अनवर सुहैल की क़लम से
सामने गली पर ऑटो घुरघुराता तो असग़र भाई के कान खड़े हो जाते। ऑटो आगे निकल जाता और असग़र भाई व्यग्र से दरवाज़े की ओर देखने लगते।
असग़र भाई बड़ी बेचैनी से जफ़र की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
जफ़र उनका छोटा भाई है।
ज़फ़र आ जाए तो असग़र भाई उसके साथ मिलकर एक निर्णय लेना चाहते थे।
अटल बिहारी बाजपेयी के आर-पार सा एक निर्णय।
अंतिम निर्णय, जिससे रोज़-रोज़ की किच-किच से छुटकारा मिले !
इस मामले को ज्यादा दिन टालना अब ठीक नहीं।
कल फोन पर जफ़र से बहुत देर तक बातें तो हुई थीं।
जफ़र ने कहा था कि -‘‘भाईजान आप परेशान न हों, मैं आ ही रहा हूं। मामले का कोई न कोई हल इंशाअल्लाह ज़रूर निकल आएगा।’’
असगर भाई ‘हाईपर-टेंशन’ और ‘डायबिटीज़’ के मरीज़ ठहरे।
छोटी-छोटी बात से परेशान हो जाते हैं।
बीवी मुनीरा असग़र भाई की इस आदत से झुंझला जाती हैं। वह नहीं चाहती कि उनका शौहर काम धंधे और घर-परिवार के अलावा किसी दूसरे बात की फ़िक्र करे। एक बार उनका बीपी बढ़ा नहीं कि नार्मल होने में फिर काफ़ी वक़्त लग जाता है। झेलना तो आखिर में बीवी को पड़ता है।
असगर भाई दिल बहलाने के लिए बैठक में आ गए।
मुनीरा बैठी टी वी देख रही थी। उसके एक हाथ में रिमोट था। जब से ‘गोधरा-काण्ड’ हुआ है, घर में इसी तरह ‘आज-तक’ और ‘एनडीटीवी’ बारी-बारी से चैनल बदल कर घंटों देखा जा रहा था। इतनी ज्यादा मालूमात के बाद भी चैन न पड़ता तो असगर भाई रेडियो-ट्रांजिस्टर पर बीबीसी के समाचारों से देशी मीडिया के समाचारों का तुलनात्मक अध्ययन करने लगते। उर्दू, हिन्दी और अंग्रेज़ी के अख़्बार मंगाते और उनकी ख़बरों की विवेचना करते। गुजरात में मुसलमानों के हालात देख इस क़दर डर गए थे असग़र भाई कि उन्होंने नौकरी से भी छुट्टी ले रखी थी। बॉस से कह दिया था कि शुगर बढ़ गया है और डॉक्टर ने बेड-रेस्ट के लिए कहा है।
टीवी के अधिकांश चैनल में नंगे-नृशंस यथार्थ को दर्शकों तक पहुंचाने की होड़ सी लगी हुई थी।
असग़र भाई मुनीरा के बगल में बैठ गए और रिमोट अपने हाथ में लेकर चैनल बदलने लगे।
‘डिस्कवरी-चैनल’ में हिरणों के झुण्ड का शिकार करते शेर को दिखाया जा रहा था। शेर गुर्राता हुआ हिरणों को दौड़ा रहा था। अपने प्राणों की रक्षा करते हिरण अंधाधुंध भाग रहे थे। भागते हिरण रूककर पीछे शेर को देखते भी और जान हथेली पर लेकर भागते भी जाते थे।
असग़र भाई सोचने लगे कि इसी तरह तो आज डरे-सहमें लोग गुजरात में जान बचाने के लिए भाग रहे हैं।
उन्होनें फिर चैनल बदल दिया। निजी समाचार-चैनल का एक दृश्य कैमरे का सामना कर रहा था। कांच की बोतलों से पेट्रोल-बम का काम लेते गुजरात के बहुसंख्यक लोग और वीरान होती अल्पसंख्यक आबादियां। भीड़-तंत्र की बर्बरता को बड़ी ढीठता के साथ ‘सहज-प्रतिक्रिया’’ बताता सत्ता का शीर्ष-पुरूष। केंद्र सरकार के नुमाइंदे और टीवी के एंकर के बीच जारी एक ढीठ बहस कि राज्य पुलिस को और मौका दिया जाए या कि राज्य में सेना ‘डिप्लाय’ की जाए।
तर्कों का माया-जाल। शब्दों की जादूगरी। भाषणों और वक्तव्यों में उलझा देश का नागरिक कि राज्य पुलिस का दायरा कितना है और केंद्र किन अवसरों पर किसी राज्य में कानून व्यवस्था के लिए हस्तक्षेप कर सकता है।
एक चैनल में सत्ता-पक्ष और विपक्ष के बीच मृतक-संख्या के आंकड़ों पर उभरता मतभेद है। सत्ता-पक्ष की दलील थी कि सन् चौरासी के सिख नरसंहार की तुलना में ये आंकड़ा काफी कम है। सन् चौरासी में वर्तमान के विपक्षी केन्द्र की कमान सम्भाले थे और तब कितनी मासूमियत से यह दलील दी गई थी-‘‘ एक बड़ा पेर गिरने पर भूचाल आना स्वाभाविक है।’’
