बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

बुधवार, 2 जुलाई 2008

आलोक प्रकाश पुतुल की कविता

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पिछले 19 सालों से पत्रकारिता के पेशे में। ग्रामीण पत्रकारिता और नक्सल आंदोलन में कुछ शोधपरक काम. कविताई कभी-कभार .ज्यादातर छद्म नामों से कवितायेँ प्रकाशित .दरअसल जब भी इनके साहित्यिक परिशिष्ट के लिए कवितायेँ अनुपलब्ध रहीं , कविता लिख मारी .वाह! रे आशु कवि और ग़ज़ब का मजदूर !!.इन नामों में आफताब अहमद ज्यादा लोकप्रिय रहा है .
कुछ पत्रिकाओं, अखबारों, संदर्भ ग्रंथों का संपादन,देशबंधु ,अक्षरपर्व और सन्दर्भ छत्तीसगढ़ आदि . वृत्तचित्रों में भी सक्रिय. बीबीसी समेत कई देशी-विदेशी मीडिया संस्थानों के लिए कार्य. कभी-कभी विश्वविद्यालयों में अध्यापन. कुछ राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मान, पुरस्कार और फेलोशीप.
इन दिनों वेब पत्रिका http://www.raviwar.com/ का संपादन।
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भाई की तलाश


मैं घर का सबसे छोटा बेटा नहीं हूँ
मुझसे भी छोटा एक भाई है
है और था के बीच झूलता एक भाई, नीली आँखों वाला,
मुझसे कुछ ऊँचा ६ फुट लम्बा कद्दावर
कालेज से घर और घर से कालेज
कुल मिला कर यही थी उसकी दुनिया


ठंड की एक रात उसे पुलिस उठा कर ले गयी
कहाँ, यह किसी को नहीं पता

अगले दिन सब तरफ कोहरा छाया हुआ था
चाकू के धार वाले इस समय में
मैं अपने पिता के साथ
शहर के एक थाने से दूसरे थाने तक
भाई को तलाश रहा था।


पूरे दिन तलाश के बाद भी
हम यह पता लगाने में असफल रहे कि मेरा भाई कहाँ है

हर थाने से एक रटा रटाया जवाब मिलता.. हमें पता नहीं


ऐसे गुजर गए
कई कई दिन और कई कई रातें
भाई का पता नहीं चला

फिर सप्ताह महीने और साल
तलाश जारी रही लेकिन भाई का पता नहीं चला

इस बात को १४ साल गुजर गए
लेकिन कमबख्त कोहरा है कि खत्म नहीं होता


आप में से कोई
मेडिकल साइंस से जुड़ा हो तो उसके लिए

एक रोचक केस हमारे घर में है
१४ सालो से माँ एक क्षण सोई नहीं
७० की उम्र में रात -रात भर कुर्सियों पर बैठ कर
सुनने की कोशिश करती है कोई आहट


कहीँ भी ईश्वर के ना होने के अपने दृढ़ विश्वास के बाद भी
हर रोज करता हूँ प्रार्थना
हे ईश्वर, बचा रहे माँ का विश्वास
कि एक दिन लौटेगा मेरा छोटा भाई
और लिपट कर माँ को गोद में उठा , आँगन भर में घूमेगा
फिर छूटते ही पूछेगा.. दद्दा को दवाई दी कि नहीं
और जब होगा बड़े भैया से सामना
शरारतन आँगन से कमरे में जाते हुए
सर खुजलाते हुए कहेगा...नोट्स लेने थे, इसलिए देर हो गई

मैं भी कहना चाहता हूँ उससे
छोटे, बहुत देर हो गई

इतनी देर गोया देर के बादकेवल खाली जगह हो
या अब दुनिया में देर के बाद कोई जगह नहीं होती
लेकिन यह सुनने के लिए छोटे तक घर नहीं लौटा है

मेरा सबसे ज्यादा वक्त जाता लावारिस लोगों
की सूचना अखबारों में पढ़ने में
रेल लाइन के पास पड़ी कोई लाश ही
सड़क किनारे किसी पागल की मौत की खबर

पागलों की तरह
सब जगह जा कर हमने तलाशा है
कोई भी शक्ल मेरे भाई से नहीं मिलती

और आप हँसेंगे शायद कि रेल गाड़ियों में जाते या यूँ ही सड़कों पर
कई कई बार पीछे सेकई कई नौजवानों के कंधे छू कर इन्हें पलटा है
कि ये अपना छोटा है लेकिन नहीं
लोग हँस कर कह देते हैं .. कोई बात नहीं, होता है, होता है

मैं अपनी गलती पर सकुचाने के बाद
अचरज से भर जाता हूँ
कि कैसे कोई किसी के बारे में
इतनी गैरजिम्मेदाराना ढ़ंग से कह सकता है , कि कोई बात नहीं....

