बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

सोमवार, 25 जनवरी 2010

मुंबई की जान हैं ये कामवाली बाइयाँ


ज़रा हटके ज़रा बचके ....ये हैं मुंबई मेरी जान ! .

यह गीत अक्सर इस महानगर के सन्दर्भ में लिया जाता है.भाई ! बात ही निराली है. जितना चमकता-दमकता है उतना ही गहरे अन्धकार में भी कुछ ज़िन्दगी यहाँ सिसकती है.गणपर्व के समय यूँ दुखियारों की बात!! लेकिन क्या करूँ  आप हक़ीक़त  से कब तक मुंह छुपाते फिरेंगे.सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद है!
 मुझे इन्हीं सत्तर आदमियों की बात करना हमेशा सुकून-भरा रहा है. खैर मुंबई की कामवालियों के व्यथा-कथा बहुत ही जतन और लगन से हमज़बान के लिए  भेजा है मित्र और ब्लागर साथिन रश्मि रविजा ने .आप इस समय अपने एक उपन्यास लिखने में सक्रिय हैं , लेकिन समय मिलते ही जलते-सुलगते विषयों पर भी लिखने से गुरेज़ नहीं करतीं हैं.उनका आभार!-शहरोज़


हाथ-पैर होती हैं कामवालियां 
 

लोकल ट्रेन मुंबई की धड़कन कही जाती है और इसी तर्ज़ पर  अगर यहाँ की कामवाली बाईयों को  'मुंबई' का हाथ पैर कहा जाए तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी.क्यूंकि इन्हीं की बदौलत,मुंबई के सारे घर शांतिपूर्वक और सुचारू रूप से चलते हैं.सुबह पांच बजे से रात के ग्यारह बजे तक ये कामवालियां दूसरों का घर संभालने में लगी होती हैं.

ये सब कामवालियां,भारत के सुदूर प्रान्तों  से आकर यहाँ बसी हुई होती हैं.बिहार,यू,पी.,मध्यप्रदेश,उडीसा,आसाम,बंगाल,तमिलनाडु,कर्नाटक...शायद  ही कोई ऐसा प्रदेश हो जहाँ की मिटटी में पले,बढे ये हाथ मुंबई के घरों को साफ़-सुथरा रखने में ना लगे हों.कितनी  ही बाईयां ऐसी होती हैं जिन्हें ठीक से हिंदी बोलना भी नहीं आता.पर ये इशारों में ही बात समझ, काम करना शुरू कर देती हैं और एकाध सालों में ही इतनी दक्ष हो जाती हैं कि इन्हें पहचानना भी मुश्किल हो जाता है.कच्चे  घरों और कच्ची  सडकों की आदी ये महिलायें पूरे आत्मविश्वास से लिफ्ट का इस्तेमाल करना और इतने ट्रैफिक के बीच आराम से रास्ता तय करना सीख जाती हैं.अत्याधुनिक उपकरणों से लैस रसोईघर को ये इतनी निपुणता से संभालती हैं कि इनके अनपढ़ होने पर शक होता है.सच है,व्यावहारिक  ज्ञान के आगे,किताबी ज्ञान कितना बौना है.

घर की मालकिनों को सोफे पर बैठ कर टी.वी.देखने का या ऑफिस के ए.सी.कमरे में बैठ कलम चलाने (या नेट पर ब्लॉग लिखने :)) का अवसर देनेवाली इन कामवालियों का खुद का जीवन बहुत ही कठिन होता है.सुबह ४ बजे उठती हैं,अपने घर का खाना बना,नहा धोकर काम पे निकल जाती हैं. हाँ! मुंबई की ज्यादातर बाईयां सुबह नहा धोकर,पूजा और नाश्ता करके ही काम पर जाती हैं.दक्षिण भारतीय और मराठी महिलाओं के तो बालों में फूल भी लगा होता है.मेरी माँ जब मेरे पास आई थीं तो सबसे ज्यादा ख़ुशी, उन्हें मेरी मराठी बाई को देखकर होती थी. सुबह सुबह ही उसके बालों में लगे गजरे से मेरे पूरे घर में  भीनी भीनी खुशबू फ़ैल जाती.
इनकी कठिन दिनचर्या शुरू हो जाती है. औसतन ये ५,६, घरों में जरूर काम करती हैं.किसी घर में सिर्फ झाडू,पोंछा,बर्तन का काम होता है तो कहीं कपड़े धोना,कपड़े फैलाना,डस्टिंग करना,खाना बनाने में मदद करना और कहीं कहीं पूरा खाना भी यही बनाती हैं.

