बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

रविवार, 9 जनवरी 2011

शहीदों का गांव, आज भी बदहाल

रांची। ओरमांझी प्रखंड के कुटे बाजार से जब दायीं ओर सर्पीली सड़क मुड़ती है, तो आजादी के बाद हुए विकास की कलई खुल जाती है। यह भी पता चलता है कि हम अपनी विरासत को संजोए रख पाने में कितने असमर्थ साबित हुए हैं। यह गांव है खुदिया लोटवा, 8 जनवरी 1858 को देश की मुक्ति के लिए कुरबान हुए शहीद भिखारी का गांव। उनकी मजार और उनके परिजन इस गांव की तरह ही बदरंग हैं। इसी गांव में शनिवार को शहीद की मजार पर मेला लगेगा और आश्वासन की रेवड़िया बांटी जाएंगी।

पांच सौ की आबादीवाले इस गांव में सबसे बड़ा कुनबा शहीद शेख भिखारी का है। इस कुनबे में छोटे बड़े सत्तर लोग हैं। यूं तो इनकी कई एकड़ जमीन है, लेकिन बंजर। रोजी रोटी के लिए कुछ खेतिहर जमीन है, जिनसे उनकी जिंदगी घिसटती है। कुछ लड़के किसी तरह पढ़ तो गए, पर नौकरी नहीं।

सबसे बुजुर्ग सदस्य हैं अस्सी वर्षीय शेख सुब्हान। उनकी आंखों ने गांव में आए पूर्व राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी, तत्कालीन शिक्षा मंत्री बंधु तिर्की, स्टीफन मरांडी, केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय और सावना लकड़ा को यहां आते देखा है। उनके कानों ने इनके आश्वासनों को सुना है।

2008 में बने इस टोले का एकमात्र प्राइमरी स्कूल बिना इमारत के चल रहा है। भवन की नींव खुदी पड़ी है। पास ही खड़ी 2008 में बनी सात फीट ऊंची छत अपने शहीद स्मारक होने का मजाक उड़ा रही है । सात जनवरी को उस पर चूने की पुताई हो पाई है। सड़क का कहीं नामोनिशान नहीं।

अरबी फारसी विश्वविद्यालय के नाम पर हाल में खुला एक मदरसा जरूर है, जहां गांव के 70 बच्चे धार्मिक शिक्षा ले रहे हैं। इसके हॉस्टल के लिए खबर है कि कल्याण मंत्री हाजी हुसैन अंसारी फंड की घोषणा शनिवार को करेंगे। सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता औरंगजेब आलम और छात्र नेता एस अली कहते हैं कि महज मजहबी तालीम के बूते विकास नहीं किया जा सकता।

मलबे में तब्दील उमराव का घर

बदहाली की दूसरी कहानी शहीद टिकैत उमराव सिंह के गांव खटंगा की भी है। शहीद टिकैत और शहीद भिखारी ने मिल कर अंगरेजों से लोहा लिया था। शहीद टिकैत उमराव के छोटे भाई भी रणबांकुरे थे, लेकिन बड़े भाई ने उन्हें मोर्चे से भगा दिया था। लोहरदगा में उनकी मौत हुई थी।

इन शहीदों का पैतृक घर गिर चुका है। उनके प्रपौत्र भरत भूषण सपरिवार इंदिरा आवास में रह रहे हैं। सड़क और स्कूल के मामले में इसकी स्थिति भले जरा बेहतर हो, लेकिन शहीदों के वंशजों की आर्थिक काया शहीद शेख भिखारी के कुनबे की तरह ही जर्जर है।

1954 में बना प्राथमिक स्कूल अब मीडिल हो गया है। प्रभारी हेड मास्टर अमूल्य की मानें तो अब तक शिक्षकों की तादाद नहीं बढ़ाई गयी है। स्कूल के पास शहीद टिकैत उमराव स्मारक के नाम पर चबूतरा भी है ।



शहीदों के परिवारों के लिए आर्थिक मदद के उद्देश्य से सन 1999 में रांची अल्बर्ट एक्का चौक पर एक हंगामी बैठक हुई थी, उसी के बाद झारखंड सेनानी कोष बना, जिसके तेहत पांच करोड़ की राशिा जमा की तो गई है पर इसका उपयोग आज तक नहीं हो सका है ।

भास्कर  के  लिए लिखा गया 

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4 comments: on "शहीदों का गांव, आज भी बदहाल"

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

उनके देश की क्या हाल हो गया है?

मनोज कुमार ने कहा…

चितनीय स्थिति।

उम्मतें ने कहा…

शर्मिंदगी के दिन हैं !

Shamshad Elahee "Shams" ने कहा…

jo kaum apne shaheedon aur bujurgon ka samman nahi kar sakti..uski gatt kya hoti hai...ye kahna jaroori nahi.
saadar

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