बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 11 अप्रैल 2012

अपने अंदर का प्रेम बचा लो तो पृथ्वी बच जाएगी



{दामुल और मृत्युदंड जैसी कई फिल्मों के लेखक और हिंदी के अनूठे रचनाकार शैवाल का मानना है कि आज की सबसे बड़ी खबर है नैतिकता बोध का खत्म हो जाना। अब हर आदमी अपने लिए जी रहा है। शैवाल पिछले दिनों रांची में थे। समाज, साहित्य और फिल्म पर शहरोज ने विस्तृत गुफ्तगु की। पेश है उसका संपादित अंश : यह भास्कर के अंक में प्रकाशित हुई.}

आदमखोर विकास का  समय 
 
 
 

 
 
 
 
 
 
 
 
 
शैवाल


हर सरकार आजकल विकास का ढींढोरा पीटती है
इन दस सालों में सभ्यता, संस्कृति और मनुष्यों के बीच कोई तारतम्य नहीं है। उनका आपसी लयात्मक सूत्र बदला है। जब लय टूटती है, तो विकास आदमखोर हो जाता है। यह समय उसी आदमखोर विकास का है। गांव का किसान बेटा रामप्रसाद मेहनत कर इंजीनियर बनता है। उसके बाद पैसा कमाते हुए महज 35 वर्ष की आयु में मर जाता है। एक ही मकसद धन संचय। उसके ढंग कैसे भी हों। नैतिकता स्वाहा। यही आदमखोर विकास है।
 
दामुल से मृत्युदंड तक कई मोर्चे पर आप प्रकाश झा साथ रहे। नाता टूटा कैसे? फिल्मों का लेकर उनके मिजाज में बदलाव आया। जबकि मैं सामाजिक सरोकारों से जुड़ी फिल्में लिखना चाहता हूं। फिल्मों का आपसी नाता जरूर ठहर गया है, लेकिन रिश्तों में वही मिठास है, जो कल थी। व्यक्तिगत संबंध और सामाजिक सरोकार दो अलग चीजें हैं। इसे एक दूसरे पर हावी नहीं होने देना चाहिए।

नई फिल्म दास कैपीटल के बारे में कुछ
शाश्वत प्रश्नों को लेकर लिखी गई कहानियां सार्वकालिक महत्व की होती हैं। मेरी दो कहानी अकुअन का कोट और अर्थतंत्र पर आधारित फिल्म है दास कैपीटल। यह मार्क्स  वाली नहीं है। इसका मतलब है गुलामों की राजधानी। नेट सर्फिंग के दौर में दुनिया के सिमट जाने की बात जरूर की जा रही है। जबकि वैश्विक संवेदनाओं का अकाल पैदा हुआ है। संबंध अर्थहीन हो रहे हैं। मध्यवर्गीय जीवन पर पूंजीतंत्र का दबाव बढ़ा है। इसी व्यवस्था ने कंकाल तंत्र विकसित किया है। यह सिस्टम आदमी को आखिरी किनारे पर ले जाकर मार देता है, फिर उसे कंकाल में रूपांतरित कर बेचता है। सवाल है कि समुदाय का जीवन बचेगा कैसे। फिल्म जवाब देती है कि अपने अंदर का प्रेम बचा लो पृथ्वी बच जाएगी।

आपके साथ और कौन कौन लोग हैं
इसकी स्क्रिप्ट में मेरे एमबीएधारी बेटा शुभंकर ने सहलेखन किया है। गोविंद निहलानी के भाई दयाल निहलानी ने इसका निर्देशन किया है, वहीं पत्रकार मुक्तिनाथ उपाध्याय इसके प्रोड्यूसर हैं। राजपाल यादव, केके रैना, यशपाल शर्मा, प्रतिभा और मनोज मेहता आदि ने अभिनय पक्ष संभाला है। इसे कांस फिल्म फेस्टीवल में भेजा गया है।

फिल्मों में आई नई पीढ़ी को किस तरह देखते हैं
नई पीढ़ी नए ढंग से चीजों को देख रही है। युवा अच्छा कर रहे हैं। अनुराग कश्यप और तिग्मांशु धूलिया जैसे लोगों की फिल्में बहुत उम्दा हैं। ऐसा कहना गलत है कि युवा पीढ़ी पूरी तरह सरोकारों से दूर जा रही है।

