ख़ालिद ए ख़ान की क़लम से
यूँ ही आई तुम
हमेशा की तरह
यूँ ही आई तुम
हमेशा की तरह
हवा में उड़ते
खुश्क ज़र्द पत्ते की तरह
अनायास !
ओठों पर वही
बेतरतीब सी ठहरी हंसी
कुछ दरकी हुई
नामालूम सी उलझी आँखे !
खुश्क ज़र्द पत्ते की तरह
अनायास !
ओठों पर वही
बेतरतीब सी ठहरी हंसी
कुछ दरकी हुई
नामालूम सी उलझी आँखे !
तुम्हारे आने ने
चौकाया
मुझे
पहले की तरह !
मुझे
पहले की तरह !
आते ही उलझ जाना
तुम्हारा कमरे से
और बासी फूल
में खुशबु ढूंढने की
नाकाम सी कोशिश
कितनी खीज
तुम्हारा कमरे से
और बासी फूल
में खुशबु ढूंढने की
नाकाम सी कोशिश
कितनी खीज
पैदा करती है !
एक सिरे से छूती हुई
मुक्तिबोध,,नरूदा अलोक धन्वा,शमशेर
पाश,ग़ालिब,मीर, पर रूकी
तुम्हारी उंगलियां !
मुक्तिबोध,,नरूदा अलोक धन्वा,शमशेर
पाश,ग़ालिब,मीर, पर रूकी
तुम्हारी उंगलियां !
ना जाने कितना वक़्त
बह गया
देख रहा हूँ
लहरों की
सूरज को डुबोने की
जिद को
खामोशी से !
बह गया
अब तक
मैं पकड़ न सका !
मैं पकड़ न सका !
और फिर
हौले से बैठ
जाना पायताने
तुम्हारा !
हौले से बैठ
जाना पायताने
तुम्हारा !
तुम्हारी
गहरी उजली बेबाक
आँखों के किनारे
बैठा मैं !
आँखों के किनारे
बैठा मैं !
देख रहा हूँ
लहरों की
सूरज को डुबोने की
जिद को
खामोशी से !
मैं
गुमनाम सफ़ीने सा
भटक जाता हूँ
गुमनाम सफ़ीने सा
भटक जाता हूँ
तुममे ही कही !
तुमने रेत पर लिखा
कुछ
अपनी उंगलियों से
लहरों ने आगोश में ले लिया
मैं पढ़ न सका !
कुछ
अपनी उंगलियों से
लहरों ने आगोश में ले लिया
मैं पढ़ न सका !
कुछ कहा भी
पर हवा ने
चुरा लिया कि
एक हर्फ़ भी ना
आया हाथ
पर हवा ने
चुरा लिया कि
एक हर्फ़ भी ना
आया हाथ
हमारे बीच की ज़मीं सिमट गई खुद में
और रात ने लपेट लिया एक ही चादर में हमें !
उफ़ ये
तुम्हरी साँसों
की तपिश में
मेरा जिस्म
बर्फ की मानिंद
बर्फ की मानिंद
पिघल रहा है
तुम्हारी लहरें
किनारों की तरह
किनारों की तरह
काट रही है मुझे
मैं रेत की तरह
मैं रेत की तरह
घुल रहा हूँ तुममे !
तुम्हारी
ठहरी साफ़ आँखें
जहां छोड़ आया थाअपना गाँव
अपने खेत
ठहरी साफ़ आँखें
जहां छोड़ आया थाअपना गाँव
अपने खेत
अपने जंगल
और
वो काली पंतग
जो लटकी है अभी भी
उस बरगद की टहनी पर
जहाँ अब भी
नहीं पहुचते मेरे हाथ !
क्या
खेत वही है
अब भी
जहा
धान की रुपाई करती
आधी भीगी हुई
अब भी
जहा
धान की रुपाई करती
आधी भीगी हुई
औरतें गीत गाती थी
जो समझ में
जो समझ में
ना आने पर भी
कितना मीठा
लगता था !
कितना मीठा
लगता था !
क्या
दीखते है जंगल
पहली बारिश में नहाये हुये
तुम्हारी आँखों में
वैसे अब भी हैं !
दीखते है जंगल
पहली बारिश में नहाये हुये
तुम्हारी आँखों में
वैसे अब भी हैं !
ख़ामोशी तुम्हारी
ये तुम्हारा
अजनबीपन
और बेवजह छोड़कर जाना
कितने सवाल छोड़ जाता है
पीछे
और छोड़ जाता
घना निर्वात !
