बदलते समय में भूमिसंबंध , किसान और जनसुनवाई
अपर्णा की क़लम से
भारत में लंबे समय समय से परंपरागत पेशे और विकास का झगड़ा चल रहा है और इस बात को साहित्य में भी कुछ लेखकों ने उठाया है . प्रेमचंद की प्रसिद्ध कृति ‘रंगभूमि’ में गाँव में लगाये जाने वाले कारखाने के परिणाम स्वरुप ग्रामीण और कुटीर उद्योगों की होनेवाली तबाही और ग्रामीणों के जीवन में पैदा होने वाले भ्रष्टाचार , नशाखोरी , वेश्यावृत्ति और मूल्यहीनता के विरोध में उपन्यास का नायक सूरदास लड़ता है . सूरदास का तर्क लम्बे समय तक गांधीवाद के एजेंडे के रूप में आलोचना के केंद्र में रहा है. क्योंकि उन्नीस सौ नौ में ‘हिन्द स्वराज’ में गाँधी ने योरोपीय औद्योगिक ढांचे और कार्यप्रणाली की आलोचना की थी और ‘रंगभूमि’ उस विचार का एक सर्जनात्मक रूप माना जाता है .इस आलोचना के पीछे भारत के पिछड़े जनसमूहों को मुख्यधारा में शामिल करने का तर्क था . माना जाता रहा है कि एक पिछड़े पूंजीवादी देश और वर्ण-व्यवस्था मूलक समाज व्यवस्था को आधुनिक बनाने के लिए औद्योगिक विकास की तेज प्रक्रिया बहुत ज़रूरी है . नेहरू ने उद्योग को भारत का नया तीर्थ कहा और सार्वजनिक उपक्रमों की एक कतार देश में बनी . निजी उद्योगों के विकास के लिए जगह और धन के साथ कानूनी लचीलापन उपलब्ध कराया गया . इस प्रकार परंपरागत उत्पादन व्यवस्था की जगह बड़े उद्योगों का प्रसार तेजी से हुआ . बेशक इस प्रक्रिया में लघु और कुटीर उद्योगों ने तेजी से दम तोड़ना शुरू किया और बीसवीं शताब्दी बीतते बीतते कई कारोबार तो एकदम विलुप्त ही हो गए .
लेकिन आज जबकि स्थितियां कई करवट बदल चुकी हैं तो हमें उन चीजों पर बहुत गंभीरता से विचार करना चाहिए जो इस देश के वर्तमान को क्षत-विक्षत तो कर ही रहा है भविष्य को भी बहुत बड़े खतरे में डाल रहा है . इन चीजों में हम भारत की नयी आर्थिक और औद्योगिक नीति के तहत विकसित होने वाले खनन उद्योगों और उनके मालिकानों के रवैये को देख सकते हैं, जो आज देश को गृहयुद्ध के कगार पर ले आकर खड़ा कर चुका है . यह और बात है कि अपने ही देश की जनता के खिलाफ सेना और अर्द्ध-सैनिक बलों को उतारने के मंसूबे के बावजूद शासक वर्ग पूरी तरह डरा हुआ है और धीरे-धीरे लोगों को नियंत्रित कर रहा है . यह नियंत्रण अनेक तरह की लोकतांत्रिक प्रणालियों के बहाने तानाशाहीपूर्ण ढंग से लोगों की जमीन और श्रम को हडपने की साजिशों के रूप में लगातार बढा है . देश के विभिन्न हिस्सों में होनेवाली जनसुनवाइयाँ और उनके खिलाफ लोगों के असंतोष के रूप में इसे देखा और परखा जा सकता है .
जन सुनवाई में पुलिस ने किया जाना महाल
छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले की तहसील घरघोड़ा के गांव जमुनीपाली, जहाँ कोयले की विशाल खदान में काम शुरू होने वाला है , में हुई जनसुनवाई में उसी गाँव के लोग शामिल नहीं हो पाए. उन्हें वहां जाने से रोकने के लिए पुलिस का इतना अधिक बंदोबस्त किया गया था कि लोग जनसुनवाई के पिछले अनुभवों से भयभीत हो गए . 2008 में इस जिले में जनसुनवाई के दौरान पत्थरबाजी , लाठीचार्ज और गोलीबारी हुई थी . लोगों को फर्जी मुकदमों में फंसाया गया और खदान करने वाली कंपनी ने दर्जनों किसानों से जबरन उनकी जमीनें छीन ली . मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के मुलताई कसबे में भी बारह साल पहले पुलिस द्वारा की गई गोलीबारी में एक सोलह किसान मारे गए थे . इस प्रकार हम देखते हैं कि देश के विभिन्न हिस्सों में भूमि अधिग्रहण को लेकर अनेक रूपों में नीतिगत और अनीतिगत गतिविधियाँ चल रही हैं . किसानों के आक्रोश को दबाया जा रहा है और दमन का इतना वीभत्स रूप सामने आ रहा है कि अगर मीडिया लोगों को मनोरंजन के नशे में बेहोश न करे तो सचमुच लोगों के होश उड़ जाएँ . सिंगुर और लालगढ़ के घाव अभी सूखे नहीं हैं .
औने-पौने ली जा रही किसानों की जमीन
देश में पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक कोई एक ऐसा राज्य नहीं बचा जहाँ विकास के नाम पर लाखों किसान-आदिवासियों की ज़मीनों का औने-पौने दाम अथवा थोडा सा मुआवज़ा दे विस्थापित कर कॉपोरेट और विदेशी कंपनियों को लाभ न पहुंचाया गया हो. इसी वजह से विस्थापन विरोधी आन्दोलन स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक चल रहें है. देश ब्रिटिश साम्राज्य के चंगुल से 200 वर्ष बाद मुक्त हुआ लेकिन आज फिर विकसित अवस्था में पहुँचने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों के औपनिवेशीकरण के चपेट में है . निवेशीकरण की नीति पर परवान चढ़ता यह औपनिवेशीकरण ज्यादा खतरनाक और त्रासद है.200 वर्षों तक पूरा देश आर्थिक,सामाजिक और राजनीतिक रूप से गुलामी की जंजीरों को अपने वजूद पर झेलता रहा लेकिन उन दिनों मानसिक गुलामी से लोग बचे रहे . उन्हें पता था कि किस प्रकार उनके देश की सारी सम्पदा और दौलत ब्रितानी शासक लूट रहे हैं और इसकी खिलाफत करनेवाले का राजनीतिक दमन कर रहे हैं . इसीलिए राष्ट्रीय मुक्ति के बहुत लम्बे संघर्ष के बाद देश मुक्त हो सका लेकिन आज की स्थिति पहले के मुकाबले बिलकुल भिन्न है . आज की गुलामी पूरी तौर पर आर्थिक है.
