योगराज प्रभाकर की चार ग़ज़ल
उसका हर गीत ही अख़बार हुआ जाता है,
क्यों ये फ़नकार पत्रकार हुआ जाता है !
जबसे अ'शार का मौजू बना लिया सच को,
बेवज़न शे'र भी शाहकार हुआ जाता है !
अपने बच्चों को जो बाँट के खाते देखा ,
दौर ग़ुरबत का भी त्यौहार हुआ जाता है !
बेल बेख़ौफ़ हो गले से क्या लगी उसके
बूढा पीपल तो शर्मसार हुआ जाता है !
हरेक दीवार फ़ासलों की गिरा दी जब से
सारा संसार भी परिवार हुआ जाता है !
क्यों ये फ़नकार पत्रकार हुआ जाता है !
जबसे अ'शार का मौजू बना लिया सच को,
बेवज़न शे'र भी शाहकार हुआ जाता है !
अपने बच्चों को जो बाँट के खाते देखा ,
दौर ग़ुरबत का भी त्यौहार हुआ जाता है !
बेल बेख़ौफ़ हो गले से क्या लगी उसके
बूढा पीपल तो शर्मसार हुआ जाता है !
हरेक दीवार फ़ासलों की गिरा दी जब से
सारा संसार भी परिवार हुआ जाता है !
2
मेरे बच्चों को खाना मिल गया है,
मुझे सारा ज़माना मिल गया है !
जबसे तेरा ये शाना मिल गया है,
आँसुओं को ठिकाना मिल गया है !
मेरा पड़ोस परेशान है यही सुनकर
मुझे क्यों आब-ओ-दाना मिल गया है!
तेरे अ'शार और मुझको मुख़ातिब,
मुझे मानो ख़ज़ाना मिल गया है !
क़लम उगलेगी आग अब यक़ीनन,
ज़ख्म दिल का पुराना मिल गया है !
मेरे अ'शार और है ज़िक्र उनका,
दीवाने को दीवाना मिल गया है !
लुटेंगीं अस्मतें बहुओं की अब तो,
मेरे क़स्बे को थाना मिल गया है !
(शाना=कंधा, आब-ओ-दाना=दाना पानी, मुख़ातिब=संबोधित, अ'शार= शे'र का बहुवचन, अस्मतें=इज्जतें)
मुझे सारा ज़माना मिल गया है !
जबसे तेरा ये शाना मिल गया है,
आँसुओं को ठिकाना मिल गया है !
मेरा पड़ोस परेशान है यही सुनकर
मुझे क्यों आब-ओ-दाना मिल गया है!
तेरे अ'शार और मुझको मुख़ातिब,
मुझे मानो ख़ज़ाना मिल गया है !
क़लम उगलेगी आग अब यक़ीनन,
ज़ख्म दिल का पुराना मिल गया है !
मेरे अ'शार और है ज़िक्र उनका,
दीवाने को दीवाना मिल गया है !
लुटेंगीं अस्मतें बहुओं की अब तो,
मेरे क़स्बे को थाना मिल गया है !
(शाना=कंधा, आब-ओ-दाना=दाना पानी, मुख़ातिब=संबोधित, अ'शार= शे'र का बहुवचन, अस्मतें=इज्जतें)
3
कई बरसों के बाद घर मेरे चिड़ियाँ आईं
बाद मुद्दत ज्यों पीहर में बेटियाँ आईं !
ज़मीं वालों के तो हिस्से में कोठियाँ आईं,
बैल वालों के नसीबों में झुग्गियाँ आईं !
जाल दिलकश बड़े ले ले के मकड़ियां आईं
क़त्ल हों जाएँगी यहाँ जो तितलियाँ आईं !
झोपडी कांप उठी रूह तलक सावन में,
ज्योंही आकाश पे काली सी बदलियाँ आईं !
ऐसे महसूस हुआ लौट के बचपन आया,
कल बड़ी याद मुझे माँ की झिड़कियां आईं !
