बहुत पहले कैफ़ी आज़मी की चिंता रही, यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलताइससे बाद निदा फ़ाज़ली दो-चार हुए, ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलताकई तरह के संघर्षों के इस समय कई आवाज़ें गुम हो रही हैं. ऐसे ही स्वरों का एक मंच बनाने की अदना सी कोशिश है हमज़बान। वहीं नई सृजनात्मकता का अभिनंदन करना फ़ितरत.

शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2014

बिक रही है देशभक्ति

 छह छोटे क़िस्से व्यंग्य और मर्म के   विभांशु दिव्याल की क़लम से 1. सेठ खोखामल अपनी धर्म की दुकान पर मस्जिद मंथन से उत्पन्न हुए हिंदुत्व के अमृत को बेचकर बच्चे-बच्चे को राम बनाने लगे, माताएं खिलौनों...
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सोमवार, 27 अक्टूबर 2014

हौसला फिर से कश्मीर को बना रहा जन्नत

 फोटो रमीज़ श्रीनगर से सैयद शहरोज़ क़मर लाल चौक धूप में भले चटक रहा हो, लेकिन फुटपाथ पर दुकानों से सामान निकालकर बेचने वालों और खरीदारों के चेहरे से रौनक गायब है. जबकि नाम के अनुरूप ही श्रीनगर के इस दिल की लालिमा निशात बाग़ की तरह...
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गुरुवार, 9 अक्टूबर 2014

16 मई के बाद

दो कविता अगस्त की  फोटो: स्व. विजय गुप्ता शहरोज़ की क़लम से आफ़त कभी आती थी हमने इतना विकास कर लिया कि आफ़त जब चाहा, जहाँ चाहा उंडेल दी जाती है बवंडर बवा भी कर ली जाती है निमंत्रित। आपके और  आपके परिवार की रातों रात बनाई...
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(यहाँ पोस्टेड किसी भी सामग्री या विचार से मॉडरेटर का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। लेखक का अपना नज़रिया हो सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान तो करना ही चाहिए।)