विडम्बना यह है कि इसे ही आज़ादी बताने के लिए सैकड़ों चैनल , अखबार और पत्रिकाएं दिन-रात एक किये हुए हैं . लोगों के विवेक को पूरी तरह से काबू में कर लिया गया है क्योंकि अधिकांश मध्यवर्ग इस आर्थिक साम्राज्य का शेयर होल्डर है . लोग इसीलिए मानसिक गुलामी का शिकार हुए है क्योंकि इस नए परिदृश्य ने लोगों की वैचारिक क्षमता को कॉर्पोरेट सोच में तब्दील करने में आशातीत सफलता पाई है .हालांकि मुट्ठी भर लोग इस तंत्र की डोर संभालने में शामिल हैं लेकिन कॉर्पोरेट प्रचार-तंत्र इन मुट्ठी भर लोगों की स्थिति के बहाने बहुत ही मजबूती से अपने पक्ष को सही ठहराने में लगा हुआ है. यही तंत्र देश को किसी भी शर्त पर विकसित अवस्था में पहुंचाने की प्रतिज्ञा किये हुये है. बेशक विकसित होने की इस कोशिश में करोड़ों की आबादी अँधेरे में गर्त हो जाए .
विकास की परिभाषा क्या है ? इस प्रश्न का जवाब तलाशने से पहले एक प्रश्न और सामने आता है कि किस वर्ग के विकास की बात हो रही है ? यहाँ विकास एक खास वर्ग के लिए ही है. उस विकास के नाम पर चमचमाती सड़कें वह भी मेट्रो शहरों में और उन शहरों में जहाँ बड़े-बड़े उद्योग स्थापित किये जाने हैं. इन चमचमाती सड़कों का तात्पर्य कच्चे माल के स्रोतों तक पहुंचना और बेतहाशा उन्हें लूटने से है .विकास का मतलब मोबाइल के टावर स्थापित करना है ताकि आर्थिक और राजनीतिक राजधानियों में बैठे मालिक काम पर आने वाले अधिकारियों से संपर्क कर वहाँ के अपडेट्स लेते रहें . विकास का मायने अपने बच्चों के लिए शहरों और दूरदराज के इलाकों में पब्लिक स्कूलों के स्थापना है ,जहाँ उस गाँव के बच्चों को दाखिला ही नहीं मिल सकता है जिसकी जमीन पर उसकी तामीर हुई है . विकास का मतलब असीमित और गैरजरूरी भौतिक सुख-सुविधाओं से है.जबकि देश की आधी से अधिक जनता अपनी आधारभूत जरूरतों को ही पूरा करने में असमर्थ है . ऐसे में यह विकास किस खास वर्ग के लिए मायने रखता है इसे समझना कोई टेढ़ी खीर नहीं है .
इस जगह पर मुझे मारिओ वर्गास लोसा का उपन्यास ‘किस्सागो’ याद आता है जिसमें विकास और प्रकृति के सम्बन्ध में बहुत बुनियादी और मौजूं सवाल उठाये गए हैं . आधुनिक सभ्यता के बरक्स आदिवासी जीवन-दृष्टि और अस्मिता के सवालों को उठानेवाले इस उपन्यास ने विकास की प्रक्रिया में किये जाने वाले विनाश की तीखी आलोचना की है . पेरू के माचीग्वेंगा समुदाय के आदिवासियों की मान्यताओं , नैतिकता और दृष्टि को न केवल उनकी ज़िन्दगी के बुनियादी प्रश्नों के साथ बल्कि विकास के मायाजाल को मानवीय ज़रूरतों के समानांतर सामने रखते हुए यह उपन्यास भारत के आदिवासी जीवन और उसमें लगाई जा रही सेंध और किये जा रहे विनाश पर हमें सोचने की जगह देता है . धरती के भीतर छिपी अकूत प्राकृतिक संपदाओं की लूट के बहाने झारखंड , उडीसा , छत्तीसगढ़ ,आंध्र प्रदेश , महाराष्ट्र आदि राज्यों में जिस तरह आदिवासियों को पिछड़ेपन का प्रतीक बताकर खदेड़ा जा रहा है वह भारत के सबसे ज्वलंत प्रश्नों में से एक है . सिर्फ आदिवासी और पहाड़ी इलाकों ही में नहीं बल्कि मैदानी इलाकों में तमाम सारे उद्योगों और प्लांटों के नाम पर भूमि पर जिस तरह कब्ज़ा जमाया जा रहा है वह पूँजी की अनियंत्रित ताकत के सामने लाचार ग्रामीणों और आदिवासियों की एकांगी गाथा ही है . जिस तरह से किसानों और आदिवासियों को लालच देकर और उनकी मज़बूरी का फायदा उठाकर उनके जीवनाधार के रूप में बची हुई भूमि अधिग्रहित की जा रही है वह पूँजी की ऐसी साजिश है जिसके खिलाफ आमतौर पर आवाज नहीं उठ रही है . जो आवाजें उठ भी रही हैं उन्हें दबाने के लिए जुल्म और दमन किया जा रहा है . अभी तक जनसुनवाई के जैसे तौर-तरीके सामने आये हैं वे सिर्फ इस जुल्म और दमन के ही एक पहलू को उजागर करते हैं . बेशक इसका दूसरा पहलू भी कम शर्मनाक नहीं है क्योंकि वहां केवल बिचौलियों और दलालों का बोलबाला है .