इस बार भूचाल तो नहीं आया किन्तु राज्य सत्ता के शीर्ष पुरूष ने भौतिकी का ज्ञान बघारते हुए, न्यूटन की गति के तृतीय नियम की धज्जियां ज़रूर उड़ाई।
‘क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया’’
असग़र भाई को हंसी आ गई।
उन्होनें देखा टीवी में वे ही संवाददाता दिखाई दे रहे थे, जो कुछ दिनों पूर्व झुलसा देने वाली गर्मी में अफगानिस्तान की पथरीली गुफाओं, पहाडों और युद्ध के मैदानों से तालिबानियों को खदेड़ कर आए थे और बमुश्किल तमाम अपने परिजनों के साथ चार-छह दिन की छुट्टियां ही बिता पाए होंगे कि उन्हें पुनः एक नया ‘टास्क’ मिल गया। गोधरा और गुजरात का टास्क।
अमेरिका का नौ-ग्यारह वाला रक्त-रंजित तमाशा, लाशों के ढेर, राजनीतिक उठापटक, और अपने चैनल के दर्शकों की मानसिकता को ‘कैश’ करने की व्यवसायिक दक्षता इन संवाददाताओं ने प्राप्त कर ली है। बहुसंख्यक जनता के मूड का अध्ययन और चैनल के आकाओं का हित-साधन ही तो मीडिया का सच है।
लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ उन दिनों अपने लिए नए मुहावरे गढ़ रहा था।
असग़र भाई ने यह विडम्बना भी देखी कि किस तरह नेतृत्व-विहीन अल्पसंख्यक समाज की आतंकवादी ओसामा बिन लादेन के साथ सहानुभूति बढ़ती जा रही थी।
जबकि ‘डबल्यू टी ओ’ की इमारत सिर्फ अमरीका की बपौती नहीं थी। वह इमारत तो मनुष्य की मेधा और सतत विकास का जीवन्त प्रतीक थी। ‘डबल्यूटीओ’ की इमारत में काम करने का स्वप्न सिर्फ अमरीकी ही नहीं बल्कि तमाम देशों के नौजवान नागरिक देखा करते हैं।
बामियान के बुद्ध एक पुरातात्विक धरोहर मात्र नहीं थे। बामियान के बुद्ध करोड़ों बौद्धों के आस्था के प्रतीक थे।
आतंकवादियों ने विकास और आस्था के प्रतीकों की किस बर्बरता से नष्ट किया उसे इतिहास कभी भुला नहीं पाएगा।
बामियान प्रकरण हो या कि ग्यारह सितम्बर की घटना, असग़र भाई जानते हैं कि ये सब ग़ैर-इस्लामिक कृत हैं। दुनिया भर के तमाम अमनपसंद मुसलमानों ने इन घटनाओं की कड़े शब्दों में निन्दा की थी।
लेकिन इसी के साथ सारी दुनिया में मुहावरा और उछला कि ‘‘हर मुसलमान आतंकवादी नहीं किन्तु हर आतंकवादी मुसलमान है।’’
सारी दुनिया में मुसलमानों को सभ्यता के शत्रु के रूप में देखा जाने लगा था।
इस्लाम के दुश्मनों की बन आई थी।
कमो-बेश ये बात संसार में फैल ही गई कि इस्लाम आतंकवाद का पर्याय है।
असग़र भाई गोधरा काण्ड के बाद गुजरात के हालात देख बहुत डर गए थे। बहुसंख्यक हिंसा का एकतरफा ताण्डव और शासन-प्रशासन की चुप्पी देख वह काफी निराश थे।
ऐसा ही तो हुआ था उस समय जब इंदिरा गांधी का मर्डर हुआ था।
असग़र भाई तब बीस-इक्कीस के रहे होंगे।
उस दिन वह जबलपुर में एक लॉज में ठहरे थे।
एक नौकरी के लिए साक्षात्कार के सिलसिले में उन्हें बुलाया गया था।
वह लॉज एक सिख का था।
असगर भाई प्रतियोगिता और साक्षात्कार से सम्बंधित किताबों में उलझे हुए थे। उन्हें ख़बर न थी कि देश में कुछ भयानक हादसा हुआ है।
शाम के पांच बजे उन्हें लॉज के कमरे में धूम-धड़ाम की आवाज़ें सुनाई दीं।
वह कमरे से बाहर आए तो देखा कि लॉज के रिसेप्शन काउण्टर को लाठी-डंडे से लैस भीड़ ने घेर रखा है। वे सभी लॉज के सिख मालिक सेे बोल रहे थे कि वह जल्द से जल्द लॉज को खाली करवाए, वरना अन्जाम ठीक न होगा।
सरदारजी घिघिया रहे थे कि स्टेशन के पास का यह लॉज मुद्दतों से यात्रियों की मदद करता आ रहा है। उसने बताया कि सिख ज़रूर है किन्तु हिन्दुओं के तमाम पूजा-कार्यक्रमों में वह बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता है।