संस्कृति संरक्षण में समकालीन लेखक का कितना योगदान है
आजकल संस्कृति संरक्षण के लिए लेखक इमारत बनवाता है। मठ बना लेता है। जबकि बाबा नागार्जुन को इसकी जरूरत नहीं पड़ी। वो थैला उठाए भारत भ्रमण के लिए निकल जाते थे। लेकिन अपवाद हर कहीं है। आज भी कुछ लोग जमीनी स्तर पर भी काम कर रहे हैं।

इन दिनों आलोचकों की सनद के लिए होड़ है
मेरी चाह कभी नहीं रही कि उनके पथ पर लोट जाऊं। उनसे कभी मिला तक नहीं। संपादकों से भी याराना संबंध नहीं बन पाया। पहले रविवार, धर्मयुग और अब हंस आदि पत्रिकाओं में जबदरदस्ती छपता रहा।

आपकी अपनी प्रिय कहानी
नाचीज शहर की गली है जहां फुकनबाबू की प्रेमीका रहती है। यह कहानी संभवत 1997 के आसपास हंस में छपी थी।

आपका इधर उपन्यास नहीं आया
पांच उपन्यास पर रह रह कर काम कर रहा हूं। चारित्रिक स्थितियों से संतुष्ट नहीं हूं। दशकभर भर बाद स्थितियां बदल जाती हैं। यथार्थ स्थितियों का व्यंग्यात्मक चित्रण करने की कोशिश करता हूं। दोनों समानांतर चलते हैं।

कविता कहां छूट गई
शुरुआत मेरी भी कविता से ही हुई। लेकिन संकलन प्रकाशन की हिम्मत नहीं हुई। अब कहानी में ही कविताई होती है। कविता से शुरू हुआ सफर कहानी, संपादन, पत्रकारिता होकर फिल्म तक पहुंचा है।

भारतीय फिल्मों में गांव कहां पाते हैं
अब फिल्मों से गांव लुप्त होते जा रहे हैं। पीपली लाइव की खूब चर्चा हुई। किसानों के दर्द की बात की गई। लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता। यह फिल्म किसानों का मजाक उड़ाती है। किसानों के दर्द व आंसू के गारे पर ऐसी इमारत खड़ी गई, जिसे अच्छे दामों पर बेचा जा सके। ग्राम्य जीवन स्थितियां उद्वेलित करती हैं। परेशान करती हैं। मखौल तो उसका हरगिज नहीं उड़ाया जा सकता।

भोजपुरी फिल्मों में तो गांव दिखता है
हां। दिखता है। यह फिल्मी गांव है। पहले की फिल्मों में गांव का सोंधापन होता था। अब फूहड़ संवाद और गीत संगीत से संस्कृति का निर्माण तो नहीं होता। भोजपुरी फिल्में हिंदी मसाला फिल्मों की नकल बन कर रह गई हैं। गांव के लोगों की समस्या वहां से गायब हैं। मल्टीप्लेक्स और भोजपुरी के बीच ऐसा सिनेमा होना चाहिए, जो आम लोगों का हो।

दामुल का लेखक आज गांव को किसी तरह देखता है
हालात में बहुत ज्यादा तब्दीली नहीं आई है। समस्याएं अब अधिक विकराल रूप में मौजूद हैं। महज किरदार के बदल जाने से फिजा नहीं बदल जाती। शोषण भी है। जातीय दंभ में इजाफा हुआ है। राजनीतिक चेतना आई तो है, लेकिन चुनाव में पैसा-खेल बढ़ा भी। सामंतवाद की शक्ल भर बदली है।




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6 comments: on "अपने अंदर का प्रेम बचा लो तो पृथ्वी बच जाएगी"

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

आपका कलम शानदार है।
कम ब्लॉगर हैं जो हिंदी ब्लॉगिंग को अच्छे विचार दे पा रहे हैं।
वर्ना तो ...
हिंदी ब्लॉगिंग की दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार दिल्ली के ब्लॉगर्स

शेरघाटी ने कहा…

यह साक्षात्कार भास्कर के रांची, धनबाद और जमशेदपुर संस्करण में २८ मार्च २०१२ के अंक में प्रकाशित हुआ था.

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

प्रेम पहले बनाना पड़ेगा
बीज से उगाना पड़ेगा
तब जाके बचाना पड़ेगा ।

Rajesh Kumari ने कहा…

bahut achcha laga yeh sakshatkar lekhan bhi uttam hai badhaai.

दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी पोस्ट चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
http://charchamanch.blogspot.com
चर्चा - 847:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

shahbaz ने कहा…

अच्छी बात चीत है.. विचारोत्तेजक चर्चा.. .

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न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी

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