कुछ इसी तरह का मामला है विदेशी पूँजी-निवेश का , जो अंततः देशी ताकत , कच्चा माल और श्रमशक्ति के उपयोग से अपरिमित मुनाफा खड़ा करने का उपक्रम है . जहाँ-जहाँ विदेशी पूँजी-निवेश से उद्योग शुरू हो रहे हैं वहां-वहां भूमि अधिग्रहण और उससे पैदा हुए असंतोष की कहानियां देखी जा सकती हैं .विदेशी पूँजी का निवेश इस शर्त पर शुरू हुआ था कि विस्थापित परिवारों में से एक को रोज़गार और उचित मुआवजा मिलेगा . यह सब देने के आश्वासन के बदले देश में विशाल औद्योगिक संस्थानों की स्थापना करने वाले विकास की अनिवार्य शर्त है विस्थापन . इसका सीधा तात्पर्य है कि कॉर्पोरेट और सत्ता में बैठे लोगों की नज़रें इनकी ज़मीनों पर है .प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता वाले इलाके में विकास का सबसे अधिक जोर होता है क्योंकि यहाँ ज़मीनें सस्ते दामों में उपलब्ध हो जाती हैं और यहाँ विकास वे अपनी शर्तों पर कर सकते हैं. कहा यही जाता है कि ये विकास इन्हीं किसानों और आदिवासियों के लिए ही होना है चाहे वे उस तथाकथित विकास की मुख्यधारा में शामिल होना चाह रहे हैं या नहीं यह पूछने ,जानने और समझने वाला कोई नहीं .ऐसा नहीं है कि वे विकास नहीं चाहते . चाहते हैं लेकिन अपनी शर्तों पर और अपने हिसाब क्योंकि अभाव की ज़िन्दगी से वे भी त्रस्त रहते हैं , लेकिन प्रकृति के निकट रह वे पुरसुकून और अपने को सहज महसूस करते हैं. लेकिन उद्योगपति औद्योगिकीकरण, शहर का विकास ,विशेष आर्थिक क्षेत्रों का निर्माण , बुनियादी ढांचे के निर्माण आदि के लिए ज़मीनें हडपते जा रहें हैं. लोग अपने पुश्तैनी घरों और स्थानों, परम्परागत आर्थिक कार्य-कलापों ,स्थानीय और लोक संस्कृति से ज़बरदस्ती ही भगाए जा रहें हैं . इसके नतीजे में नकारात्मक तरीके से धन का इतना बड़ा अम्बार खड़ा होना है कि पूंजीपती आर्थिक स्थिति जो टापू के रूप में थी अब विशाल पहाड़ में परिवर्तित हो एक बड़ी जगह घेर चुकी है जिसके नीचे गरीब और अधिक गरीबी में दबे चले जा रहें हैं.
जमीन का संघर्ष और संघर्ष की जमीन
ज़मीन की लड़ाई आज की नहीं है बल्कि हजारों वर्षों से चली आ रही है .पाषाण युग में दो आदिवासियों समूहों के बीच ज़मीन और पद के लिए युद्ध होते रहे हैं . उसके बाद ज़मींदारी प्रथा में गाँव के ज़मींदारों द्वारा किसानों की ज़मीनें हड़प ली जाती थीं और अब आज के इस युग में कॉर्पोरेट गिरोहों ने इस प्रक्रिया को अपने हिसाब से तेज कर दिया है . लेकिन पहले के मुकाबले आज ज़मीन के संघर्ष अधिक घिनौने , षड्यंत्रपूर्ण और खतरनाक हो गए हैं . आज कॉर्पोरेट और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ समूचे पर्यावरण और प्रकृति के सत्यानाश करने में लगी हुई हैं . उत्तराखंड का चिपको आन्दोलन पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और उससे होने वाले पर्यावरण के विनाश के विरुद्ध एक बहुत बड़ी लड़ाई थी . देश के विभिन्न हिस्सों में लगाये जाने वाले परमाणु रिएक्टरों के कारण पैदा होने वाले खतरों , बांधों और टावरों , हवाई अड्डों से स्थानीय प्रकृति पर पडनेवाले असर और होने वाले विनाश को लेकर जैतापुर , नर्मदा के किनारे के हजारों गाँवों और पनवेल के आसपास के ग्रामीणों के विरोध को यूँ ही नज़रन्दाज नहीं किया जा सकता .
भारत में भूमि पर अधिकार और बंदोबस्ती एक जटिल प्रक्रिया रही है और उसमें धीरे-धीरे बदलाव भी आये लेकिन आज जब श्रमशील ताकतें धरती को नए सिरे से उपजाऊ बनाने के लिए पसीना बहा रही हैं उन्हें फिर से तहस-नहस करने का परिणाम बहुत घातक होगा . जो जमींन किसानों ने अपने विराट धैर्य से बचाए रखी वह उनके हाथ में किसी दैवीय उपहार के रूप में नहीं हासिल थी बल्कि आज़ादी के बाद हमारे देश में कृषि कार्यों के विकास और किसानों की स्थिति को सुधारने के लिए कई आन्दोलन किये गए और इन आन्दोलनों में किसानों और खेतिहर मजदूरों ने अपने जन नेताओं के नेतृत्व में बढ-चढ कर हिस्सा लिया . 1951 में विनोबा भावे ने गरीब और भूमिहीन किसानों के लिए राष्ट्रव्यापी भूदान आन्दोलन चलाया जिसमे लाखों एकड़ भूमि दान में मिली और 1955 आते तक भूदान के बदले कई स्थानों पर यह ग्रामदान आन्दोलन में तब्दील हो गया . आज भी दान हो रहा है लेकिन यह चिंता बात है कि आज हमारे प्रतिनिधि जो तंत्र का प्रमुख हिस्सा हैं वे भी गाँव के गाँव नाममात्र के मुवाअजे पर दान करने में ज़रा भी संकोच नहीं कर रहे. जबकि देश में भूमि हदबंदी कानून, आदिवासी स्वशासन कानून जैसे कई गरीबोन्मुखी कानून वर्षों से लागू हैं, परन्तु आज तक उनका सही क्रियान्वयन नहीं किया जा सका। दूसरी तरफ गरीबों के अधिकारों का हनन करने वाले कानून जैसे भूमि अधिग्रहण अधिनियम, विशेष आर्थिक क्षेत्र अधिनियम, खान और खनिज अधिनियम आदि भी बनाये गये और बड़ी तीव्रता के साथ इन कानूनों का क्रियान्वयन भी किया जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में यह आवश्यक है कि न्याय और समानता के लिये कुछ मुद्दों पर तुरन्त कुछ कदम उठाये जायें।