बेटियों के लिए पीहर में पड़ गए ताले
हाथ बहुओं के जिस दिन से चाबियाँ आईं
उसके घर में है यक़ीनन ही कंवारी बेटी
जिसके चेहरे पे ये बेवक़्त झुर्रियां आईं !
4
नफ़रत का अन्धकार यूं फैला दिखाई दे
नाम-ओ-निशान अमन का मिटता दिखाई दे !
काशी दिखाई दे कभी का'बा दिखाई दे,
नन्हा-सा बच्चा जब कोई हँसता दिखायी दे !
जिनको भी ऐतमाद है अपनी उड़ान पर
उनको आसमान भी छोटा दिखाई दे !
वो शख्स जिसकी नींद ही खुलती हो शाम को,
उसको ये आफ़ताब क्यूँ चढ़ता दिखाई दे !
खिड़की ही जब नहीं है कोई घर के सामने,
फिर कैसे भला चाँद का टुकड़ा दिखाई दे !
श्रद्धा नहीं तो हर नदी पानी के सिवा क्या ?
श्रद्धा हो गर तो हर नदी गंगा दिखाई दे
नाम-ओ-निशान अमन का मिटता दिखाई दे !
काशी दिखाई दे कभी का'बा दिखाई दे,
नन्हा-सा बच्चा जब कोई हँसता दिखायी दे !
जिनको भी ऐतमाद है अपनी उड़ान पर
उनको आसमान भी छोटा दिखाई दे !
वो शख्स जिसकी नींद ही खुलती हो शाम को,
उसको ये आफ़ताब क्यूँ चढ़ता दिखाई दे !
खिड़की ही जब नहीं है कोई घर के सामने,
फिर कैसे भला चाँद का टुकड़ा दिखाई दे !
श्रद्धा नहीं तो हर नदी पानी के सिवा क्या ?
श्रद्धा हो गर तो हर नदी गंगा दिखाई दे
शायर का परिचय :
जन्म: १८ नवम्बर १९६१ , पटियाला
शिक्षा: पंजाबी विश्वविद्यालय से उच्च स्तरीय
सृजन : छिटपुट रचनाओं का प्रकाशन
सम्प्रति :मिल्क फ़ूड में अधिकारी और अंतरजाल पर एक अदबी कम्युनिटी बुक्स ऑनलाइन का संचालन
संपर्क: yr_prabhakar@yahoo.com
25 comments: on "काशी दिखाई दे कभी काबा दिखाई दे"
श्रद्धा हो गर तो हर नदी गंगा दिखाई दे...
बेटियों के लिए पीहर में पड़ गए ताले
हाथ बहुओं के जिस दिन से चाबियाँ आईं...
मार्मिक यथार्थ ...
सभी एक से बढ़कर एक ग़ज़लें ...
आभार इस परिचय के लिए भी ..!
sundar gazalon ka sangam
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
अपने बच्चों को जो बाँट के खाते देखा ,
दौर ग़ुरबत का भी त्यौहार हुआ जाता है !
बेल बेख़ौफ़ हो गले से क्या लगी उसके
बूढा पीपल तो शर्मसार हुआ जाता है !
क़लम उगलेगी आग अब यक़ीनन,
ज़ख्म दिल का पुराना मिल गया है !
मेरे अ'शार और है ज़िक्र उनका,
दीवाने को दीवाना मिल गया है !
लुटेंगीं अस्मतें बहुओं की अब तो,
मेरे क़स्बे को थाना मिल गया है !
झोपडी कांप उठी रूह तलक सावन में,
ज्योंही आकाश पे काली सी बदलियाँ आईं !
काशी दिखाई दे कभी का'बा दिखाई दे,
नन्हा-सा बच्चा जब कोई हँसता दिखायी दे !
yun to saari ki saari gazale hi kamal hyi hai par ye kuch asar ruh tak chu gaye....wah
...behad uchcha stareey gajalen hain ... kuchhek sher to adbhut hain, bahut bahut badhaai !!!