सरदारजी गिड़गिड़ाते हुए सफाई दे रहे थे कि वह खालिस्तान के समर्थक नहीं हैं। इंडियन आर्मी में उनके कई रिश्तेदार अभी भी सर्विस में हैं। सरदारजी ने अंत में तर्क दिया कि वह एक पुराना कांग्रेसी है।
भीड़ उसके तर्क नहीं सुन रही थी। लोग कह रहे थे-‘‘मारो साले खालिस्तानी को। यह भिण्डरावाले का संमर्थक है। पाकिस्तान का एजेण्ट है।’’
स्रदारजी बता रहे थे कि विभाजन के समय कितनी तकलीफें सहकर उसके पूर्वज हिन्दुस्तान आए।
कुछ करोलबाग दिल्ली में तथा कुछ जबलपुर में आ बसे। अपने बिखरते वजूद को समेटने का पहाड़-प्रयास किया था उन बुजुर्गों ने। शरणार्थी मर्द-औरतें और बच्चे सभी मिलजुल, तिनका-तिनका जोड़कर आशियाना बना रहे थे।
सरदारजी रो-रोकर बता रहे थे कि उसका तो जन्म भी इसी जबलपुर की धरती में हुआ है।
भीड़ में से कई चिल्लाए--‘‘मारो साले को...झूट बोल रहा है। ये तो पक्का आतंकवादी है।’’
उसकी पगड़ी उछाल दी गई।
उसे काउण्टर से बाहर खींचा गया।
जबलपुर वैसे भी मार-धाड़, लूट-पाट जैसे ‘मार्शल-आर्ट’ के लिए कुख्यात है।
असग़र की समझ में न आ रहा था कि सरदारजी को काहे इस तरह से सताया जा रहा है।
तभी वहां एक नारा गूंजा-‘‘ पकड़ो मारों सालों को
इंदिरा मैया के हत्यारों को!’’
असग़र भाई का माथा ठनका।
अर्थात प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो गई !
उसे तो फिजिक्स, केमिस्ट्री, मैथ के अलावा और कोई सुध न थी।
यानी कि लॉज का नौकर जो कि नाश्ता-चाय देने आया था सच कह रहा था।
देर करना उचित न समझ, लॉज से अपना सामान लेकर वह तत्काल बाहर निकल आए।
नीचे अनियंत्रित भीड़ सक्रिय थी।
सिखों की दुकानों के शीशे तोड़े जा रहे थे। सामानों को लूटा जा रहा था। उनकी गाड़ियों में, मकानों में आग लगाई जा रही थी।
असग़र भाई ने यह भी देखा कि पुलिस के मुट्ठी भर सिपाही तमाशाई बने निष्क्रिय खड़े थे।
जल्दबाजी में एक रिक्शा पकड़कर असगर भाई एक मुस्लिम बहुल इलाके में आ गए।
अब वह सुरक्षित थे।
उनके पास पैसे ज्यादा न थे।
उन्हें परीक्षा में बैठना भी था।
पास की मस्जिद में वह गए तो वहां नमाज़ियों की बातें सुनकर दंग रह गए।
कुछ लोग पेश-इमाम के हुजरे में बैठे बीबीसी सुन रहे थे।
बातें हो रही थीं कि पाकिस्तान के सदर को इस हत्याकाण्ड की खबर उसी समय मिल गई थी, जबकि भारत में इस बात का प्रचार कुछ देर बाद हुआ।
ये भी चर्चा थी कि फसादात की आंधी शहरों से होती अब गांव-गली-कूचों तक पहुंचने जा रही है।
उन लोगों से जब असगर भाई ने अपनी परेशानी का सबब बताया तो यही सलाह मिली -‘‘बरखुरदार! अब पढ़ाई और इम्तेहानात सब भूलकर घर की राह पकड़ लो, क्योंकि ये फ़सादात खुदा जाने कब तक चलें।’’
वह उसी दिन घर के लिए चल दिए। रास्ते भर उन्होंने देखा कि जिस प्लेटफार्म पर गाड़ी रूकी सिखों पर अत्याचार के निशानात साफ नज़र आ रहे थे।
उनके अपने नगर में भी हालात कहां ठीक थे ?
यहां भी सिखों के जान-माल को निशाना बनाया जा रहा था।
टीवी और रेडियो में सिर्फ इंदिरा-हत्याकाण्ड और खालिस्तान आंदोलन से सम्बंधित खबरें आ रही थीं।
बहुसंख्यकों की भावनाएं इन समाचारों को सुनकर और भड़क उठती थीं।
खबरें उठतीं कि गुरूद्वारा में सिखों ने इंदिरा हत्याकाण्ड की खबर सुन कर पटाखे फोड़े और मिठाईयां बांटीं हैं।
अफ़वाहों का बाज़ार गर्म था।
दंगाईयों-बलवाइयों को डेढ़-दो दिन की खुली छूट देने के बाद प्रशासन जागा और फिर उसके बाद नगर में कर्फ्यू लगाया गया।
असगर भाई ने सोचा कि यदि वह धिनौनी हरकत कहीं किसी सिरफिरे मुस्लिम ने की होती तो फिर मुसलमानों का क्या हश्र होता?