हर जगह हो रहा है विरोध
अध्ययन से यह पता चलता है कि भूमि अधिग्रहण संबंधी कानूनों , प्रावधानों और तरीकों में सैद्धांतिक और व्यवहारिक र्रूप से ज़मीन आसमान का अंतर है . यानी कागज़ पर कुछ और तथा व्यवहार में कुछ और . हम जानते हैं कि पूरे देश में बहुराष्ट्रीय कम्पनियां हों या कॉर्पोरेट द्वारा स्थापित कोई प्लांट हो या खदानों से खनन कार्य हो सबसे पहले अनुमति मिलती है केंद्र और राज्य सरकार से और फिर शुरू होता है सर्वे का काम जिसमें गाँव-गाँव जाकर निजी भूमि,राजस्व भूमि,और शासकीय भूमि की नाप-जोख चालू होती है .जबकि किसानों की और आदिवासियों की भूमि पर काम शुरू करने या कहें अधिग्रहित करने की अनुमति मिलती है ग्रामसभा में हुए निर्णय से , जो सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से भी जयादा अहम् होता है अर्थात् इस भूमि पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी मान्य नहीं होता है. इसका सबसे सामयिक उदाहरण उड़ीसा के रायगड़ा ज़िले के नियमगिरि पहाड़ियों से बाक्साईट खनन के लिए 12 गावों में जनसुनवाई के लिए अलग-अलग दिन ग्रामसभा बुलवाई गई जिसमें से हर गाँव में खनन कार्य के लिए स्थापित वेदांता को एक सिरे से और एक सुर में खारिज कर दिया गया. यह जनसुनवाई उन गांवों के आदिवासियों की एकता ,दृढ निश्चय, सकारत्मक दृष्टि , अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की जड़ को बचाए रखने का जज़्बा तारीफ़-ए-काबिल है. लेकिन यह जज्बा हर कहीं नहीं है अथवा जहाँ कहीं है उसे दबाया भी जा रहा है .
इसके विपरीत पूरे देश में भूमि अधिग्रहण के लिए चल रहे आन्दोलान और हो रही जनसुनवाई से संबधित समाचार किसी भी चैनल पर देखने को नहीं मिलते , न ही इन्हें अखबारों में प्रकाशित किया जाता है . यदि गाहे-बगाहे कुछ खबर छपी भी तो इतनी छोटी होती है कि लोगों की नज़र वहां तक नहीं पहुँच पाती . तंत्र का चौथा खम्भा अब पूरी तरह बिक चुका है कॉर्पोरेट के हाथों. इस मीडिया में पूरी तरह बाजारवादी और उपभोक्तावादी संस्कृति का पहरा लगा हुआ है .
उपभोक्ता संस्कृति के इस चकाचौंध के साथ-साथ भूमि -अधिग्रहण के मामले पूरे देश में हर प्रदेश में देखे जा रहे हैं और इस कार्य में शासन का पूरा सहयोग है . और दूसरी बात यह कि भूमि अधिग्रहण केवल गाँव के किसानों और आदिवासियों की ज़मीनों का ही नहीं हो रहा है बल्कि शहरों में विकास के लिए (शहरों में विकास के मायने वातानुकूलित शॉपिंग काम्प्लेक्स और माल से हैं ) वहाँ रहनेवाली जनता को उनके घरों से बेघर कर या थोडा सा मुआवजा दे या ज़मीन के टुकड़े का आबंटन कर भूमि पर कब्ज़ा जमा अपने दायित्व की इतिश्री समझ लेना भर ही है . वे शर्तों पर दस्तख़त करते हुए आम नागरिकों के हित की बात दरकिनार करते हुए कॉर्पोरेट और विदेशी कंपनियों को पीले चांवल दे आमंत्रित करते हैं. पॉस्को इसका बेहतरीन उदाहरण है .
जैसा कि मालूम है कि केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी ,प्रतिपक्ष पार्टी और राज्य सरकार ने मिल-जुलकर पॉस्को की स्थापना पर सहमति प्रदान की है. आप और हम सोच सकते हैं कि प्रतिपक्ष पार्टी गैर ज़रूरी मुद्दों पर संसद पर आवाज उठा विरोध दर्ज करती है लेकिन आम जनता के हित से जुड़े सीधे मामलों में वह सत्ता के साथ खड़ी हो हाँ में हाँ मिला आने वाले दिनों के लिए अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत करने से नहीं चूकती है . उडीसा के तटीय ज़िले जगतसिंहपुर में स्थित तीन गांवों के करीब दस हज़ार लोगों को बेदख़ल कर पॉस्को (पोहाग स्टील कम्पनी) को स्थापित किया जा रहा है. पिछले 8 वर्षों से जारी व्यापक जन प्रतिरोध और आन्दोलन को नज़रअंदाज़ कर वर्ष 2014 के जनवरी माह में केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने प्लांट की स्थापना को अनापत्ति प्रमाण पत्र दे दिया है . इस कम्पनी के 4004 एकड़ भूमि में से 1700 एकड़ भूमि पहले ही आबंटित हो चुकी है .पॉस्को (पोहाग स्टील कंपनी) प्रतिवर्ष 1.2 मिलियन टन स्टील का उत्पादन करेगी जिस पर लगभग 1.3 बिलियन डॉलर की लागत आएगी और इस संयंत्र से नदियों,जंगलों और पेड़-पौधों को जो नुकसान होगा उसका कोई बैरोमीटर/थर्मामीटर नहीं है जिससे उसे आंका जा सके. जिन लोगों को यह नहीं पता है वे भी जान लें कि मोइलीजी ने यह कहा कि “जंगल हजारों वर्षों से जीवित अवस्था में है तो किसी संयंत्र की स्थापना के बाद भी वे वैसे ही बने रहेंगे” . है न गजब का सामान्य ज्ञान !