आनन्द आ गया सभी गज़लें पढ़कर...आभार!
जबसे अ'शार का मौजू बना लिया सच को,
बेवज़न शे'र भी शाहकार हुआ जाता है !
kya andaz hai janab !! lajawaab !!
लुटेंगीं अस्मतें बहुओं की अब तो,
मेरे क़स्बे को थाना मिल गया है !
झोपडी कांप उठी रूह तलक सावन में,
ज्योंही आकाश पे काली सी बदलियाँ आईं !
काशी दिखाई दे कभी का'बा दिखाई दे,
नन्हा-सा बच्चा जब कोई हँसता दिखायी दे !
KISE YAAD RAKHUN AUR KISE BHOOL JAUN.HAREK TO BEMISAL HAI JI!!
हमज़बान से हमकलाम होना अच्छा लगा. प्रभाकर जी की गज़लें अच्छी लगीं.
achchhi ghazale parh kar tripti ka ahasaas hua. badhi kavi-shayar ko..
काशी दिखाई दे कभी का'बा दिखाई दे,
नन्हा-सा बच्चा जब कोई हँसता दिखायी दे !
सभी एक से बढ़कर एक ग़ज़लें ...अच्छा लगा....आभार!
behtreen prastuti, ek se badhkar ek,
badhai kabule
तेरे अ'शार और मुझको मुख़ातिब,
मुझे मानो ख़ज़ाना मिल गया है !
सचमुच खजाना ही है आपकी यह पोस्ट.
धन्यवाद.
सारी गज़लें एक से बढ़ कर एक ....बहुत सुन्दर ...
यूँ तो सारी ही गज़लें ऐसी हैं कि हर शेर एक कहानी खुद कह रहा हो मगर मुझे ये सबसे ज्यादा पसंद आयी।
कई बरसों के बाद घर मेरे चिड़ियाँ आईं
बाद मुद्दत ज्यों पीहर में बेटियाँ आईं !
ज़मीं वालों के तो हिस्से में कोठियाँ आईं,
बैल वालों के नसीबों में झुग्गियाँ आईं !
जाल दिलकश बड़े ले ले के मकड़ियां आईं
क़त्ल हों जाएँगी यहाँ जो तितलियाँ आईं !
झोपडी कांप उठी रूह तलक सावन में,
ज्योंही आकाश पे काली सी बदलियाँ आईं !
ऐसे महसूस हुआ लौट के बचपन आया,
कल बड़ी याद मुझे माँ की झिड़कियां आईं !
बेटियों के लिए पीहर में पड़ गए ताले
हाथ बहुओं के जिस दिन से चाबियाँ आईं
उसके घर में है यक़ीनन ही कंवारी बेटी
जिसके चेहरे पे ये बेवक़्त झुर्रियां आईं !
एक ज़िन्दगी उतार कर रख दी हो ऐसा लगा इसे पढकर्……………आभार्।
ज़मीं वालों के तो हिस्से में कोठियाँ आईं,
बैल वालों के नसीबों में झुग्गियाँ आईं !
-शहरोज भाई, इन्हें और छापें। इनकी रचनाओं में दम है। बार-बार पढ़ना चाहूंगा।
बेहतरीन गज़लों के लिए प्रभाकर जी एवं ब्लॉग प्रकाशन के लिए आपको धन्यवाद.