दोपहर को थोड़ी देर को ये अपने घर जाती हैं और अपने घर के बर्तन साफ़ करते,कपड़े धोते इन्हें दो घडी का भी आराम नहीं मिलता.और दूसरी पाली का काम शुरू हो जाता है.बहुत सी बइयां शाम ७ से दस बजे रात  तक घर घर घूम कर रोटियाँ बनाती हैं.ज्यादातर गुजराती घरों में रात के जूठे बर्तन सुबह तक नहीं रखते,उनके यहाँ ये बाईयां रात ग्यारह बजे काम ख़त्म कर वापस जाती हैं.
रात में सोने में इन्हें एक,दो बज जाते हैं क्यूंकि बी.एम्.सी.(ब्रिहन्न्मुम्बाई महानगरपालिका) रात में ही पानी रिलीज़ करती है.बड़ी बड़ी बिल्डिंग्स में तो टैंक में पानी भरता रहता है पर.इन्हें रात में ही बड़े बड़े ड्रमों में पानी भरना पड़ता है ताकि दिन भर काम चल सके.
पर अच्छी बात ये है कि पैसे इन्हें अच्छे मिलते हैं तीन  हज़ार से दस हज़ार तक ये प्रति माह कमा लेती हैं.इन पैसों को ये बहुत ही बुद्धिमानी से खर्च करती हैं.करीब करीब सभी बाईयों के बैंक एकाउंट हैं.हर महीने ये कुछ पैसे जरूर जमा करती हैं और दिवाली में तो अच्छी खासी रकम जमा हो जाती है क्यूंकि यहाँ के रिवाज़ के अनुसार पूरे एक महीने का वेतन इन्हें बोनस के रूप में मिलता है.खुद भी और अपने बच्चों को भी ये साफ़ सुथरे कपड़े पहनाती हैं. मुंबई आने के शुरुआत के दिन में जब मेरी बाई ने बताया था कि उसने ६सौ की बेडशीट खरीदी है तो मैं आश्चर्य में पड़ गयी थी.करीब करीब सभी बाईयां अपने बच्चों को स्कूल भी भेजती हैं और ट्यूशन भी.कुछ बाईयां तो अपने बच्चों को प्राइवेट अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाती हैं और फीस भरने को दुगुनी मेहनत करती हैं.इनके दस बाई दस के कमरे में सुख सुविधा की सारी चीज़ें मिलेंगी.गैस,मिक्सी,रंगीन टी.वी..मोबाईल के बिना तो ये घर से बाहर कदम नहीं रखतीं.
इन्हें ज़िन्दगी जीना भी आता है.सिनेमा जाना,बच्चों के साथ' जुहू बीच' जाना ,गरबा और गणपति के समय देर रात तक घूमना,ये सब इनकी ज़िन्दगी के हिस्से हैं.अच्छा लगता है देख अपने बच्चों का बर्थडे भी केक काटकर मनाती हैं.एक बार तो 'वेलेंटाईन डे' पर मेरी बाई अपने पति के साथ सिनेमा देखने चली गयी और मुझे बर्तन साफ़ करने पड़े.(दरअसल उसका पति,रिक्शा चलाता  था और कॉलेज के लड़के लड़कियों की बातें सुन और बाज़ार की रौनक देख,उसका भी मन ''वेलेंटाईन डे' मनाने का हो आया)

पर इनकी ऐसी किस्मत कभी कभी ही होती है.ज्यादातर इनके पति,इनके पैसों पर ऐश ही करते हैं.और इन्हें मारते पीटते भी हैं.शायद ही किसी बाई का पति हो जो रोज काम पर जाता हो.महीने में बीस दिन अपने साथियों के साथ पत्ते खेलता है और शराब पीता है.पैसे नहीं देने पर इन्हें मारता पीटता भी है.पर ये बाईयां मध्यम वर्गीय महिलाओं की तरह चुप नहीं बैठतीं.पुलिस में भी रिपोर्ट कर देती हैं और कई बार पति को घर से निकाल भी देती हैं.और कुछ दिनों बाद ही पति दुम हिलाता हुआ,माफ़ी मांग वापस लौट आता है.फिर वही सब शुरू हो जाता  है,ये अलग बात है.पर सबसे दुःख होता है,इनके बेटों का व्यवहार  देख.बेटियाँ फिर भी पढ़ लेती हैं पर बेटे ना स्कूल जाते हैं,ना ट्यूशन.एक ही क्लास में फेल होते रहते हैं और जब भी मौका मिले अपनी माँ से पैसे छीन  भाग जाते हैं,एक बार मेरी बाई ने बड़ी मासूमियत से पूछा था,"कोई ऐसी दवा होती है,भाभी जिस से इनका पढने में मन लगे."

