बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

रविवार, 8 अगस्त 2010

ख़ामोशी के ख़िलाफ़











शाहिद अख्तर की कविताएँ



तितलियां

रात सोने के बाद
तकिए के नीचे से सरकती हुई
आती हैं यादों की ति‍तलियां
तितलियां पंख फड़फड़ाती हैं
कभी छुआ है तुमने इन तितलियों को
उनके खुबसूरत पंखों को
मीठा मीठा से लमस हैं उनमें
एक सुलगता सा एहसास
जो गीली कर जाते हैं मेरी आंखें

तितलियां पंख फड़फड़ती हैं
तितलियां उड़ जाती हैं
तितलियां वक्‍त की तरह हैं
यादें छोड़ जाती हैं
खुद याद बन जाती हैं

तितलियां बचपन की तरह हैं
मासूम खिलखिलाती
हमें अपनी मासुमियत की याद दिलाती हैं
जिसे हम खो बैठे हैं जाने अनजाने
चंद रोटियों के खातिर
जीवन के महासमर में...
हर रात नींद की आगोश में
जीवन के टूटते बिखरते सपनों के बीच
मैं खोजता हूं
अपने तकिये के नीचे
कुछ पल बचपन के, कुछ मासूम तितलियां...


'हाई टी' और 'डिनर' के बाद

कभी देखा है तुमने
देश की तकदीर लिखने वालों ने
क्‍या क्‍या ना बनाया है हमारे लिए
आग उगलती, जान निगलती
हजारों मील दूर मार करने वाली मिसाइलें हैं
हम एटमी ताकत हैं अब
किसकी मजाल जो हमें डराए धमकाए
अंतरिक्ष पर जगमगा रहे हैं
हमारे दर्जनों उपग्रह
चांद पर कदम रखने की
हम कर रहे हैं तैयारियां
और दुनिया मान रही है हमारा लोहा
हम उभरती ताकत है
अमेरिका भी कह रहा है यह बात
हां, यह बात दीगर है
कि भूख और प्‍यास के मामले में
हम थोड़ा पीछे चल रहे हैं
लेकिन परेशान ना हों
'हाई टी' और 'डिनर' के बाद
नीति-निर्माताओं की इसपर भी पड़ेगी निगाह

यादों के फूल 


...और बरसों बाद
जब मैंने वह किताब खोली
वहां अब भी बचे थे
उस फूल के कूछ जर्द पड़े हिस्से
जो तुमने कालेज से लौटते हुए
मुझे दिया था

हां, बरसों बीत गए
लेकिन मेरे लिए तो
अब भी वहीं थमा है  वक्‍त
अब भी बाकी है
तुम्हारी यादों की तरह
इस फूल की खुशबू

अब भी ताजा है
इन जर्द पंखुडि़यों पर
तुम्हारे मरमरीं हाथों का
वह हसीं लम्‍स
उससे झांकता है
तुम्‍हारा अक्‍स

वक्त के चेहरे पे
गहराती झुर्रियों के बीच
मैं चुनता रहता हूं
तुम्‍हारा लम्‍स
तुम्‍हारा अक्‍स
तुम्हारी यादों के फूल

कभी आओ तो दिखाएं
दिल के हर गोशे में
मौजूद हो तुम
हर तरफ गूंजती है
बस तुम्‍हारी यादों की सदा
बरसों बाद जब मैंने ...


ख़ामोशी के ख़िलाफ़


दर्द हो तो
मदावा भी होगा
हमारी खामोशी
जुर्म होगी
अपने खिलाफ
और हम भुगत रहे हैं
इसकी ही सजा
लब खोलो
कुछ बोलो
कोई नारा, कोई सदा
उछालो जुल्‍मत की इस रात में
आवाजों के बम और बारूद
ढह जाएंगे इन से
जालिमों के किले
(14.01.09: गाजा पर इस्राइली हमले के खिलाफ लिखी कविता)

 





[ कवि-परिचय:
पूरा नाम: मोहम्‍मद शाहिद अख्‍तर
जन्‍म: 21 मार्च 1962,गौतम बुद्ध की नगरी, गया में
शिक्षा: बीआईटी, सिंदरी, धनबाद से केमिकल इं‍जीनियरिंग में बी. ई.