इस सरकारी सामान्य ज्ञान के विरुद्ध देश भर में आन्दोलन होते रहे हैं . उड़ीसा के रायगडा में वेदांता का विरोध,मध्यप्रदेश में पेंच-अदानी परियोजना को रद्द करने हेतु आन्दोलन , उत्तरप्रदेश में गाजीपुर में गंगा एक्सप्रेस वे परियोजना का के विरोध में आन्दोलन , दादरी में अनिल अम्बानी की प्रस्तावित कंपनी का विरोध ,उ.प्र. में इलाहाबाद ज़िले की करछना तहसील में जे.पी. कंपनी के पावर प्लांट के लिए भूमि अधिग्रहण का विरोध, राजस्थान में नवलगढ़ की तीन सीमेंट इकाइयां लगाने के 18 गांवों में जबरदस्ती भूमि अधिग्रहण करने का विरोध,छत्तीसगढ़ में जांजगीर चाम्पा ज़िले में 34 थर्मल पॉवर प्लांट लगाने की योजना का विरोध ,रायगढ़ ज़िले के आस-पास लगभग 55 स्पंज आयरन प्लांट , जिनमें जिंदल ग्रुप (सांसद नवीन जिंदल) का जेएसपीएल ,जेपीएल आदि हैं के लिए भूमि अधिग्रहण का विरोध इन आन्दोलनों की श्रृंखलाओं की कुछ कड़ियाँ भर हैं .
रायगढ़ का उदहारण
ज्ञातव्य है कि रायगढ़ में जिंदल को आबंटित कोल खदानों से खनन कार्य के लिए आदिवासियों और किसानों की हजारों एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किया गया . जबकि मुवाअज़ा कुछ लोगों को ही मिला . इसके साथ ही स्थाई काम का अभाव हमेशा की ही तरह बना रहा . लगभग 35 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि और 11 हजार हेक्टेयर वनभूमि गैरकानूनी ढंग से खदानों और उद्योगों के कब्जे में चली गई है , जिनमें कृषि मजदूरों और परम्परागत रूप से काम करने वाले ग्रामीणों तथा हस्तशिल्प का काम करने वाले, लुहार ,सुनार, बढई, कुम्हारों की भी ज़मीनें हैं .ये ज़मीनें उनसे जनसुनवाई का दिखावा कर ली गई हैं .इसके तहत यह पक्का वादा किया गया था कि उनकी ज़मीन के बदले बेरोजगार हुए स्थानीय लोगों को रोज़गार अवश्य दिया जाएगा . लेकिन देखा यही गया है कि जैसे ही जनसुनवाई मालिकानों के पक्ष में होती है कम कृषि भूमि वाले ग्रामीणों को कम योग्यता के कारण नकार दिया जाता है . जिनकी ज़मीनें अधिग्रहित नहीं हुई उन्हें रोज़गार सम्बंधित अपनी बात रखने कहीं कोई मौका नहीं मिलता और जिनकी ज्यादा ज़मीनें उद्योगों के पास चली गई हैं और उस परिवार में कोई पढ़ा-लिखा है तो अपना पल्ला झाड़ने के लिए उन्हें कामचोर ,अयोग्य और अविश्वसनीय मान नौकरी देने से इनकार कर दिया जाता है लेकिन इसके उलट यदि आप दिल्ली,पंजाब या हरियाणा से हैं तब आपको प्रबंधन में सबसे ऊपर की श्रेणी में रखा जाएगा . छतीसगढ़ छोड़कर यदि आप किसी अन्य राज्य के हैं तब आपको दूसरी श्रेणी पर काम मिलेगा. छतीसगढ़ के भीतर राजनीतिक रसूख रखने वाले को कम्पनी में तीसरी श्रेणी पर रखा जाता है. आप और हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि विकास और रोज़गार के नाम पर ये उद्योगपति किस तरह का झांसा देते हैं .
रायगढ़ ज़िले में वर्तमान में रोज़गार कार्यालय में लगभग 1.50 लाख बेरोजगार पंजीकृत हैं . शासन भी अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करते हुए प्रतिवर्ष रोज़गार मेले का आयोजन करता है लेकिन उनमें से किसी का चयन नहीं किया जाता क्योंकि ये लोग उनके द्वारा तय किये हुए मापदंड को पूरा नहीं करते हैं. यह सोचने की बात है कि जब उद्योग स्थापित करते समय रोज़गार देने के वादे किये जाते हैं तब न तो उनकी योगता को परखा जाता है और न जांचा जाता है क्योंकि यदि अधिग्रहण से पहले ही इन बातों पर विचार कर लिया जाए तो वास्तविक स्थिति दोनों पक्षों के सामने आ जायेगी . एक बात और,यदि उद्योग स्थापित हो भी गया तब विस्थापित लोगों में से लोगों को ट्रेनिंग दे उन्हें काम के योग्य बनाया जाए . लेकिन वास्तव में जिन लोगों को काम पर रखा जाता है उन्हें दरअसल मजदूर बनाया जाता है . जो किसान और आदिवासी हैं वे केवल अपने परम्परागत कार्यों को ही करने में सक्षम होते हैं लेकिन अपना सब कुछ दांव पर लगाने के बाद वे न तो घर के होते हैं न ही घाट के , क्योंकि नए रोजगार के लिए अकुशल होने के कारण अब हर जगह उन्हें सिर्फ मजदूरी का काम करना पड़ता है . कुछ किसान दूसरे राज्यों में पलायन कर लेते हैं. मध्यम किसान से टैक्टर और बोलेरो खरीद किराए पर उठा बैंक के ऋण को चुकता करने की व्यवस्था में जुट जाते हैं.जबकि छोटे किसान कम्पनी के ठेकेदारों के नीचे मजदूरी करने लगते हैं.जबकि भूमिहीन लोग कंपनियों के अधिकारियों के यहाँ घरेलू काम करने को मजबूर होते हैं . यह सोचने की बात है कि जिन लोगों ने ताउम्र अपना गुजारा कृषि कार्यों से किया है बिना किसी उचित प्रशिक्षण के उन्हें दूसरे काम की कुशलता कहाँ से मिलेगी ?