ये बाईयां मेहनतकश होने के साथ साथ बहुत ही ईमानदार और प्रोफेशनल भी होती हैं.कई घरों में पड़ोस से चाबी ले,फ़्लैट खोलकर ये सारा काम करती हैं और चाबी वापस कर चली जाती हैं.एक युवक अपने घर के बाहर doormat के नीचे चाबी रखकर चला जाता था.बाई घर खोल उसे मिस कॉल देती और वह फोन करके बताता कि क्या खाना बनाना है.कितने ही घरों का काम ऐसे ही चलता है.महीने में दो छुट्टी इनका नियम है,इसके अलावा बीमार पड़ने या बहुत जरूरी होने पर ही ये छुट्टियाँ लेती हैं.वरना मैंने देखा है,छोटे शहरों में जरा सा मूड नहीं हुआ,या नींद नहीं खुली,सर में दर्द था,कोई आ गया,ऐसे बहाने बना बाईयां छुट्टी कर जाती हैं.

यहाँ एक और अलग रूप है इन काम वाली बाईयों का. एक बार 'बॉम्बे टाईम्स' में एक रिपोर्ट छपी थी कि या बाईयां अपनी मालकिनों के  emotional  anchor का रोल भी बखूबी निभाती हैं.मुंबई में अपने पड़ोसियों की भी कोई खबर नहीं होती.ऐसे में उनकी परेशानियां बांटने वाली एकमात्र ये बाईयां ही होती हैं.कई महिलाओं ने अपने अनुभव बांटे थे.एक युवती ने बताया था कि उसका डिवोर्स हो गया था और वह घोर डिप्रेशन में थी.उड़ीसा के किसी  गाँव से आई एक सीधी साधी बाई ने उसका पूरा घर संभाला.उसके बच्चों को तैयार कर स्कूल भेजना,उसे भी जबरदस्ती खाना खिलाना,उसे समझाना,इक ने अपना  पति खो दिया था,एक की नौकरी चली गयी थी,सबको उनकी बाई ने ही सहारा दिया था.बरसों पहले रिलीज़ हुई फिल्म अर्थ में 'रोहिणी हट्टनगडी' का किरदार कपोल कल्पित नहीं था.मुंबई के जीवन में यह अक्षरशः सत्य है.

अगर सिर्फ दो दिन के लिए ही,मुंबई की बाईयां कहीं अंतर्ध्यान हो जाएँ तो कितने ही घरों में खाना नहीं बने,बच्चे स्कूल नहीं जा पायें,घर बिखरा पड़ा रहें कपड़े नहीं धुले और घर की मालकिन अपना मानसिक संतुलन ही खो बैठे..इसलिए
LONG LIVE
KAAMWAALI BAAI    


लेखिका-परिचय:
जन्म-रांची (झारखंड) में,शिक्षा-एम्.ए.(राजनीति शास्त्र), सम्प्रति - मुंबई आकाशवाणी में वार्त्ताकार
लेखिका-उवाच:
"पढने का शौक तो बचपन से ही था। कॉलेज तक का सफ़र तय करते करते लिखने का शौक भी हो गया. धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, मनोरमा  वगैरह में रचनाएँ छपने भी लगीं .पर जल्द ही घर गृहस्थी में उलझ गयी और लिखना,पेंटिंग करना सब 'स्वान्तः सुखाय' ही रह गया . जिम्मेवारियों से थोडी राहत मिली तो फिर से लेखन की दुनिया में लौटने की ख्वाहिश जगी.मुंबई आकाशवाणी से कहानियां और वार्ताएं प्रसारित होती हैं..यही कहूँगी:

मंजिल मिले ना मिले ,
ये ग़म नहीं...
मंजिल की जुस्तजू में, 
मेरा कारवां तो है   

                                                                  .
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26 comments: on "मुंबई की जान हैं ये कामवाली बाइयाँ"

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

रश्मि जी की लेखनी को नमन.... और आपका शुक्रिया अदा करता हूँ इस बेहतरीन आलेख को पेश करने के लिए..... कामवाली बाइयों की व्यथा को बहुत अच्छे ढंग से चित्रित किया गया है.... लेखनी में फ्लो बहुत अच्छा है...एक साँस में ही पढ़ता चला गया.... तारतम्यता को बहुत खूबसूरती से पिरोया गया है...