सत्य को उद्घाटित करने वाली पत्रकार आाशा शुक्ला को वसुन्धरा सम्मान
चारों रचनायें अपने आप में ऊँचे स्तर की सीमायें है। सीधे, सरल शब्दों में गहरी बात कह देना बहुत कठिन है।
योगराज जी, किसी के परिचय के मोहताज नहीं, हम ज़बान पर आये और छा गये...दोनों का आभार व्यक्त करता हूँ. पंजाब के योगी जी, भारत की कल एक सशक्त अभिव्यक्ति के रुप में ज़रुर स्थापित होंगे क्योंकि जो बाहर है वही इनके भीतर से होकर काव्य मोती बन रहा है...सच जैसा भी हो..सुर मिल जाते है और शब्द भी..ये शेर इस तथ्य को उजागर करता है:
लुटेंगीं अस्मतें बहुओं की अब तो,
मेरे क़स्बे को थाना मिल गया है !
दुष्यन्त जी अगर आज हमारे बीच होते तो इस शेर पर जरुर चौक जाते..
सभी गज़ले बेहद प्रभाव पूर्ण है.
सासर
एक-एक ग़ज़ल मिश्री की तरह पानी में घुलती हुई .
बहुत सुन्दर ! साधुवाद !
नज़ीर से दुष्यंत परम्परा के शायर योगराज प्रभाकर की कुछ गजलें मुलाहिज़ा फ़रमाएँ!
हमें इस ख्वाह-मख्वाह के पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए की ग़ज़ल की ज़बान क्या हो..या बहर उर्दू की हो या हिंदी की मात्रा ....शायर कहता क्या है ?नज़र उस पर जानी चाहिए...और जब लहजा ठेठ हिन्दुस्तानी हो और ज़िंदगी की रवानी हो तो क्या कहना ! दरअसल यही रच...ना ही अमरत्व हासिल करती है जो बेहद ईमानदार ज़िंदगी के सांचे में ढल कर प्रस्फुटित होती हो.और आपको योगराज जी गजलों में ऐसी ही रौशनी मिलेगी जो सूरज से चमकते रौशनी में नहाई हुई है.
शहरोज़
अपने बच्चों को जो बाँट के खाते देखा ,
दौर ग़ुरबत का भी त्यौहार हुआ जाता है !
क्या बात गई....बहुत खूब...
क़लम उगलेगी आग अब यक़ीनन,
ज़ख्म दिल का पुराना मिल गया है !
बहुत ही जोश भरी पंक्तियाँ...
ऐसे महसूस हुआ लौट के बचपन आया,
कल बड़ी याद मुझे माँ की झिड़कियां आईं !
कितना प्यारा सा अहसास है...
श्रद्धा नहीं तो हर नदी पानी के सिवा क्या ?
श्रद्धा हो गर तो हर नदी गंगा दिखाई दे
बस ये बात सबकी समझ में आ जाए तो दुनिया स्वर्ग बन जाए
सुन्दर पोस्ट, छत्तीसगढ मीडिया क्लब में आपका स्वागत है.
एक से बढ़कर एक ग़ज़लें हैं..... बहुत ही उम्दा, बहुत ही बेहतरीन.... योगराज प्रभाकर जी की ग़ज़लें पढवाने के लिए शहरोज़ भाई का बहुत-बहुत शुक्रिया.
अपने बच्चों को जो बाँट के खाते देखा ,
दौर ग़ुरबत का भी त्यौहार हुआ जाता है !
ऐसे महसूस हुआ लौट के बचपन आया,
कल बड़ी याद मुझे माँ की झिड़कियां आईं !
बहुत ही संवेदनशील शेरों से सजी ये लाजवाब ग़ज़ल ....
सुभान अल्ला .... हर शेर सीधे दिल में उतार जाता है ... बहुत बधाई ...
बहुत अच्छा संकलन है.........बहुत पसंद आया
'Saahil'
saahilspoetry.blogspot.com
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रचना की न केवल प्रशंसा हो बल्कि कमियों की ओर भी ध्यान दिलाना आपका परम कर्तव्य है : यानी आप इस शे'र का साकार रूप हों.
न स्याही के हैं दुश्मन, न सफ़ेदी के हैं दोस्त
हमको आइना दिखाना है, दिखा देते हैं.
- अल्लामा जमील मज़हरी