असगर भाई डरे हुए थे। उन्होंने सोचा कि छोटा भाई जफ़र आ जाए तो फैसला कर लिया जाएगा।
असगर भाई की समस्या मात्र इतनी है कि उनका पुश्तैनी मकान हिन्दू बहुल इलाके में है। उस मकान में अब सिर्फ अब्बा और अम्मी रहते हैं।
असगर भाई ने समर्थ होते ही अपने लिए एक नया मकान नगर के मुस्लिम बहुल इलाके इब्राहीमपुरा में बना लिया था।
जफ़र तो नौकरी कर रहा है किन्तु उसने भी कह रखा है कि भाईजान मेरे लिए भी इब्राहीमपुरा में कोई अच्छा सा प्लॉट देख रखिए।
अब दोनों भाई को मिल कर अब्बा को समझाना था कि वे काफ़िरों के बीच अब न बसें और उस पुश्तैनी मकान को औने-पौने बेचकर इब्राहीमपुर चलें आएं।
इब्राहीमपुरा ‘मिनी-पाकिस्तान’ कहलाता है।
असग़र भाई को यह तो पसंद नहीं कि कोई उन्हें ‘पाकिस्तानी’ कहे किन्तु इब्राहीमपुरा में आकर उन्हें वाकई सुकून हासिल हुआ था। यहां मुसलमानों की हुकूमत है। अपने ही पार्षद हैं। अपने तौर-तरीके हैं। रोज़ा-रमज़ान के दिनों में कितनी रौनक रहती है इब्राहीमपुरा में। शबे-बरात के मौके पर तो जैसे दीवाली सा माहौल बन जाता है। चांद दिखा नहीं कि हंगामा शुरू हो जाता है। ‘तरावीह’ की नमाज़ में भीड़ उमड़ पड़ती है। ईद का चांद देखने के लिए उत्सुकता और चांद दिखने के बाद जैसे पूरा इब्राहीमपुरा फिर रात भर सोता नहीं। औरतें बच्चे रात-रात भर खरीददारी करते और सुबह ईदगाह जाकर नमाज़ अदा करते। बकरीद में कुर्बानी करने में भी कोई सोचो-फ़िक्र की ज़रूरत नहीं। हर घर में तीन दिनों तक कुर्बानी चलती है। किस्म-किस्म के बकरे तैयार किए जाते हैं। वहां अब्बा के घर में कभी कुर्बानी नहीं हुई। अब्बा कुर्बानी की लागत का पैसा अनाथ आश्रम में खै़रात कर देते हैं। उनका कहना है कि मुहल्ले में कुर्बानी करने से लोगों के दिलों को दुख पहुंच सकता है। अरे, गोश्त वगैरा खरीद कर लाओ तो वह भी थैले में छुपा कर कि कोई शक न करे कि थैले में गोश्त है।
इब्राहीमपुरा में दो मस्जिदें हैं जिनमें पांच वक्त की अज़ानें गूंजती हैं तो असगर भाई को बड़ा सुकून मिलता है। यह रूहानियत भरा माहौल अब्बा के मकान में कहां है? वहां तो घण्टे-घड़ियाल की आवाज़ें, भजन-कीर्तन की सदाएं हैं और कई-कई दिनों तक चलने वाला अखण्ड पाठ का शोर! काफ़िरों के मुहल्ले में एक घर मुसलमान का।
पता नहीं कैसे अब्बा वहां इतने दिन टिके रह गए।
कैसे भी अब्बा को समझाना है कि वे उस पुश्तैनी ज़मीन का मोह छोड़ कर इब्राहीमपुरा में आ बसें।
इब्राहीमपुरा में बसने वाले ग़ैर मुसलमानों से कितना दब के रहते हैं।
यहां लोग साग-सब्जी कम खाते हैं क्योंकि सस्ते दाम में बड़े का गोश्त जो आसानी से मिल जाता है।
फ़िज़ा में सुब्हो-शाम अज़ान और दरूदो-सलात की गूंज उठती रहती है।
इब्राहीमपुरा में एक मज़ार शरीफ़ भी है। उर्स के मौके पर मजार में ग़ज़ब की रौनक होती है। मेला, मीनाबाज़ार लगता है और क़व्वाली के शानदार मुक़ाबले हुआ करते हैं।
मुहर्रम के दस दिन शहीदाने-कर्बला के ग़म में डूब जाता है इब्राहीमपुरा! अशूरे के दस दिन ढोल-ताशे बजते हैं, मातम होता है और मर्सिया-ख़्वानी होती है।
सिर्फ मियांओं की तूती बोलती है इब्राहीमपुरा में।
किसकी मज़ाल की कोई आंख दिखा सके। आंखें निकाल कर हाथ में धर दी जाएंगी।
एक से एक ‘हिस्ट्री-शीटर’ हैं यहां।
अरे, लम्बू मियां का जो तीसरा बेटा है यूसुफ वह तो जाफ़रानी-ज़र्दा के डिब्बे में बम बना लेता है।
बड़ी-बड़ी राजनीतिक हस्तियांे का वरद-हस्त इलाके के आवारा नौजवानो को मिला हुआ है। कई लड़कों का एक पैर नगर मे और एक पैर जेल में रहता है।
असग़र भाई को चिन्ता में डूबा देख मुनीरा ने टीवी ऑफ़ कर दिया।
असग़र भाई ने उसे घूर के देखा--
‘‘ काहे की चिन्ता करते हैं आप...अल्लाह ने ज़िन्दगी दी है तो वही पार लगाएगा। आप के इस तरह सोचने से क्या दंगे-फ़साद बन्द हो जाएंगे ?’’
