on "आँखों में कोई अश्क न मुझमे लहू बचा ....."
bahut sundar gazalen...padhvane ka shukriya...
khubsurat gazalen mubarak ho
बहुत सही .सार्थक प्रस्तुति आभार हाय रे .!..मोदी का दिमाग ................... .महिला ब्लोगर्स के लिए एक नयी सौगात आज ही जुड़ें WOMAN ABOUT MAN
bahut khoob..shukriya sajha karne ke liye
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- अल्लामा जमील मज़हरी