उनके खाली बजते पेटो को
भर दिया गया
दुनिया के सबसे महगे लोहे से
उनका रक्त बहा दिया गया
उस जमीन पर
जिसे उन्होंने
प्यार किया था
उन्होंने
प्यार किया था
जंगल को जंगल की तरह
पड़ों को पड़ों की तरह
नदियों को नदियों की तरह
पहाड़ों को पहाड़ों की तरह
उन्होंने प्यार किया था
जिसे खुद से भी ज़्यादा
जब सरकारी बूट
जंगल को नंगा करके
कर रहे थे उसका बलत्कार
तो तुमने भी
अपने कपडे उतर दिए
तुम ऐसे चीखी
जैसे उस रात चीखी थी
जब एक थुथला बुढा शरीर
खुरच रहा था
किसी गाव से खरीदी
गयी बच्ची का शरीर !
थकी हुई रात
सड़क के किनारे
अधेरे में लिपटी देह
उनकी सांस के सहारे
उतर जाना तुम्हारा
पक्की ,दुर्गन्ध ,जलते
हुए रक्त की सडन
कारखानों के धुएं
से भरी घुप अधेरी सड़कें पर !
मशीनों,ह्थोड़ो
का बहरा करता शोर
यहां ख्वाब नहीं मिलते
लाख ढूंढने पर भी
बस यंत्र की तरह
लगते हैं
यह जिस्म
जाने कब बदल गए
हथौडे, बेलचे, मशीन में !
अंधी, बहरी, अभिशिप्त
गलियों में
तुम अषाढ के पानी
की तरह घुसी
और जर्जर दीवारों
पर सीलन की तरह
उभर आई
जहा एक थकी देह
दरवाजा खुलने और बंद
होने के बीच में
कर रही अपनी साँसो को
व्यवस्थित
उसे देह पर पड़ने
वाले घाव, धक्के
तुम खुद पर झेलती रही
अनवरत....
देर से लौटी तुम
उजड़ी, बोराई आँखे लिए
कुछ बडबडाते हुवे
आई और कुर्सी
पर उकडूँ बैठ गई
तुम्हारी बड़बड़ाहट
कमरे को हिलाती
इन ऊंची इमारतो को नचाती
गाव जगलो को बेसुरा करते
खदानों में
बासुरी की तरह
लौट रही थी
अनुतरित
नहीं नहीं
ये कविता नहीं है
ये कविता की भाषा नहीं है
ये भाषा राख की है
जले हुए घरौंदों की।
ये भाषा रक्त की है
खेत में फैले हुये रक्त की।
ये भाषा
हल की भाषा है
जिनकी फसले पकने से पहले
गोदामों में पहुँचा दी जाती है
ये भाषा थके हुवे हाथो की है
जब जाने कब से खाली है
ये भाषा पेटों की है
जिनकी रोटियाँ
हवा में उछाल देते हो
और देखते हो तमाशा
ये भाषा उन अनाम मासूम
बच्चो की है
जिन्हें तुम गाँव से खरीद
लाते हो और
अजीब-अजीब नामो से
पुकारते हो
ये भाषा उनकी है
जिसे तुम्हरे सभ्य समाज
ने बनाया
फिर कर दिया बहिष्कृत
ये भाषा उनकी है
जिनके कपडे उतार कर
सजा देते हो महलो की दीवारों पर
ये भाषा उनकी भी है
जिनकी फ़रियाद दब जाती है
मंदिर की घंटियों
मस्जिद की अजानो के शोर में
ये भाषा उनकी तो है ही
जिनकी चीखो को
फाइलओ में दबा कर
फेक देतो हो
अधेरे गोदाम में
ये भाषा न
किसी देश
किसी जाति
किसी कौम की है
जानता हूँ
तुम इस भाषा से
डरे और काँपे हुए हो
तुम इस को गुंगा बना देना
चाहते हो या
ख़त्म कर देना चाहेते हो
पर
ये भाषा
दूब की भाषा है
जो तुम्हारी
हर तबाही के बाद
बचा लेती है
अपने अन्दर
थोड़ी सी हरितमा
तुम इस भाषा को
मिटा नहीं सकते हो
देख सकते हो
तो देखो
तुम्हारे
महलो, कगुरे.बुर्जो
की दरारों में
ये अब अकार ले रही है
देख सकते हो तो देखो
फैली दूब के नीचे
न जाने कितने तख़्त
कितने ताज दफन है
देख सकते हो
तो देखो
तुम !
(कवि-परिचय:
जन्म: 13 दिसम्बर 1983 को सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश में।
शिक्षा: लखनऊ से वाणिज्य स्नातक। उसके बाद कंप्यूटर डिजाइनिंग का कोर्स किया।
सृजन: कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन
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सम्प्रति: डाटा गोल्ड में वेब डिजाइनर
संपर्क: khalida.khan2@gmail.com)