असग़र भाई ने कहा--‘‘वो बात नहीं, मैं तो अब्बा के बारे में ही सोचा करता हूं। कितने ज़िद्दी हैं वो। उनकी जड़ें काफी गहरे तक हैं। छोड़ेंगे नहीं दादा-पुरखों की जगह...भले से जान चली जाए।’’
‘‘ कुछ नहीं होगा उन्हें, आप खामखां फ़िक्र किया करते हैं। सब ठीक हो जाएगा।’’
‘‘खाक ठीक हो जाएगा। कुछ समझ में नहीं आता कि क्या करूं ? बुढ़ऊ सठिया गए हैं और कुछ नहीं । सोचते हैं कि जो लोग उन्हे सलाम किया करते हैं मौका आने पर उन्हें बख़्श देंगे। ऐसा हुआ है कभी। अम्मी का मन नहीं करता वहां लेकिन अब्बा के डर से वह चुप मारे पड़ी रहती हैं। कह रही थीं कि कैसे भी अब्बा को मना लो असगर..!’’
मुनीरा क्या बोलती। वह चुप ही रही।
असग़र भाई स्मृति के सागर में डूब-उतरा रहे थे।
अम्मी बताया करती थीं कि सन इकहत्तर की लड़ाई में ऐसा माहौल बना कि लगा उजाड़ फेंकेंगे लोग। आमने-सामने कहा करते थे लोग कि हमारे मुहल्ले में तो एक ही पाकिस्तानी घर है। जब चाहेंगे चींटी की तरह मसल देंगे।
‘‘चींटी की तरह...हुंह..’’ असग़र भाई बुदबुदाए।
कितना घबरा गई थीं तब अम्मी। चार बच्चों को सीने से चिपकाए रखा करती थीं।
अम्मी घबराती भी क्यों न, अरे इसी सियासत ने तो उनके एक भाई की विभाजन के समय जान ले ली थी।
‘‘ जानती हो मुनीरा! पिछले माह जब मैं अब्बा के घर गया तो वहां देखा कि बाहर दरवाजे़ पर स्वास्तिक का निशान बना है। बाबरी मस्जिद तोड़ने के बाद काफ़िरों का मन बढ़ गया है। मैंने जब अब्बा से इस बारे में बात की तो वह ज़ोर से हंसे और कहे कि ये सब लड़कोें की शैतानी है। ऐसी-वैसी कोई बात नहीं। अब तुम्हीं बताओ कि मैं चिन्ता क्यों न करूं ?’’
‘‘अब्बा तो हंसते-हंसते ये भी बताए कि जब ‘एंथ्रेक्स’ का हल्ला मचा था तब चंद स्कूली बच्चों ने चाक मिट्टी को लिफाफे में भरकर प्रिंसीपल के पास भेज दिया था। बड़ा बावेला मचा था। अब्बा हर बात को ‘नार्मल’ समझते हैं।’’
‘‘अब्बा तो वहां के सबसे पुराने वाशिन्दों में से हैं। कितनी इज़्ज़त करते हैं लोग उनकी। सुबह-शाम अपने बच्चों को ‘दम-करवाने’ सेठाइनें आया करती हैं। अबा के साथ कहीं जाओ तो उन्हें कितने ग़ैर लोग सलाम-आदाब किया करते हैं। उन्हेें तो सभी जानते-मानते हैं।’’ मुनीरा ने अब्बा का पक्ष लिया।
‘‘खाक जानते-मानते हैं। आज नौजवान तो उन्हें जानते भी नहीं और पुराने लोगों की आजकल चलती कहां है ? तुम भी अच्छा बताती हो। सन् चौरासी के दंगे में कहां थे पुराने लोग? सब मन का बहाकावा है। भीड़ के हाथ में जब हुकूमत आती है तब कानून गूंगा-बहरा हो जाता है।’’
मुनीरा को लगा कि वह बहस में टिक नहीं पाएगी इसलिए उसने विषय-परिवर्तन करना चाहा--
‘‘ छोटू की ‘मैथ्स’ में ट्यूशन लगानी होगी। आप उसे लेकर बैठते नहीं और ‘मैथ्स’ मेरे बस का नहीं।’’
‘‘ वह सब तुम सोचो। जिससे पढ़वाना हो पढ़वाओ। मेरा दिमाग ठीक नहीं। जफ़र आ जाए तो अब्बा से आर-पार की बात कर ही लेनी है।’’
तभी फोन की घण्टी घनघनाई।
मुनीरा फोन की तरफ झपटी। वह फोन घनघनाने पर इसी तरह हड़बड़ा जाती है।
फोन जफ़र का था, मुनीरा ने रिसीवर असग़र भाई की तरफ़ बढ़ा दिया।
असग़र भाई रिसीवर ले लिया--
‘‘ वा अलैकुम अस्स्लाम! जफ़र...! कहां से ? तुम आए नहीं। यहां मैं तुम्हारा इनतेज़ार कर रहा हूं ।’’
.......