Hats off to Rashmi ji....

शेरघाटी ने कहा…

sahi kaha mahfooz bhai!! inlogon par sarkaar ya ham-sabhi kab dhyaan denge!! inki zindagi kitne dushchakron mein pisti rahti hai, lekin logon ki sewa karna aise log pahli praathmikta samajhte hain.
rashmiji ne bahut hi achcha khaaka khincha hai,

shikha varshney ने कहा…

रश्मि बहुत ही बढ़िया आलेख लिखा है ...हलकी फुलकी भाषा में बहुत पते कि बात कि है...वाकई मुंबई कि जान हैं ये काम वालियां....और वो valentine day वाली बात तो मस्त बताई हा हा ह आहा

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत बढ़िया लिखा है....आज कल मुंबई कि ही काम वाली बईयाँ ही नहीं दिल्ली की बाइयों की भी जिंदगी कुछ कुछ इसी ढर्रे पर है...पर शायद जीवन स्तर कम हो....मुंबई की बाईयों के जीवन से तो परिचित हुए...:):)
शुभकामनायें

विवेक रस्तोगी ने कहा…

बिल्कुल सही चित्रण किया है आपने रश्मि जी, १०० प्रतिशत सहमत क्योंकि हम तो सालों से कामवाली बाई के हाथ का खाने में अभ्यस्त हो गये अब परिवार मुंबई पिछले साल ही लाये हैं तब जाकर अपने घर की रोटी नसीब हो रही है, नहीं तो दिल्ली में हम रहते थे तब तो ये हाल था लक्ष्मी नगर में कि बंगाली बाई आती थी हम क्या खाते हैं, उसे खाना बनाना सिखाते थे और वो हमारे यहाँ से भाग जाती थी, फ़िर नई बाई ढ़ूँढो और फ़िर ट्रेनिंग दो।

ब्लॉग के बैकग्राऊँड कलर के कारण काले अक्षर तो समझ में आ रहे हैं परंतु अन्य कलर के अक्षरों को पढ़ने में तकलीफ़ हो रही है। इसका कोई समाधान करें।

Spiritual World Live ने कहा…

शिखा जी सही कहा की यही लोग मुंबई ही नहीं दिल्ली-ककात्ता की भी शान और जान हैं.इन्हीं के बल पर सुख-और आराइश की इमारत खड़ी होती है.रश्मि साहिबा को मेरा सलाम और शहरोज़ भाई आपको भी!

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

सच्‍चाई को उकेरती
शब्‍दों में खोलती
आश्‍चर्य नहीं होगा मुझे
बल्कि है इंतजार
उस दिन का जिस दिन
ये कामवाली बाईयों में से एक
ब्‍लॉगर वाली बाई भी बन जायेंगी।

जरूर ये जिन घरों में काम करती हैं
उन घरों के आस पास ही रहती होंगी
तभी तो दिन में
अपने घर भी पहुंच जाती हैं
जबकि हम तक भी तो
तरस जाते हैं दिन में
घर जाने के लिए
और जब करता है मन
तो आफिस के बाहर
पार्किंग में खड़ी कार में
सीट लंबी करके
नींद का झटका धीरे से
सह जाते हैं।

ये वो फूल हैं
जो अपनी खुशबू कई आयामों में
बिखेरते हैं
रश्मि जी ने सही कहा है
इनके करने से
वो सब हो पाता है
जिनका मन और मानस से
गहरा नाता है।

जिंदगी जीना सभी चाहते हैं
ईमानदारी दो तो वापिस मिलती है
भरोसा करो तो
दूसरा भी भरोसा करता है
ये वो शै है
जो जितनी दो
उससे अधिक हासिल होती है।

شہروز ने कहा…

विवेक जी आभार!! अब आपको यह धुंधलापन नहीं दिखाई देगा.