रायगढ़ छतीसगढ़ के पूर्व में स्थित जिला है और जिसकी जनसंख्या लगभग 18 लाख की है.आज़ादी से पहले यहाँ गोंड(आदिवासी) राजाओं का शासन रहा है , जिन्हें जीवनयापन के लिए कृषि योग्य भूमि जंगलों के भीतर दी गई थी , ताकि टैक्स के रूप में अनाज और वनोपज राज्य को मिलता रहे. पारंपरिक रूप से जंगलों और खेती पर निर्भर रहने वाले आदिवासियों और किसानों की आवश्यकता उनकी मूलभूत जरूरतों पर ही आकर खत्म हो जाती है . रायगढ़ के जंगलों में महुआ,चार,साल,साजा,तेंदू,खम्हार आदि वनोपजों के बड़े पेड़ हैं तो दूसरी तरफ चिरौंजी,लाख,तसर आदि कंदमूल और वनौषधियां हैं जिनके आधार पर उनका जीवनयापन आसानी से हो जाता (है) था . अब चूँकि औद्योगिक विकास के नाम पर वर्तमान में रायगढ़ जिले में 54 स्पंज आयरन प्लांट चालू स्थिति में हैं और लगभग 15 पॉवर प्लांट आम जनता के नाम पर उदयोगों के लिए बिजली का उत्पादन कर रहें हैं इसलिए वन और पर्यावरण पर इसका क्या असर पड़ रहा है इसे आसानी से समझा जा सकता है . दूसरी ओर रायगढ़ ज़िले में कोयला का अथाह भण्डार है . यहाँ ए.सी.सी ,जिंदल, मोनेट और निकी जायसवाल की ओपन कास्ट और अंडर ग्राउंड कोल माइंस हैं . इस बात से हम निश्चित तौर पर यह अनुमान लगा सकते हैं कि जहां इतने विशाल स्तर पर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो रहा है वहां पर्यावरण किस हाल में होगा ? पूरे ज़िले में दस बड़े संयंत्रों द्वारा निजी और शासकीय भूमि को मिलाकर लगभग 1630.670 हजार हेक्टेयेर भूमि का अधिग्रहण कर लोगों को विस्थापित किया गया है .
ये आंकड़े केवल कुछ संयंत्रों द्वारा अधिग्रहित भूमि के हैं . इसमें जो कृषि भूमि थी और जिस पर वर्ष भर में दो फसलें ली जाती थीं वह तो किसानों के हाथ से चली ही गई .इसके साथ-साथ जलस्रोतों , जिनमें ज़िंदा नाला का पानी , रामझरना ,कई तालाबों , नदियों में केलो ,कुरकुट ,महानदी और मांड नदी का पानी संयंत्रों के लिए सरकार ने उपलब्ध करवाया . इतना ही नहीं प्राकृतिक जलस्रोतों , बांधों और जंगलों में औद्योगिक कचरा और संयंत्रों से निकलने वाली फ्लाई एश,कोयले का चूरा, डीजल, मोबिल तेल बेहिचक डस्टबिन समझ डाला जाता रहा है ,जिससे जलाशयों और तालाबों में मिलने वाली मोंगरी,कोतरी, गिना, बांबी, गाजा,चिंगरी इन छ मछलियों का अस्तित्व ही लुप्त हो चुका है. भूमि का जल स्तर नीचे बहुत गहरे तक पहुँच गया है इस कारण पानी की किल्लत का सामना करना पड रहा है. केवल पीने के पानी की कमी ही नहीं , निस्तारण के काम के लिए भी पानी की कमी का सामना करना पड़ रहा है . औद्योगिक प्रदूषण के कारण यहाँ के लोग अनेक बीमारियों से ग्रस्त हो चुके हैं. कुछ ब्रेन टूयमर से तो ढेरों लोग चर्म रोगों से . कोई आँखों की जलन से तो किसी को अस्थमा और श्वांस की बीमारियों से परेशानी है . पानी की खराबी से हड्डियों का टेढ़ा और कमज़ोर पड़ना आदि असर दिखाई दे रहा है. इतना ही नहीं चारागाह,वनोपज संग्रहण,पशुपालन जैसे आजीविका के साधन पूरी तरह से खत्म हो चुके हैं. सबसे ज्यादा संकट आदिवासियों की खाद्य सुरक्षा पर पड़ा है .
इन सब स्थितियों का गरीबों के जीवन पर बहुत बुरा असर पड़ा है . वर्तमान स्थिति में जिस तरीके से रायगढ़ ज़िले में एच.आई.वी. एड्स के मरीजों की संख्या में वृद्धि हुई है उससे कुछ मजबूर महिलायों के द्वारा देह व्यापार जैसे गर्हित रोज़गार के साधनों को अपनाने से भी इनकार नहीं किया जा सकता है. कंपनियों के मालिकों और स्थापना की अनुमति देने वाले आकाओं को कोई चिंता नहीं कि इस तरह से किस प्रकार का समाज निर्मित होगा ? उन्हें अपने प्रदेश को देश भर में तकनीकों से लैस और आधुनिक बनाना है. राजधानी रायपुर में नया रायपुर बसाने की कवायद में वहाँ से हज़ारो लोगों को विस्थापित किया गया. विस्थापन की शर्त पर तरक्की का यह रूप देश में हर जगह दिखाई देना लगा है .
अरहर की टाटी गुजराती ताला
सरकार और उद्योगपति आदिवासियों, किसानों को उनकी भूमि से विस्थापित कर मुआवजा बाँट रही है .जबकि आदिवासियों की भूमि के अधिग्रहण के बारे में धारा 170 “स” एवं अनुसूची 05 में पेसा अधिनियम जैसा विशेष अधिनियम बनाया गया है लेकिन इसका अमल कहाँ और कब होता है ? जबकि पेसा कानून अनुसूची पांच के तहत आने वाले आदिवासियों की सुरक्षा और स्थितरता के लिए ही बनाया गया है . यहाँ तक कि उनके क्षेत्र में उद्योग स्थापित करने की सहमति के अधिकारों का संविधान ने पूरी तरह से विकेन्द्रीयकरण कर दिया है अर्थात् सत्ता की सबसे छोटी इकाई ग्रामसभा इस बात का निर्णय बिना किसी के दबाव में आकर कर सकती है . उडीसा में स्थापित होने वेदांता कम्पनी के विरुद्ध बारह गाँव के आदिवासियों ने जनसुनवाई में विपक्ष में मत दे कर पूरी दुनिया में एक मिसाल कायम की है .लोकतंत्र की इस सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई में जंगल में रहने वाले इन अशिक्षित आदिवासियों ने जीत हासिल की .लेकिन ऐसी दृढ़ता और दबाव से मुक्त होकर कम ही जगह निर्णय आदिवासियों के पक्ष में हो पाते हैं ,उनमे सबसे बड़ा कारण कुछ लोगों का लालच की गिरफ्त में आ जाना या कुछ लोगों का अपने फायदे के लिए उद्योगपतियों और प्रशासन के हाथों की कठपुतली या साफ़ शब्दों में कहे तो दलाल की भूमिका में आ जाना है . रायगढ़ में भी स्थापित अनेक वृहद् उद्योगों के लिए भूमि अधिग्रहण के लिए प्रशासन के तमाम आला अधिकारियों और कर्मचारियों द्वारा मिलकर धारा 4,6 और धारा 9 की एवं पेसा या पंचायत(एक्सटेंशन टू शेडूयल एरिया) अधिनियम 1996 का ,वनाधिकार क़ानून और खनन कानून का खुल कर उल्लघंन किया गया है .जबकि बिना प्रशासन के सहयोग और मिलीभगत के पेसा क्षेत्र में एक इंच भी ज़मीन का डायवर्सन नहीं हो सकता . जबकि वास्तविकता यह है कि ऐसी स्थिति में हजारों एकड़ भूमि का डायवर्सन हुआ है .