‘‘क्या अब्बा के पास बैठे हो। ग़ज़ब करते हो यार! अच्छा ऐसा करो, मेरी बात अब्बा से करा दो।’’
असगर भाई मुनीरा की तरफ मुख़ातिब होकर बोले--‘‘जफ़र भाई का फोन है। यहां न आकर वह सीधे अब्बा के पास चला गया है।’’
फिर फोन पर कहा-‘‘सलाम वालैकुम अब्बा... मैं आप की एक न सुनूंगा। आप छोड़िए वह सब और जफ़र को लेकर सीधे मेरे पास चले आइए।’’
पता नहीं उधर से क्या जवाब मिला कि असग़र भाई ने रिसीवर पटक दिया ।
मुनीरा चिड़चिड़ा उठी--‘‘इसीलिए कहती हूं कि आप से ज्यादा होशियार तो जफ़र भाई हैं। आप खामखां ‘टेंशन’ में आ जाते है। डॉक्टर ने वैसे भी आपको फालतू की चिन्ता से मना किया है।’’
बस इतना सुनना था कि असग़र भाई हत्थे से उखड़ गए।
‘‘तुम्हारी इसी सोच पर मेरी --- सुलग जाती है। मेरे वालिद तुम्हारे लिए ‘फालतू की चिन्ता’ बन गए। अपने अब्बा के बारे मैं चिन्ता नहीं करूंगा तो क्या तुम्हारा भाई करेगा ?’’
ऐसे मौकों पर मुनीरा अगर चुप न रहे तो बात काफ़ी जाए।
अपने मायके वालों के बारे में ताने मुनीरा क्या कोई भी औरत बर्दाश्त नहीं कर पाती है, किन्तु जाने क्यों मुनीरा ने आज जवाब न दिया।
असग़र भाई ने छेड़ा तो था किन्तु मुनीरा को चुप पाकर उनका माथा ठनका, इसलिए थकी-हारी आवाज़ में वह बोले--‘‘लगता है कि अब्बा नहीं मानेंगे, जब तक जिएंगे वहीं रहेंगे अब्बा...!’’
[लेखक-परिचय:
जन्म: 9 अक्टूबर, 1964 को नैला जांजगीर, छत्तीसगढ़ में
शिक्षा: डिप्लोमा इन माइनिंग इंजीनियरिंग
कुंजड़-कसाई, ग्यारह सितम्बर के बाद,चहल्लुम (कहानी संग्रह), और थोड़ी सी शर्म दे मौला! (कविता संग्रह), पहचान, दो पाटन के बीच (उपन्यास) इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं।
संपर्क: anwarsuhail_09@yahoo.co.in ]
23 comments: on "यानी जब तक जिएंगे यहीं रहेंगे !"
अब्बा जैसे हौसले वाले उस बिरादरी में भी हैं ! और शायद इसी वज़ह से उम्मीद अब भी कायम है !
anvr suhel bhaayi aapne kdva sch likh kr smaaj ko aayna dikhaane ki koshish ki he khudaa aapko jlne vaalon or kudne vaalon se mhfuz rkhe. akhtar khan akela kota rajsthan
kahani marmik hai!! log kam padhte hain aaj kal .sex ho vivad ho padhenge,
बामियान प्रकरण हो या कि ग्यारह सितम्बर की घटना, असग़र भाई जानते हैं कि ये सब ग़ैर-इस्लामिक कृत हैं। दुनिया भर के तमाम अमनपसंद मुसलमानों ने इन घटनाओं की कड़े शब्दों में निन्दा की थी।
हिरणों के झुण्ड का शिकार करते शेर को दिखाया जा रहा था। शेर गुर्राता हुआ हिरणों को दौड़ा रहा था। अपने प्राणों की रक्षा करते हिरण अंधाधुंध भाग रहे थे। भागते हिरण रूककर पीछे शेर को देखते भी और जान हथेली पर लेकर भागते भी जाते थे।
असग़र भाई सोचने लगे कि इसी तरह तो आज डरे-सहमें लोग गुजरात में जान बचाने के लिए भाग रहे हैं।
अनवर साहब बचकर रहेंगे यह ब्लॉग की दुनिया जिसे सच मंज़ूर करने में अभी और वक़्त चाहिए !!हम सलाम करते हैं आपकी बेबाकी को !