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

शहरोज जी इतनी सुंदर अभिव्‍यक्ति को प्रस्‍तुत करने के लिए आपको कोटिश: साधुवाद।

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर लेख लिखा आप ने, यह भी एक जिन्दगी है,

वाणी गीत ने कहा…

काम वाली बाई पर अच्छा लेख लिखा है ...परिश्रम से धन कमाने मेहनतकशों की शिरेनी में ही तो आती हैं ...इनके कार्यों और जिंदगी पर खूब कलम चलायी आपने ...
हमारे घर में तो हम ही है ...कुछ टिप्स हमसे भी ले लेती ..हा हा हा

रश्मि प्रभा... ने कहा…

यूँ भी कामवालियों के आने की आहट बसन्ती हवा लगती है.......बहुत सही विवरण. रश्मि जी रांची से हैं,जानकर अच्छा लगा-
अपने सी खुशबू आई

रंजू भाटिया ने कहा…

bahut बढ़िया लेख लगा यह वाकई आज यह हर घर की एक सदस्य की तरह हो चुकी है .इनके बिना कम चलाना वाकई बहुत मुश्किल है .आपकी कलम से इस विषय को बाखूबी लिखा है

निशाचर ने कहा…

बहुत ही अच्छा आलेख. आज जहाँ कुछ लोग इन्हें इन्सान भी समझने से इनकार कर देते हैं, आपने इनको सम्मान देकर और इनके महत्व को रेखांकित कर प्रशंसनीय प्रयास किया है.

आपके आत्मपरिचय की पंक्तियों ने दिल खुश कर दिया-
"मंजिल मिले न मिले
ये गम नहीं...
मंजिल की जुस्तजू में,
मेरा कारवां तो है."


सचमुच यही जज्बा होना चाहिए जिंदगी में........... प्रणाम स्वीकार करें

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

कामवाली बाई को सलाम! ईश्वर इन्हें सुखी रखे...
शुभ गणतंत्र...

shama ने कहा…

Mujhe wo din yaad hain jab mai kisee bhi kaamwaalee ko rakh nahi sakti thi..chhote bachhon sambhalna, buzurgon kee khidmat, bachhonki school...pair me ek chakr laga rahta tha...jab pahli baar kaamwali rakh payi wo din kabhi na bhulega!

shama ने कहा…

Rashmi ji gantantr diwas kee shubhkamnayen!

Mithilesh dubey ने कहा…

बहुत ही अच्छा आलेख....


आपको गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें ।

arun pandey ने कहा…

बिलकुल सत्य , ये कामवालियां बहुत ही मेहनती और सबसे बड़ी बात इमानदार हुआ करती है ,
सबसे ख़ुशी की बात ये है की लेखिका ने एक ऐसा विषय चुना ,जिस पर सबका ध्यान नहीं जाता ,
भले ही सब कोई आज इन्हीं कामवालियों पर निर्भर है ,
लेखिका को बहुत-बहुत धन्यवाद
आशा है की भविष्य में भी ऐसे ही जीवंत विषयों के बारे में जानकारी मिलता रहेगा .

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

एकदम सही बात...अरे हमसे कोई पूछे हम कितना मिस करते हैं अपनी काम वाली बाई को ..भगवान् उसे सुखी रखे जहाँ भी वो हो...
जब वो लोग थीं जीवन स्वर्ग था....
मैंने पहले भी कहीं ये बात कही है ...लेकिन यहाँ फिर से कहूँगी...क्योकि मेरा जीवन ऐसा ही हुआ पड़ा है यहाँ....
वो दिन भी क्या दिन थे जब पसीना गुलाब था ...
अब तो गुलाब से भी पसीने की बू आती है....
हाय रे .... मरियम (उसका नाम था ) कहाँ हो तुम ...):):):
और एक बात....झारखण्ड का पानी ...जब बोलता है तो क्या बोलता है.....!! :):)

सुरेश यादव ने कहा…

bahut achchhe lekh ke liye aur gantantra divas par badhai.

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

शहरोज़ साहब आदाब,
इस लेख के लिये आपको, और रश्मि जी को बधाई

गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

Satish Saxena ने कहा…

इस विषय पर अभी तक बहुत कम लिखा गया , बहुत बढ़िया शैली ! शुभकामनायें !

kshama ने कहा…

Sharoz ji aapne Rashmi ji ka behad sundar aalekh padhva diya! Anek dhanywad!

ρяєєтii ने कहा…

waah, satik varnan kaamwaaliyo per.....

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) ने कहा…

ham kuchh nahi kahenge....bas salaam denge aise sabhi logon ko....!!

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