जनसुनवाई पहले बंद कमरों में की जाती थी जिसमें कोई पारदर्शिता नहीं होती थी .लेकिन सामाजिक कार्यकर्ताओं और किसानों के दबाव और मांग के लिए जन आन्दोलन किये गए जिसके बाद जनसुनवाई को सार्वजनिक किया गया. नहीं तो जिसके पक्ष को लेकर चर्चा होनी है उसे ही इसमें शामिल होने का अधिकार नहीं था .भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में एस.डी.एम. के कार्यालय से धारा 4 लगाकर सूचित किया जाता है .3 महीने बाद धारा 6 लगाकर भूमि अधिग्रहण से जुडी आपत्तियों को आमंत्रित किया जता है, जिसमें ग्राम सभा के प्रस्ताव को पूरे कोरम के साथ होना अनिवार्य है . इसके बाद यदि धारा 9 के तहत कोई आपत्ति नहीं है तब मुआवजा, पुनर्वास, रोज़गार, मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने की शर्तों पर भूमि अधिग्रहण का काम पूरा किया जाता है. जबकि पेसा अधिनियम के अंतर्गत भूमि अधिग्रहण करने की प्राथमिकता और निर्णय के सभी अधिकार ग्रामसभा को मिले हुए हैं .लेकिन जानकारी के अभाव में पेसा अधिनियम का पूरा लाभ प्रभावितों को नहीं मिल पा रहा है. इस कमी के बाद भी नियमगिरि (उडीसा) , केरल में कोकाकोला आदि में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में कोयला खदानों की जांच में अब तक 11 खदानें और हिमांचल प्रदेश में 4 हाइड्रो पॉवर रद्द किये गए हैं.
नए उद्योगपतियों द्वारा विकास के बड़े-बड़े दावे ही नहीं किये जाते बल्कि उन पर अमल भी किया जाता हैं – स्कूल ,अस्पताल, क्लब, पक्की सड़क,बिजली, पानी, मोबाइल के टावर आदि लगाने और बनाने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता दूर से ही दिखती है लेकिन स्थानीय रूप से देखने पर हाथी के दांतों की असलियत सामने आ जाती है . वास्तव में ये सारी सहूलियतें गाँववासियों के लिए नहीं होतीं बल्कि यहाँ संयंत्रों में काम करने आये बड़े अधिकारियों ,प्रबंधक वर्ग और कर्मचारियों की सुविधा के लिए होते हैं. जिसमें सी.एस.आर. के नाम पर समाज के कल्याण के बहाने वे अपना नफ़ा पहले देखते हैं . वहां खोले गए स्कूलों में न तो आदिवासी बच्चों और न ही ग्रामीण बच्चों का एडमिशन हो पाता है और न ही वहां खुले अस्पतालों में इन गरीब विस्थापितों के अपने लोगों का मुफ्त इलाज किया जाता है क्योंकि दोनों ही जगह का फीस उनकी पहुँच से बाहर होती है . केवल विकास के नाम पर सड़क और मोबाइल के टावर का खुलकर उपयोग करना सीख जाते है. सड़क निर्माण का भी अपना एक समीकरण और सूत्र है.वह ऐसे कि सडकों का विकास किया गया है तो ऑटो मोबाइल वाले उद्योगपतियों की चांदी हो रही है , कारण उनकी दोपहिया और चार पहिया गाड़ियों की बिक्री में वृद्धि हुई है. कभी सरकार ने रेल लाइन बिछाने का बेड़ा इतने जोर-शोर से नहीं उठाया क्योंकि रेल लाइन बिछाने के बाद वह मुनाफ़ा उद्योगपतियों से नही मिल पाता जो मोटरगाड़ियों से मिलता है . इसीलिए पूरे देश में जितनी तरक्की और बिक्री ऑटोमोबाइल कम्पनियों की हुई है उसके मुकाबले कोई दूसरा नहीं.
वास्तविकता को जानना बहुत ज़रूरी है
इन्ही सब खामियों और पूरे देश भर में चल रहे भूमि अधिग्रहण विरोधी आन्दोलन के चलते 120 वर्ष पुराना भूमि अधिग्रहण क़ानून 1894 पूरी तरह से निरस्त कर एक जनवरी 2014 से भूमि अधिग्रहण , पुनर्वास एवं पुनर्व्यवास्थापन में पारदर्शिता अधिनियम 2013 लागू गया है. गौरतलब है कि पिछले साल 5 सितम्बर 2013 को संसद के दोनों सदनों द्वारा मानसून सत्र में यह विधयेक पारित किया गया एवं 27 सितम्बर 2013 को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल जाने के बाद यह क़ानून बना . विभिन्न स्टॉक होल्डरों के साथ किये गए राष्ट्रव्यापी परामर्श के बाद नियमों का प्रारूप अनुमोदन के लिए विधि मंत्रालय द्वारा अंतिम रूप दिए जाने के बाद 1 जनवरी 2014 को ये कानून लागू लागू कर दिया गया .