शानदार कहानी!! बार बार पढने लायक !
अनवर सुहैल साहब की बहुत पहले कहानी नज़र से गुज़री थी कुंजड कसाई
! जहाँ मुस्लिम समाज का सच खुल कर सामने आया था कि वहाँ भी वैसी ही घुटन है .
यह कहानी बेशक बेजोड़ है.!विसंगतियां हैं.
अल्पसंख्यक के दर्द को कहानी बखूबी उभारती है.वोह सिख हो या मुसलमान हो !! हमज़बान को बधाई अच्छी कहानी पढवाने के लिए !
सुहैल साहब !
अफ़सोस की कोई ज़रुरत नहीं है
बिरादराने-वतन को हम जानते हैं!
गुजरात से डरते हैं उसके ज़िक्र से घबराते हैं लोग!! लेकिन हम खुले आम नाइंसाफी के खलाफ आवाज़ उठायेंगे गुजरात के नरेंद्र मोदी के खिलाफ हो या सज्जन कुमार के खिलाफ या ओसामा के खिलाफ हो !
आप लिखते रहें हम पढ़ते रहेंगे!! ब्लॉग की दुनिया है ही ऐसी !
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
Bahut khoob.Laga hi nahin kahani padh rahe hain. 1984 se 1992 aur godhra tak sab ankhon ke samne aate huye lage.Barambar badhayi behad safgoyi se kahi gayi bat ke liye.Lekin wo na samjhe hain na samjhenge teree baat
कहानी पढी .. एक आम मुसलमान के मन में बैठे दर को उजागर करती है..छोटी छोटी बातो को कहाने में किस तरह से बड़ा करके दिखाया गया है उससे लेखक की मंशा भली भाँती पता चलती है..के भयानक दंगो का दौर मन को पीड़ा पहुचाता है...मुसलमानों में हिंदू बहुसंख्यकवाद का डर किस कदर बैठा हुआ है लेखक चाहता हो तो बहुत अच्छी तरह से उस डर को उकेर सकता था मगर कहानी का स्तर सामान्य ही रहा ..
भारत ही नहीं दुनिया में आज मुसलिम समुदाय अन्यों से अलग थलग पड़ रहा हैं, यह किसी के लिए भी शुभ नहीं हैं. पर स्थीति को ठीक करने की जिम्मेदारी भी इसी समुदाय की हैं. आज के हालात में पढ़ालिखा मुसलमान भी कट्टर होता जा रहा हैं, जो भय जगाता हैं. क्या अपने अस्तित्व को बचाने के लिए हमें भी कट्टरता को अपनाना पड़ेगा? भगवान न करे ऐसा करना पड़े.
लेकिन मै मानता हूँ कि मुस्लिम युवाओं को भडकाया जा रहा है और सहृदय मुस्लिमों की संख्या कम हो रही है...देखिये हिन्दू हो या मुसलमान परम्परावादी, ईश्वरवादी, भारतवासी अपनी जन्मभूमी की मिट्टी में ही अपना अन्त चाहता है..चाहे वो हिन्दू हो या मुसलमान ..लेखक की ये ही बात मुझे बहुत अच्छी लगी ..शहरोज़ भाई पाकिस्तान का निर्माण साधारण जनता की इच्छा न होकर राजनीतिक स्वार्थ का परिणाम था। यही कारण है कि भारतीय मुसलमान विभाजन से अप्रसन्न थे, साथ ही वह भारत छोड़कर जाने को तैयार न थे ..कहानी कार चुकि स्वाम अल्पसख्यक है अत ये बात वे भली भाँती जानते है और अंत ने उन्होंने इसे दिखाया भी है..लेखक में कहानी ने अल्पसख्यको पर जुल्म होता बताया है मगर वे भूल गए बात मुसलमानों या सिखों की नहीं बात सख्या की है...जम्मू काश्मीर में हिन्दू भी अल्पसख्यक है उनकी पीड़ा भी ऐसी ही है जैसी गुजरात के मुसलमानों की या दंगो में सिखों की ...अब समय आ गया है कि हम धर्मो से ऊपर उठे और मानवता को बचाए अगर हम मानव है ...बात धर्मो की नहीं बात मानवता की है ..अगर हम धर्म को बचाने में लगे रहे तो मानवता शायद ही ज़िंदा बचे ..हमें इस धर्मवाद से उबरना ही होगा
मेरे ख्याल से कहानी सामान्य स्तर से ऊपर की नहीं है..
आक्रोशित मन ...ना माने मन की बात
कहानी पढी .. एक आम मुसलमान के मन में बैठे दर को उजागर करती है..छोटी छोटी बातो को कहाने में किस तरह से बड़ा करके दिखाया गया है उससे लेखक की मंशा भली भाँती पता चलती है..के भयानक दंगो का दौर मन को पीड़ा पहुचाता है...मुसलमानों में हिंदू बहुसंख्यकवाद का डर किस कदर बैठा हुआ है लेखक चाहता हो तो बहुत अच्छी तरह से उस डर को उकेर सकता था मगर कहानी का स्तर सामान्य ही रहा ..