छात्र जीवन में  वामपंथी राजनीति से जुड़ाव । इंजीनियर के बतौर कैयिर शुरू करने की जगह एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए । बंबई (अब मुंबई) के शहरी गरीबों, झुग्‍गीवासियों और श्रमिकों के बीच काम किया। बंबई के इस अनुभव ने उन्हें जीवन के कई अहम पहलुओं को निकट से देखने का मौका दिया। 

सृजन-प्रकाशनगार्डन टी पार्टी और अन्‍य कहानियां-कैथरीन मैन्‍सफील्‍ड [राजकमल प्रकाशन] तथा प्राचीन और मध्‍यकालीन समाजिक संरचना और संस्‍कृतियां-अमर फारूकी [ग्रंथशिल्‍पी] का अनुवाद ,समकालीन जनमत, पटना में विभिन्‍न समसामयिक मुद्दों पर लेखन, अंग्रेजी और उर्दू में महिलाओं की स्थिति, खास कर मु‍स्लिम महिलाओं की स्थिति पर कई लेख प्रकाशित

सम्प्रति : प्रेस ट्रस्‍ट ऑफ इंडिया (पीटीआई) की हिंदी सेवा 'भाषा' में वरिष्‍ठ पत्रकार ।
नेशनल बुक ट्रस्‍ट के लिए भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस के तीसरे अध्‍यक्ष (1887), बदरूद्दीन तैयबजी के लेखों के संकलन और उनकी जीवनरेखा पर कार्य 
संपर्क: shazul@gmail.कॉम ]







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16 comments: on "ख़ामोशी के ख़िलाफ़"

kshama ने कहा…

Titliyon-si bachpankee maasoomiyat! Na jane kab ham use kho dete hain,patahi nahi chalta! Behad pasand aayi yah rachana.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

अलग अलग रंग में सजी अच्छी रचनाएँ ...

मदावा का सही अर्थ नहीं समझ पायी ...

नीरज गोस्वामी ने कहा…

एक से बढ़ कर एक बेहतरीन रचनाएँ...पढवाने का शुक्रिया...
नीरज

शेरघाटी ने कहा…

तितलियां बचपन की तरह हैं मासूम खिलखिलाती हमें अपनी मासुमियत की याद दिलाती हैं जिसे हम खो बैठे हैं जाने अनजाने चंद रोटियों के खातिर
जीवन के महासमर में...
हर रात नींद की आगोश में जीवन के टूटते बिखरते सपनों के बीच
मैं खोजता हूं
अपने तकिये के नीचे कुछ पल बचपन के, कुछ मासूम तितलियां...

शेरघाटी ने कहा…

कभी देखा है तुमने
देश की तकदीर लिखने वालों ने
क्‍या क्‍या ना बनाया है हमारे लिए
आग उगलती, जान निगलती
हजारों मील दूर मार करने वाली मिसाइलें हैं
हम एटमी ताकत हैं अब
किसकी मजाल जो हमें डराए धमकाए

शेरघाटी ने कहा…

हां, यह बात दीगर है
कि भूख और प्‍यास के मामले में
हम थोड़ा पीछे चल रहे हैं
लेकिन परेशान ना हों
'हाई टी' और 'डिनर' के बाद
नीति-निर्माताओं की इसपर भी पड़ेगी निगाह

शिक्षामित्र ने कहा…

जीवन और देश-दुनिया के विविध रंगों को समेटती बहुत मर्मस्पर्शी कविताएं। फिर लिखिएगा। लौटूंगा।

शेरघाटी ने कहा…

शाहिद अख्तर की कविताएँ गहरे भाव बोध कराती हैं.भारतीय निम्न मध्य वर्ग की छटपटाहट , सामाजिक विडम्बनाओं और विसंगतियों के विरुद्ध तिक्त प्रतिकार रचनाकार और रचना को व्यापक फलक पर ला खड़ा करती हैं.

रश्मि प्रभा... ने कहा…

यादों की तितलियाँ
रंगबिरंगी
कुछ छोटी
कुछ बड़ी .......
रचनाएँ तीनों ही अच्छी हैं ,पर यादों की तितलियाँ मन के बगीचे में उड़ने लगी हैं

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

चारों कविताये उत्कृष्ट हैं।

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

सभी कवितायें बहुत पसंद आयीं...
वैसे भी बिहार का पानी है...कला तो कूट-कूट कर भरी होगी ही...
धनबाद, सिंदरी जैसे नाम देख कर मेरी खुशियाँ कई गुणा बढ़ ही जाती है......मेरे नैहर वाले जो हैं...
इसे प्रांतवाद का जामा न पहनाया जाए.....प्लीज :):)

हाँ नहीं तो..!!

shikha varshney ने कहा…

एक से बढ़कर एक रचनाये ...हाई टी ...बहुत पसंद आई.

Unknown ने कहा…

BAUT HI SPASHTA AUR IMAANDAAREE SE KAVI NE APNI BAAT VYAKT KI HAI.
BADHAI ! FOR A NICE POST !

एमाला ने कहा…

चारों कविता बेमिसाल है. अपने कंटेंट और लहजे के इतिबार से !!

कडुवासच ने कहा…

... प्रभावशाली रचनाएं !!!

अपर्णा ने कहा…

kavita "khamoshi ke khilaaf" vishesh roop se pasand aayi. dard hoga to mavad bhi hoga... dil ko chhu gayin ye panktiyaan .

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- अल्लामा जमील मज़हरी

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