तुलनात्मक रूप से 120 वर्ष पहले लागू 1894 का भूमि अधिग्रहण क़ानून में ‘अनुमति’ नहीं ‘मशविरा’ शब्द का प्रयोग किया गया था जबकि इस नए कानून में अनुमति का प्रयोग किया गया है . इस सन्दर्भ में ‘बिना ग्रामसभा के अनुमति’ का पद प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ यह हुआ कि बिना ग्रामसभा के अनुमति के भूमि अधिग्रहित नहीं की जा सकेगी .भूमि अधिग्रहण के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में बाज़ार मूल्य का चार गुना और शहरी क्षेत्र में बाज़ार मूल्य का दो गुना मुआवजा देना होगा . इसके अतिरिक्त एकमुश्त नकद भुगतानों के अलावा भूमि ,आवास की व्यवस्था, रोज़गार का विकल्प आदि प्रावधान भी इसमें शामिल हैं .
पुराने 1894 के भूमि अधिग्रहण के तहत अगर भूमि अधिग्रहण प्राधिकारी द्वारा भूमि अधिग्रहण का मन बना लिया गया तो अधिग्रहण की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी जाती थी. लेकिन नए क़ानून में ऐसे प्रावधान को हटा दिया गया है .नए क़ानून के तहत यदि भूमि अधिग्रहण के पांच साल तक अधिगृहित भूमि का उपयोग नहीं किया गया तो इसे किसानों को लौटा दिए जाने या ‘लैंड बैंक’ को दिए जाने का प्रावधान किया गया है .
लैंड बैंक राज्य सरकार के अधीन कार्यरत होगा . नए क़ानून के तहत किसी भी व्यक्ति को विस्थापित करने से पहले उसके लिए पुनर्वास की वैकल्पिक व्यवस्था तथा मुआवज़े का सही भुगतान के बाद ही अधिग्रहण करने की अनुमति दी गयी है .साथ ही आदिवासियों की भूमि हस्तांतरण यदि वर्तमान क़ानून के नियमों की अनदेखी के तहत हुआ तो उसे रद्द माना जाएगा .
नए भूमि अधिग्रहण में आदिवासियों के हितों की सुरक्षा की दृष्टि से अनुसूचित क्षेत्रों में ग्रामसभाओं की सहमति के बिना भूमि अधिग्रहण न करने के साथ ही पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों के विस्तार) अधिनियम 1996 तथा वन अधिनियम 2006 के प्रावधानों का भी पालन करने के प्रावधानों को रखा गया है.
नए क़ानून के लागू होने से जो लाभ होगा उसे रेखांकित करते हुए तत्कालीन केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जैराम रमेश ने कहा था कि नए भूमि अधिग्रहण क़ानून के लागू होने से नक्सली समस्या में कमी आएगी. झारखंड उडीसा,छतीसगढ़ जैसे नक्सल प्रभावित राज्यों में ग्रामसभा की अनुमति जरुरी होगी.
उल्लेखनीय है कि यदि अधिग्रहण की प्रक्रिया पुराने कानून के तहत शुरू हुई हो ,मगर अब तक मुआवज़े की घोषणा नहीं हुई और न ही ज़मीन पर पांच साल गुजर जाने के बाद कब्ज़ा ही लिया गया हो,तब भी नया भूमि अधिग्रहण क़ानून लागू हो जाएगा . यदि पुराने क़ानून के तहत प्रक्रिया शुरू हुई हो लेकिन बहुमत से प्रभावित भूस्वामियों ने मुआवज़े का बहिष्कार कर दिया हो ऐसी परिस्थिति में भूस्वामियों को नए क़ानून के तहत मुआवजा व अन्य लाभ दिया जाएगा .
गौरतलब है कि पुराने भूमि अधिग्रहण क़ानून की जगह लाये गए नए क़ानून में फिलवक्त 13 ऐसे कानूनों को , जिनके तहत भूमि अधिग्रहण हो सकता है, को शामिल नहीं किया गया है लेकिन सालभर के अंदर ही इन अलग-अलग कानूनों को नए भूमि अधिग्रहण क़ानून में शामिल कर लिया जाएगा. इसके लिए तीन मंत्रालयों कोयला मंत्रालय,खान मंत्रालय और परिवहन एवं एन एच आई मंत्रालय को पत्र लिखा गया है.
केंद्र के इस भूमि अधिग्रहण क़ानून लागू होने के बाद प्रत्येक राज्य को अपना भूमि अधिग्रहण क़ानून बनाने का अधिकार है .भूमि अधिग्रहण के समवर्ती सूची में होने के कारण राज्य व केंद्र के भूमि अधिग्रहण कानून में अंतेर्विरोध होने पर केन्द्रीय कानून ही सर्वोपरि होगा.
उल्लेखनीय है कि भूमि अधिग्रहण संबंधी इस तरह की गतिविधियों और कानूनों में त्वरा हमारे देश की उस स्थिति की ओर इशारा करती है जो यहाँ के प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और मानवीय संसाधनों के अकूत शोषण से पूँजी की विशाल मीनार खड़े करने का सन्दर्भ बनती हैं . हम देखते हैं कि खेती और स्वरोजगार तथा लघु और कुटीर उद्योगों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है लेकिन बड़े उद्योगों और खनन को अतिशय महत्व मिला है . झारखण्ड और बंगाल की खदानों की लूट का किस्सा अभी भी पुराना नहीं हुआ है और पिछले साल कोल गेट घोटाला इस देश का सबसे बड़ा घोटाला बनकर सामने आया . ये सारी स्थितियां हमें इस देश के वर्त्तमान और भविष्य को लेकर अगर गहरी चिंता में नहीं डालतीं तो हमारे सरोकारों में निस्संदेह कोई खोट है . भूमि अधिग्रहण ने कई तरह के वर्ग पैदा कर दिए हैं और इस तरह पूँजी की दुनिया ने शोषकों को और भी पाँव पसारने का मौका दे दिया है . हमें इस बात पर बहुत गंभीरता से विचार करना होगा कि गाँव , किसान और आदिवासी आज और आने वाले दिनों में किन चुनौतियों से दो चार हो रहे हैं !!
(रचनाकार-परिचय:
जन्म : 19 मार्च 1970 को रायगढ़, छत्तीसगढ़ में.
शिक्षा : बीकॉम। एम-फ़िल
सृजन : कविताएं और लेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
अन्य : इप्टा में क़रीब डेढ़ दशक से सक्रिय। रंगकर्मी। रेडियो का भी अनुभव
संप्रति : कॉलेज में तदर्थ व्याख्याता
संपर्क : aparnaa70@gmail.com
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