भारत ही नहीं दुनिया में आज मुसलिम समुदाय अन्यों से अलग थलग पड़ रहा हैं, यह किसी के लिए भी शुभ नहीं हैं. पर स्थीति को ठीक करने की जिम्मेदारी भी इसी समुदाय की हैं. आज के हालात में पढ़ालिखा मुसलमान भी कट्टर होता जा रहा हैं, जो भय जगाता हैं. क्या अपने अस्तित्व को बचाने के लिए हमें भी कट्टरता को अपनाना पड़ेगा? भगवान न करे ऐसा करना पड़े.
लेकिन मै मानता हूँ कि मुस्लिम युवाओं को भडकाया जा रहा है और सहृदय मुस्लिमों की संख्या कम हो रही है...देखिये हिन्दू हो या मुसलमान परम्परावादी, ईश्वरवादी, भारतवासी अपनी जन्मभूमी की मिट्टी में ही अपना अन्त चाहता है..चाहे वो हिन्दू हो या मुसलमान ..लेखक की ये ही बात मुझे बहुत अच्छी लगी ..शहरोज़ भाई पाकिस्तान का निर्माण साधारण जनता की इच्छा न होकर राजनीतिक स्वार्थ का परिणाम था। यही कारण है कि भारतीय मुसलमान विभाजन से अप्रसन्न थे, साथ ही वह भारत छोड़कर जाने को तैयार न थे ..कहानी कार चुकि स्वाम अल्पसख्यक है अत ये बात वे भली भाँती जानते है और अंत ने उन्होंने इसे दिखाया भी है..लेखक में कहानी ने अल्पसख्यको पर जुल्म होता बताया है मगर वे भूल गए बात मुसलमानों या सिखों की नहीं बात सख्या की है...जम्मू काश्मीर में हिन्दू भी अल्पसख्यक है उनकी पीड़ा भी ऐसी ही है जैसी गुजरात के मुसलमानों की या दंगो में सिखों की ...अब समय आ गया है कि हम धर्मो से ऊपर उठे और मानवता को बचाए अगर हम मानव है ...बात धर्मो की नहीं बात मानवता की है ..अगर हम धर्म को बचाने में लगे रहे तो मानवता शायद ही ज़िंदा बचे ..हमें इस धर्मवाद से उबरना ही होगा
मेरे ख्याल से कहानी सामान्य स्तर से ऊपर की नहीं है..
aaj mulk kee aqliyat kis khauf ke saye me zindagi guzar rahi hai iskee zinda misal hai yeh kahani.bahut achchi kahani!
बहुत आकर्षक लिखा है भई अनवर ...
यही दर्द कश्मीरी पंडितों का भी रहा होगा ..मगर वहां कोई अब्बा का सा दम ख़म नहीं दिखा पाया..सभी भाग खड़े हुए
पाक में भी ये काफ़िर २२% से मात्र २% रह गए ...कोई ज़िक्र भी नहीं करता इनका इस सेकुलर देश में।
सिर्फ और सिर्फ भारत में ही अल्प्संखियक में अब्बा का सा दम ख़म देखने को मिलता है।
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हसाया जाए।
बहुत प्रभावशाली प्रस्तूति किन्तु पूर्णतया यथार्थ से कुछ भटक गई !
काश्मीर के अल्प्संखियक पंडितमें अफ़सोस एक भी अब्बा जैसा नहीं बन पाया सभी भाग खड़े हुए ?
पाक में यही काफ़िर २२% थे और मात्र २% भी नहीं बचे ,कोई सेकुलर उनके बारे में जिक्र भी नहीं करता।
बंगला देश में 'एक तसलीमा' ने जब काफिरों का दर्द बयां किया तो भगा दिया ! अब सेकुलर भारत से भी निकालदिया गया।हिन्दू सुधारकों ने अपने समाज में व्याप्त धार्मिक बुराईयों को दूर करने के लिए आन्दोलन चलाए। क्या हमारे मुस्लिम समाज में ऐसा नहीं हो सकता। ज़ाहिर है मुस्लिम नेतृत्व चूक गया।
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए ?
कहानी बहुत ही प्रभावशाली लगी...
कहानी एक पक्ष को लेकर चली है ....लेखक अपनी बात कहने में सफल रहा है ..
बहुत अच्छी प्रस्तुति.
कहानी एक पक्षिये लगी, कहानी में सिर्फ बहुसंख्यक समुदाय के प्रति
विरोध दर्शाती मानसिकता, साधारण दर्जे का लेखन, एक लेखक होने के नाते
एक सामाजिक और बैचारिक दिर्ष्टि कौन कि अत्यंत कमी महसूस हुई,
अनवर साहब आपकी कहनी पढ़्कर इत्मिनान हुआ कि हमारे अब्बा अब तक जिन्दा हैं।हमें उनकी तरह होने के लिये जिस मासूमियत की जरूरत है,उसे हासिल करना है।यह कहानी रास्ता दिखाये या ना दिखाये किन्तु सोचना सिखायेगी।
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- अल्लामा जमील मज़हरी