हर दीवाली, होली और ऐसे ही त्यौहारों पर
बचा कर रख दी जाती है
उसके हिस्से की मिठाई


बेबसी एक शब्द भर नहीं है
छोटी छोटी मुस्कानों के बीच
कभी आप तलाशे तो वहाँ मिलेगी


माफ करें , मुझको मालूम है कि आप भी ऊब रहे होंगे

जैसा कि हर कोई हमारे किस्से सुन सुन कर ऊब चुका है
सिवाय मेरे घर वालों के

मेरा एक खास मित्र है
जो देर रात तक हमारे साथ घर में बैठा रहता है
लम्बीसाँस लेता हुआ मित्र
अक्सर ठंडे स्वर में कहता है... जीवन बहुत कठिन है मित्र
मैं धीरे से आकाश की ओर देखता हूँ और बुदबुदाता हूँ
मरना और भी कठिन


फिर आकाश में ही तलाशने लगता हूँ
छोटे का चेहरा


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10 comments: on "आलोक प्रकाश पुतुल की कविता"

ज़ाकिर हुसैन ने कहा…

आपकी कविता पढ़ कर तो शब्द ही गले में अटक गए पुतुल जी
शायद वो गले नहीं, आँखों के रस्ते से बाहर आना चाहते थे, सो वहीँ से आये
शहरोज़ भाई का भी शुक्रिया!!

shazi ने कहा…

भावुक कर देती है कविता .अजीब बात है कि लोगों ने कमेन्ट करने में क्यों कंजूसी की . आप के बारे जानकर अच्छा लगा .आशा है और भी बहुत कुछ आपका यहाँ पढने को मिलेगा .

36solutions ने कहा…

अतुल भाई के लेखों से हम रूबरू होते रहे हैं उनकी कवितायें हमने कभी सिरयसली नहीं पढी थी । कमाल की भावाभिव्‍यक्ति है ।

बडे भाई यह ब्‍लाग फायर फाक्‍स में ठीक से नहीं दिखता यदि संभव हुआ तो फायर फाक्‍स के अनुरूप भी करने की कृपा करें ।

धन्‍यवाद ।

श्रद्धा जैन ने कहा…

Atul ji aaj aapko padha aur aapki bhavanon ki gharayi ko dekha. aapmain un bhavano ko uchit sabdon main abhivayakt kar dene ki kala hai

aapse bhaut kuch seekhne ko milega

aapko padhna achha laga

Sharoz ji ka shukriya jinhone aapki is anmol kavita se milwaya

aapki har rachna ke intezaar main

Smart Indian ने कहा…

इस अति सुंदर और सच्ची रचना के लिए धन्यवाद स्वीकारें. शुक्रिया शहरोज़ भाई का भी जिनकी बदौलत मेरे जैसे हिन्दी कविता पढने में कंजूस लोग भी आपको पढ़कर इस रचना की गहराई को महसूस कर सके. लिखते रहिये - कवियों की कलम से भी समाज बदलता है. कौन जाने एक दिन हमारे भारत में भी ऐसा आए जब हमारे अपने रक्षक हमारे ही भक्षक बनने से बचेंगे.

ऊर्दू दुनिया ने कहा…

sir
aapki kavita bahut acchi lagi
ye gam darasal aisa hi hota ha.
maine ise mahsus kiya hai so kah sakne ki zurrat kar pa raha hu.

ek muddat se teri yaad bhi na aai hamein
aor tujhe hum bhul gaye kuch aisa bhi nahi.

preeti ने कहा…

सही कहा आपने .....कैसे कोई किसी के बारे में इतने गैरजिम्मेदाराना ढंग से कह सकता है की .....कोई बात नहीं ......
सच में कई बार ऐसा लगता है की किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता सिवाय उनके जिन पर बीतती है ......जिनके अपने एक दिन ऐसे ही बिना वजह खो जाते हैं .........सुबह के गए शाम को नहीं लौटते ........

shahbaz ने कहा…

दिल के ज़ख्मों को कुरेदने वाली कविता है, अत्यंत मार्मिक, किन्तु अपनी पूरी सघनता के साथ कविता पाठक के सम्मुख उपस्थित होती है..

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) ने कहा…

मैं नहीं जानता आलोक,कि इस पर क्या कहूँ?,क्यूँ कि किसी भी तरह से यह एक कविता नहीं है,यह एक वीभत्सता है,जिसके भीतर जल रहा है,पिघल रहा है,हमारा समाज,हमारा देश या हमारा समय !!यह एक ऐसी वीभत्सता है जिसके शिकार हैं हम और मजा यह कि शिकारी भी हम खुद ही हैं कहीं ना कहीं....!!तो फिर ऐसे समय का क्या हो सकता है...??

निर्मला कपिला ने कहा…

ाँखें भर आयी मै भी अपने बेटे और जावान भाइयों को आकाश मे तलाशने लगी हूँ। मार्मिक अभिव्यक्ति।

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- अल्लामा जमील मज़हरी

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